विश्वास-प्रस्तुतिः
दैवी ह्य् एषा गुणमयी
मम माया दुर्-अत्यया ।
माम् एव ये प्रपद्यन्ते
मायाम् एतां तरन्ति ते ॥ +++(5)+++
इति तस्यात्मनः कर्म-कृत–विचित्र-गुणमय–प्रकृति-संसर्ग-रूपात् संसारान्
मोक्षो भगवत्-प्रपत्तिम् अन्तरेण
नोपपद्यत इत्य् उक्तं भवति
नान्यः पन्था अयनाय विद्यत
इत्य्-आदि-श्रुतिभिश् च ।
नीलमेघः - भगवन्-माया
[[१६८]]
श्रीभगवच्छरणागति के विना जीव को मोक्ष नहीं मिल सकता है,
यह अर्थ निम्नलिखित गीतावचन से प्रमाणित होता है ।
वह वचन यह है कि-
दैवी ह्यपा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
अर्थात् श्रीभगवान् देव है
क्योंकि वे लीला में प्रवृत्त हैं ।
श्रीभगवान् ने इस माया को फैलाया है इसलिये यह माया दैवी कहलाती है । श्रीभगवान् कहते हैं कि यह दैवी माया गुणमयी है,
सत्त्व, रज और तमोगुण से पूर्ण है,
यह प्रकृति है,
यह विचित्र कार्य करने वाली है,
इसलिये माया कहलाती है ।
इस माया का अतिक्रमण करना
और इसके पंजे से छूटना
बहुत कठिन है ।
सभी बद्ध जीवों को
इसमें फँसे रहना पड़ता है ।
यह माया श्रीभगवान् के स्वरूप को
छिपा देती है
तथा अपने विषय में भोग्यता बुद्धि को उत्पन्न करती है
इसलिये सभी जीव
श्रीभगवान को भूलकर
इस प्रकृतिरूपी माया को
परमभोग्य मानकर
इसमें फँसे रहते हैं
इससे छूटने की इच्छा
किसी को भी नहीं होती।
नीलमेघः - प्रपत्तिः
इस माया से छूटने
का क्या उपाय है ?
श्रीभगवान् उत्तरार्ध में कहते हैं कि
मेरे शरण में जो आते हैं
वे इस माया को पार करते हैं ।
जिन श्रीभगवान् की आज्ञा के कारण
यह भयंकर मायाबन्धन
कष्ट दे रहा है
उनके द्वारा ही यह माया
हटाई जा सकती है,
दूसरे किसी के द्वारा नहीं ।
श्रीभगवान् सत्यसंकल्प हैं,
उनका बन्धहेतु संकल्प ही सत्य नहीं होता
किन्तु मोक्षहेतु संकल्प भी सत्य होता है ।+++(4)+++
उनके शरण में जाने पर
वे मुक्त करने के लिये
संकल्प करेंगे,
वह भी अवश्य फलित होगा ।
अतः उनके शरण में जाने से
कल्याण ही कल्याण है ।
नीलमेघः - दयालुता
यह शंका किसी को भी नहीं करनी चाहिये कि
शक्त होने पर भी यदि श्रीभगवान् निर्दय होंगे
तो उनके शरण में जाने से क्या लाभ होगा ?+++(4)+++
श्रीभगवान् निर्दय नहीं हैं
वे परमदयालु है ।
नीलमेघः - सर्वशरण्यता
यह शंका भी न करनी चाहिये कि
श्रीभगवान् दयालु होने पर भी
लौकिक दयालु पुरुषों की तरह
यदि इस व्याख्या को
कि शरण में आये हुये गुणसम्पन्न जीवों को ही अपनाया जाय,
दुष्ट जीवों को न अपनाया जाय
पसन्द करते होंगे
तो हम सरीखे अपराधी दुष्ट जीवों को
कल्याण कैसा होगा ?
यह शंका भी बेकार है
क्योंकि श्रीभगवान् गुणदोषरूपी विशेषों पर ध्यान न देकर
सभी शरणागतों को अपनाने वाले हैं,
उन्होंने काक, वानर, विभीषण और द्रौपदी इत्यादि
सभी शरणागतों को अपनाया है ।
उन्होंने श्रीसुग्रीव महाराज से
श्रीरामावतार में
यहाँ तक कहा कि
“विभीषणो वा सुग्रीव
यदि वा रावणः स्वयम्” +++(5)+++
अर्थात्
हे श्रीसुग्रीव जी ! शरणागत व्यक्ति चाहे विभीषण हो,
अथवा स्वयं रावण ही हो,
उसको अवश्य मेरे पास लाओ।
रावण तक को अपनाने के लिये
जब श्रीभगवान् उत्कण्ठित हो रहे हैं,
तब यह शंकाकि हमको अपनायेंगे या नहीं कैसे उठ सकती है
वे अवश्य अपनाने वाले हैं,
उनके शरण में जाना चाहिये ।
इस वचन से सिद्ध होता [[१६६]] है
श्रीभगवान् के शरण में जाने पर ही
जीवों को मोक्ष प्राप्त होगा, अन्यथा नहीं ।
नीलमेघः - नान्यः पन्था
उपनिषद् कहती है कि
“नान्यः पन्था अयनाय विद्यते"
अर्थात्
ब्रह्मप्राप्ति के लिये
ब्रह्मज्ञान के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है ।
यहाँ ब्रह्मज्ञान शब्द से
उपासन और शरणागति दोनों विवक्षित हैं ।
उपासकों को भी
अंगरूप से श्रीभगवच्छरणागति आवश्यक है ।
इस वचन से भी यह सिद्ध होता है कि
श्रीभगवच्छरणागति के विना
मोक्ष नहीं प्राप्त होता ।
मूलम्
दैवी ह्य् एषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । माम् एव ये प्रपद्यन्ते मायाम् एतां तरन्ति ते ॥ इति तस्यात्मनः कर्मकृतविचित्रगुणमयप्रकृतिसंसर्गरूपात् संसारान् मोक्षो भगवत्प्रपत्तिम् अन्तरेण नोपपद्यत इत्युक्तं भवति
नान्यः पन्था अयनाय विद्यत इत्यादिश्रुतिभिश् च ।