१२ आत्म-शरीर-भावः

लक्षण-त्रयम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयम् एव चात्मशरीरभावः - पृथक्-सिद्ध्य्-अनर्हाधाराधेयभावो
+++(पृथक्-सिद्ध्य्-अनर्ह-)+++नियन्तृ-नियाम्यभावः
+++(पृथक्-सिद्ध्य्-अनर्ह-)+++शेष-शेषि-भावश् च ।

नीलमेघः - पृथक्सिद्ध्यनर्हाधाराधेयभावः

[[१५६]]

यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि
किसे आत्मा कहा जाय ?
किसे शरीर कहा जाय ?
आत्मा और शरीर का क्या लक्षण है ?

इस प्रश्न का यह उत्तर है कि
जिन दो पदार्थों में
एक दूसरे का आश्रय लेकर ही रहता है,
दूसरा आधार बनकर उसकी स्थिति बनाये रखता है,
उनमें आधेय बनने वाला पदार्थ
आधार को छोड़कर नहीं रह सकता ।

उन दोनों पदार्थों में आधार एवं धारक बनने वाला चेतन
आत्मा कहा जाता है,
उसके द्वारा सदावृत रहने वाला पदार्थ - चाहे वह चेतन हो या जढ शरीर कहा जाता है ।

इनमें शरीरात्मभाव सम्बन्ध माना जाता है ।

शरीरात्मभाव का प्रथम लक्षण पृथक्सिद्ध्यनर्हाधाराधेयभाव है
जिसकी व्याख्या अब तक की गई है।

नीलमेघः - नियन्तृनियाम्यभावः

शरीरात्मभाव का दूसरा लक्षण पृथक्सिद्ध्यनर्ह-नियन्तृनियाम्यभाव है ।
इसकी व्याख्या यह है कि
जिन दोनों पदार्थों में
एक पदार्थ दूसरे को अपने नियन्त्रण में रखता है,
दूसरा उसके नियन्त्रण में है,
उससे छूट नहीं सकता,
उनमें नियन्त्रण करने वाला नियामक एवं नियन्त्रण में रहने वाला नियाम्य कहा जाता है ।
उनमें नियामक पदार्थ आत्मा और नियाम्यवस्तु शरीर कहलाता है ।
यह पृथक सिद्ध्यनर्ह नियन्तृनियाम्यभाव शरीरात्मभाव का दूसरा लक्षण है ।

नीलमेघः - शेषशेषि-भावः

शरीरात्मभाव का तीसरा लक्षण भी हैं,
वह पृथक्-सिद्ध्य्-अनर्ह-शेषशेषिभाव है।
इसकी व्याख्या यह है कि
जिन दो पदार्थों में
एक दूसरे से किसी न किसी प्रकार से उत्कर्ष इत्यादि विशेषताओं को प्राप्त करता है,
दूसरा उसको किसी न किसी प्रकार से उत्कर्ष इत्यादि विशेषताओं को पहुँचाने के लिये ही रहता है,
इन विशेषताओं को अतिशय कहते हैं ।

वह इन अतिशयों को पहुँचाये विना नहीं रह सकता,
अतिशय पहुँचाने से
छुटकारा नहीं पा सकता ।

इनमें अतिशय प्राप्त करने वाला पदार्थ शेषी
तथा अतिशय पहुँचाने वाला पदार्थ शेष कहा जाता है ।
अतिशय प्राप्त करने वाला चेतन
आत्मा एवं अतिशय पहुँचाने के लिये बना हुआ पदार्थ शरीर कहा जाता है ।
यह पृथक पृथक्-सिद्ध्य्-अनर्ह-शेषशेषि-भाव
शरीरात्मभाव का तीसरा लक्षण है।

मूलम्

अयमेव चात्मशरीरभावः पृथक्सिद्ध्यनर्हाधाराधेयभावो नियन्तृनियाम्यभावः शेषशेषिभावश्च ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वात्मना ऽऽधारतया नियन्तृतया शेषितया च
आप्नोतीत्य् आत्मा

सर्वात्मना ऽधेयतया नियाम्यतया शेषतया च
अपृथक्-सिद्धं प्रकार-भूतम् इत्य् आकारः शरीरम्

इति चोच्यते ।

नीलमेघः

आत्मशब्द की यह व्युत्पत्ति है कि " आप्नोतीति आत्मा"
व्यापने वाला आत्मा है।

जबतक बने रहें तबतक
आधेय नियाम्य एवं शेष बनकर रहने वाले द्रव्यों को
जो आधार नियामक एवं शेषी बनकर अपनाता रहता है,
उनमें व्यापक होकर रहता है,
वह आत्मा कहा जाता हैं ।

जो जबतक बना रहे तबतक
आधेय नियाम्य एवं शेष बनकर
दूसरे को छोड़ने में असमर्थ होकर
दूसरे का आश्रय लेकर रहता है
वह द्रव्य शरीर कहा जाता है ।

जाति और गुण, व्यक्ति और द्रव्य को न छोड़ते हुये
उनके विशेषण बने हैं,
इसलिये वे प्रकार कहे जाते हैं ।

शरीर आत्मा को न छोड़ता हुआ
आत्मा का विशेषण बनकर रहता है
इसलिये शरीर प्रकार कहा जाता है ।

अन्तर इतना ही है,
जाति और गुण अद्रव्य हैं,
शरीर द्रव्य है ।

दूसरे को न छोड़कर
दूसरे का विशेषण बनकर रहने में
कोई अन्तर है ।

शरीर का उपर्युक्त लक्षण ही समीचीन है ।

[[१५७]]

नैयायिकों के द्वारा वर्णित लक्षण
अनेक दोषों से दूषित है
अतएव त्याज्य है ।

मूलम्

सर्वात्मनाऽऽधारतया नियन्तृतया शेषितया च
आप्नोतीत्यात्मा सर्वात्मनाऽधेयतया नियाम्यतया शेषतया च
अपृथक्सिद्धं प्रकारभूतमित्याकारः शरीरमिति चोच्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवम् एव हि जीवात्मनः स्वशरीरसंबन्धः ।

नीलमेघः

जीवात्मा का अपने शरीर से जो सम्बन्ध है
वह इसी प्रकार का ही है ।
शरीर जबतक रहता है,
तबतक वह जीवात्मा के आधार पर रहता है,
जीवात्मा के नियन्त्रण में है,
जीवात्मा को सुख इत्यादि लाभ पहुँचाता रहता है ।

मूलम्

एवम् एव हि जीवात्मनः स्वशरीरसंबन्धः ।

परमात्मन्य् अन्वयः

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवम् एव परमात्मनः सर्वशरीरत्वेन सर्वशब्दवाच्यत्वम् ।

नीलमेघः

परमात्मा का सब पदार्थों के साथ इसी प्रकार का ही सम्बन्ध है ।
चेतनाचेतन पदार्थ परमात्मा पर आधारित हैं,
परमात्मा के नियन्त्रण में हैं,
परमात्मा को लीलारस और भोगरस पहुँचाते हैं ।
इसलिये चेतनाचेतनपदार्थ शरीर
एवं परमात्मा इनका अन्तरात्मा कहा जाता है ।

परमात्मा सर्वशरीरक है अतएव सर्व शब्दों से अभिहित होता है ।

चिदचिद्विशिष्ट रूप से
ब्रह्म जगत् का उपादानकारण है,
विशेष्य रूप से निर्विकार है ।

जिस प्रकार बालशरीरविशिष्ट रूप से जीवात्मा
युवशरीरविशिष्ट का उपादान होता हुआ
विशेष्य रूप से निर्विकार रहता है,
उसी प्रकार प्रकृत में समझना चाहिये ।+++(5)+++
ब्रह्म के उपादानत्व एवं निर्विकारत्व में
विरोध नहीं ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने उनका समन्वय किया है ।

मूलम्

एवम् एव परमात्मनः सर्वशरीरत्वेन सर्वशब्दवाच्यत्वम् ।

श्रुतिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् आह श्रुतिगणः

सर्वे वेदा यत्-पदम् आमनन्ति

सर्वे वेदा यत्रैकं भवन्ति ।

+इति।
तस्यैकस्य वाच्यत्वाद् एकार्थवाचिनो भवन्तीत्यर्थः ।

नीलमेघः

आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने ब्रह्म के सर्वशब्दवाच्यत्व को प्रमाणवचनों से सिद्ध करते हुये यह कहा है कि श्रुतिसमूह से यह विदित होता है कि ब्रह्म सभी शब्दों का वाच्य है । वे वचन ये हैं कि-
(१) “सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति”

अर्थात् सभी वेद जिस प्राप्य ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं ।

(२) सर्वे वेदा यत्रँकं भवन्ति" अर्थात् सभी वेद जिस ब्रह्म में एक होते हैं सभी वेद प्रधानरूप से
त्र का प्रतिपादक होने के कारण उस ब्रह्म के विषय में एक वाक्यता को प्राप्त होते हैं ।

मूलम्

तद् आह श्रुतिगणः

सर्वे वेदा यत्पदम् आमनन्ति
सर्वे वेदा यत्रैकं भवन्तीति ।

तस्यैकस्य वाच्यत्वाद् एकार्थवाचिनो भवन्तीत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको देवो बहुधा निविष्टः,

नीलमेघः

(३) “एको देवो बहुधा सन्निविष्टः "

अर्थात्

एक देव परमात्मा
बहुरूप से विराजमान रहते हैं ।
सर्वशरीरक होकर
सबको प्रकार रूप में अपनाये हुये हैं,
इसलिये सर्वशब्दों से अभिहित होते हैं ।
इस प्रकार
इस वाक्य से
सर्वशब्दों से अभिहित होने में
सर्वान्तर्यामित्व हेतु बतलाया गया है ।

मूलम्

एको देवो बहुधा निविष्टः,

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहैव सन्तं न विजानन्ति देवा

इत्यादि ।
देवा इन्द्रियाणि । +++(5)+++

देवमनुष्यादीनाम् अन्तर्यामितया ऽऽत्मत्वेन निविश्य
सहैव सन्तं तेषाम् इन्द्रियाणि मनःपर्यन्तानि
न विजानन्तीत्यर्थः ।

नीलमेघः

(४) “सहैव सन्तं न विजानन्ति देवाः”
अर्थात् देव और मनुष्य आदि का अन्तर्यामी बनकर
साथ ही विराजने वाले परमात्मा को
मन पर्यन्त सभी इन्द्रिय जान नहीं पाते हैं ।
वे शब्द से ही विदित हो सकते

इस वाक्य से श्रीभगवान् को अन्तर्यामी कहा गया है ।

मूलम्

सहैव सन्तं न विजानन्ति देवा

इत्यादि ।
देवा इन्द्रियाणि ।

देवमनुष्यादीनाम् अन्तर्यामितया ऽऽत्मत्वेन निविश्य
सहैव सन्तं तेषाम् इन्द्रियाणि मनःपर्यन्तानि
न विजानन्तीत्यर्थः ।

पुराणानि

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा च पौराणिकानि वचांसि

नताः स्म सर्व-वचसां
प्रतिष्ठा यत्र शश्वती ।

वाच्ये हि वचसः प्रतिष्ठा ।

नीलमेघः

पुराणों में भी कई वचन हैं, जिनसे श्रीभगवान् सर्वशब्दवाच्य सिद्ध होते हैं-

(१) “नताः स्म सर्ववचसां प्रतिष्ठा यत्र शाश्वती"

अर्थात्

उस परतत्त्व को नमस्कार है जिसमें सर्वशब्दों की शाश्वत प्रतिष्ठा होती है।

शब्द वाच्यार्थ में प्रतिष्टित होते हैं ।
परमात्मा सदा से सर्वशब्दों का वाच्यार्थ है ।
इसलिये उनमें सर्वशब्दों की शाश्वत प्रतिष्ठा कही गई है ।

मूलम्

तथा च पौराणिकानि वचांसि

नताः स्म सर्ववचसां प्रतिष्ठा यत्र शश्वती ।
वाच्ये हि वचसः प्रतिष्ठा ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्याणां कारणं पूर्वं
वचसां वाच्यम् उत्तमम् ।

नीलमेघः

(२) “कार्याणां कारण पूर्वं वचसां वाच्यमुत्तमम्” अर्थात् परमात्मा कार्यों का प्रथम कारण है अतएव बे शब्दों का उत्तम वाच्यार्थ हैं ।

मूलम्

कार्याणां कारणं पूर्वं
वचसां वाच्यम् उत्तमम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदैश् च सर्वैर् अहम् एव वेद्यः ।

नीलमेघः

(३) “वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः” अर्थात् वेदों के द्वारा हम ही वेद्य है अर्थात् जानने योग्य है ।

इस प्रकार श्रीगीता में भगवान् ने कहा है ।

मूलम्

वेदैश् च सर्वैर् अहम् एव वेद्यः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यादीनि सर्वाणि हि वचांसि
स-शरीरात्म-विशिष्टम् अन्तर्यामिणम् एवाचक्षते ।

नीलमेघः

उदाहृत श्रुति एवं पुराणों के वचनों से सिद्ध होता है कि सभी शब्द सशरीर जीवात्मा से विशिष्ट रहने वाले अन्तर्यामी परमात्मा का वाचक होते हैं ।

मूलम्

इत्यादीनि सर्वाणि हि वचांसि सशरीरात्मविशिष्टम् अन्तर्यामिणम् एवाचक्षते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्ताहम् इमास् तिस्रो देवता
अनेन जीवेनात्मानुप्रविश्य
नामरूपे व्याकरवाणि

इति हि श्रुतिः ।

नीलमेघः

अतएव उपनिषद् ने
इस प्रकार ईश्वर के संकल्प का वर्णन किया है कि
“हन्ताहमियास्तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि”
अर्थात्
हम परमात्मा इस जीवात्मा को साथ लेकर पृथिवी जल और अग्नि इन तीनों तत्त्वों में प्रविष्ट होकर नामरूप व्याकरण करेंगे।

[[१५६]]

जल पृथिवी और तेज इत्यादि जडपदार्थों से निर्मित कार्यवर्ग
तभी टिक सकेंगे,
यदि जीव उनको धारण करें
जीव धारण करने में
तभी समर्थ हो सकता है,
यदि परमात्मा के द्वारा स्वयं घृत रहें ।
अतएव परमात्मा ने
जीव का अन्तर्यामी बनकर
जीव को साथ लेकर
उन तत्त्वों में प्रविष्ट होकर
नामरूप व्याकरण करने का संकल्प किया है ।

जडपदार्थों का वाचक शब्द
उन जढपदार्थों को धारण करने वाले जीव को बतलाते हुये
जीवान्तर्यामी परमात्मा का वाचक बनें,
तदर्थ भी परमात्मा ने जीव को लेकर
उन जडतत्त्वों में प्रविष्ट होकर
नामरूप व्याकरण करने का संकल्प किया ।

इस उपनिषद्वचन से सिद्ध होता है कि परमात्मा सर्वशब्दों से अभिहित होते हैं ।

मूलम्

हन्ताहम् इमास् तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणीति हि श्रुतिः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा च मानवं वचः

प्रशासितारं सर्वेषाम्
अणीयांसम् अणीयसाम्
रुक्माभं स्वप्न-+++(→प्रत्यक्षतापन्न-भक्ति-रूप)+++धी-गम्यं
विद्यात् तं पुरुषं परम् ।

नीलमेघः

मनुस्मृति में दो श्लोक हैं
उनमें प्रथम श्लोक से
उस हेतु का वर्णन किया गया है,
जिससे श्रीभगवान् सर्वशब्दों से अभिहित होते हैं,
द्वितीय श्लोक में कहा गया है कि भगवान् किन २ शब्दों से अभिहित होते हैं ।

वे श्लोक ये हैं कि-

प्रशासितार सर्वेषामरणीयांसम् अरणीयसाम् ।
रुक्माभं स्वप्नधगम्यं विद्यात्त पुरुषं परम् ॥
एनमेके वदन्त्यग्निं मरुतोऽन्ये प्रजापतिम् ।
इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म
शाश्वतम् ॥

अर्थात्

परमात्मा सबके अन्दर प्रवेश करके
अन्तर्यामी के रूप में अवस्थित होकर
सब पर शासन करने वाले हैं ।

मूलम्

तथा च मानवं वचः

प्रशासितारं सर्वेषाम्
अणीयांसम् अणीयसाम्
रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं
विद्यात् तं पुरुषं परम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तः प्रविश्यान्तर्यामितया
सर्वेषां प्रशासितारं नियन्तारम्

अणीयांसम् आत्मानः कृत्स्नस्याचेतनस्य व्यापकतया सूक्ष्म-भूतास्
ते तेषाम् अपि व्यापकत्वात् तेभ्यो ऽपि सूक्ष्मतर इत्यर्थः

रुक्माभः आदित्य-वर्णः

स्वप्न-कल्प-बुद्धि-प्राप्यः,
विशदतम-प्रत्यक्षतापन्नानुध्यानैक-लभ्य
इत्यर्थः ।+++(5)+++

नीलमेघः

जीवात्मा सूक्ष्म होते हैं,
वे सभी अचेतनों के अन्दर प्रविष्ट होकर रहते हैं,
अतएव अचेतनों से
वे सूक्ष्म होते हैं,
उन जीवों में भी व्यापक होकर
रहने वाले परमात्मा उनसे भी सूक्ष्म हैं,
परमात्मा से बढ़कर
कोई सूक्ष्मपदार्थ नहीं हैं ।
वे परमसूक्ष्म हैं ।

परमात्मा दिव्य-मंगल-विग्रह से युक्त हैं ।
वे परमभोग्य हैं,
अतएव भक्तों को स्वणवर्ण वाले दिखाई देते हैं ।
वे प्रताप-सम्पन्न हैं,
अतएव शत्रुओं को
मध्याह्न सूर्य के समान दिखाई देते हैं ।
वे परमात्मा स्वप्नतुल्य बुद्धि से प्राप्य होते हैं ।+++(5)+++
स्वप्न में ज्ञान
प्रत्यक्ष के समान अत्यन्त विशद रहता है,
उस स्वप्न ज्ञान के समान जो ध्यान अत्यन्त विशद होकर
प्रत्यक्ष समान आकार रखता है ।

वैसे ध्यान से ही
परमात्मा प्राप्त हो सकते हैं ।

उपर्युक्त विशेषण विशिष्ट परमपुरुष को जानना चाहिये । यह प्रथम श्लोक का अर्थ है ।

इसमें कहा गया है कि
परमात्मा सब पदार्थों के अन्दर
अन्तर्यामी के रूप में अवस्थित हैं ।
अतएव परमात्मा सर्वशब्दों से अभिहित होते हैं ।
सर्वपदार्थों में अन्तर्यामी होकर रहना ही
परमात्मा को सर्वशब्दों द्वारा अभिहित होने में कारण है ।
यह कारण प्रथम श्लोक में कहा गया है ।

मूलम्

अन्तः प्रविश्यान्तर्यामितया सर्वेषां प्रशासितारं नियन्तारम् अणीयांस आत्मानः कृत्स्नस्याचेतनस्य व्यापकतया सूक्ष्मभूतास् ते तेषाम् अपि व्यापकत्वात् तेभ्यो ऽपि सूक्ष्मतर इत्यर्थः रुक्माभः आदित्यवर्णः स्वप्नकल्पबुद्धिप्राप्यः, विशदतमप्रत्यक्षतापन्नानुध्यानैकलभ्य इत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एनम् एके वदन्त्य् अग्निं
मारुतो ऽन्ये प्रजापतिम् ।
इन्द्रम् एके परे प्रणम्
अपरे ब्रह्म शाश्वतम् ।

इति ।

एके वेदा इत्यर्थः ।

नीलमेघः

द्वितीय श्लोक का अर्थ यह है कि
इस परमात्मा को कई वेदवाक्य अग्नि कहते हैं,
अन्य वेदवाक्य मरुत् कहते हैं,
इतर वेदवाक्य प्रजापति कहते हैं,
दूसरे वेदवाक्य इन्द्र कहते हैं,
इतर वेदवाक्य प्राण कहते हैं, उपनिषद्वाक्य शाश्वत ब्रह्म कहते हैं ।

मूलम्

एनम् एके वदन्त्य् अग्निं मारुतो ऽन्ये प्रजापतिम् ।
इन्द्रम् एके परे प्रणम् अपरे ब्रह्म शाश्वतम् ।

इति ।

एके वेदा इत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तरीत्या
परस्यैव ब्रह्मणः
सर्वस्य प्रशासितृत्वेन सर्वान्तरात्मतया प्रविश्यावस्थितत्वाद्
अग्न्य्-आदयः शब्दा अपि
शाश्वत-ब्रह्म-शब्दवत्
तस्यैव वाचका भवन्तीत्यर्थः ।

नीलमेघः

इसका तात्पर्य यह है कि परब्रह्म परमात्मा, अग्नि, मरुत्, प्रजापति, इन्द्र और प्राण इत्यादि में
अन्तर्यामी के रूप में अवस्थित हैं,
क्योंकि वे सबके शासक हैं,
अतएव वे सब में प्रविष्ट होकर
अन्तरात्मा के रूप में सर्वत्र रहते हैं,
[[१६०]]
अतएव उन अग्न्यादि पदार्थों के वाचक
अग्नि आदि शब्द उसी प्रकार परमात्मा को बतलाते हैं
जिस प्रकार शाश्वत ब्रह्म शब्द
परमात्मा का वाचक होता है ।

मूलम्

उक्तरीत्या परस्यैव ब्रह्मणः सर्वस्य प्रशासितृत्वेन सर्वान्तरात्मतया प्रविश्यावस्थितत्वाद् अग्न्यादयः शब्दा अपि शाश्वतब्रह्मशब्दवत् तस्यैव वाचका भवन्तीत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा च स्मृत्यन्तरम्

ये यजन्ति पितॄन् देवान्
ब्राह्मणान् स-हुताशनान् । सर्व-भूतान्तरात्मानं
विष्णुम् एव यजन्ति ते ।

इति ।

नीलमेघः

इस प्रकार मनुस्मृति में परमात्मा सर्वशब्दवाच्य कहे गये हैं।
दूसरे स्मृतिवचन से भी
अर्थ सिद्ध होता है ।
वह वचन यह है कि-

ये यजन्ति पितॄन् देवान् ब्राह्मणान् सहुताशनान् ।
सर्वभूतान्तरात्मानं विष्णुमेव यजन्ति ते ।

अर्थात् जो पितृगण देव और अग्नि समेत ब्राह्मणों का यजन करते हैं, वे सर्वजीवों का अन्तरात्मा श्रीविष्णु भगवान् का ही यजन करते हैं क्योंकि श्रीविष्णु भगवान् सर्वजीवों को अन्तरात्मा होने के कारण उन पितृगण, देवगण और अग्नि समेत ब्राह्मणों का भी अन्तरात्मा हैं ।

मूलम्

तथा च स्मृत्यन्तरम्

ये यजन्ति पितॄन् देवान् ब्राह्मणान् सहुताशनान् । सर्वभूतान्तरात्मानं विष्णुम् एव यजन्ति ते ।

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृ-देव-ब्राह्मण-हुताशनादि-शब्दास्
तन्-मुखेन तद्-अन्तरात्म-भूतस्य विष्णोर् एव
वाचका इत्युक्तं भवति ।

नीलमेघः

यजन करते समय
पितृगण आदियों के वाचक जो २ शब्द बोले जाते हैं,
वे पितृगण आदियों को बतलाते हुये
उनका अन्तरात्मा श्रीभगवान् को बतलाकर उनमें पर्यवसान पाते हैं ।
इसलिये पितृयजन आदि श्रीविष्णुयजन हो जाते हैं ।
इस श्लोक में हेतु निर्देश पूर्वक
श्रीविष्णु भगवान को
पित्रादि शब्दों का वाच्य
कहा गया है।

इन प्रमाणों को उपस्थित करके
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
श्रीभगवान् को सर्वशब्दवाच्य सिद्ध किया है ।

मूलम्

पितृदेवब्राह्मणहुताशनादिशब्दास् तन्मुखेन तदन्तरात्मभूतस्य विष्णोर् एव वाचका इत्युक्तं भवति ।