नीलमेघः
विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त का विस्तृत प्रतिपादन - इस सिद्धान्त में भेदाभेद घटकश्रुतियों का अर्थों का समन्वय॥
आगे मंगलाचरण में अवस्थित प्रथम श्लोक -
जो स्वमत समर्थन में तात्पर्य रखता है,
तथा ग्रन्थारम्भ में जिसकी व्याख्या संक्षेप से की गई है -
की विस्तार से व्याख्या करते हुये
प्रथमतः यह कहते हैं कि
घटकश्रुति और भेदश्रुति के अविरुद्ध रूप में
अभेदश्रुति का अर्थ करना चाहिये ।
“सर्वं खल्विदं ब्रह्म”
“तत् त्वमसि”
इत्यादि श्रुतियाँ अ-भेद-श्रुतियाँ हैं ।
ये श्रुतियाँ जगत् और ब्रह्म में
तथा जीव और ब्रह्म में
अभेद को बतलाती हैं ।
एवं जगत् और ब्रह्म में
तथा जीव और ब्रह्म में भेद को बतलाने वाला श्रुतियाँ भी हैं
जिनका उल्लेख आगे किया जायेगा ।
ये दो प्रकार की श्रुतियाँ
परस्पर विरुद्ध अर्थ बतलाती हैं,
ऐसा प्रतीत होता है ।
इनमें विरोध को शान्त करना चाहिये ।
अन्यथा दोनों श्रुतियाँ अप्रमाण हो जायेंगी।
इनमें विरोध को शान्त कर
सामरस्य लाने के लिये
कई श्रुतियाँ प्रवृत्त हैं ।
ये श्रुतियाँ घटकश्रुतियाँ कही जाती हैं।
क्योंकि ये श्रुतियाँ
परस्पर विरुद्ध भेदाभेद श्रुतियों को
संघटित कर देती हैं ।
इन श्रुतियों का प्रतिपाद्य अर्थ ही ऐसा है
जिसको हृदयंगम कर लेने पर
उन विरुद्ध श्रुतियों के अर्थों में
समन्वय किया जा सकता है ।
घटकश्रुतियों का प्रतिपाद्य अर्थ यही है कि
ब्रह्म अन्तरात्मा है
तथा यह चेतनाचेतन प्रपञ्च उसका शरीर है।
इससे प्रपञ्च एवं ब्रह्म में
शरीरात्मभाव सम्बन्ध फलित होता है ।
इससे भेदाभेद श्रुतियों का समन्वय हो जाता है ।