१४ मुख्य-वृत्त्या कारणत्वम्, कार्यत्वम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा च सति

कारणावस्थ ईश्वर एवेति,

तद्-उपादानक-जगत्-कार्यावस्थो ऽपि
स एवेति

कार्य-कारणयोर् अनन्यत्वं सर्व-श्रुत्य्-अविरोधश् च भवति ।

नीलमेघः

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ईश्वर सदा चेतनाचेतनों से विशिष्ट होकर रहते हैं ।
प्रलयकाल में
चेतनाचेतन नामरूपविभागों को छोड़कर सूक्ष्मदशा में पहुँच जाते हैं।

मूलम्

तथा च सति कारणावस्थ ईश्वर एवेति तदुपादानकजगत्कार्यावस्थो ऽपि स एवेति कार्यकारणयोर् अनन्यत्वं सर्वश्रुत्यविरोधश् च भवति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् एवं नाम-रूप-विभागानर्ह-
सूक्ष्म-दशापन्न-प्रकृति-पुरुष-शरीरं ब्रह्म कारणावस्थं,
जगतस् तद्-आपत्तिर् एव च प्रलयः ।

नीलमेघः

सृष्टिकाल में नामरूपविभागों को प्राप्त कर स्थूलदशा में आ जाते हैं ।

नामरूपविभागरहित सूक्ष्मदशा में पहुँचे हुये प्रकृति पुरुषरूपी शरीरों में अन्तरात्मा के रूप में अवस्थित ब्रह्म कारण माना जाता है ।
जगत् जब इस कारणावस्था में पहुँच जाता है, तब प्रलय कहा जाता है ।

मूलम्

तद् एवं नामरूपविभागानर्हसूक्ष्मदशापन्नप्रकृतिपुरुषशरीरं ब्रह्म कारणावस्थं, जगतस् तदापत्तिर् एव च प्रलयः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम-रूप-विभाग-विभक्त–
स्थूल-चिद्–अ-चिद्–वस्तु-शरीरं ब्रह्म कार्यवस्थम्

नीलमेघः

नामरूपविभाग को प्राप्त कर स्थूलदशा में पहुँचे हुये चेतनाचेतनपदार्थों का अन्तरात्मा बने हुये परमात्मा कार्य माने जाते हैं ।

मूलम्

नामरूपविभागविभक्तस्थूलचिदचिद्वस्तुशरीरं ब्रह्म कार्यत्वं/कार्यवस्थम्,

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मणस् तथा-विध-स्थूल-भाव एव
जगतः सृष्टिर्
इत्य् उच्यते ।

नीलमेघः

ब्रह्म को चेतनाचेतनों के द्वारा उपर्युक्त स्थूलावस्था को प्राप्त होना ही जगत् की सृष्टि कहा जाता है ।

मूलम्

ब्रह्मणस् तथाविधस्थूलभाव एव जगतः सृष्टिर् इत्य् उच्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं भगवता पराशरेण

प्रधान-पुंसोर् अजयोः
+++(ईश्वरः)+++ कारणं कार्य-भूतयोः ।

इति ।

नीलमेघः

यद्यपि चेतनाचेतन द्रव्य और ब्रह्म द्रव्य नित्य है तथापि उनमें विविध अवस्थायें होती रहती हैं ।
नामरूपविभागशून्य हो जाना यही सूक्ष्मदशा है ।
यह अवस्था चेतनाचेतनों में साक्षात् सम्बन्ध से रहती है, चेतनाचेतनों के द्वारा परमात्मा में रहती है ।
इस अवस्था को लेकर कारण माना जाता है ।
यह अवस्था प्रलयकाल में होती हैं ।

नामरूपविभाग को प्राप्त करना यही स्थूलावस्था है,
यह अवस्था चेतनाचेतनों में साक्षात् सम्बन्ध से रहती है,
चेतनाचेतनों के द्वारा ब्रह्म में रहती है ।

इस अवस्था को लेकर ब्रह्म कार्य माना जाता है
यह अवस्था सृष्टिकाल में होती हैं ।

द्रव्य नित्य होने पर भी
उनमें होने वाली सूक्ष्मावस्था और स्थूलावस्था को लेकर
वह द्रव्य कारण एवं कार्य माना जाता है ।
द्रव्य नित्य होने पर भी विभिन्न अवस्थाओं को लेकर सृष्टि और प्रलय माने जाते हैं ।
द्रव्य नित्य होने पर भी अवस्था भेद से वह द्रव्य कारण एवं कार्य बन जाता है ।
यह अर्थ निम्नलिखित वचन से प्रमाणित है ।

भगवान् पराशरब्रह्मर्षि ने कहा है कि-
“ प्रधानपुंसोरजयोः कारणं कार्यभूतयोः "

अर्थात्

कार्य बनने वाले जननरहित प्रकृतिपुरुषों का कारण ईश्वर है ।

इस श्लोक में प्रकृतिपुरुषों को जननरहित कहा गया है, इससे कारणावस्था में इनकी स्थिति फलित होती है ।
इनको कार्य कहा गया है,

मूलम्

यथोक्तं भगवता पराशरेण

प्रधानपुंसोर् अजयोः
कारणं कार्यभूतयोः ।

इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद्
ईश्वर-प्रकार-भूत–सर्वावस्थ-प्रकृति-पुरुष-वाचिनः शब्दास्
तत्-+++(नियत-)+++प्रकार-विशिष्टतया ऽवस्थिते परमात्मनि
मुख्यतया वर्तन्ते +++(न तु लक्षणया ध्वनिना वा)+++-
जीवात्म-वाचि–देव-मनुष्य-शब्दवत् …

नीलमेघः - संशयः

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि
नित्य प्रकृति और पुरुष कार्य केसे होंगे ?

उत्तर यह है कि
नित्य रहने वाले ये दोनों
जब नूतन अवस्था को प्राप्त करते हैं
तब ये कार्य कहलाते हैं।
इससे सिद्ध होता है कि
द्रव्य नित्य होने पर भी
वह पूर्वावस्था को लेकर कारण एवं उत्तरावस्था को लेकर कार्य कहा जाता है ।

यदि प्रकृति और पुरुष
कारण एवं कार्य बनते हैं
तो परमात्मा को गौणरूप से ही
कारण एवं कार्य मानना होगा ।

नीलमेघः

उनमें कारणत्व और कार्यत्व
कैसे मुख्य हो सकता है ?
उत्तर -
प्रकृति और पुरुष चाहे कारणावस्था में रहें,
चाहे कार्यावस्था में
किसी भी अवस्था में रहते समय
वे दोनों इसी प्रकार परमात्मा का प्रकार अर्थात् विशेषरण बनकर रहते हैं
जिस प्रकार जाति, व्यक्ति के प्रति और गुण, द्रव्य के प्रति जिस प्रकार जाति और गुण,
व्यक्ति एवं द्रव्य के प्रति सदा प्रकार बनकर रहते हैं
उसी प्रकार प्रकृतिपुरुष सदा परमात्मा का प्रकार बनकर रहते हैं ।
अतएव इन्हें नियतप्रकार कहा जाता है ।+++(5)+++

वही वस्तु नियतप्रकार मानी जाती है
जो दूसरे का आश्रय लेकर ही रहती है
तथा दूसरे के अर्थ ही रहती है ।
जाति व्यक्ति का आश्रय लेकर ही रहती है
तथा व्यक्ति के लिये ही रहती है,
जाति से होने वाला फल
व्यक्ति को ही मिलता है,
गुण द्रव्य का आश्रय लेकर ही रहता है
तथा द्रव्य के लिये ही रहता है,
गुण से होने वाला उत्कर्ष इत्यादि विशेषतायें
द्रव्य को ही मिलती हैं।

शरीर आत्मा का आश्रय लेकर ही रहता है ।
शरीर आत्मा को लाभ पहुँचाने के लिये ही रहता है,
शरीर से होने वाले सुख और दुःख इत्यादि फल आत्मा को मिलते हैं ।
इस प्रकार जाति गुण और शरीर
ये तीनों दूसरे का आश्रय लेकर ही रहते हैं
तथा दूसरे के लिये ही रहते हैं
इसलिये ये नियतप्रकार माने जाते हैं ।
जिस प्रकार व्यक्ति के प्रतिनियतप्रकार बनने वाली जाति का वाचकशब्द
व्यक्ति तक को बतलाता है,
जिस प्रकार द्रव्य के प्रति नियतप्रकार बनने वाले गुण का वाचक
नील आदि शब्द द्रव्य तक को बतलाता है
उसी प्रकार परमात्मा के प्रति नियतप्रकार बनने वाले प्रकृतिपुरुषों के वाचकशब्द
परमात्मा तक को बतलाते हैं ।

मूलम्

तस्माद् ईश्वरप्रकारभूतसर्वावस्थप्रकृतिपुरुषवाचिनः शब्दास् तत्प्रकारविशिष्टतयावस्थिते परमात्मनि मुख्यतया वर्तन्ते जीवात्मवाचिदेवमनुष्यशब्दवत् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

… यथा देव-मनुष्यादि-शब्दा
देव-मनुष्यादि–प्रकृति-परिणाम-विशेषाणां जीवात्म-प्रकारतयैव पदार्थत्वात्
प्रकारिणि जीवात्मनि मुख्यतया वर्तन्ते +++(न तु लक्षणया ध्वनिना वा)+++ ।

नीलमेघः

इसमें देव मनुष्य आदि शब्द हटान्त?? हैं
जिस प्रकार प्रकृति के परिणाम से बने हुये देव मनुष्य इत्यादि शरीरों को
जीवात्मा के प्रति सदा प्रकार बनकर रहने के कारण
उन शरीरों को बतलाने वाले देव और मनुष्य इत्यादि शब्द विशेष्य बनने वाले जीवात्मा को शब्दशक्ति से ही लक्षणा से नहीं - बतलाते हैं,
उसी प्रकार ही सम्पूर्ण चेतनाचेतनपदार्थों के ईश्वर का शरीर बनकर
ईश्वर के प्रति प्रकार बने रहने के कारण
इन चेतनाचेतनों के वाचक सभी शब्द
विशेष्य बनने वाले परमात्मा को शब्दशक्ति से ही - लक्षणा से नहीं - बतलाते हैं ।

मूलम्

यथा देवमनुष्यादिशब्दा देवमनुष्यादिप्रकृतिपरिणामविशेषाणां जीवात्मप्रकारतयैव पदार्थत्वात् प्रकारिणि जीवात्मनि मुख्यतया वर्तन्ते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्
सर्वस्य चिद्–अ-चिद्-वस्तुनः
परमात्म-शरीरतया तत्-प्रकारत्वात्
परमात्मनि मुख्यतया वर्तन्ते
सर्वे वाचकाः शब्दाः ।

नीलमेघः

प्रकृति और पुरुष में कहे जाने वाले कारणत्व और कार्यत्व
परमात्मा में मुख्य रूप से - गौरूप से नहीं - रहते हैं
इसलिये परमात्मा को कारण एवं कार्य मानना उचित ही है ।

मूलम्

तस्मात् सर्वस्य चिदचिद्वस्तुनः परमात्मशरीरतया तत्प्रकारत्वात् परमात्मनि मुख्यतया वर्तन्ते सर्वे वाचकाः शब्दाः ।