१० ब्रह्मणः सर्व-शब्द-वाच्यता

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवम् एव

स्थावर-जङ्गमात्मकस्य सर्वस्य वस्तुन
ईश्वर-शरीरत्वेन तत्-प्रकारतयैव स्व-रूपसद्-भाव

इति

तत्-प्रकारीश्वर एव तत्-तच्-छब्देनाभिधीयत

इति तत्-सामानाधिकरण्येन प्रतिपादनं युक्तम् ।

नीलमेघः

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यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि

शरीरवाचक मनुष्यादि-शब्द
भले ही जीवात्मा तक के वाचक हों,
जगत् में विद्यमान सभी पदार्थों के वाचक शब्द
ईश्वर तक के वाचक क्यों कर हो सकते हैं ?

इसका उत्तर यह है कि
जगत् में अन्तर्गत स्थावर जंगमात्मक सभी पदार्थ
ईश्वर का शरीर हैं,
ईश्वर के प्रति विशेषण बनकर रहना
यही इनका स्वभाव है ।
इसलिये स्थावर जंगम इत्यादि पदार्थों के वाचक शब्द
इन पदार्थों का अन्तरात्मा बनने वाले ईश्वर तक के वाचक होते हैं ।
यह युक्त ही है ।

तत्तत्पदार्थों के वाचक शब्द
परमात्मा के वाचक होते हैं ।

मूलम्

एवम् एव स्थावरजङ्गमात्मकस्य सर्वस्य वस्तुन ईश्वरशरीरत्वेन तत्प्रकारतयैव स्वरूपसद्भाव इति तत्प्रकारीश्वर एव तत्तच्छब्देनाभिधीयत इति तत्सामानाधिकरण्येन प्रतिपादनं युक्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् एवैतत् सर्वं पूर्वम् एव नाम-रूप-व्याकरण-श्रुति-विवरणे प्रपञ्चितम् ।

नीलमेघः

यह अर्थ इसके पूर्व ही नाम-रूप-व्याकरण श्रुति का अर्थ करते समय
विस्तार से कहा गया है ।

नीलमेघः - निगमनम्

इन सब विवेचनों से यह सिद्ध होता है
“तत्त्वमसि” इस वाक्य में जीववाचक त्वंशब्द जीवान्तर्यामी ब्रह्म को बतलाता है,
तच्छद जगत्कारण ब्रह्म को बतलाता है। दोनों ब्रह्म वास्तव में एक हैं ।
इसलिये वहाँ अभेदनिर्देश संगत हो जाता है ।
यह अभेदनिर्देश जीव और ब्रह्म में शरीरात्मभाव के कारण प्रवृत्त हुआ है,
उनमें स्वरूपैक्य के कारण नहीं ।
जीव और ब्रह्म में स्वरूपैक्य नहीं होता, किन्तु शरीरात्मभावसम्बन्ध ही है ।

मूलम्

तद् एवैतत् सर्वं पूर्वम् एव नामरूपव्याकरणश्रुतिविवरणे प्रपञ्चितम् ।