०१ सारः

नीलमेघः

अब श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
सिद्ध वस्तु को बतलाने में
तात्पर्य रखने वाली
भेदश्रुति अभेदश्रुति और घटकश्रुतियों का समन्वय करके
उनसे प्रतिपादित होने वाले तत्त्वार्थों पर
प्रकाश डाला है ।
आगे श्रीभाष्यकार स्वामी जी कहते हैं कि
उपाय क्या है,
उपाय से निवर्त्य क्या है।

इस विषय में उपनिषद को प्रमाण मानकर
निर्णय करने वाले विद्वानों में मतभेद है ।
अद्वैतसिद्धान्ती कहते हैं कि
ब्रह्म और जीवात्मा में ऐक्य समझना
यह ज्ञान ही मोक्ष का उपाय है,
उससे यह संसार निवृत्त होता है।
ज्ञान से निवृत्त होने वाला यह संसार मिथ्या है ।
रज्जु ज्ञान से निवृत्त होने वाला सर्प मिथ्या होता है ।

इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
सम्पूर्ण शास्त्रों के सभी वचनों का समन्वय करके
समझने का यदि प्रयत्न किया [[१६१]] जाय तो
उपाय और निवर्त्य के विषय में विशिष्टाद्वैतियों के द्वारा किया गया निर्णय सही प्रतीत होगा ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रेदं सर्वशास्त्रहृदयम् -
जीवात्मानः स्वयम् अ-संकुचितापरिच्छिन्न-निर्मल-ज्ञान-स्वरूपाः सन्तः
कर्म-रूपाविद्या-वेष्टितास्
तत्-तत्-कर्मानुरूप-ज्ञान-संकोचम् आपन्नाः,
ब्रह्मादि-स्तम्ब-पर्यन्त–विविध-विचित्र-देहेषु प्रविष्टास्
तत्-तद्-देहोचित-लब्ध-ज्ञान-प्रसरास्
तत्-तद्-देहात्माभिमानिनस्
तद्-उचित-कर्माणि कुर्वाणास्
तद्-अनुगुण-सुख-दुःखोपभोग-रूप–
संसार-प्रवाहं प्रतिपद्यन्ते ।

नीलमेघः - धर्म-भूत-ज्ञानम्

प्रथमतः निवर्त्य स्वरूप का वर्णन किया जाता है ।
सभी जीवात्मा ज्ञानस्वरूप हैं ।
प्रत्येक जीव का एक २ ज्ञान है,
वह जीवात्मा का धर्म है,
इसलिये वह धर्मभूतज्ञान कहलाता है ।

जीवात्मा उस धर्मभृतज्ञान का आश्रय है ।
इसलिये वह धर्मी कहलाता है ।
जीवात्मा का धर्मिस्वरूप ज्ञान है,
तथा उसका धर्म भी ज्ञान है।
ज्ञान दो हैं,
उनमें एक धर्मी बनकर रहता है,
वही जीवात्मा कहलाता है,
दूसरा ज्ञान उसका धर्म बनकर रहता है।
दोनों भी ज्ञान ही हैं,
उनमें धर्मधर्मिभाव के कारण भेद हो जाता है ।

नीलमेघः - दीप-निदर्शनम्

यहाँ दीप और उसकी प्रभा दृष्टान्त है ।
दीप और प्रभा दोनों तेजोद्रव्य हैं
क्योंकि दोनों अन्धकार को नष्ट करने वाले हैं ।+++(5)+++
दीप वह है
जो बत्ती पर जलता रहता है ।
प्रभा वह है जो तेजोद्रव्य चारों तरफ फैला रहता है ।
इनमें प्रभा धर्म है,
दीप धर्मी है,
क्योंकि प्रभा दीप का आश्रय लेकर रहती है ।
दीप जहाँ जाता है,
वहाँ साथ जाती है,
दीप बुकने पर बुझ जाती है।

दीप प्रभा के द्वारा ही
इतर विषयों को प्रकाशित करता है।
दीप और प्रभा दोनों स्वयं प्रकाश है ।
दीप अपने भर को स्वयं प्रकाशित करता है,
प्रभा अपने को स्वयं प्रकाशित करती हुई
इतर विषयों को भी प्रकाशित करती है।

दीप छोटा है, प्रभा बड़ी है,
अतएव बहुत दूर तक फैलती है ।
प्रभा में संकोच और विकास होता है,
दीप में नहीं ।
दीप और प्रभा की तरह
प्रकृत में समझना चाहिये ।

नीलमेघः - धर्मि-ज्ञानम्, धर्म-भूत-ज्ञानम्

आत्मा और धर्मभूतज्ञान दोनों ज्ञानद्रव्य हैं
क्योंकि दोनों भी स्वयं प्रकाश वस्तु हैं ।
“मैं मैं" ऐसा समझ में आने वाला पदार्थ आत्मा है ।
“जानता हूँ देखता हूँ” इत्यादि रूप में
क्रिया के रूप में प्रतीत होने वाला पदार्थ धर्मभूतज्ञान है।

ज्ञान द्रव्य होने पर भी
उसमें संकोच और विकास क्रिया होती रहती है,
विकास विशिष्ट ज्ञान क्रिया के रूप में भासित होता है।
इनमें आत्मा धर्मी है,
धर्मभूतज्ञान उसका धर्म है
क्योंकि वह अहमर्थ आत्मा का आश्रय लेकर रहता है
तथा आत्मा जहाँ जाता है,
वहाँ साथ जाता है ।

आत्मा और उसका धर्मभूतज्ञान
स्वयं प्रकाश ज्ञान द्रव्य होने पर भी
उनमें यह अन्तर है कि
आत्मा सदा एक रूप रहता है
उसमें संकोच और विकास नहीं होते,
धर्मभूतज्ञान विकार बाला पदार्थ है उसमें संकोच और विकास होते रहते हैं।
गाढ निद्रा के समय
धर्मभूतज्ञान एकदम संकुचित हो जाता है,+++(5)+++
जागरण दशा में विकास को प्राप्त होता है ।

आत्मा अणुपरिमाण वाला है,
धर्मभूतज्ञान वहाँ तक फैल सकता है
जहाँ तक प्रतिबन्धक न हो ।
धर्मभूतज्ञान को
विश्व भर में फैलने की क्षमता है ।+++(5)+++
अतएव वह विभु कहलाता है,
विभु होने पर भी
संसार में कर्म से
संकुचित हो जाता है।

स्वयं प्रकाश आत्मा
अपने भर को प्रकाशित करता है,
विषयों को स्वयं प्रकाशित नहीं कर सकता,
किन्तु धर्मभूतज्ञान के द्वारा ही
आत्मा विषयों को प्रकाशित कर सकता है ।
स्वयं प्रकाश धर्मभूतज्ञान स्वयं
अपने को प्रकाशित करता हुआ
बाहरी विषयों को भी प्रकाशित करता है
बाहरी विषयों को प्रकाशित करना
यह धर्मभूतज्ञान का वैशिष्ट्य है,
इसे ही विषयित्व कहते हैं ।
आत्मा में भी एक वैशिट्य है,
वह यह है कि
स्वयं प्रकाश आत्मा
अपने लिये प्रकाशता है ।

अपने लिये प्रकाशना
यही आत्मा का वैशिश्य है,
इसे प्रत्यक्त्व कहते हैं,
धर्मभूतज्ञान और विषय
आत्मा के लिये प्रकाशित होते हैं, [[१६२]]
अपने लिये नहीं ।
इस प्रकार आत्मा और धर्मभूतज्ञान में
कुछ अंशों में समता है,
कुछ अंशों में वैशिष्ट्य है ।

नीलमेघः - धर्म-भूत-ज्ञानम्

आत्मा के धर्मभूतज्ञान का यह स्वभाव है कि
वह असंकुचित होकर
सर्वत्र फैले ।

प्रभा में संकोच न होने पर भी
वह कुछ दूर तक ही फैलती है ।
परन्तु धर्मभूतज्ञान में यह बात नहीं है ।
उसमें सर्वत्र फैलने की क्षमता है
क्योंकि अपरिच्छिन्न होकर रहना
यह धर्मभूतज्ञान का स्वभाव है,
प्रभा का नहीं ।

प्रभा परिच्छिन्न पदार्थ है ।
धर्मभूतज्ञान अपरिच्छिन्न पदार्थ है ।
उसका यह स्वभाव मोक्षदशा में अभिव्यक्त होता है ।
उस समय मुक्तात्मा का
धर्मभूतज्ञान अपरिच्छिन्न एवं संकुचित होकर
सर्वत्र फैल जाता है ।
अतएव मुक्त सर्वत्र माने जाते हैं ।

निर्मलता धर्मभूतज्ञान का स्वभाव है
रागद्वेष रूप का धारण करना
यही धर्मभूतज्ञान की मलिनता है ।+++(5)+++
यह निर्मलता रूपी स्वभाव
मोक्ष में प्रकट होता है ।
उस समय सभी पदार्थ
भगवदात्मक प्रतीत होते हैं
रागद्वेष की संभावना ही नहीं है ।+++(5)+++
सबको भगवद्-आत्मक न समझने पर ही
यथार्थ ज्ञान से रागद्वेष उत्पन्न होते हैं
संकुचित अपरिच्छिन्न एवं निर्मल धर्मभूतज्ञान
जीवों का स्वभाव सिद्ध है ।

इस प्रकार के धर्मभूतज्ञान से युक्त होते हुये
जीवात्मा कर्मरूपी अविद्या से आक्रान्त हो जाते हैं ।
कर्म ही अविद्या है।
“अविद्या कर्मसंज्ञाऽन्या”
इस वचन से उपर्य्-उक्त अर्थ प्रमाणित होता है ।
उन २ कर्मों के अनुसार
जीवों का ज्ञान
संकुचित हो जाता है ।

नीलमेघः - देह-कृत-तारतम्यम्

ये जीव ब्रह्मा जी के शरीर से लेकर
स्तम्ब (क्षुद्रतृणविशेष ) पर्यन्त
विविध एवं विचित्र देहों में प्रविष्ट हो जाते हैं ।
ये देह देव मनुष्य तिर्यक् और स्थावर
ऐसे नाना प्रकार के होते हैं ।
इनमें प्रत्येक वर्ग में भी
अवान्तर भेद असंख्य है,
प्रत्येक वर्ग में विचित्र प्रकार के अनेक देह हैं।
ऐसे विविध विचित्र देहों में
जीव प्रविष्ट हो जाते हैं ।
उन २ देहों में जितना हो सकता है
उतने ज्ञान विकास को जीव प्राप्त करते हैं ।
अतएव कहा गया है कि

“अप्राणवत्सु स्वल्पा सा
स्थावरेषु ततोऽधिका”

अर्थात् जिनमें प्राणसंचार बहुत कम है,
नहीं के बराबर है,
उन शिला और काष्ट इत्यादि में ज्ञानविकास बहुत कम है।
उससे स्थावरों में अधिक ज्ञानविकास होता है।

इससे प्रमाणित होता है कि
देह तारतम्य के अनुसार
ज्ञान के संकोच और विकास में तारतम्य होता है।
कर्म के अनुसार होने वाला ज्ञानतारतम्य
जो पहले कहा गया है
देहविशेष के द्वारा सम्पन्न होता है
क्योंकि फर्म देह देकर
उस देह के द्वारा ज्ञान में संकोच विकास को उत्पन्न करते हैं ।

नीलमेघः - देहाभिमानम्

उन देहों में प्रविष्ट होने के बाद जीव उन देहों में अभिमान करने लगते हैं,
उन देहों में अहं भावना करना,
उन देहों को अपना समझ कर
उनमें ममत्वबुद्धि करना
और उन में आसक्त होना
ये सब उस अभिमान का विलास हैं ।
इस अभिमान के अनुसार
जीव सुख और दुःख को मानते हैं,
जो इस आत्माभिमान का अनुकूल हो
उसे सुख मानते हैं
जो इस आत्माभिमान का प्रतिकूल हो उसे दुःख मानते हैं।+++(5)+++
इस प्रकार इनका
एक दृष्टिकोण बन जाता है।

नीलमेघः - कर्म

उपर्युक्त देहात्माभिमान के अनुसार
जीव विविध कर्म-
जो पुण्य एवं पाप हैं-
करते रहते हैं ।
यह कर्म बीजाङकुर न्याय से अनादि हैं ।+++(4)+++
उन कर्मों के अनुसार
जीव सुख एवं दुःख भोगते रहते हैं ।
सुख दुःखों को भोगना यही संसार है ।
इस संसार प्रवाह में
अनादिकाल से बद्ध जीव
बहते रहते हैं,
इसका कारण कर्म है ।
यह कर्म ही निवर्त्य है,
इसे नष्ट करना [[१६३]] चाहिये ।

मूलम्

अत्रेदं सर्वशास्त्रहृदयम् जीवात्मानः स्वयम् असंकुचितापरिच्छिन्ननिर्मलज्ञानस्वरूपाः सन्तः कर्मरूपाविद्यावेष्टितास् तत्तत्कर्मानुरूपज्ञानसंकोचम् आपन्नाः, ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तविविधविचित्रदेहेषु प्रविष्टास् तत्तद्देहोचितलब्धज्ञानप्रसरास् तत्तद्देहात्माभिमानिनस् तदुचितकर्माणि कुर्वाणास् तदनुगुणसुखदुःखोपभोगरूपसंसारप्रवाहं प्रतिपद्यन्ते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेषां संसारमोचनं
भगवत्-प्रपत्तिम् अन्तरेण नोपपद्यत

नीलमेघः

यदि कर्म नष्ट हो जायँ
तो जीव संसार से छूट जायगा ।
संसार से मुक्त होना ही
परमपुरुषार्थ है ।
श्रीभगवान् की शरण में जाने पर ही
जीव संसार से छूट सकता है,
अन्यथा नहीं ।
शरणागति को प्रपत्ति कहते हैं ।

प्रपत्ति दो प्रकार की है
( १ ) अंगप्रपत्ति और
(२) स्वतन्त्रप्रपत्ति ।
जो साधक भक्तियोग के द्वारा श्रीभगवान् को प्राप्त करना चाहते हैं
उनको अंगप्रपत्ति करनी पड़ती है ।
जो साधक भक्तियोग के विना ही
श्रीभगवान् को प्राप्त करना चाहते हैं
उन्हें स्वतन्त्रप्रपत्ति करनी चाहिये ।
यह प्रपत्ति अत्यावश्यक है,
इसके विना जीव संसार से छूट नहीं सकता ।

मूलम्

एतेषां संसारमोचनं भगवत्प्रपत्तिम् अन्तरेण नोपपद्यत

विश्वास-प्रस्तुतिः

… इति तद-र्थः प्रथमम् एषां देवादि-भेद-रहित-ज्ञानैकाकारतया सर्वेषां साम्यं प्रतिपाद्य,

नीलमेघः - देहात्मवाद-समस्या

जीव संसार से मुक्त हों,
तदर्थ शास्त्र सर्वप्रथम देहातिरिक्त आत्मस्वरूप का उपदेश देते हैं ।
यदि जीव देह को ही आत्मा मानता रहे
तो उसको ऐहलौकिक फलों को प्राप्त करने की इच्छा होगी,
पारलौकिक फलों को प्राप्त करने के लिये इच्छा नहीं होगी
क्योंकि देहात्माभिमानी जीव यही समझता रहता है कि देह ही मैं हूँ,
देह उत्पन्न होते मैं उत्पन्न हुआ,
देह मिटते मैं मिटने वाला हूँ ।
देह नष्ट होने के बाद
मैं रहही नहीं सकता ।

इस प्रकार जो देहात्माभिमानी जीव
देह नष्ट होने पर
अपने अस्तित्व मानने के लिये तैयार नहीं होता
वह देह मिटने पर
मिलने वाले पारलौकिक फलों पर
क्यों विश्वास करे,
उनको प्राप्त करने के लिये क्योंकर उत्कंठित हो,
तथा उनके साधनों में क्यों हाथ बटाये ।

मोक्ष भी पारलौकिक फल है
क्योंकि वह मरने के बाद ही प्राप्त होगा ।
उस मोक्ष को प्राप्त करने के लिये
तथा उसके साधनों को करने के लिये
उन साधकों को हो इच्छा हो सकती है
जो कम से कम देहातिरिक्त आत्मस्वरूप को जानते हों ।

नीलमेघः

तदर्थ शास्त्र सर्वप्रथम
देहातिरिक्त आत्मस्वरूप का उपदेश देते हुये बतलाते हैं कि
जीवात्मा, देह इन्द्रिय मन प्राण और बुद्धि से भिन्न है,
प्रकृति से परे है।
देव और मनुष्य इत्यादि भेद
देह में हुआ करते हैं,
आत्मा में नहीं ।
आत्मा इन भेदों से सर्वथा रहित है।

जीवात्मा ज्ञानैकाकार है,
ज्ञान ही उसका स्वरूप है,
जीवात्मा किसी देह में भी रहे,
देहगत धर्मों से रहित होकर
ज्ञानस्वरूप बनकर रहता है।
सभी देहों में विद्यमान जीवात्मा
परस्पर समान हैं,
सब ज्ञानाकार हैं
तथा शरीरगत भेदों से रहित हैं ।

इस प्रकार शास्त्र देहातिरिक्त आत्मस्वरूप का उपदेश देते हुये
उनमें समता का वर्णन करते हैं ।

इस उपदेश को हृदयंगम करके
साधक पारलौकिक फलों को प्राप्त करने के लिये
तथा उनके साधनों में प्रवृत्त होने के लिये
सन्नद्ध हो जाते हैं ।

मूलम्

… इति तदर्थः प्रथममेषां देवादिभेदरहितज्ञानैकाकारतया सर्वेषां साम्यं प्रतिपाद्य,

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यापि स्व-रूपस्य
भगवच्-छेषतैकरसतया भगवद्-आत्मकताम् अपि प्रतिपाद्य,

नीलमेघः

आगे शास्त्र यह उपदेश देते हैं कि
यह देहातिरिक्त आत्मा
श्रीभगवान् का शेष है,
अर्थात् श्रीभगवान् के लिये है,
श्रीभगवान् को प्रसन्न करने के लिये
तथा श्रीभगवन्मुखोल्लासार्थ कार्य करने के लिये ही
जीवात्मा को यह स्वरूप प्राप्त हुआ है।

किसी न किसी प्रकार से
श्रीभगवान के काम में आना
जीवात्मा का स्वरूप है ।
श्रीभगवान् के मुखोल्लासार्थ कार्य करने से ही
जीवात्मा का स्वरूप उज्ज्वल होता है ।

शेषत्व ही जीवात्मा का सारतम धर्म है ।

जीवात्मा श्रीभगवान् पर आधारित है,
श्रीभगवान् का नियाम्य एवं शेष है,
श्रीभगवान् इसके अन्दर अन्तर्यामी के रूप में विराजमान है,
इसलिये यह जीवात्मा -
जो ज्ञानैकाकार एवं भगवच्छेष है-
भगवदात्मक बन जाता है।

इस प्रकार जो साधक अपने को
भगवच्छेष एवं भगवदात्मक समझता है,
उसको श्रीभगवान् को प्राप्त करने
श्रीभगवान् का अनुभव लेने
एवं श्रीभगवान् के मुखोल्लासार्थ विविध कैङ्कर्य करने के लिये
बलवती उत्कण्ठा होने लगती है ।+++(5)+++

मूलम्

तस्यापि स्वरूपस्य भगवच्छेषतैकरसतया भगवदात्मकताम् अपि प्रतिपाद्य,

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवत्-स्वरूपं च
हेय-प्रत्यनीक-कल्याणैक-तानतया
सकलेतर-विसजातीयम्
अनवधिकातिशयासंख्येय-कल्याण-गुण-गणाश्रयं
स्व-संकल्प-प्रवृत्त–
समस्त-चिद्–अ-चिद्–वस्तु-जाततया
सर्वस्यात्म-भूतं प्रतिपाद्य,

नीलमेघः

इस प्रकार
श्रीभगवत्प्राप्ति में
उत्कण्ठा रखने वाले साधकों के कल्याणार्थ
शास्त्र भगवत्स्वरूप को बतलाकर
श्रीभगवत्प्राप्ति के साधन का भी वर्णन करते हैं ।
श्रीभगवत्स्वरूप का इस प्रकार वर्णन करते हैं कि
श्रीभगवान् का स्वरूप नित्य निर्दोष है,
कोई भी दोष उसको छू नहीं सकता,
श्रोभगवान का स्वरूप सब दोषों का नष्ट करने वाला है,
साथ ही मंगलमय भी है ।
इसलिये श्रीभगवान् का स्वरूप
इतर सब पदार्थों से अत्यन्त विलक्षण सिद्ध होता है ।
श्रीभगवान् में ऐसे अनन्तकल्याणगुण विद्यमान हैं
जो उत्कर्ष की चरमसीमा में पहुँचे हुये हैं ।

श्रीभगवान् का स्वरूप
सम्पूर्ण चेतनाचेतन पदार्थों को
अपने संकल्पानुसार विविध कर्मों में प्रवृत्त कराता रहता है।
वह सम्पूर्ण चेतनाचेतनों का
धारक नियामक एवं शेषी हैं
अतएव सबका अन्तरात्मा है ।

मूलम्

भगवत्स्वरूपं च हेयप्रत्यनीककल्याणैकतानतया सकलेतरविसजातीयम् अनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणगणाश्रयं स्वसंकल्पप्रवृत्तसमस्तचिदचिद्वस्तुजाततया सर्वस्यात्मभूतं प्रतिपाद्य,

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्-उपासनं साङ्गं तत्-प्रापकं प्रतिपदयन्ति शास्त्राणीति +++(शास्त्र-हृदयम्)+++।

नीलमेघः

उस भगवत्स्वरूप को प्राप्त करना ही परमपुरुषार्थ है ।

उसको प्राप्त करने के लिये
उनका उपासन ही साधन है,
शास्त्रोक्त अंगों के साथ
उस उपासन को करना चाहिये।
तेल को धारा की तरह
अविच्छिन्न-प्रेम-युक्त प्रत्यक्ष समानाकार
निरन्तर स्मरणधारा ही उपासन है,
वर्णाश्रम में और शमदमादि
उसके अंग हैं।

इस प्रकार शास्त्र
उस भगवत्स्वरूप की प्राप्ति के साधन का वर्णन करते हैं ।

सम्पूर्ण शास्त्रवचनों का समन्वय करके समझने पर
उपर्युक्त निर्णय प्राप्त होता है!
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने सम्पूर्ण शास्त्रों के तात्पर्यार्थ का वर्णन किया है ।

मूलम्

तदुपासनं साङ्गं तत्प्रापकं प्रतिपदयन्ति शास्त्राणीति ।