विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु च दण्डादेः स्वतन्त्रस्य द्रव्यान्तरप्रकारत्वे मत्वर्थीयप्रत्ययो दृष्टः -
यथा दण्डी कुण्डलीति ।
मूलम्
ननु च दण्डादेः स्वतन्त्रस्य द्रव्यान्तरप्रकारत्वे मत्वर्थीयप्रत्ययो दृष्टः -
यथा दण्डी कुण्डलीति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो गोत्वादि-तुल्यतया
चेतनाचेतनस्य द्रव्य-भूतस्य वस्तुन
ईश्वर-प्रकारतया सामानाधिकरण्येन प्रतिपादनं
न युज्यते ।
नीलमेघः
[[१४४]]
इस पर यह शंका होती है कि
दण्ड आदि द्रव्य स्वतन्त्र होते हुये
कभी २ दूसरे द्रव्य के विशेषण बन जाते हैं।
वहाँ केवल दण्ड शब्द से
दण्डवाले पुरुष का बोध नहीं होता ।
वहाँ दण्ड शब्द के साथ " वाला” इत्यादि शब्दों -
जो संस्कृत भाषा के मत्वर्थीयप्रत्यय के समानार्थक हैं—
को जोड़कर " दण्डवाला "
ऐसा कहने पर ही
दण्डवाले पुरुष का बोध होता है ।जातिवाचक गोशब्द गुणवाचक नील आदि शब्द,
विना “वाला” इत्यादि शब्दों का सहारा लिये ही
गोत्वजाति वाले पदार्थ का तथा नीलरूप वाले पदार्थ का बोध कराते हैं,
द्रव्यवाचक दण्ड आदि शब्द " वाला" इत्यादि शब्दों का सहारा लेकर ही " दण्डवाले" इत्यादि अर्थों को बतलाते हैं ।
विशिष्टाद्वैतसिद्धान्त के अनुसार चेतन और अचेतन द्रव्य हैं ।
यदि वे ईश्वर का विशेषण होकर भायेंगे
तो चेतनाचेतनवाचक शब्द " वाला" इत्यादि शब्दों का सहारा लेकर ही
ईश्वर तक का बोध करा सकते हैं ।चेतनाचेतनवाचक शब्द “वाला” इत्यादि शब्दों का सहारा लिये विना
ईश्वर तक का बोध नहीं करा सकते हैं
“वाला” इत्यादि शब्द साथ न जुड़ने पर
चेतनाचेतनवाचक उसी प्रकार चेतनाचेतन पदार्थों को बतलाकर विरत हो जायेंगे,
जिस प्रकार केवल दण्डशब्द दण्डमात्र को बतलाकर विरत हो जाता है ।ऐसी स्थिति में विशिष्टाद्वैतसिद्धान्त में चेतनाचेतनद्रव्यवाचक शब्दों को
गुणवाचक एवं जातिवाचक शब्दों के समान मानकर
यह कहना कि
जिस प्रकार जातिवाचक शब्द और गुणवाचक शब्द
जाति और गुणों को बतलाते हुये
उनका आश्रय बनने वाले द्रव्य तक का बोध कराते हैं
वैसे ही चेतनाचेतनद्रव्यवाचक शब्द भी
उन द्रव्यों को बतलाते हुये
उनका आत्मा बने हुये ईश्वर तक का बोध कराते हैं -
कैसे संगत हो सकता है ?जाति और गुण द्रव्य परतन्त्र पदार्थ हैं,
इसलिये उनके वाचक शब्द द्रव्य तक का बोध करा सकते हैं चेतनाचेतनद्रव्य दण्ड आदि की तरह स्वतन्त्र पदार्थ हैं,
इनके वाचक शब्द " वाला" इत्यादि शब्दों का सहारा लिये विना ही कैसे ईश्वर तक का बोध करा सकते हैं ।
चेतनाचेतन द्रव्यों को जाति और गुण के समान कैसे मान सकते हैं ?
यह शंका है।
मूलम्
अतो गोत्वादितुल्यतया चेतनाचेतनस्य द्रव्यभूतस्य वस्तुन ईश्वरप्रकारतया सामानाधिकरण्येन प्रतिपादनं न युज्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रोच्यते -
गौर् अश्वो मनुष्यो देव इति
भूत-संघात-रूपाणां द्रव्याणाम् एव
देवदत्तो +++(शरीरेण)+++ मनुष्यो जातः +++(आत्म-निष्ठ-)+++पुण्य-विशेषेण
यज्ञदत्तो +++(शरीरेण)+++ गौर् जातः पापेन,
अन्यश् चेतनः पुण्यातिरेकेण +++(शरीरेण)+++ देवो जात
इत्य्-आदि-देवादि-शरीराणां
चेतन-प्रकारतया
लोक-देवयोः +++(शरीरयोः)+++ सामानाधिकरण्येन
+++(देव-शरीरवान्, गौशरीरवान् इत्यादि मतुपा विना)+++
प्रतिपादनं दृष्टम् ।
+++(नैतद् अ-शरीर-द्रव्येषु दृश्येतेति - तेषां सत्तायां स्वतन्त्रत्वात्।)+++
नीलमेघः
यह निर्णय लौकिक प्रयोगों पर ध्यान देने पर
हृदयंगम हो जाता है।
लोक में गौ अश्व मनुष्य और देव इत्यादि शब्द
विभिन्न शरीरों के वाचक माने जाते हैं,
ये शरीर पञ्चमहाभूतों के मिश्रण से बने हुये द्रव्य हैं ।
इन शरीरों के वाचक शब्द
आत्मा तक का बोध कराते देखे गये हैं ।
लोक में यह कहा जाता है कि
देवदत्त पुण्यविशेष से
मनुष्य पैदा हो गया है,
यज्ञदत्त पापकर्म के कारण
बैल बन गया है,
दूसरा चेतन अधिक पुण्य के कारण
देव हो गया है इत्यादि ।
पुण्य और पाप आत्मा में रहते हैं ।
देव मनुष्य गौ इत्यादि शब्द शरीरवाचक हैं,
शरीर और आत्मा भिन्न २ पदार्थ हैं ।
" पुण्य से देवदत्त मनुष्य बन गया"
इस प्रयोग का यह अर्थ नहीं हो सकता कि
देवदत्त आत्मा मनुष्य शरीर बन गया है,
किन्तु यही अर्थ है कि देवदत्त आत्मा मनुष्य शरीर वाला बन गया है।
ऐसे ही दूसरे प्रयोगों का भी अर्थ समझना चाहिये ।
यहाँ शरीरवाचक मनुष्य आदि शब्द,
विना “वाला” इत्यादि शब्दों का सहारा लिये ही मनुष्य शरीर वाले आत्मा तक का बोध कराते हैं ।
इसका कारण यही है कि
जिस प्रकार जाति का व्यक्ति के प्रति परतन्त्र विशेषण बनकर रहना स्वभाव है,
जिस प्रकार गुण का द्रव्य के प्रति परतन्त्र विशेषण बनकर रहना स्वभाव है
उसी प्रकार ही शरीर द्रव्य का भी आत्मा के प्रति परतन्त्र विशेषण बनकर रहना स्वभाव है ।
अतएव शरीरद्रव्य वाचक शब्द “बाला” इत्यादि शब्दों का सहारा लिये विना ही आत्मा तक का बोध कराने में समर्थ होते हैं ।
चेतनाचेतन द्रव्य ईश्वर का शरीर है,
ईश्वर इनका आत्मा है ।
इसलिये चेतनाचेतनवाचक शब्द भी
शरीरवाचक होने के कारण
चेतनाचेतनों को बतलाते हुये
इनमें अन्तरात्मा के रूप में अवस्थित
ईश्वर तक का बोध करा सकते हैं ।
नीलमेघः- शरीर-पारतन्त्र्यम्
इसका समाधान यह है कि
जिस प्रकार जाति व्यक्ति के और गुण द्रव्य के परतन्त्र होकर रहते हैं,
उनका सम्बन्ध छोड़कर रह नहीं सकते,
वैसे ही शरीर द्रव्य होने पर भी
आत्मा का परतन्त्र होकर रहता है,
आत्मा का सम्बन्ध छूटने पर
उसी रूप में
एक क्षण भी रह नहीं सकता,
आत्मसम्बन्ध छूटते ही मिटने लगता है ।
भले ही दण्ड आदि द्रव्य
स्वतन्त्र होकर रह सकें,
किन्तु शरीर द्रव्य आत्मा को छोड़कर स्वतन्त्र होकर रह नहीं सकता ।
अन्यान्य द्रव्य और शरीर द्रव्य में यह महान् अन्तर है ।+++(5)+++
इस अन्तर को हृदयंगम करने पर
यह बात समझ में आ जायेगी कि
स्वतन्त्र दण्ड आदि द्रव्यों के वाचक शब्द
“वाला” इत्यादि शब्दों का सहारा लेकर ही दण्ड [[१४५]] वाले पुरुष को बता सकते हैं,
किन्तु सदा आत्मा के प्रति परतन्त्र होकर रहने वाले शरीर द्रव्य के वाचक शब्द
विना “वाला” इत्यादि शब्दों का सहारा लिये ही
इन शरीरों के आत्मा तक का बोध करा सकते हैं ।
मूलम्
अत्रोच्यते गौर् अश्वो मनुष्यो देव इति भूतसंघातरूपाणां द्रव्याणाम् एव देवदत्तो मनुष्यो जातः पुण्यविशेषेण यज्ञदत्तो गौर्जातः पापेन, अन्यश् चेतनः पुण्यातिरेकेण देवो जात इत्यादिदेवादिशरीराणां चेतनप्रकारतया लोकदेवयोः सामानाधिकरण्येन प्रतिपादनं दृष्टम् ।
अ-पृथक्-सिद्धिः कारणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयम् अर्थः -
जातिर् वा गुणो वा द्रव्यं वा
न +++(मतुपा विना प्रकारि-पर्यन्त-वचन-सामर्थ्ये←)+++ तत्रादरः ।
नीलमेघः - पूर्वपक्षः
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
जहाँ पर जो पदार्थ स्वयं अद्रव्य होता हुआ
द्रव्य के प्रति विशेषण होकर रहता है वहीं उस पदार्थ को बतलाने वाला शब्द
उसका आश्रय बनने वाले द्रव्य तक को बता सकता है।
वैसे पदार्थ जाति और गुण हो हैं ।
इनका वाचक शब्द द्रव्य तक को बता सकता है ।
यदि कहीं [[१४६]] एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का विशेषण बनकर रहता है तो वहाँ विशेषण द्रव्य का वाचक शब्द, विशेष्य द्रव्य को लक्षणा से ही बता सकता है ।आत्मा के प्रति विशेषरण बनने वाले शरीर द्रव्य का वाचक
मनुष्यादि शब्द लक्षणा से ही आत्मा को बता सकता है,
शक्ति से नहीं ।ऐसी स्थिति में विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में यह कैसे माना जाता है कि
शरीरवाचक शब्द आत्मा को शब्दशक्ति से बताते हैं ?
यह प्रश्न है ।
मूलम्
अयमर्थः
जातिर्वा गुणो वा द्रव्यं वा न तत्रादरः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कंचन द्रव्य-विशेषं प्रति
विशेषणतयैव यस्य सद्-भावस्
तस्य तद्–अ-पृथक्-सिद्धेस्
तत्-प्रकारतया तत्-सामानाधिकरण्येन +++(मतुपा विना)+++ प्रतिपादनं युक्तम् ।
नीलमेघः
इस प्रश्न का उत्तर श्रीरामानुज स्वामी जी ने इस प्रकार दिया कि
कौनसा शब्द आश्रय द्रव्य तक का वाचक है ?
इस प्रकार प्रश्न उपस्थित होने पर
कोई यह उत्तर देते हैं कि
जातिवाचक शब्द जाति का आश्रय बनने वाले पदार्थ तक का वाचक होता है ।
उनका यह उत्तर समीचीन नहीं
क्योंकि इनके कथन के अनुसार गुणवाचक शब्द
गुण वाले द्रव्य तक के वाचक नहीं बनेंगे ।
लोक में वे द्रव्य तक के वाचक माने जाते हैं ।
उस प्रश्न का यदि कोई यह उत्तर दे कि
गुणवाचक शब्द गुणों का आश्रय बनने वाले द्रव्य तक के वाचक होते हैं,
उनका यह उत्तर भी समीचीन नहीं क्योंकि
उनके कथन के अनुसार जातिवाचक शब्द जात्याश्रय व्यक्ति के वाचक नहीं बनने पायेंगे ।
लोक में जातिवाचक शब्द जात्याश्रय व्यक्ति के वाचक माने गये हैं ।
इसी प्रकार यदि कोई उपर्युक्त प्रश्न का यह उत्तर दे कि
विशेषण बने हुये शरीर द्रव्य का वाचक
आश्रय आत्मद्रव्य तक का वाचक होता है
तो उनका यह उत्तर भी अन्यान्य स्थल में निर्वाह न होने के कारण
असमीचीन ही है ।
ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठता है कि
उपर्युक्त प्रश्न का समीचीन उत्तर क्या है ?
उत्तर यह है कि
किसी द्रव्य के प्रति
विशेषण बनकर रहना ही
जिस पदार्थ का स्वभाव है,
वह पदार्थ उस द्रव्य से गाढ सम्बन्ध रखता है,
उस द्रव्य को छोड़कर रह ही नहीं सकता
अतएव वह पदार्थ उस द्रव्य का प्रकार अर्थात् विशेषण बनकर दी प्रतीत होता है,
उस पदार्थ का वाचक शब्द
आश्रय देने वाले द्रव्य तक का वाचक होता है ।
वैसे पदार्थ जाति गुण और शरीर ये तीन ही हैं।+++(5)+++
इनमें जाति, व्यक्ति को छोड़कर न रह सकने के कारण व्यक्ति का विशेषण बनकर रहती है,
यह इसका स्वभाव है,
अतएव जातिवाचक गो इत्यादि शब्द व्यक्ति का वाचक हो जाता है ।
गुण, क्रम को छोड़कर न रह सकने के कारण
द्रव्य का विशेषण बनकर रहता है,
यह इसका स्वभाव है ।
अतएव गुणवाचक नील आदि शब्द
गुण वाले द्रव्य तक बाचक होते हैं।
शरीर आत्मा को छोड़कर नहीं रह सकने के कारण
आत्मा का विशेषण चनकर रहता है,
यह शरीर का स्वभाव है,
इसलिये शरीरवाचक मनुष्य आदि शब्द आत्मा तक का वाचक हो जाता है ।
इस प्रकार व्यवस्था देनी चाहिये ।
मूलम्
कंचन द्रव्यविशेषं प्रति विशेषणतयैव यस्य सद्भावस् तस्य तदपृथक्सिद्धेस् तत्प्रकारतया तत्सामानाधिकरण्येन प्रतिपादनं युक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य पुनर् द्रव्यस्य पृथक्-सिद्धस्यैव
कदाचित् क्वचिद् द्रव्यान्तर-प्रकारत्वम् इष्यते
तत्र मत्वर्थीय-प्रत्यय इति विशेषः ।
नीलमेघः
जहाँ स्वतन्त्र रहने वाला द्रव्य
कहीं किसी समय किसी द्रव्य का विशेषण बनता है,
वहाँ “वाला" इत्यादि मत्वर्थीयप्रत्यय की आवश्यकता होती है ।
“वाला” इत्यादि शब्दों का सहारा लेकर ही वह शब्द जो विशेषण द्रव्य का वाचक है विशेष्य द्रव्य को बता सकता है ।
दण्ड स्वतन्त्र रहने वाला पदार्थ है, यदि वह कहीं पुरुष का विशेषण बनता है
तो दण्डवाचक शब्द " वाला” शब्द का सहारा लेकर ही दण्ड वाले पुरुष को बताता है ।
“दण्डवाला” कहने पर ही दण्ड वाले पुरुष का बोध होता है, केवल दण्ड कहने पर नहीं ।
मूलम्
यस्य पुनर् द्रव्यस्य पृथक्सिद्धस्यैव कदाचित्क्वचिद्द्रव्यान्तरप्रकारत्वम् इष्यते तत्र मत्वर्थीयप्रत्यय इति विशेषः ।