१२ जगतो ब्रह्मात्मकता

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् एवं
कार्य-कारण-भावादि-मुखेन
कृत्स्नस्य चिद्-अचिद्-वस्तुनः पर-ब्रह्म-प्रकारतया
तद्-आत्मकत्वम् उक्तम् ।

नीलमेघः

यह सम्पूर्ण चेतनाचेतनप्रपञ्च ब्रह्मात्मक है, क्योंकि ब्रह्म इस प्रपञ्च में अन्तरात्मा के रूप में अवस्थित है, यह प्रपञ्च ब्रह्म का शरीर बनकर रहता है अतएव ब्रह्म का विशेषण हो जाता है । इस बात को कार्यकारणभाव आदि के द्वारा “सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः, ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्” इस वाक्य ने सिद्ध किया है। इसका अर्थ हैये सभी उत्पन्न होने वाले पदार्थ सत् ब्रह्म से उत्पन्न हुये हैं
सत् ब्रह्म के द्वारा धृत रहते हैं, अन्त में सत् ब्रह्म में लीन होने वाले हैं इसलिये ये सब ब्रह्मात्मक हैं । इस प्रकार कार्यकारणभाव और धार्यधारकभावसम्बन्ध का वर्णन करके इस श्रुतिवाक्य ने शरीरात्मभाव के आधार पर इस प्रपञ्च को ब्रह्मात्मक सिद्ध किया है, स्वरूपैक्य को लेकर नहीं ।

मूलम्

तद् एवं कार्यकारणभावादिमुखेन कृत्स्नस्य चिदचिद्वस्तुनः परब्रह्मप्रकारतया तदात्मकत्वम् उक्तम् ।