विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् उक्तं भवति -
“ब्रह्मैवम् अवस्थितम्” इत्य् अत्रैवं-शब्दार्थ-भूत-प्रकारतयैव
विचित्र-चेतनाचेतनात्मक-प्रपञ्चस्य
+++(सृष्टौ)+++ स्थूलस्य, +++(प्रलये)+++ सूक्ष्मस्य च सद्-भावः ।
नीलमेघः
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
उपनिषदों से विदित होता है कि
सृष्टि के पूर्व एक ब्रह्म ही था,
इससे मानना पड़ता है कि
प्रलयकाल में चेतन और अचेतन नहीं थे ।
उस समय चेतनाचेतनों के साथ
ब्रह्म का शरीरात्मभावसम्बन्ध कैसे माना जा सकता है ?
इस प्रश्न के उत्तर में
श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
उपनिषदों से यह भी विदित होता है कि
वह ब्रह्म जगत् का उपादान कारण एवं निमित्त कारण है,
साथ ही वह ब्रह्म निर्विकार एवं निर्दोष भी है ।
निमित्त कारण होने से
ब्रह्म में सर्वज्ञत्व एवं सत्यसंकल्पत्व इत्यादि गुण सिद्ध होते हैं ।
ब्रह्म जगत् का उपादान कारण होता हुआ निर्विकार है,
इसमें विरोध उपस्थित होता है
क्योंकि जो कारण कार्यरूप में परिणत होता है
वही उपादान कारण है ।
उपादान कारण विकार वाला होता है ।
यदि ब्रह्म उपादान कारण है
तो वह सविकार होगा,
यदि ब्रह्म निर्विकार है
तो वह उपादान कारण नहीं बन सकता ।
ब्रह्म में निर्विकारत्व एवं उपादानत्व साथ नहीं रह सकते,
इनमें परस्पर विरोध है ।
इस विरोध को दूर करने के लिये
यह मानना पड़ता है कि
प्रलयकाल में अत्यन्त सूक्ष्मरूप में
चेतनाचेतनतत्त्व ब्रह्म में संबद्ध रहते हैं ।
अतएव प्रकृति एवं जीव,
शास्त्रों में अज एवं नित्य कहे गये हैं ।+++(5)+++
यदि जीवों को अनित्य मानें तो
उनकी उत्पत्ति एवं विनाश मानना होगा ।
ऐसी स्थिति में दो दोष लग जायेंगे
(१) जीव अपने द्वारा किये गये कर्मों का फल
विना भोगे ही विनष्ट हो जाते हैं ।
(२) उत्पन्न होने वाले नये जीवों को
कर्म किये बिना ही फल भोगना पड़ता है ।
ये दोनों दोष कर्म सिद्धान्त के अनुसार
महान् दोष हैं ।
इन दोषों को दूर करने के लिये
जीवों को नित्य मानना पड़ता है ।
प्रलयकाल में ब्रह्म सूक्ष्म चेतनाचेतनों से विशिष्ट होकर रहता है ।
वह स्वयं निर्विकार रहता हुआ
सूक्ष्म चेतनाचेतनों के द्वारा जगत् के रूप में परिणत हो जाता है ।
इसलिये जगत् का उपादान कारण कहलाता है ।
ब्रह्म के निर्विकारत्व के साथ
उपादान कारणत्व को बनाये रखने के लिये
प्रलयकाल में भी सूक्ष्मरूप से चेतनाचेतनों का सद्भाव मानना [[१४२]] होगा ।
प्रलयकाल में वे चेतनाचेतन
ब्रह्म का परतन्त्र विशेषण बनकर रहते हैं ।
शरीर बनकर रहते हैं ।
इन विशेषणों से विशिष्ट होकर
उस समय ब्रह्म रहता है ।
प्रलयकाल में ब्रह्म कैसा रहता है ?
इस प्रश्न का उत्तर
ब्रह्म को निमित्तकारण एवं उपादान कारण मानने वाले वैदिकों को
इस प्रकार देना होगा कि
प्रलयकाल में ब्रह्म सर्वज्ञत्व और सत्यसंकल्पत्व और शक्ति इत्यादि कल्याणगुणों से युक्त होकर रहता है,
तथा सूक्ष्म चेतनाचेतनरूपी शरीर से ( परतन्त्र विशेषण से) विशिष्ट होकर रहता है ।
वही ब्रह्म सृष्टिकाल में स्थूल चेतनाचेतनों से विशिष्ट होकर रहता है ।
प्रलयकाल में चेतनाचेतन नामरूपविभागहीन होकर रहते हैं
यही उनकी सूक्ष्मावस्था एवं एकत्वावस्था कही जाती है ।+++(5)+++
सृष्टिकाल में चेतनाचेतन नामरूपविभाग को प्राप्त करते हैं,
यही उनकी स्थूलावस्था एवं बहुत्वावस्था कहलाती है ।
मूलम्
एतद् उक्तं भवति -
ब्रह्मैवम् अवस्थितम् इत्य् अत्रैवंशब्दार्थभूतप्रकारतयैव विचित्रचेतनाचेतनात्मकप्रपञ्चस्य स्थूलस्य सूक्ष्मस्य च सद्भावः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा च “बहु स्यां प्रजायेये"त्य् अयम् अर्थः संपन्नो भवति ।
नीलमेघः
ब्रह्म शरीर बनकर
परतन्त्र विशेषण के रूप में अवस्थित चेतनाचेतनों के द्वारा
प्रलयकाल में एकत्वावस्था को
तथा सृष्टिकाल में बहुत्वावस्था को प्राप्त होता है ।
अतएव उपनिषद् वर्णन करती है कि
“तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेय”
अर्थात्
उस परब्रह्म ने संकल्प किया कि (चेतनाचेतनों के द्वारा)
एकत्वावस्था को प्राप्त हुआ मैं
(उन चेतनाचेतनों के द्वारा)
बहु बन जाऊँ, तदर्थ उत्पन्न होऊँ ।
सृष्टिकाल एवं प्रलयकाल में
सदा चेतनाचेतनप्रपञ्च
ब्रह्म का परतन्त्र विशेषण बनकर रहता है,
स्वतन्त्र होकर नहीं ।
ब्रह्म सदा इससे विशिष्ट होकर रहता है ।
ब्रह्म को समझ में लेते समय चेतनाचेतन तत्त्वों से विशिष्ट रूप में ही
समझ में लाना चाहिये ।
मूलम्
तथा च बहु स्यां प्रजायेयेत्ययमर्थः संपन्नो भवति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैवेश्वरस्य कार्यतया कारणतया च
नाना-संस्थान+++(=आकृति)+++-संस्थितस्य
संस्थानतया चिद्–अ-चिद्–वस्तु-जातम् अवस्थितम् इति ।
नीलमेघः
जिस प्रकार देवदत्त को सुनते समय
शरीर विशिष्ट देवदत्त समझ में आता है,
उसी प्रकार ब्रह्म को समझते समय
चेतनाचेतनशरीरधारी ब्रह्म समझ में आ जाता है ।
चेतनाचेतन तत्त्व विशेषण रूप में समझ में आ जाते हैं,
उनको पृथक् कहने की आवश्यकता नहीं ।
ब्रह्म जब कारण बनता है,
तब सूक्ष्म चेतनाचेतन शरीरधारी होकर रहता है ।
ब्रह्म जब कार्य बन जाता है
तब स्थूल चेतनाचेतन शरीरधारी होकर रहता है।
दोनों ही परिस्थितियों में
चेतनाचेतन तत्त्व शरीर के रूप में
ब्रह्म का परतन्त्र विशेषण बनकर रहते हैं,
स्वतन्त्र होकर नहीं ।
इसलिये ब्रह्म का चेतनाचेतनों के साथ
सदा शरीरात्मभावसम्बन्ध बना रहता है ।
मूलम्
तस्यैवेश्वरस्य कार्यतया कारणतया च नानासंस्थानसंस्थितस्य संस्थानतया चिदचिद्वस्तुजातम् अवस्थितम् इति ।