विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु च परस्य ब्रह्मणः
स्वरूपेण परिणामास्पदत्वं निर्विकारत्व-निरवद्यत्व-श्रुति-व्याकोप-प्रसङ्गेन निवारितम् ।
नीलमेघः
यहाँ पर पूर्वपक्षी इस पूर्वपक्ष को रखते हैं कि
परब्रह्म जगत् का उपादानकारण कहा जाता है ।
उपादानकारण वही होता है जो कार्यरूप में परिणत होता है ।
यदि ब्रह्म का स्वरूप ही इस जगत् के रूप में परिणत होता है
तो वह निर्विकार एवं निर्दोष रह नहीं सकता ।
श्रुतियाँ ब्रह्म को निर्विकार एवं निर्दोष बताती हैँ
इसलिये मानना पड़ता है कि
ब्रह्म स्वरूप से जगत् के रूप में परिणत नहीं होता ।
मूलम्
ननु च परस्य ब्रह्मणः स्वरूपेण परिणामास्पदत्वं निर्विकारत्वनिरवद्यत्वश्रुतिव्याकोपप्रसङ्गेन निवारितम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(ब्रह्म)+++ प्रकृतिश् च +++(“एक-विज्ञानेन सर्व-विज्ञानम्”←)+++प्रतिज्ञा-+++(“मृदि ज्ञाते घट-शरावादिज्ञानम्”←)+++दृष्टान्तानुपरोधाद्
इत्य् एक-विज्ञानेन सर्व-विज्ञान-प्रतिज्ञान–मृत्-तत्-कार्य-दृष्टान्ताभ्यां परम-पुरुषस्य जगद्-उपादान-कारणत्वं च प्रतिपादितम् ।
नीलमेघः
“प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात्”
इस ब्रह्म-सूत्र से
ब्रह्म जगत् का उपादान-कारण सिद्ध किया गया है ।
इस सूत्र का अर्थ यह है कि
ब्रह्म जगत् का उपादानकारण है
क्योंकि उपनिषदों में
यह प्रतिज्ञा वर्णित है कि
एक को जानने से
सब कुछ जाना जा सकता है ।
इस प्रतिज्ञा का समर्थन करने के लिये
मृत्तिका और उसका कार्य
दृष्टान्त रूप में कहे गये हैं ।
मृत्तिका ही घट आदि कार्य पदार्थों के रूप में परिणत होती हैं
इसलिये मृत्तिका और घटादि पदार्थ एक ही वस्तु हैं।
मृत्तिका को जानने से घटादि कार्य पदार्थ जाने जाते हैं ।
[[१५०]]
मृत्तिका घटादि का उपादानकारण है ।
उसी प्रकार प्रकृत में यह समझना चाहिये कि
ब्रह्म जगत् के रूप में परिणत हो जाता है,
ब्रह्म और जगत् एक ही वस्तु है,
ब्रह्म को जानने से
जगत् जाना जाता है ।
इस प्रकार प्रतिज्ञा और दृष्टान्त के अनुसार ब्रह्म जगत् का उपादानकारण सिद्ध होता है ।
यह उपर्युक्त ब्रह्मसूत्र बतलाता है ।
मूलम्
प्रकृतिश् च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधाद् इत्य् एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञानमृत्तत्कार्यदृष्टान्ताभ्यां परमपुरुषस्य जगदुपादानकारणत्वं च प्रतिपादितम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपादानकारणत्वं च
परिणामास्पदत्वम् एव ।
कथम् इदम् उपपद्यते ।
नीलमेघः
ज्ज्यहाँ पर यह विरोध उपस्थित होता है कि
ब्रह्म यदि जगत् का उपादानकारण
अर्थात् जगत् के रूप में परिणत होने वाला कारण माना जाता है
तो वह निर्विकार एवं निर्दोष रह नहीं सकता,
यदि ब्रह्म को निविकार एवं निर्दोष माना जाय
तो वह उपादानकारण नहीं बन सकता ।
उपादानत्व एवं निर्विकारत्व परस्पर विरुद्ध धर्म हैं ।
इनका एक ब्रह्म में कैसे समावेश हो सकता है ?
यह पूर्वपक्ष है ।
मूलम्
उपादानकारणत्वं च परिणामास्पदत्वम् एव । कथम् इदम् उपपद्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रोच्यते - स-जीवस्य +++(ब्रह्मणः)+++ प्रपञ्चस्याविशेषेण कारणत्वम् उक्तम् ।
नीलमेघः
इस पूर्वपक्ष का निराकरण करते हुये
श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
ब्रह्म साक्षात् जगत् का उपादानकारण नहीं,
किन्तु प्रकृति पुरुषों के द्वारा जगत् का उपादानकारण है ।
ब्रह्म स्वयं निर्विकार होता हुआ प्रकृति और पुरुष के द्वारा जगत् का उपादानकारण बन जाता है ।
इसलिये निर्विकारत्व और उपादानत्व ये दोनों बातें
ब्रह्म में संगत हो जाती हैं ।
यह समाधान इस बात पर अवलम्बित है कि
प्रकृति और पुरुषों का प्रलयकाल में भी सद्भाव है ।
यदि वे प्रलयकाल में नहीं रहते
तो उनके द्वारा ब्रह्म के परिणाम की बात नहीं घट सकती ।
यदि सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जाय तो
प्रलयकाल में भी प्रकृति पुरुषों का सद्भाव सिद्ध होता है
अब वह विचार प्रस्तुत किया जाता है ।
मूलम्
अत्रोच्यते - सजीवस्य प्रपञ्चस्याविशेषेण कारणत्वम् उक्तम् ।
जीव-नित्यता
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रेश्वरस्य जीव-रूप-परिणामाभ्युपगमेन
“+++(जायते)+++ नात्मा - श्रुतेर् नित्यत्वाच् च ताभ्य”
इति विरुध्यते ।
नीलमेघः
ब्रह्म को जगत् का उपादानकारण कहने वाले वाक्यों से
यह सिद्ध होता है ब्रह्म समान रूप से चेतन-पदार्थों और अचेतन-पदार्थों का उपादानकारण है ।
इससे यदि यह माना जाय कि
ईश्वर जीवरूप में परिणत होता है
तब तो “नात्मा श्रुतेर्नित्यत्वाच्च ताभ्यः”
इस ब्रह्मसूत्र से विरोध उपस्थित होगा ।
ब्रह्मसूत्र का यह अर्थ है कि
जीवात्मा उत्पन्न नहीं होता
क्योंकि श्रुति में जीवात्मा नहीं जन्मने वाला कहा गया है,
तथा श्रुतियों से जीवात्मा नित्य सिद्ध होता है ।
इससे मानना पड़ता है कि
जीवात्मा उत्पन्न नहीं होता ।
यह उदाहृत ब्रह्मसूत्र का अर्थ है ।
इससे जीव नित्य एवं अजन्मा सिद्ध होता है ।
नीलमेघः - जीव-नित्यता
आगे के
“न कर्माविभागाद् इति चेन् नानादित्वाद् उपपद्यते चाप्युपलभ्यते च”
इस ब्रह्मसूत्र में
एक शंका का परिहार वर्णित है।
उससे भी जीव का नित्यत्व सिद्ध होता है ।
वह शंका यह है कि
सृष्टि के पूर्व जीव रहते ही नहीं,
उस समय विना किसी विभाग के
केवल ब्रह्म ही रहता है,
उस समय जीव न हों
तो उनके कर्म कैसे रह सकते हैं।
मानना पड़ेगा कि
प्रलयकाल में जीवों के कर्म भी नहीं रहते हैं ।
ऐसी स्थिति में
यह कैसे माना जा सकता है कि
जीवों के कर्मानुसार सृष्टि में वैषम्य होता है,
यह शंका है।
इसका परिहार इस प्रकार किया गया है कि
जीव और उनका कर्मप्रवाह अनादि हैं ।
अनादि होने पर भी
यह कहा जा सकता है कि
उस समय निर्विभाग ब्रह्म रहता है
क्योंकि प्रलयकाल में जीव
नामरूप विभाग को छोड़कर
ब्रह्म में घुल मिल कर लीन रहते हैं,
उस समय वे ब्रह्म के शरीर के रूप में भी
कहने योग्य नहीं हैं ।+++(4)+++
इस प्रकार अत्यन्त सूक्ष्मरूप में प्रलयकाल में भी
जीवों का सद्भाव मानना चाहिये ।
अन्यथा बहुत से दोष उपस्थित होंगे
जिनका परिहार कठिन है ।
वे दोष ये हैं कि
जीव यदि प्रलय में
पूर्णरीति से नष्ट हो जायेंगे
तो सृष्टिकाल में नये जीवों की सृष्टि माननी होगी ।
इन नये जीवों ने तो
इसके पूर्व कुछ कर्म किया ही नहीं,
इनको क्यों विविध फल भोगना पड़ता है ?
न किये गये कर्मों का फल यदि भोगना पड़े,
यह महान् अन्याय है ।
तथा यह भी मानना होगा कि
पूर्वकल्प के जीव अपने द्वारा किये गये बहुत से कर्मों का फल
विना भोगे ही नष्ट हो गये,
उनके कर्म भी उनके साथ नष्ट हो गये ।
फलभोग के विना कर्मों का नाश मानना भी
महान् दोष है ।
इन दोषों को ही “ अकृताभ्यागम” और " कृतविप्ररणाश" कहते हैं ।
इन दोषों का परिहार करने के लिये यह मानना होगा कि
पूर्वकल्प में अवस्थित जीव पुनः सृष्टि में
कर्मानुसार जन्म लेते हैं और फल भोगते हैं।
इससे प्रलयकाल में भी
जीव और उनके कर्मप्रवाहों का सद्भाव फलित होता है ।
अतएव ये अनादि माने जाते हैं ।
जीव अनादि हैं यह अर्थ शास्त्रों में वर्णित है ।
जीव और उनके कर्म अनादि होने के कारण
नीलमेघः - निगमनम्
यह सिद्धान्त पक्का हो जाता है कि
ब्रह्म जीवों के कर्मानुसार
विविध शरीर एवं कर्मफल का प्रदान करता है ।
ब्रह्म में कोई दोष नहीं लगता ।
ब्रह्मसूत्रकार के इस निर्णय के अनुसार
जीव अजन्मा एवं नित्य सिद्ध होते हैं,
ये ब्रह्म का परिणाम नहीं हो सकते ।
मूलम्
तत्रेश्वरस्य जीवरूपपरिणामाभ्युपगमेन नात्मा श्रुतेर् नित्यत्वाच् च ताभ्य इति विरुध्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैषम्य-नैर्घृण्य-परिहारश् च
जीवानाम् अनादित्वाभ्युपगमेन
+++(दुःखादेस्)+++ तत्-कर्म-निमित्ततया प्रतिपादितः
वैषम्य-नैर्घृण्ये न - +++(कर्म-)+++सापेक्षत्वान्
+++(कर्म वैषम्यहेतुर् इति)+++ न +++(सृष्टेः प्राक्)+++ कर्माविभागाद्
इति चेन् न -
अनादित्वाद् उपपद्यते
चाप्य् उपलभ्यते च
+इत्य्
+++(सृष्टि-कालिक-)+++अकृत+++(-कर्म-)++++अभ्यागम–+++(प्रलय-कालिक-)+++कृत-विप्रणाश-प्रसङ्गश् चानित्यत्वे ऽभिहितः ।
नीलमेघः - कर्म-सापेक्षत्वात्
किंच, ब्रह्मसूत्रकार ने एक शंका का परिहार किया है,
उससे भी जीव नित्य सिद्ध होता है ।
वह शंका यह है कि
ब्रह्म सृष्टि करते समय
कई जीवों को
अच्छे शरीर देता है,
तथा कई जीवों को
निकृष्ट शरीर देता है ।
इसी प्रकार कइयों को सुख देता है,
कइयों को दुःख देता है ।
इससे ब्रह्म में वैषम्य दोष आ जाता है ।
किंच ब्रह्म जिनको निकृष्ट शरीर एवं दुःख देता है,
उनके प्रति वह निर्दय हो जाता है ।
उसमें निर्दयत्व दोष आ जाता है ।
इन दोषों का परिहार कैसे किया जाय ?
यह शंका है,
इस शंका का समाधान करते हुये
ब्रह्मसूत्रकार ने कहा कि
ब्रह्म में वैषम्य एवं निर्दयत्व दोष नहीं आता
क्योंकि ब्रह्म जीवों के कर्मों की ओर ध्यान देकर
उन कर्मों के अनुसार
इष्ट एवं अनिष्ट फलों का प्रदान करता है।
पुण्य कर्म करने वालों उत्कृष्ट शरीर एवं सुख देता है ।
पापकर्म करने वालों को निकृष्ट शरीर एवं दुःख देता है ।
यदि ब्रह्म कर्मों की ओर ध्यान दिये बिना
मनमाना ऐसे ही फल देता हो
तो उसमें वैषम्य एवं निर्दयत्व दोष अवश्य लगता ।
किन्तु ब्रह्म जीवों के कर्मानुसार फल देता है
अतएव उसमें ये दोष नहीं लगते । [[१५१]]
उपर्युक्त शंकासमाधान
“वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् "
इस ब्रह्मसूत्र में कहा गया है।
मूलम्
वैषम्यनैर्घृण्यपरिहारश् च जीवानाम् अनादित्वाभ्युपगमेन तत्कर्मनिमित्ततया प्रतिपादितः वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वान् न कर्माविभागाद् इति चेन् न अनादित्वाद् उपपद्यते चाप्य् उपलभ्यते चेत्यकृताभ्यागमकृतविप्रणाशप्रसङ्गश् चानित्यत्वे ऽभिहितः ।
प्रकृति-नित्यता
श्रुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा प्रकृतेर् अप्य् अनादिता श्रुतिभिः प्रतिपदिता
अजाम् एकां लोहित-शुक्ल-कृष्णां
बह्वीं प्रजां जनयन्तीं स-रूपाम् ।
अजो ह्य् एको जुषमाणो ऽनुशेते,
जहात्य् एनां भुक्त-भोगाम् अजो ऽन्यः ।
इति
प्रकृति-पुरुषयोर् अजत्वं दर्शयति ।
नीलमेघः
श्रुतियों से सिद्ध होता है कि
प्रकृति भी अनादि है ।
वे श्रुतिवचन ये हैं कि-
(१) अजामेकां लोहित-शुक्ल-कृष्णां
बह्वीं प्रजां जनयन्तीं सरूपाम् ।
ग्रजो ह्यको जुपमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोग मजोऽन्यः ॥
अर्थात् तेज जल और पृथिवी के रूप में परिणत होने के कारण
उनके रक्त श्वेत और कृष्ण रूप को अपनाने वाली,
अपने समान रूप वाली
बहुत प्रजा को उत्पन्न करने वाली,
एवं जननरहित प्रकृति का
प्रीति से सेवन करता हुआ
एक जननरहित बद्धजीव उसमें पड़ा रहता है
दूसरा विद्वान् जीव
विरक्त होकर इस प्रकृति को
जिसका भोग भोगा गया है-
छोड़ देता है ।
इस वचन से प्रकृति और पुरुष
जननरहित कहे गये हैं,
तथा प्रकृति जगद्-रूप में परिणत होने वाली कही गई है ।
[[१५२]]
मूलम्
तथा प्रकृतेर् अप्य् अनादिता श्रुतिभिः प्रतिपदिता
अजाम् एकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीं प्रजां जनयन्तीं सरूपाम् । अजो ह्य् एको जुषमाणो ऽनुशेते जहात्य् एनां भुक्तभोगाम् अजो ऽन्यः ।
इति
प्रकृतिपुरुषयोर् अजत्वं दर्शयति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मान् मायी सृजते विश्वम् एतत्,
तस्मिंश् चान्यो +++(जीवः)+++ मायया संनिरुद्धः।
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्
मायिनं तु महेश्वरम्
इति प्रकृतिर् एव स्वरूपेण विकारास्पदम् इति च दर्शयति ।
नीलमेघः
(२) अस्मान् मायी सृजते विश्वमेतत् तस्मिश्चान्यो मायया संनिरुद्धः ।
मायां तु प्रकृति विद्यात्मायिनं तु महेश्वरम् ॥
अर्थात्
मायाप्रेरक परमात्मा
इस माया से
इस विश्व की सृष्टि करते हैं ।
दूसरा जीव
ईश्वराश्रित माया से मोहित रहता है । त्रिगुणात्मिका प्रकृति को विचित्र और आश्चर्यमय सृष्टि का कारण होने से माया समझे, मायाप्रेरक को महेश्वर समझे । इस वचन से सिद्ध होता है कि ईश्वर प्रकृति के द्वारा जगत् की सृष्टि करते हैं ।
मूलम्
अस्मान् मायी सृजते विश्वम् एतत्
तस्मिंश् चान्यो मायया संनिरुद्धः।
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्
मायिनं तु महेश्वरम्
इति प्रकृतिर् एव स्वरूपेण विकारास्पदम् इति च दर्शयति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौर् अन्-आद्य्-अन्तवती सा
जनित्री भूत-भाविनी
+इति च ।
नीलमेघः
(३) “गौरनाद्यन्तवती सा जनित्री भूतभाविनी"
अर्थात्
ईश्वर को लीलारस देने के कारण
गौ के समान बनने वाली प्रकृति
आद्यन्तशून्य है अर्थात् उत्पत्तिविनाशरहित है,
यह समष्टि एवं व्यष्टि सृष्टि करने वाली है ।
इस वचन से सिद्ध होता है कि
प्रकृति स्वरूप से ही समष्टि एवं व्यष्टि सृष्टि के रूप में
परिणत होती है ।
मूलम्
गौर् अनाद्यन्तवती सा जनित्री भूतभाविनीति च ।
स्मृतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मृतिश् च भवति
प्रकृतिं पुरुषं चैव
विद्ध्य् अनादी उभव् अपि ।
विकारांश् च गुणांश् चैव
विद्धि प्रकृतिसंभवान् ।
…
नीलमेघः
उपर्युक्त सभी अर्थ स्मृतिग्रन्थ से भी प्रमाणित होते हैं । गीता में श्रीभगवान् कहते हैं कि-
प्रकृति पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि ॥१३॥१६॥
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अर्थात् परस्पर संबद्ध
महकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।। ७४ ।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृति विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।। ७५ ।।
८ ॥
१० ।।
प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ॥
मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।।
प्रकृति और पुरुष इन दोनों को अनादि समझो। …
मूलम्
स्मृतिश् च भवति
प्रकृतिं पुरुषं चैव
विद्ध्य् अनादी उभव् अपि ।
विकारांश् च गुणांश् चैव
विद्धि प्रकृतिसंभवान् ।
…
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिर् आपो ऽनलो वायुः
खं मनो बुद्धिर् एव च ।
अहंकार इतीयं मे
भिन्ना प्रकृतिर् अष्टधा ।
नीलमेघः
इस जगत् का कारण बनने वाली प्रकृति पृथिवी जल तेज वायु और आकाश आदि के रूप से
मन इत्यादि इन्द्रियों के रूप से मह?? और अहंकार के रूप से आठ प्रकार से विभक्त होकर रहती है ।
मूलम्
भूमिर् आपो ऽनलो वायुः
खं मनो बुद्धिर् एव च ।
अहंकार इतीयं मे
भिन्ना प्रकृतिर् अष्टधा ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरेयम् इतस् त्व् अन्यां
प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो
ययेदं धार्यते जगत् । +++(5)+++
नीलमेघः
यह प्रकृति मेरी है ।
यह मेरी निम्नकोटि की प्रकृति है ।
चेतनों को भोग्य बनने वाली इस अचेतन प्रकृति से
भिन्न भी एक प्रकृति है, वह जीव है,
जीव श्रेष्ठ प्रकृति है,
इससे यह अचेतन जगत् धृत रहता है ।
इस जीव प्रकृति को भी मेरी ही समझो ।
मूलम्
अपरेयम् इतस् त्व् अन्यां
प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो
ययेदं धार्यते जगत् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतिं स्वाम् अवष्टभ्य
विसृजामि पुनः पुनः ।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः
सूयते सचराचरम् ।
इत्यादिका ।
नीलमेघः
अपनी प्रकृति को आठ रूपों में परिणत कराकर
मैं बारम्बार सृष्टि करता हूँ ।
मुझ अध्यक्ष से प्रेरित होकर यह प्रकृति चराचरयुक्त जगत् को उत्पन्न करती है ।
मूलम्
प्रकृतिं स्वाम् अवष्टभ्य
विसृजामि पुनः पुनः ।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः
सूयते सचराचरम् ।
इत्यादिका ।
सर्व-शरीरी
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं च प्रकृतेर् अपीश्वरशरीरत्वात्
प्रकृति-शब्दो ऽपि तद्-आत्म-भूतस्येश्वरस्य तत्-प्रकार-संस्थितस्य वाचकः ।
नीलमेघः
इन सब वचनों से विदित होता है कि प्रकृति और पुरुष ईश्वर की धार्य परतन्त्र एवं शेषभूत वस्तु है।
अतएव उसका शरीर है।
प्रकृतिशब्द प्रकृति शरीर का धारण करने वाले तथा प्रकृति का आत्मा बने हुये ईश्वर का बाचक है,
मूलम्
एवं च प्रकृतेर् अपीश्वरशरीरत्वात् प्रकृतिशब्दो ऽपि तदात्मभूतस्येश्वरस्य तत्प्रकारसंस्थितस्य वाचकः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुष-शब्दो ऽपि तद्-आत्म-भूतस्येश्वरस्य पुरुष-प्रकार-संस्थितस्य वाचकः ।
नीलमेघः
तथा पुरुषशब्द भी उस ईश्वर का वाचक हैं जो जीवों का अन्तरात्मा बना हुआ है, [[१५३]] तथा जीवविशिष्ट है ।
मूलम्
पुरुषशब्दो ऽपि तदात्मभूतस्येश्वरस्य पुरुषप्रकारसंस्थितस्य वाचकः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस् तद्विकाराणाम् अपि तथेश्वर एवात्मा ।
नीलमेघः
इन प्रकृतिपुरुषों के द्वारा बनने वाले कार्यों का भी अन्तरात्मा ईश्वर ही है ।
मूलम्
अतस् तद्विकाराणाम् अपि तथेश्वर एवात्मा ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् आह
व्यक्तं विष्णुस् तथा ऽव्यक्तं
पुरुषः काल एव च ।
स एव क्षोभको ब्रह्मन्
क्षोभ्यश् च परमेश्वरः ।
इति ।
नीलमेघः
यह अर्थ विष्णुपुराण के निम्नलिखित श्लोक से सिद्ध होता है । वह श्लोक यह है कि-
व्यक्तं विष्णुस्तथाऽव्यक्तं पुरुषः काल एव च ।
स एव क्षोभको ब्रह्मन् क्षोभ्यश्च परमेश्वरः ॥
अर्थात्
व्यक्त प्रपञ्च
अव्यक्त प्रकृति पुरुष और काल
ये सब ईश्वर ही है (क्योंकि वही इन शरीरों का धारण किये हुये है ।
हे ब्रह्मन्, सृष्टि के आरम्भ में
क्षोभ को उत्पन्न कराने वाला
ईश्वर ही है,
तथा क्षोभ को प्राप्त होने योग्य पदार्थ अर्थात् प्रकृति और पुरुष भी परमेश्वर ही है ।
क्योंकि वही प्रकृति और पुरुष को शरीर के रूप में धारण करता है ।
मूलम्
तद् आह
व्यक्तं विष्णुस् तथाव्यक्तं पुरुषः काल एव च । स एव क्षोभको ब्रह्मन् क्षोभ्यश् च परमेश्वरः ।
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः प्रकृति-प्रकार-संस्थिते परमात्मनि प्रकार-भूत-प्रकृत्य्-अंशे विकारः प्रकार्य्-अंशे चाविकारः ।
नीलमेघः
परमात्मा सर्वेश्वर प्रलयकाल में
सूक्ष्मप्रकृति एवं सूक्ष्म जीवों से विशिष्ट
अर्थात् युक्त होकर रहता है ।
प्रकृतिविशिष्ट परमात्मा में
विशेषणांश के रूप में रहने वाली प्रकृति में
सब तरह के विकार होते रहते हैं ।
विशेष्यांश के रूप में अवस्थित परमात्मा में
कोई भी विकार नहीं लगता है,
वह निर्विकार होकर रहता है।
मूलम्
अतः प्रकृतिप्रकारसंस्थिते परमात्मनि प्रकारभूतप्रकृत्यंसे विकारः प्रकार्यंसे चाविकारः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् एव
जीव-प्रकार-संस्थिते परमात्मनि च
प्रकार-भूत-जीवांशे
सर्वे चापुरुषार्थाः
प्रकार्य्-अंशो नियन्ता
निरवद्यः सर्व-कल्याण-गुणाकरः सत्य-संकल्प एव ।
नीलमेघः
ऐसे ही जीवविशिष्ट परमात्मा में
विशेषणांश बने हुये जीवात्मा में
सब तरह के दुःख इत्यादि दोष होते हैं ।
उस विशिष्ट में विशेष्य बने हुये परमात्मा में
नियामक निर्दोष सर्वकल्याणगुणनिधि एवं सत्य संकल्प वाले हैं।
विशिष्ट में दो अंश होते हैं
(१) विशेषणांश और (२) विशेष्यांरा ।
प्रकृतिविशिष्ट ईश्वर में
प्रकृति विशेषणांश है,
ईश्वर विशेष्यांश है,
वैसे ही जीवविशिष्ट ईश्वर में
जोवविशेषांश और ईश्वर विशेष्यांश है ।
विशेषणांश प्रकृति और जीव में
सभी विकार और दोष रहते हैं
विशेष्यांश ईश्वर निर्विकार एवं निर्दोष होकर रहता है।
ईश्वर विशिष्ट रूप से उपादानकारण है, विशेष्य रूप से निर्विकार एवं निर्दोष बनकर रहता है । इस प्रकार ईश्वर को उपादानकारण कहने वाली श्रुति एवं ईश्वर को निर्विकार एवं निर्दोष कहने वाली श्रुतियों में सामरस्य हो जाता है। ईश्वर को उपादानकारण कहने वाली श्रुतियों का चिदचिद्विशिष्ट ईश्वर को उपादानकारण कहने में तात्पर्य है । ईश्वर को निर्विकार एवं निर्दोष कहने वाली श्रुतियों का विशिष्ट में अन्तर्गत विशेष्यांश ईश्वर को वैसा बतलाने में तात्पर्य है । अतएव इन श्रुतियों में विरोध नहीं होता । चिदचिद्विशिष्ट ईश्वर कारण है, कार्य भी चिदचिद्विशिष्ट ईश्वर ही है । इसलिये कार और कार्य एक वस्तु माने जाते हैं । उपनिषदों का इस प्रकार भाव लेने पर सर्व श्रुतियों में समन्वय हो जाता है, कहीं किसी से भी विरोध नहीं होता ।
मूलम्
एवम् एव जीवप्रकारसंस्थिते परमात्मनि च प्रकारभूतजीवांशे सर्वे चापुरुषार्थाः प्रकार्यंशो नियन्ता निरवद्यः सर्वकल्याणगुणाकरः सत्यसंकल्प एव ।