०१ घटिका-श्रुति-वाक्यानि

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः पृथिव्यां तिष्ठन्
पृथिव्या अन्तरो
यं पृथिवी न वेद
यस्य पृथिवी शरीरं
यः पृथिवीम् अन्तरो यमयति
एष त आत्मा ऽन्तर्याम्य् अ-मृतः +++(=अपापः)+++ । +++(5)+++

नीलमेघः

अब शरीरात्मभाव को बतलाने वाली घटकश्रुतियों का उल्लेख किया जाता है ।
(१) काण्वशाखा में यह वचन है कि

“यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यः पृथिवीमन्तरो यमयति, एष त आत्मा श्रन्तर्याम्यमृतः”

अर्थात्

जो परमात्मा पृथिवी में रहता है, पृथिवी के अन्दर है, [[१३६]]
जिसे पृथिवी नहीं जानती है,
पृथिवी जिसका शरीर है,
जो अन्दर रहकर पृथिवी का नियमन करता है,
यही अन्तर्यामी तेरा भी निर्दोष अन्तरात्मा है ।

मूलम्

यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीम् अन्तरो यमयति एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

य आत्मनि तिष्ठन्न्
आत्मनो ऽन्तरो
यम् आत्मा न वेद
यस्यात्मा शरीरं
य आत्मानम् अन्तरो यमयति
एष त आत्मा ऽन्तर्याम्य् अमृतः ।

नीलमेघः

(२) माध्यन्दिन शाखा में यह वचन है कि

“य आत्मनि तिष्ठन् आत्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मा श्रन्तर्याम्यमृतः”

अर्थात्

जो जीवात्मा में रहता है,
जो जीवात्मा के अन्दर है,
जिसे जीवात्मा नहीं जानता है,
जीवात्मा जिसका शरीर है,
जो अन्दर रहकर जीवात्मा का नियमन करता है,
वह तेरा निर्दोष अन्तर्यामी आत्मा है ।

इस प्रकार के अनेक वचन दोनों शाखाओं में उपलब्ध हैं
जिनसे सभी पदार्थ ईश्वर का शरीर
तथा ईश्वर सबका आत्मा कहा गया है ।

उदाहृत इन वचनों से
चेतनाचेतन प्रपञ्च और ब्रह्म में
शरीरात्मभाव सम्बन्ध सिद्ध होता है ।

मूलम्

य आत्मनि तिष्ठन्न् आत्मनो ऽन्तरो यम् आत्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य आत्मानम् अन्तरो यमयति एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः पृथिवीम् अन्तरे संचरन्
यस्य पृथिवी शरीरं
यं पृथिवी न वेद

+इत्यादि

नीलमेघः

३) सुबालोपनिषद् में ये वचन उपलब्ध हैं कि

“यः पृथिवीम् अन्तरे संचरन्
यस्य पृथिवी शरीरं
यं पृथिवी न वेद”

इत्यादि ।

“योऽक्षरमन्तरे सचरन् यस्याक्षरं शरीरं यमक्षरं न वेद”
“यो मृत्युमन्तरे संचरन् यस्य मृत्युः शरीरं यं मृत्युर्न वेद, एष सर्वभूतान्तरात्माऽपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः "

अर्थात्

जो पृथिवी के अन्दर संचार करता है
अर्थात् करण २ में अवस्थित है,
पृथिवी जिसका शरीर है,
पृथिवी जिसे नहीं जानती है ।

मूलम्

यः पृथिवीम् अन्तरे संचरन् यस्य पृथिवी शरीरं यं पृथिवी न वेदेत्यादि

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो ऽक्षरम् अन्तरे संचरन्
यस्याक्षरं +++(जीवात्मा)+++ शरीरं
अक्षरं न वेद

नीलमेघः

इस प्रकार सब जडतत्त्वों का नाम ले लेकर
आगे श्रुति “योऽक्षरम्” इत्यादि का वर्णन करती है ।
उनका यह अर्थ है कि
जो अक्षर अविनाशी जीवात्मा के अन्दर रहता है,
जीवात्मा जिसका शरीर है,
जीवात्मा जिसे नहीं जानता,

मूलम्

यो ऽक्षरम् अन्तरे संचरन् यस्याक्षरं शरीरं अक्षरं न वेद

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मृत्युम् +++(→प्रकृतिम्)+++ अन्तरे संचरन्
यस्य मृत्युः शरीरं
यं मृत्युर् न वेद
एष सर्व-भूतान्तरात्मा ऽपहत-पाप्मा
दिव्यो देव
एको नारायणः । +++(5)+++

नीलमेघः

न्न्> जो मृत्यु अर्थात् प्रकृति के अन्दर अवस्थित है,

प्रकृति जिसका शरीर है,
प्रकृति जिसे जानती है ।
यह सर्वभूतों के अन्तरात्मा
पापरहित अद्वितीय दिव्य देव नारायण हैं ।

इन श्रुतियों से
चेतनाचेतन प्रपञ्च
एवं ब्रह्म में
शरीरात्मभाव सम्बन्ध सिद्ध होता है
साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि
वह अन्तर्यामी नारायण देव ही हैं, दूसरा नहीं ।

उपर्युक्त श्रुतियों में “अमृत” शब्द से
अन्तर्यामी का जो निर्दोषत्व कहा गया है,
वह इस श्रुति में " अपहतपाप्मा” शब्द से पापरहित कहकर स्पष्ट कर दिया गया है ।

मूलम्

यो मृत्युम् अन्तरे संचरन् यस्य मृत्युः शरीरं यं मृत्युर् न वेद एष सर्वभूतान्तरात्मापहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोर् अन्यः पिप्पलं स्वाद्व् अत्त्य्
अनश्नन्न् अन्यो ऽभिचाकशीति ।

नीलमेघः

(४) मुण्डकोपनिषद् में यह वचन उपलब्ध है कि-

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति
प्रनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति ॥

अर्थात्

समान गुण वाले एवं मित्र बने हुये दो पक्षी
एक वृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं,
उनमें एक परिपक्व फल को खाता है,
दूसरा विना खाये प्रकाशता रहता है ।

यहाँ दो पक्षियों के रूप में जीवात्मा और परमात्मा कहे गये हैं ।
वे समान गुण वाले हैं
तथा साथ रहने वाले मित्र हैं ।
वृक्ष के समान नष्ट होने वाले
एक शरीर का आश्रय ले कर रहते हैं,
इनमें एक पक्षी जीव परिपक्व कर्मफल को भोगता रहता है,
दूसरा पक्षी परमात्मा कर्मफल न भोगते हुये सदा चमकता रहता है ।
यह श्रुति का भावार्थ है ।

इस श्रुति से एक शरीर में
जीवात्मा एवं परमात्मा की स्थिति,
और उनमें अन्तर भी स्पष्ट हो जाता है

मूलम्

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तः प्रविष्टः
शास्ता जनानां,
सर्वात्मा ।

नीलमेघः

[[१३७]]
(५) यह एक श्रुतिवचन है कि
“अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा”

अर्थात्

अन्दर प्रविष्ट होकर परमात्मा
जनों पर शासन करने वाले होते हैं,
अतएव वे सर्वात्मा हैं ।

इससे सिद्ध होता है कि
ईश्वर अन्तःप्रविष्ट होकर
सब पर शासन करने से सर्वात्मा है,
सबके साथ स्वरूपैक्य के कारण नहीं होते
उसका सबके साथ स्वरूपैक्य है ही नहीं ।

मूलम्

अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् सृष्ट्वा तद् एवानुप्राविशत् ।
तद् अनुप्रविश्य
सच्+++(→निर्विकारो जीवः)+++ च त्यच् =+++(=तत् →सविकारं जडम्)+++ चाभवत्

इत्य्-आदि ।

नीलमेघः

ह्न्ह्(६) तैत्तिरीय उपनिषद् में यह वचन उपलब्ध है कि

" तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्, तदनुप्रविश्य सच्चात्यच्चाभवत्”

“सत्यं चानृतं च सत्यमभवत्” ।

अर्थात्

वह परमात्मा
इस जगत् में अन्तर्गत
सब पदार्थों की सृष्टि करके
उसमें अनुप्रविष्ट हो गया, उसमें अनुप्रवेश करके
निर्विकार चेतन एवं विकारशील जडपदार्थ के रूप को धारण कर लिया ।

मूलम्

तत्सृष्ट्वा तद् एवानुप्राविशत् । तदनुप्रविश्य सच् च त्यच् चाभवत् इत्य्-आदि ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं+++(→निर्विकार-चेतः)+++ चानृतं+++(→सविकारम् अचित्)+++ च सत्यम् +++(=निर्विकारम् ब्रह्म)+++ अभवत्

नीलमेघः

निर्विकार चेतन एवं विकारयुक्त जडपदार्थ के रूप को धारण करके भी
वह निर्विकार ही रहा ।

इस वचन से सिद्ध होता है कि
जढचेतन पदार्थों में अनुप्रविष्ट होकर
परब्रह्म उनमें होने वाले नाम और रूपों को प्राप्त होता है,
उनसे स्वरूपैक्य पाकर नहीं ।+++(5)+++
अतएव वह निर्विकार बनकर रहता है,
यदि उसका जढ और चेतनों से स्वरूपैक्य होता
तो वह निर्विकार बनकर नहीं रह सकता ।

मूलम्

सत्यं चानृतं च सत्यमभवत्

विश्वास-प्रस्तुतिः

“अनेन जीवेनात्मने"त्यादि ।
+++(“अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि”)+++

नीलमेघः

(७) छान्दोग्य उपनिषद् में यह वचन है कि “अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि” ।

अर्थात् परमात्मा ने संकल्प किया कि

हम पृथिवी जल और तेज इत्यादि जडपदार्थों में
जीवात्मा के द्वारा अनुप्रवेश करके
नामरूपों की सृष्टि करें ।

इस वचन से स्पष्ट होता है कि
परमात्मा प्रथमतः जीव में अनुप्रवेश करके
उसके स्वरूप में सर्वत्र व्याप्त होकर
उस जीवात्मा के द्वारा जडपदार्थों में अनुप्रवेश करके
नामरूपों की सृष्टि करता है।

‘सब जडपदार्थ जीवों पर आधारित रहें,
जीवों के नियन्त्रण में रहें,
वे जीव मुझ पर अर्थात् परमात्मा पर आधारित रहें,
मेरे नियन्त्रण में रहें,
इन जडपदार्थों का वाचक नाम शब्द
इन जडपदार्थों को बतलाकर
उनमें आत्मा के रूप में अवस्थित जीवों को बतलाते हुये
उन जीवों में अन्तरात्मा के रूप में विद्यमान हमको भी अर्थात् परमात्मा को भी बतलावे’

इस मनोरथ को पूर्ण करने के लिये ही
परमात्मा को इस प्रकार संकल्प करके
नामरूपों की सृष्टि करनी पड़ती है ।

मूलम्

“अनेन जीवेनात्मने"त्यादि ।