विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः
प्रकृति-पुरुष-महद्–अहं-कार–
तन्-मात्र–भूतेन्द्रिय–
तद्-आरब्ध–चतुर्-दश–भुवनात्मक-ब्रह्माण्ड-
तद्-अन्तर्वर्ति-देव-तिर्यङ्-मनुष्य-स्थावरादि-
सर्व-प्रकार-संस्थान-संस्थितं कार्यम् अपि
सर्वं ब्रह्मैवेति
कारण-भूत-ब्रह्म-विज्ञानाद् एव
सर्वं विज्ञातं भवतीत्य्
“एक-विज्ञानेन सर्वविज्ञानम्” उपपन्नतरम् ।
नीलमेघः
सद्विद्या के आरम्भ में यह जो प्रतिज्ञा कही गई है कि एक को जानने से सब कुछ जाना जाता है। यह प्रतिज्ञा भी विशिष्टाद्वैतसिद्धान्त में अच्छी तरह से लग जाती है। सृष्टि समय में मूल प्रकृति महान् अह्ंकार पंच तन्मात्रा एकादश इन्द्रिय और पंचमहाभूत इस प्रकार २३ तत्त्वों के रूप में परिणत होती है। इन तत्त्वों से अनन्त ब्रह्माण्ड बनते हैं जिनमें प्रत्येक के अन्दर १४ भुवन रहते हैं । इन भुवनों में देव [[१४८]] मनुष्य तिर्यक् और स्थावर आदि के रूप में विविध कार्य पदार्थ रहते हैं । इनमें अवान्तर भेद अनन्त हैं, प्रत्येक की रचना भिन्न २ है । इस प्रकार विविध प्रकार के संनिवेशों को लेकर रहने वाले सभी कार्य पदार्थ ब्रह्म ही हैं क्योंकि ब्रह्म इनके अन्दर अन्तरात्मा के रूप में विराजमान होकर इन रूपों को अपनाये हुये हैं । इस प्रकार विविध कार्य भी ब्रह्म हैं कारण भी ब्रह्म है । कार्य ब्रह्म को समझने से सभी कार्य पदार्थ समझे जा सकते हैं। इस प्रकार उस प्रतिज्ञा का समन्वय विशिष्टाद्वैतसिद्धान्त में सुष्ठु प्रकार से हो जाता है ।
मूलम्
अतः प्रकृतिपुरुषमहदहंकारतन्मात्रभूतेन्द्रियतदारब्धचतुर्दशभुवनात्मकब्रह्माण्डतदन्तर्वर्तिदेवतिर्यङ्मनुष्यस्थावरादिसर्वप्रकारसंस्थानसंस्थितं कार्यम् अपि सर्वं ब्रह्मैवेति कारणभूतब्रह्मविज्ञानाद् एव सर्वं विज्ञातं भवतीत्य् एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानम् उपपन्नतरम् ।