०२ भेद-श्रुति-वाक्यानि

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथग् आत्मानं प्रेरितारं मत्वा
जुष्टस् ततस् तेनामृतत्वम् एति ।

नीलमेघः

आगे भेदश्रुतियों का उल्लेख किया जाता है।

श्वेताश्वतर उपनिषद् का यह वचन है कि

(१) “पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति” ।
अर्थात् जीवात्मा और प्रेरक ईश्वर को भिन्न २ पदार्थ समझकर
साधक ईश्वर की प्रीति का विषय हो जाता है,
बाद वह साधक उस भेदज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है ।
इस वचन से जीव और ईश्वर में
भेद सिद्ध होता है,
तथा मोक्ष साधक होने से भेदज्ञान तत्त्वज्ञान सिद्ध होता है ।

मूलम्

पृथगात्मानं प्रेरितारं मत्वा जजुटस् ततस् तेनामृतत्वम् एति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोक्ता+++(→चिदम्)+++, भोग्यं+++(→अचिदम्)+++, प्रेरितारं+++(→ईशम्)+++ च मत्वा
सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्मम् एतत् ।

नीलमेघः

(२) श्वेताश्वतर उपनिषद् का यह वचन है कि

“भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्” ।

अर्थात्

भोक्ता जीव, भोग्य जडपदार्थ, तथा प्रेरक ईश्वर को जानकर
हमने तुमको सम्पूर्ण त्रिविध ब्रह्म को बतला दिया है ।

ब्रह्म की त्रिविधता यही है कि
ब्रह्म जीव का अन्तर्यामी होकर रहता है,
जडपदार्थ [[१३८]] का अन्तर्यामी होकर रहता है,
तथा स्वस्वरूप से भी रहता है ।

इस वचन से सिद्ध होता है
जड जीव और ईश्वर में स्वरूपभेद है,
तथा ईश्वर में तीन प्रकार होते हैं,
जीव का अन्तर्यामी बनकर रहना एक प्रकार है,
जड का अन्तर्यामी बनकर रहना दूसरा प्रकार है,
स्वस्वरूप में रहना तीसरा प्रकार है ।
यही त्रिविध ब्रह्म है ।+++(5)+++

मूलम्

भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्मम् एतत् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यो नित्यानां
चेतनश् चेतनानाम्
एको बहूनां
यो विदधाति कामान् ।

नीलमेघः

(३) कठोपनिषद् का यह वचन है कि

“नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्”

अर्थात्

एक नित्य चेतन ईश्वर
अनेक नित्य चेतन जीवों के मनोरथों को पूर्ण करता है।

इससे ईश्वर में नित्यत्व, एकत्व और चेतनत्व,
तथा जीवों में अनेकत्व, नित्यत्व और चेनतत्व सिद्ध होते हैं ।+++(5)+++
इससे जीव और ईश्वर में भेद स्पष्ट हो जाता है ।

मूलम्

नित्यो नित्यानां चेतनश् चेतनानाम् एको बहूनां यो विदधाति कामान् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रधान+++(=प्रकृति)+++–क्षेत्र-ज्ञ+++(=जीव)+++–पतिर् +++(ज्ञान-शक्त्यादि-६-)+++गुणेशः ।

नीलमेघः

(४) श्वेताश्वतर उपनिषद् का यह वचन है कि “प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः”
अर्थात् ईश्वर प्रकृति और जीव का स्वामी है,
तथा षाड्गुण्यपूर्ण है ।
इस वचन से प्रकृति जीव और ईश्वर में भेद सिद्ध होता है ।

मूलम्

प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर् गुणेशः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञाज्ञौ द्वाव् अजव् ईशानीशौ

नीलमेघः

(५) श्वेताश्वर उपनिषद् का यह वचन है कि “ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशानीशौ” अर्थात्

नहीं जन्मने वाले दो तत्त्व हैं,
उनमें एक ईश्वर है,
दूसरा उससे भिन्न जीव है ।
ईश्वर सर्वज्ञ है, जीव अज्ञ है ।

इस प्रकार इन वचनों से जीव प्रकृति और ईश्वर में भेद प्रमाणित होता है ।

मूलम्

ज्ञाज्ञौ द्वावजवीशानीशौ