विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्य्-आदि–वेद-विद्-अग्रेसर–
वाल्मीकि-पराशर-द्वैपायन-वचोभिश् च
परस्य ब्रह्मणः सर्वस्यात्मत्वावगमात्
चिद्–अ-चिद्-आत्मकस्य वस्तुनस्
तच्-छरीरत्वावगमाच् च
शरीरस्य शरीरिणं प्रति प्रकारतयैव पदार्थत्वात्, …
नीलमेघः
इन उदाहृत श्रुतिवचनों से तथा वेदज्ञों में अग्रेसर
श्रीवाल्मीकि जी श्रीपराशर जी तथा श्रीवेदव्यास जी के वचनों से
यह प्रमाणित होता है कि
परब्रह्म सबका आत्मा है,
तथा यह चेतनाचेतन पदार्थ उनका शरीर है ।
आत्मा के प्रति
सदा प्रकार अर्थात् विशेषण बनकर रहना
शरीर का स्वभाव होता है ।
मूलम्
इत्यादिवेदविदग्रेसरवाल्मीकिपराशरद्वैपायनवचोभिश् च
परस्य ब्रह्मणः सर्वस्यात्मत्वावगमात्
चिदचिदात्मकस्य वस्तुनस् तच्छरीरत्वावगमाच् च शरीरस्य शरीरिणं प्रति प्रकारतयैव पदार्थत्वाच्
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीर-शरीरिणोश् च धर्म-भेदे ऽपि +++(आप्त-सम्बन्धोऽपि च)+++
तयोर् +++(धर्मजातयोर्)+++ अ-संकरात्
नीलमेघः
इनमें ऐसा गाढ सम्बन्ध है,
जिससे शरीर आत्मा को छोड़कर
जीवित रह ही नहीं सकता।
यहाँ पर यह शंका होती है कि
शरीर और आत्मा में स्वरूपभेद एवं धर्मभेद रहने पर भी
इनमें सुदृढ़ सम्बन्ध होने के कारण संभव है कि
शरीर का गुणधर्म आत्मा में पहुँच जाय,
तथा आत्मा का गुणधर्म शरीर में पहुँच जाय ।
लोक में देखा जाता है कि
गाढ सम्बन्ध होने पर
एक का गुणधर्म
दूसरे में चला जाता है ।
उदाहरण -
महापातकियों के साथ संसर्ग करने से
संसर्ग करने वाले में महापातकित्व दोष आ जाता है ।
जहाँ पर लवण उत्पन्न होता है,
उस स्थान में पड़ा हुआ काष्ठ
लवण संसर्ग से लवण बन जाता है ।
उसी प्रकार
प्रकृत में गाढ संसर्ग के कारण
आत्मा में शरीरगत गुणधर्म
तथा शरीर में आत्मगत गुणधर्म पहुँच सकते हैं,
उससे इनमें धर्मसंकर हो सकता है।
इस शंका का समाधान यह है कि
गाढ सम्बन्ध होने पर भी इनमें धर्मसंकर नहीं होता ।
आत्मसंसर्ग से न शरीर चेतन बन सकता है,
न शरीर सम्बन्ध से आत्मा जढ बनता है ।
गाढ सम्बन्ध होने पर भी असंकीर्ण धर्मों को लेकर रहना
इनका स्वभाव है ।
ब्रह्म सम्पूर्ण चेतनाचेतनरूपी
शरीरों में अन्तरात्मा के रूप में
गाढ सम्बन्ध रखने पर भी
इनके दोषों से अस्पृष्ट होकर ही रहता है।
मूलम्
शरीरशरीरिणोश् च धर्मभेदे ऽपि तयोर् असंकरात्
विश्वास-प्रस्तुतिः
“सर्व-शरीरं ब्रह्मे"ति
ब्रह्मणो वैभवं प्रतिपादयद्भिः सामानाधिकरण्यादिभिर्
मुख्य-वृत्तैः +++(न तु लक्षणादिवृत्तैः शब्दैः)+++
सर्व-चेतनाचेतन-प्रकारं ब्रह्मैवाभिधीयते
+++(“तत्त्वमसि”, “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” इत्यादिभिः)+++
।
नीलमेघः - सर्वत्र ब्रह्म-भानम्
किसी भी पदार्थ को देखें,
तत्तच्छरीरक ब्रह्म ही दर्शन देता है
यदि सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय ।
साधारणरीति से बुद्धि
स्थूल चेतनाचेतन पदार्थों का ही ग्रहण करके रह जाती है,
यदि बुद्धि सूक्ष्म बनकर ग्रहण करे
तो सर्वत्र तत्तच्छरीरक ब्रह्म का ग्रहण करती है,
उस बुद्धि में सभी पदार्थ
विशेषण रूप में तथा ब्रह्म विशेष्य रूप में उसी प्रकार भासते हैं
जिस प्रकार द्रव्य को देखते समय
जाति गुण और क्रिया विशेषण रूप में, द्रव्य विशेष्य रूप
बुद्ध्यारूढ होते हैं ।
जिस प्रकार जाति गुण और क्रिया
द्रव्य के साथ २ ही एक बुद्धि में भासते हैं
उसी प्रकार चेतनाचेतन प्रपञ्च ब्रह्म के साथ २ ही एक बुद्धि में भासने लगता है ।
उस समय बुद्धि
चेतनाचेतन-प्रपञ्च-शरीरक ब्रह्म का ही
सर्वत्र दर्शन करती है
ब्रह्म ही उन २ पदार्थों के रूपों को धारण करता हुआ
दृष्टिगोचर होता है ।
नीलमेघः - ब्रह्माभिधानम्
इस प्रकार श्रुति
ब्रह्म को सर्वशरीरक कहकर
ब्रह्म के वैभव को इस प्रकार प्रतिपादन करती है कि
इन सब पदार्थों को शरीर के रूप में
ब्रह्म ही धारण करता है,
नियमन करता है,
इनसे उत्कर्ष पाता है,
ये सब ब्रह्म के अत्यन्त परतन्त्र हैं,
उसको नाना प्रकार से मुखोल्लास करने के लिये ही बने हुये हैं ।
इस प्रकार वैभव को बतलाने के लिये ही
“तत्त्वमसि” और “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” इत्यादि अभेद श्रुतियाँ प्रवृत्त हैं ।
ये श्रुतियाँ विभिन्न विशेषणों को लेकर बताये गये
दोनों पदार्थों में ऐक्य का वर्णन करती हैं।
इसलिये समानाधिकरण में [[१४०]] निर्देश कही जाती हैं।
इन समानाधिकरण निर्देशों से
शब्द शक्ति के द्वारा-न कि लक्षणा के द्वारा -
सर्वचेतनाचेतनविशिष्ट रूप में
ब्रह्म ही अभिहित होता है ।
मूलम्
सर्वशरीरं ब्रह्मेति ब्रह्मणो वैभवं प्रतिपादयद्भिः सामानाधिकरण्यादिभिर् मुख्यवृत्तैः सर्वचेतनाचेतनप्रकारं ब्रह्मैवाभिधीयते ।