विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु च संस्थान+++(=आकृति)+++-रूपेण प्रकारतयैवं-शब्दार्थत्वम्
जाति-गुणयोर् एव दृष्टं,
न द्रव्यस्य ।
स्व-तन्त्र-सिद्धि-योग्यस्य पदार्थस्य
+एवं-शब्दार्थतयेश्वरस्य प्रकार-मात्रत्वम् अयुक्तम् ।
नीलमेघः
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
जाति और गुण द्रव्य के साथ गाढ सम्बन्ध रखते हैं,
वे रहते समय कभी भी द्रव्य को छोड़कर अलग नहीं होते ।
अतएव उन जाति और गुणों के वाचक शब्द [[१४३]] उनको बतलाकर विरत नहीं होते,
किन्तु उनका आश्रय बनने वाले द्रव्य तक को बतलाते हैं ।
उन शब्दों के द्वारा बतलाया जाने वाला द्रव्य
जातिविशिष्ट एवं गुणविशिष्ट रूप में बुद्ध्यारूढ होता है ।
जाति और गुण उस द्रव्य के विशेषणरूप में उसी बुद्धि में भासते हैं ।
“यह गौ है” इस प्रयोग में
“यह " शब्द सामने उपस्थित द्रव्यविशेष का वाचक है ।
“गो” शब्द गोत्वजाति को बतलाता हुआ
उसको आश्रय देने वाले द्रव्य तक को बतलाता है ।
अतएव वहाँ दोनों शब्दों के अर्थों का
अभेद सम्बन्ध से अन्वय होता है
वे शब्द समानाधिकरण अर्थात् एकार्थवाचक माने जाते हैं ।“यह घट नील है” इस प्रयोग में नीलशब्द नीलरूप को बतलाता हुआ
उसको आश्रय देने वाले द्रव्य तक को बतलाता है,
अतएव वहाँ उन दोनों शब्दों के अर्थों में
अभेद सम्बन्ध से अन्वय होता है ।
वे दोनों शब्द समानाधिकरण अर्थात् एकार्थवाचक माने जाते हैं ।ये जातिवाचक शब्द तथा गुणवाचक शब्द
जाति और गुण को प्रकाररूप में अर्थात् विशेषरूप में बतलाते हुये
उनके आश्रय द्रव्य तक के जो वाचक होते हैं
उसका कारण यही है कि
जाति और गुण द्रव्य के साथ गाढ संबद्ध हैं,
द्रव्य को छोड़कर अलग नहीं होते ।+++(5)+++
जाति और गुण द्रव्य परतन्त्र हैं ।यह बात द्रव्य में देखने में नहीं आती
क्योंकि द्रव्य स्वतन्त्र सत्ता रखता है ।
वह दूसरे किसी द्रव्य से
गाढ सम्बन्ध नहीं रखता ।
वह स्वतन्त्र प्रतीत होने वाला पदार्थ है ।
उसको किसी दूसरे द्रव्य का विशेषण बनकर भासित होने की
आवश्यकता नहीं ।विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में चेतन और अचेतन द्रव्य माने जाते हैं।
अतएव वे स्वतन्त्र रहने एवं प्रतीत होने योग्य हैं,
इनको ईश्वर (जो दूसरा द्रव्य है) के प्रति प्रकार बनकर भासने की आवश्यकता नहीं ।
इनके वाचक शब्द इन्हीं को बतलाकर
विरत हो सकते हैं ।
वे शब्द ईश्वर तक को नहीं बतला सकते ।
ये चेतनाचेतन द्रव्य ईश्वर का प्रकार बनकर क्यों रहेंगे,
इनके वाचक शब्द भी ईश्वर तक को क्यों बतलायेंगे,
यह प्रश्न है ।
मूलम्
ननु च संस्थानरूपेण प्रकारतयैवंशब्दार्थत्वम् जातिगुणयोर् एव दृष्टं न द्रव्यस्य ।
स्वतन्त्रसिद्धियोग्यस्य पदार्थस्यैवंशब्दार्थतयेश्वरस्य प्रकारमात्रत्वम् अयुक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्यते -
द्रव्यस्यापि दण्ड-कुण्डलादेर् द्रव्यान्तर-प्रकारत्वं दृष्टम् एव ।
नीलमेघः
इस प्रश्न का उत्तर यह है कि
द्रव्य भी दूसरे द्रव्य का प्रकार अर्थात् विशेषण बनकर
रह सकता है।
लोक में कहा जाता है कि
“यह पुरुष दण्डवाला है”
“वह पुरुष कुण्डलवाला है” ।
यहाँ दण्ड और कुण्डल द्रव्य होते हुये
पुरुष — जो द्रव्य है— के प्रति विशेषण बनकर प्रतीत होते हैं ।
इससे सिद्ध होता है कि
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का विशेषण बन सकता है ।
ऐसी स्थिति में चेतनाचेतन द्रव्यों को
ईश्वरद्रव्य के प्रति विशेषण बनकर भासने में
किसी को भी आपत्ति नहीं करनी चाहिये ।
मूलम्
उच्यते द्रव्यस्यापि दण्डकुण्डलादेर् द्रव्यान्तरप्रकारत्वं दृष्टम् एव ।