विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा हि “तत् त्वम्” इति सामानाधिकरण्ये
“तद्” इत्यनेन
जगत्-कारणं
सर्व-कल्याण-गुण-गणाकरं
निरवद्यं ब्रह्मोच्यते ।
नीलमेघः
तथाहि -
“तत्त्वमसि ” इस अभेद निर्देश में
तच्छब्द से वह ब्रह्म अभिहित होता है
जो जगत् का कारण सर्वकल्याणगुणनिधि एवं निर्दोष है ।
उपर्युक्त आकारों से युक्त ब्रह्म
तच्छद का अर्थ है ।
मूलम्
तथा हि तत् त्वम् इति सामानाधिकरण्ये तद् इत्यनेन जगत्कारणं सर्वकल्याणगुणगणाकरं निरवद्यं ब्रह्मोच्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“त्वम्” इति च
चेतन-सामानाधिकरण्य-वृत्तेन
जीवान्तर्यामि-रूपि तच्-छरीरं
तद्-आत्मतया ऽवस्थितं
तत्-प्रकारं ब्रह्मोच्यते ।
नीलमेघः
तच्छद एवं त्वं शब्द में
एक विभक्ति प्रथमा लगी हुई है,
इसलिये इन दोनों शब्दों के अर्थ अभेद सम्बन्ध से अन्वय रखते हैं ।
इसलिये यहाँ " त्वं” शब्द से
समक्ष अवस्थित जीव का अन्तर्यामी बना हुआ परब्रह्म अभिहित होता है ।
वह परब्रह्म जीव को
शरीर बनाकर
उसमें अन्तरात्मा के रूप में
सदा अवस्थित है।
इसलिये वह सदा जीवविशिष्ट होकर रहता है ।
समानविभक्ति को लेकर प्रवृत्त
ये दोनों पद
जगत्कारण ब्रह्म एवं जीवविशिष्ट ब्रह्म में
अभेद को बतलाते हैं ।
भाव यह है कि
वह जगत्कारण ब्रह्म ही
समक्ष अवस्थित जीव का अन्तर्यामी बनकर
उस जीव से विशिष्ट होकर रहता है ।
“तत्त्वमसि " वाक्य का यही अर्थं
विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में माना जाता है ।
यह अर्थ निदुष्ट है ।
मूलम्
त्वम् इति च चेतनसामानाधिकरण्यवृत्तेन जीवान्तर्यामिरूपि तच्छरीरं तदात्मतयावस्थितं तत्प्रकारं ब्रह्मोच्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतरेषु पक्षेषु +++(शङ्कर-मते विशेषण-परित्यागेन)+++ सामानाधिकरण्य+++(=विशिष्टयोर् विशेष्ये पर्यवसानम्)+++-हानिर्,
+++(भास्करादि-मते)+++ ब्रह्मणः सदोषता च स्यात् ।
नीलमेघः
इतरपक्षों में सामाधिकरण्य लक्षण की हानि,
एवं ब्रह्म में सदोषत्व ऐसे दोष लग जाते हैं ।
विशेषण रूप में विभिन्न धर्मों को बताते हुये
दो शब्द एक विशेष्य में पर्यवसान पायें
यही सामानाधिकरण्य का लक्षण है ।+++(5)+++
श्रीशंकराचार्य के मत में तच्छब्द
सर्वज्ञत्व इत्यादि विशेषणों को छोड़कर
तथा त्वं शब्द
अल्पज्ञत्व इत्यादि विशेषणों को छोड़कर
चैतन्य भर को उपस्थापित करते हैं ।
इस मत में विशेषणों को त्यागने के कारण
सामानाधिकरण्य लक्षरा नहीं लगता है
तथा ब्रह्म में अविद्या दोष मानना पड़ता है ।+++(5)+++
श्रीभास्कराचार्य के मत में
जीव और ब्रह्म में अभेद मानने के कारण
ब्रह्म में तच्छब्दप्रतिपाद्य कल्याणगुणों के विरुद्ध
अज्ञत्व और दुःखित्यादि दोष लग जायेंगे ।
यदि त्वं शब्द जीवत्व को छोड़कर
वस्तु मात्र को कहे
तो त्वं शब्द के मुख्यार्थं को त्यागना होगा,
और सामानाधिकरण्य लक्षण की हानि भी होगी ।
श्री-यादव-प्रकाश के मत में
जीव और ईश्वर
ब्रह्म का अंश माने जाते हैं
जिस प्रकार मृत्तिका के अंश बने हुये
घट और शराव में अभेद नहीं होता है
उसी प्रकार ब्रह्म के अंश ईश्वर और जीव में
अभेद नहीं हो सकता ।
अभेद होने [[१४१]] पर
ईश्वर में सर्वज्ञत्वादि गुणों के विरुद्ध
अल्पज्ञत्व और दुःखित्व इत्यादि दोष आ जाते हैं ।
इस प्रकार तीनों पक्षों में प्रतिपादित अर्थ
दोषदूषित है
अतएव त्याज्य है ।
विशिष्टाद्वैतसिद्धान्त में वर्णित अर्थ निदुष्ट है,
अतएव संग्राह्य है ।
मूलम्
इतरेषु पक्षेषु सामानाधिकरण्यहानिर् ब्रह्मणः सदोषता च स्यात् ।