०२ जीवनां स्वरूपं साम्यं च

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तम्

निर्वाणमय एवायम्
आत्मा ज्ञानमयो ऽमलः ।
दुःखाज्ञान-मला धर्मा
प्रकृतेस् ते न चात्मनः ।

इति -

प्रकृति-संसर्ग-कृत-कर्म-मूलत्वान्
नात्म–स्व-रूप-प्रयुक्ता धर्मा इत्यर्थः ।

नीलमेघः

[[१६५]]

आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने
उपर्युक्त निर्णय कराने वाले
निम्नलिखित शाखदचनों का उद्धरण दिया है ।
वे वचन ये हैं कि-

निर्वारणमय एवायमात्मा ज्ञानमयोऽमलः ।
दुःखाजानमला धर्माः प्रकृतेस्ते न चात्मनः ॥

अर्थात् आत्मा आनन्दमय ज्ञानमय एवं निर्मल हैं,
दुःख अज्ञान और मल प्रकृति के धर्म हैं,
आत्मा के नहीं ।
ये दुःख इत्यादि धर्म
आत्मा के स्वाभाविक धर्म नहीं ।
यदि ये आत्मा के स्वाभाविक धर्म होते
तो आत्मा इनसे छुटकारा नहीं पा सकता ।

मूलम्

यथोक्तम्

निर्वाणमय एवायम् आत्मा ज्ञानमयो ऽमलः । दुःखाज्ञानमला धर्मा प्रकृतेस् ते न चात्मनः ।

इति -
प्रकृतिसंसर्गकृतकर्ममूलत्वान् नात्मस्वरूपप्रयुक्ता धर्मा इत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(कर्म-बन्ध-)+++प्राप्ताप्राप्त+++(-आत्म)+++-विवेकेन
प्रकृतेर् एव धर्मा
इत्य् उक्तम् ।

नीलमेघः

ये प्रकृतिसम्बन्ध के कारण उत्पन्न हुये
कर्मों से उत्पन्न होते हैं
अतएव इनकी उत्पत्ति में
प्रकृतिसम्बन्ध ही प्रधान कारण ठहरता है ।
प्रकृतिसम्बन्धरूप उपाधि के कारण
आत्मा में ये धर्म आ गये हैं,
प्रकृतिसम्बन्ध नष्ट होते ही
ये धर्म नष्ट हो जायेंगे ।

जिस प्रकार अग्निसम्बन्ध से
जल में उष्णता आती है,
उष्णता जल का स्वाभाविक धर्म नहीं है
उसी प्रकार प्रकृतिसम्बन्ध के कारण
आत्मा में दुःख इत्यादि होते रहते हैं,
ये आत्मा के स्वाभाविक धर्म नहीं ।

जिस प्रकार अग्निसम्बन्ध से
जल में उष्णता आते ही
जल का स्वाभाविक धर्म शीतता दब जाती है,
उष्णता दूर होते
अपने आप शतता प्रकट होती है,
उसी प्रकार प्रकृतिसम्बन्ध से दुःखादि आते ही
आत्मा के आनन्द इत्यादि स्वाभाविक धर्म दब जाते हैं,
दुःखादि दूर होते ही आत्मा के आनन्द इत्यादि स्वाभाविक धर्म
आविर्भूत होते हैं ।+++(5)+++

इस विवेचन से यह सिद्ध होता है कि
दुःख इत्यादि को प्रकृतिसम्बन्धप्रयुक्त होने के कारण
प्राकृत धर्म मानना चाहिये,
ये आत्मा के स्वाभाविक धर्म नहीं ।

आत्मा के स्वाभाविक धर्म,
ज्ञान आनन्द एवं निर्मलता हैं ।
इस प्रकार इस श्लोक से आत्मा को ज्ञानानन्दस्वरूप कहा गया है ।

मूलम्

प्राप्ताप्राप्तविवेकेन प्रकृतेर् एव धर्मा इत्युक्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्याविनयसंपन्ने
ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च
पाण्डिताः समदर्शिनः ।

इति -

देव-तिर्यङ्-मनुष्य-स्थावर-रूप-
प्रकृति-संसृष्टस्यात्मनः
स्व-रूप–विवेचनी बुद्धिर् येषां
ते पण्डिताः ।

नीलमेघः - श्लोकानुवादः

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥

[[१६६]]

अर्थात्

प्रकृति, देव तिर्यक मनुष्य और स्थावर
ऐसे २ शरीरों के रूप में परिणत होती है,
ये शरीर प्रकृतिपरिणामरूप हैं ।

इन शरीरों से आत्मा उसी प्रकार सम्बद्ध रहता है
जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के काष्टों से
अग्नि सम्बद्ध रहता है ।+++(5)+++

नीलमेघः - निदर्शनम्

संसर्ग के कारण शरीरगत देवत्व और मनुष्यत्व आदि
आत्मा में उसी प्रकार भासते हैं

जिस प्रकार जपापुष्पगत लालिमा
स्फटिकमणि में झलकती है,

जिस प्रकार काष्ठगत सीधापन और टेढ़ापन
अग्नि में भासता है ।+++(5)+++

वास्तव में
ये देवत्व आदि धर्म आत्मा में नहीं रहते,
आत्मा का उन शरीरों से
उसी प्रकार सम्बन्धमात्र है
जिस प्रकार वक्रत्व और ऋजुत्व
अग्नि का धर्म नहीं है,
अग्नि का उन काष्ठों से सम्बन्धमात्र है ।+++(5)+++

नीलमेघः

आत्मा में शरीरसम्बन्ध के कारण होने वाले सुख और दुःख इत्यादि
औपाधिक धर्म हैं,
स्वाभाविक धर्म नहीं ।+++(5)+++
आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप
ज्ञानानन्दमय है ।
सब तरह के शरीरों में अवस्थित जीवात्माओं का स्वरूप
ऐसा ही है ।
इस प्रकार आत्मस्वरूप की विवेचना करने में
जिनकी बुद्धि क्षमता रखती है
वे ही पण्डित कहलाने योग्य हैं ।

ये पण्डित विभिन्न प्रकार के शरीरों को धारण करने वाले जीवात्माओं पर
जब दृष्टिपात करते हैं
तब वे विवेकपूर्वक यह समझते हैं कि

ये भेद शरीरगत हैं,
आत्मगत नहीं,
सब शरीरों में विद्यमान जीवात्मा
ज्ञानानन्दस्वरूप हैं,
उनमें पूर्ण समता है,
उनमें व्यक्तिभेद भी है
अतएव स्वरूपैक्य नहीं कहा जा सकता ।

पूर्ण साम्य मानने में
कोई आपत्ति नहीं है।
देखने में कोई ब्राह्मण विद्याविनयसम्पन्न दिखाई देता है,
कोई जातिमात्र से ब्राह्मण है ।
गुणों की दृष्टि से देखने पर
इनमें वैषम्य दिखाई देता है ।
कोई गौ है, कोई हाथी है,
इनमें आकार वैषम्य है ।
कोई कुत्ता है,
कोई कुत्ते को पकाकर खाने वाला श्वपच है,
इनकी वृत्ति अर्थात् आजीविका में वैषम्य है ।
इस प्रकार अनेक वैषम्य जहाँ तहाँ दिखाई देते हैं,
ये सभी वैषम्य शरीरों में रहते हैं, आत्मा में नहीं ।
उन विविधवैषम्ययुक्त शरीरों में अवस्थित आत्मा एकसा है,
सब जीवात्मा ज्ञानानन्दस्वरूप हैं,
सभी परस्पर अत्यन्त सम हैं
यह बात आत्मस्वरूप के तात्त्विक रूप को
समझने वाले पण्डित ही समझते हैं ।

प्रकृतिसम्बन्धरहित जीवात्माओं का स्वरूप सम है
यह अर्थ उपर्युक्त श्लोक में वर्णित है ।

मूलम्

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पाण्डिताः समदर्शिनः ।

इति - देवतिर्यङ्मनुष्यस्थावररूपप्रकृतिसंसृष्टस्यात्मनः स्वरूपविवेचनी बुद्धिर् येषां ते पण्डिताः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्-तत्-प्रकृति-विशेष–वियुक्तात्म–
याथात्म्य-ज्ञान-वन्तस्
तत्र-तत्रात्यन्त-विषमाकारे वर्तमानम् आत्मानं
समानाकारं पश्यन्तीति
समदर्शिन इत्य् उक्तम् ।

मूलम्

तत्तत्प्रकृतिविशेषवियुक्तात्मयाथात्म्यज्ञानवन्तस् तत्र तत्रात्यन्तविषमाकारे वर्तमानम् आत्मानं समानाकारं पश्यन्तीति समदर्शिन इत्य् उक्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् इदम् आह

इहैव तैर् जितः सर्गो
येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि +++(तत्त्व-ज्ञानेन)+++ समं +++(आत्मविशिष्टम्)+++ ब्रह्म
तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः

इति ।

नीलमेघः - सारः

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थित मनः ।
निर्दोष हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥

अर्थात् यह समदर्शन
कालान्तर में फल देता है
इतना ही नहीं,
किन्तु इस संसार में
साधनानुष्ठान करते समय भी
साधक को मोक्ष-समान दशा में पहुँचा देता है।+++(5)+++

मोक्ष में सभी क्लेश निवृत्त होते हैं,
समदर्शी को संसार में रहते समय ही
बहुत से क्लेश निवृत्त हो जाते हैं ।+++(5)+++
इस संसार में रहते समय में ही
वे संसार को जीत जाते हैं
जिनका मन जीवात्माओं की समता में दृढ़ प्रतिष्ठित रहता है ।

इस बात को सभी मानते हैं कि
ब्रह्मज्ञान से संसार जय होता है ।

प्रकृति-संसर्ग-रूप दोष से रहित
अतएव परस्पर में सम [[१६७]] रहने वाली जीवात्मवस्तु
ब्रह्म है ।
आत्माओं की समता में अवस्थित साधकों को
ब्रह्म में अवस्थित मानना चाहिये ।

वे संसार को जीत जाते हैं
इसमें सन्देह नहीं ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इस श्लोक के
“निर्दोषं हि समं ब्रह्म”
इस पाद पर ध्यान देना चाहिये ।
इसका यही भावार्थ है कि
देव और मनुष्य इत्यादि शरीरों से
जो प्रकृति के परिणाम है -
सम्बन्ध रखना एक दोष है,
इस दोष से रहित होकर
स्वस्वरूप में अवस्थित
सभी जीवात्मा परस्पर समान हैं,
उन सबका स्वरूप ज्ञानानन्दमय है ।
इस प्रकार यह वचन
उपाधिरहित स्वरूप की समता का वर्णन करता है ।+++(5)+++

इन सब प्रमाणवचनों से
यह प्रमाणित हो गया है कि
जीवात्मा देह आदि से विलक्षण हैं,
ज्ञानानन्दस्वरूप है,
सभी जीवों में पूर्ण समता है ।

मूलम् - समता

इस श्लोक के
“निर्दोषं हि समं ब्रह्म”
इस पाद पर ध्यान देना चाहिये ।
इसका यही भावार्थ है कि
देव और मनुष्य इत्यादि शरीरों से
जो प्रकृति के परिणाम है -
सम्बन्ध रखना एक दोष है,
इस दोष से रहित होकर
स्वस्वरूप में अवस्थित
सभी जीवात्मा परस्पर समान हैं,
उन सबका स्वरूप ज्ञानानन्दमय है ।
इस प्रकार यह वचन
उपाधिरहित स्वरूप की समता का वर्णन करता है ।+++(5)+++

इन सब प्रमाणवचनों से
यह प्रमाणित हो गया है कि
जीवात्मा देह आदि से विलक्षण हैं,
ज्ञानानन्दस्वरूप है,
सभी जीवों में पूर्ण समता है ।

मूलम्

तद् इदम् आह

इहैव तैर् जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
+++(प्रकृति-संसर्गम् अन्तरा)+++ निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ।

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्दोषं देवादि-प्रकृति-विशेष–संसर्ग-रूप–दोष-रहितं
स्व-रूपेणावस्थितं सर्वम् आत्म-वस्तु
निर्वाण-रूप-ज्ञानैकाकारतया समम् इत्यर्थः ।

मूलम्

निर्दोषं देवादिप्रकृतिविशेषसंसर्गरूपदोषरहितं स्वरूपेणावस्थितं सर्वम् आत्मवस्तु निर्वाणरूपज्ञानैकाकारतया समम् इत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैवं-भूतस्य +++(काय-बन्ध-दोष-विविक्तस्य)+++ +आत्मनो
भगवच्-छेषतैक-रसता
तन्-नियाम्यता
तद्-एकाधारता च

“तच्-छरीर–तत्-तनु”-प्रभृतिभिः शब्दैस्
तत्-समानाधिकरण्येन च
श्रुति-स्मृतीतिहास-पुराणेषु प्रतिपाद्यत

इति पूर्वम् एवोक्तम् ।

नीलमेघः

यह अर्थ पहले ही विस्तार से वर्णित हो चुका है कि
श्रुति स्मृति इतिहास और पुराणों में
जीवात्मा को श्रीभगवान् का शरीर एवं तनु (शरीर ) इत्यादि शब्दों से वर्णन करके
तथा अभेदनिर्देश का उल्लेख करके
यह बतलाया गया है कि
जीवात्मा श्रीभगवान् का शेष एवं नियाम्य है,
तथा श्रीभगवान् पर आधारित है
क्योंकि शरीर इस प्रकार का ही होता है ।

शरीर जीवात्मा का शेष है
क्योंकि जीवात्मा के लिये ही बना है ।
शरीर जीवात्मा का नियाम्य है
क्योंकि वह जीवात्मा की इच्छा के अनुसार कार्य करता है ।
शरीर जीवात्मा पर आधारित है
क्योंकि जीवात्मसम्बन्ध मिटते ही शरीर नष्ट हो जाता है।

जीवात्मा को परमात्मा का शरीर कहने से
जीवात्मा में ये सभी स्वभाव फलित होते हैं ।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि
जीवात्मा श्रीभगवान् का शेष है ।
शेषत्व ही जीवात्मा का सारभूत धर्म है ।
शेषत्व के ज्ञान से ही जीवात्मा का कल्याण है ।

मूलम्

तस्यैवंभूतस्यात्मनो भगवच्छेषतैकरसता तन्नियाम्यता तदेकाधारता च तच्छरीरतत्तनुप्रभृतिभिः शब्दैस् तत्समानाधिकरण्येन च श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणेषु प्रतिपाद्यत इति पूर्वम् एवोक्तम् ।