विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्य्-आदि-श्रुति-शतैस्
तद्-उपबृंहणैर् -
नीलमेघः
केवल श्रुतियों से ही प्रकृति जीव और ईश्वर में भेद और शरीरात्मभाव सम्बन्ध प्रमाणित होता है,
ऐसी बात नहीं ।
किन्तु उपर्युक्त अर्थ इन श्रुत्यर्थों को खोलने वाले इतिहास और पुराणों से भी प्रमाणित होते हैं।
आगे इन अर्थों के विषय में इतिहासपुराणवचन प्रमाण रूप में उपस्थित किये जाते हैं ।
मूलम्
इत्यादिश्रुतिशतैस् तदुपबृंहणैः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगत् सर्वं शरीरं ते
स्थैर्यं ते वसुधा-तलम् ॥
नीलमेघः
(१) श्रीवाल्मीकि रामायण में यह वचन मिलता है कि
“जगत् सर्व शरीरं ते
स्थैर्यं ते वसुधातलम् "
अर्थात्
सम्पूर्ण जगत् अपका शरीर है,
तथा पृथिवी में विद्यमान स्थिरता आपके आधीन है ।
इस वचन से जगत् और ईश्वर में शरीरात्म-भाव सम्बन्ध सिद्ध होता है ।
मूलम्
जगत् सर्वं शरीरं ते स्थैर्यं ते वसुधातलम् ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् किंचित् सृज्यते येन
सत्त्व-जातेन वै द्विज ।
तस्य सृज्यस्य संभूतौ
तत् +++(कारणं)+++ सर्वं वै हरेस् तनुः ॥
नीलमेघः
(२) श्रीविष्णुपुराण का यह वचन है कि-
यत् किंचित् सृज्यते येन सत्त्वजातेन वै द्विज ।
तस्य सृज्यस्य संभूती तत् सर्वं वै हरेस्तनुः ॥
अर्थात्
हे द्विज !
जिन २ पदार्थों से
जो २ पदार्थ सृष्ट किये जाते हैं,
उन सृज्य पदार्थों की उत्पत्ति में
कारण बनने वाले
वे सभी पदार्थ
श्रीहरिभगवान् का शरीर हैं।
इस वचन से प्रपन्न एवं ब्रह्म में
शरीरात्मभाव सम्बन्ध सिद्ध होता है ।
मूलम्
यत् किंचित् सृज्यते येन सत्त्वजातेन वै द्विज । तस्य सृज्यस्य संभूतौ तत्सर्वं वै हरेस् तनुः ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहम् आत्मा गुडाकेश
सर्व-भूताशय-स्थितः ॥
नीलमेघः
(३) श्रीगीता में श्रीव्यास जी ने
श्रीभगवान् के वचन के रूप में
इस वचन का उल्लेख किया है कि
“अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः”
अर्थात्
हे अर्जुन ?
सर्वप्राणियों के हृदय में
मैं आत्मा के रूप में अवस्थित हूँ।
इस वचन से भी शरीरात्मभाव सम्बन्ध स्पष्ट प्रकाश में आता है ।
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मूलम्
अहम् आत्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो
मत्तः स्मृतिर् ज्ञानम् अपोहनं च ॥
नीलमेघः
(४) यह वचन भी श्रीगीता में उपलब्ध है कि
“सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च”
अर्थात्
हम सबके हृदय में अवस्थित हैं,
हमसे ही स्मृति ज्ञान एवं विस्मरण
जीवों को होते रहते हैं ।
इससे भी शरीरात्मभाव सम्बन्ध प्रमाणित होता है ।
मूलम्
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो
मत्तः स्मृतिर् ज्ञानम् अपोहनं च ॥