१० सार्वत्रिक-भेदाभेद-वादः

भोदाभेदासम्भवः

नीलमेघः

[[१२६]]

अब तक श्रीरामानुज स्वामी जी ने
द्वैताद्वैतवादियों के उस सिद्धान्त -
कि श्रुति जीव एवं ब्रह्म में भेदाभेद को बतलाती है—
का खण्डन किया है ।
आगे इस वाद का खण्डन करते हैं कि
जो यह कहा जाता है कि
सभी पदार्थ भिन्न एवं अभिन्न होते हैं ।
इस भेदाभेदवाद को जैन और मीमांसकों ने भी अपनाया है ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चैकस्य वस्तुनो
भिन्नाभिन्नत्वं विरुद्धत्वान्
न संभवतीत्य् उक्तम् ।

नीलमेघः

श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
एक वस्तु दूसरी वस्तु से भिन्न एवं अभिन्न नहीं बन सकती
क्योंकि भिन्नत्व एवं अभिन्नत्व परस्पर विरुद्ध धर्म हैं ।

मूलम्

अपि चैकस्य वस्तुनो भिन्नाभिन्नत्वं विरुद्धत्वान् न संभवतीत्युक्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटस्य पटाद् भिन्नत्वे सति
तस्य+++(→घटत्वस्य)+++ तस्मिन्न् +++(→पटे)+++ अभावः ।

नीलमेघः

लोक में कहा जाता है कि
घट पट से भिन्न है ।
यहाँ घट में पट की अपेक्षा
भेद कहा जाता है ।

यहाँ भेद क्या वस्तु है ?
यहाँ घट में ऐसा एक धर्म है
जो पट में नहीं है ।
वह धर्म घटत्व है
क्योंकि घटत्व घट में ही रहता है,
पट में नहीं ।

घट में जो पट से भेद रहता है,
वह भेद घटत्व धर्म ही है ।
घट पट से भिन्न है,
ऐसा कहने से यह सिद्ध होता है कि
पट में घटत्व धर्म नहीं है ।

मूलम्

घटस्य पटाद् भिन्नत्वे सति तस्य तस्मिन्न् अभावः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अ-भिन्नत्वे सति
तस्य+++(=घटत्वस्य)+++ च +++(पटे)+++ भाव इति ।

नीलमेघः

घट पट से अभिन्न है,
यदि ऐसा कहा जाय
तो यही फलित होगा कि
घटत्व धर्म पट में हैं ।

मूलम्

अभिन्नत्वे सति तस्य च भाव इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकस्मिन् काले
चैकस्मिन् देशे
चैकस्य हि पदार्थस्य
युगपत् सद्-भावो ऽसद्-भावश् च विरुद्धः ।

नीलमेघः

यदि घट को पट से भिन्नाभिन्न कहा जाय
तो यही फलित होगा कि
घटत्व धर्म
पट में नहीं
तथा है भी ।
यहाँ पर यह मानना होगा कि
एक काल में एक वस्तु में
अर्थात् पट में
एक पदार्थ का - अर्थात् घटत्व का -
सद्भाव एवं असद्भाव दोनों हैं ।
ये विरुद्ध हैं
क्योंकि एक काल में एक वस्तु में
एक पदार्थ का सद्भाव एवं असद्भाव हो नहीं सकता ।
या तो सद्भाव ही होगा
या असद्भाव ही,
दोनों एक साथ नहीं रह सकते ।

सब वस्तुओं को भिन्नाभिन्न मानने वालों को
एक वस्तु में विरुद्ध धर्मों का समावेश मानना पड़ता है ।
पर वैसा समावेश सम्भव नहीं ।
इससे सिद्ध होता है
सब पदार्थों के विषय में कहा जाने वाला
यह भेदाभेदवाद अनुभवविरुद्ध है ।+++(5)+++

मूलम्

एकस्मिन् काले चैकस्मिन् देशे चैकस्य हि पदार्थस्य युगपत्सद्भावो ऽसद्भावश् च विरुद्धः ।

जाति-व्यक्ति-दृशा न भेदाभेदः

विश्वास-प्रस्तुतिः

जात्य्-आत्मना +++(व्यक्तेर् व्यक्त्य्-अन्तरे)+++ भावो
व्यक्त्य्-आत्मना चाभाव

इति चेत् -
+++(जाति-व्यक्त्योर् अ-भेदे गृहीते)+++
जातेर् मुण्डेन +++(→विशृङ्गत्वस्य)+++ व्यक्त्या चाभेदे सति
खण्डे+++(=ईषद्भग्नशृङ्गायां गवि)+++ मुण्डस्यापि+++(=विशृङ्गत्वस्यापि)+++ सद्-भाव–प्रसङ्गः ।

नीलमेघः

इसका खण्डन करते हुये
श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि

यह कहकर कि
एक गोव्यक्ति दूसरे गोव्यक्ति के साथ
जाति के रूप में अभिन्न है,
तथा व्यक्ति के रूप में भिन्न है -

गोव्यक्तियों में जो भेदाभेद सिद्ध किया गया है
वह तभी सिद्ध होगा
यदि जाति और व्यक्तियों में भेदाभेद सिद्ध किया जाय ।

यदि जाति और व्यक्ति भिन्न होते तो
उपर्युक्त व्यवहार के अनुसार जाति में अभेद
और व्यक्ति में भेद सिद्ध +++(न)+++ होगा ।
एक वस्तु में दोनों की सिद्धि नहीं होगी।

यदि जाति और व्यक्ति में अभेद माना जाय
तो खण्ड में मुण्डत्व मानना होगा
क्योंकि खण्ड व्यक्ति और मुण्ड व्यक्ति का गोत्वजाति के साथ अभेद मानने पर
उस जाति से अभिन्न बनने वाली इन व्यक्तियों में भी
अभेद उपस्थित होगा ।
खण्ड व्यक्ति को मुण्ड व्यक्ति के साथ अभेद होने पर
मुण्ड व्यक्ति में विद्यमान मुण्डत्व को
खण्ड व्यक्ति में भी मानना होगा । यह अनुचित है क्योंकि मुण्डत्व मुण्ड व्यक्ति में ही रह सकता है,
खण्ड व्यक्ति में नहीं ।

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

इस पर भेदाभेदवादी कहते हैं कि

एक वस्तु में भेदाभेद अनुभवविरुद्ध नहीं है ।
भेदाभेदवाद का समर्थन
इस प्रकार किया जा सकता है।
लोक में गोव्यक्ति भिन्न २ प्रकार के होते हैं।
एक गोव्यक्ति विना सींग का है
वह मुण्ड कहलाता है।
दूसरे गोव्यक्ति का सींग थोड़ा कट गये हैं,
वह व्यक्ति खण्ड कहा जाता है ।
वहाँ यह कहा जा सकता है कि
एक गोव्यक्ति दूसरे गोव्यक्ति के साथ गोत्वजाति की दृष्टि से [[१३०]] अभिन्न है,
तथा व्यक्ति के रूप से भिन्न है ।
इस प्रकार एक व्यक्ति का
दूसरे व्यक्ति के साथ भेदाभेद सिद्ध हो जाता है ।

यह भेदाभेदवादियों का कथन है ।

मूलम्

जात्यात्मना भावो व्यक्त्यात्मना चाभाव इति चेत् -
जातेर् मुण्डेन व्यक्त्या चाभेदे सति
खण्डे मुण्डस्यापि सद्भावप्रसङ्गः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(जाति-व्यक्त्योर् भेदाभेदे गृहीते)+++
खण्डेन च जातेर् अ-भिन्नत्वे +++(व्यक्तेर् व्यक्त्यन्तरे)+++ सद्-भावो,
भिन्नत्वे चासद्भावः, अश्वे महिषत्वस्यैवेति
विरोधो दुष्-परिहर एव ।

नीलमेघः

जाति और व्यक्ति में अभेद मानने पर उपर्युक्त दोष आता है ।
इसलिये जाति और व्यक्ति में
अभेद नहीं मानना चाहिये ।

यदि जाति और व्यक्ति में भेदाभेद माने,
तो भी दोष उपस्थित होता है ।
वह यह है कि
जाति और व्यक्ति में अभेद होने के कारण
उपर्युक्त रीति से
खण्ड में मुण्डत्व मानना होगा ।
इसका विवरण
अभेदपक्ष के खण्डन में दिया गया है।

तथा इस भेदाभेदपक्ष में
जाति का व्यक्ति के साथ भेद भी मानना होगा,
मानने पर खण्ड व्यक्ति मुण्ड व्यक्ति से भिन्न हो जायेगी,
तब मुण्ड व्यक्ति में स्थित मुण्डत्व
खण्ड व्यक्ति में आने नहीं पावेगा,
खण्ड में मुण्डत्व का अभाव सिद्ध होगा
जिस प्रकार अश्व व्यक्ति और महिष व्यक्ति भिन्न होने के कारण
अश्व व्यक्ति में महिषत्व का अभाव रहता है,
उसी प्रकार ही जाति और व्यक्ति में भेदाभेद मानने पर
जाति और व्यक्तियों में भेद मानना होगा,
भेद मानने पर
व्यक्ति भी परस्पर भिन्न सिद्ध होंगे।

तब मुण्ड व्यक्ति में स्थित मुण्डत्व का अभाव
खण्ड व्यक्ति मानना होगा,
तथा जाति व्यक्तियों के इस भेदाभेदवाद में
जाति और व्यक्ति में अभेद मानना होगा,
तब व्यक्तियों में भी जाति की दृष्टि से अभेद होगा ।
तब व्यक्ति परस्पर में अभिन्न होने के कारण
मुण्ड व्यक्ति में स्थित मुण्डत्व को खण्ड व्यक्ति में भी मानना होगा ।
इस प्रकार इस भेदाभेदपक्ष में
भेद के बल पर
खण्ड में मुण्डत्व का अभाव
तथा अभेद के बल पर
खण्ड में मुण्डत्व का सद्भाव मानना होगा।

यह उचित नहीं
क्योंकि एक काल में एक वस्तु में
एक पदार्थ का सद्भाव एवं असद्भाव साथ नहीं रह सकते ।
इस विरोध का परिहार होता ही नहीं ।

इस प्रकार जाति और व्यक्ति में अभेद
एवं भेदाभेद को मानने पर
उपर्युक्त दोष आते हैं ।

जाति और व्यक्ति में भेद मानने पर
व्यक्तियों में भेदाभेद सिद्ध होता ही नहीं।
इसलिये यह निर्णय देना पड़ता है कि
भेदाभेदवाद किसी तरह से भी सिद्ध नहीं होता ।

नीलमेघः - यादव-प्रकाश-खण्डनम्

जिस प्रकार जाति और व्यक्ति में भेदाभेद को मानकर
भेदाभेदवादी व्यक्तियों में भी भेदाभेद को सिद्ध करना चाहते हैं,
वैसे ही यादव-प्रकाशाचार्य
अवस्था और द्रव्य में भेदाभेद को मानकर
घट और [[१३१]] शराव इत्यादि विभिन्न पदार्थों में भी
भेदाभेद को इस प्रकार सिद्ध करना चाहते हैं कि
घट और शराव
मृत्तिका द्रव्य के रूप में एक हैं, तथा अवस्थाओं की दृष्टि से भिन्न हैं ।

यादवप्रकाशाचार्य का यह भेदाभेदवाद भी उपर्युक्तरीति से
अवस्था और द्रव्य में भेदाभेद अनुपपन्न होने के कारण
खण्डित हो जाता है ।

मूलम्

खण्डेन च जातेर् अभिन्नत्वे सद्भावो, भिन्नत्वे चासद्भावः अश्वे महिषत्वस्यैवेति विरोधो दुष्परिहर एव ।

जातिः

प्रकार-प्रकारि-ग्रहणम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

जात्य्-आदेर् वस्तु-संस्थानतया
वस्तुनः प्रकारत्वात्

प्रकार-प्रकारिणोश् च पदार्थान्तरत्वं

प्रकारस्य पृथक्-सिद्ध्य्-अनर्हत्वं,

पृथग्-अनुपलम्भश् च

तस्य च संस्थानस्य+++(=आकृतेः)+++ चानेक-वस्तुषु प्रकारतया ऽवस्थितिश्

चेत्यादि पूर्वम् उक्तम्
+++(न त्वेतैर् जाति-व्यक्त्य्-अभेदो ग्राह्यः)+++।

नीलमेघः

जाति और व्यक्ति में
भेदाभेद को मानने वाले वादी
चार हेतुओं से भेदाभेद को सिद्ध करते हैं ।
वे प्रथम हेतु को उपस्थापित करते हुये कहते हैं,
जाति और व्यक्ति में भेद को
सभी मानते ही हैं,
अभेद को भी मानना होगा
क्योंकि सर्वप्रथम किसी गोव्यक्ति को देखते समय
गोत्वजाति और गोव्यक्ति अभिन्नरूप में दृष्टिगोचर होते हैं ।
इसलिये भेदाभेद को मानना चाहिये ।
यह उनका प्रथम हेतु है ।

यह समीचीन नहीं है क्योंकि
सर्वप्रथम किसी भी गोव्यक्ति को देखते समय
“यह गौ है” ऐसी प्रतीति होती है ।
इस प्रतीति में गोव्यक्ति विशेष्यरूप में
तथा गोत्वजाति प्रकाररूप में झलकती है ।
विशेष्य और प्रकार भिन्न २ ही होते है,
उनमें ऐक्य असंभव है ।
यह प्रतीति ही जब उनको भिन्नरूप में दीखती है,
तब उनमें अभेद कैसे माना जा सकता है । इस प्रकार उनका प्रथम हेतु हेत्वाभास ठहरता है।

उनका द्वितीय हेतु सहोपलम्भ नियम है।
वे इस हेतु को रखकर
यह बतलाते हैं कि
जाति और व्यक्ति साथ २ जाने जाते हैं
इसलिये इनमें अभेद मानना चाहिये ।
इनका यह द्वितीय हेतु भी हेत्वाभास है ।
यहाँ प्रकाररूप में प्रतीत होने वाली जाति
सदा व्यक्ति के साथ ही रहती है,
कभी भी व्यक्ति को छोड़कर रह नहीं सकती है
अतएव उसकी व्यक्ति के साथ ही प्रतीति होती है,
व्यक्ति को छोड़कर प्रतीति नहीं होती।
इसमें कारण यह नहीं कि उनमें अभेद है,
किन्तु कारण यही है कि
ये दोनों साथ ही रहने वाले
तथा साथ ही प्रतीत होने वाले हैं।
यह उनका स्वभाव है ।
इससे उनमें अभेद सिद्ध नहीं हो सकता ।
इस प्रकार उनका यह द्वितीय हेतु भी
हेत्वाभास सिद्ध हो जाता है ।

वे तृतीय हेतु को उपस्थित करते हुये यह कहते हैं कि
जहाँ दोनों विभिन्न पदार्थों में
एक विशेषण और दूसरा विशेष्य बनकर रहता है,
वहाँ संस्कृत में मत्वर्थीय प्रत्यय
तथा भाषा में “वाला” ऐसा शब्द प्रयुक्त होता है ।
उदाहरणदण्ड और पुरुष भिन्न २ पदार्थ हैं,
वहाँ जब दण्ड विशेषण बनकर
तथा पुरुष विशेष्य [[१३२]] बनकर रहता है,
वहाँ " दण्डवाला पुरुष” ऐसा कहा जाता है ।
प्रकृत में “यह गौ है”
ऐसा कहा जाता है,
“यह गोवाला है” ऐसा नहीं कहा जाता
इससे प्रतीत होता है कि
गोत्वजाति और गोव्यक्ति में अभेद है ।

उनका यह हेतु भी हेत्वाभास है
क्योंकि जहाँ विशेषण और विशेष्य अलग २ रहने योग्य पदार्थ हों,
वहाँ उनमें सम्बन्ध होने पर
" वाला” इत्यादि मत्त्वर्थीयप्रत्यय प्रयुक्त होते हैं ।
दण्ड पुरुष को छोड़कर रह सकता है
तथा पुरुष भी दण्ड को छोड़कर रह सकता है,
उनमें सम्बन्ध होने पर “वाला” ऐसे मत्त्वर्थीयप्रत्ययों को लगाकर " दण्डवाला पुरुष” ऐसा कहा जाता है ।
प्रकृत में जाति व्यक्ति को छोड़कर नहीं रहती
तथा व्यक्ति भी जाति को छोड़कर नहीं रहता ।
ऐसा होने के कारण ही
जातिवाचक गो आदि शब्द मत्त्वर्थीयप्रत्यय का सहारा लिये विना ही
व्यक्ति तक को बतलाने में क्षमता रखते हैं
अतएव “यह गौ हैं” ऐसा कहा जाता है ।+++(5)+++
इससे जाति और व्यक्ति में अभेद सिद्ध नहीं हो सकता ।
इस प्रकार उनका तृतीय हेतु भी हेत्वाभास सिद्ध हो जाता है ।

उन लोगों ने चतुर्थ हेतु को
उपस्थापित करते हुये यह कहा कि
लोक में कहा जाता है कि
यह एक गौ है ।
यहाँ “एक” ऐसा कहने से
गोत्वजाति और गोव्यक्ति में ऐक्य सिद्ध होता है ।
उनका यह हेतु भी हेत्वाभास ही है
क्योंकि “यह गौ एक है” इस कथन से गोत्वजाति और गोव्यक्ति में एकत्व सिद्ध नहीं होता,
किन्तु इस कथन से गोव्यक्ति में अनेकत्व का निषेध ही व्यक्त होता है ।
इस कथन का यही तात्पर्य है कि
यहाँ अनेक गौ नहीं हैं,
एक ही गौ है ।
इससे गोत्वजाति और गोव्यक्ति में
एकत्व सिद्ध नहीं हो सकता ।
इस प्रकार यह चतुर्थ हेतु भी
हेत्वाभास सिद्ध हो जाता है ।

इन चार हेत्वाभासों से जाति और व्यक्ति में
भेदाभेद की सिद्धि नहीं हो सकती ।

मूलम्

जात्यादेर् वस्तुसंस्थानतया वस्तुनः प्रकारत्वात् प्रकारप्रकारिणोश् च पदार्थान्तरत्वं प्रकारस्य पृथक्सिद्ध्यनर्हत्वं पृथगनुपलम्भश् च तस्य च संस्थानस्य चानेकवस्तुषु प्रकारतयावस्थितिश् चेत्यादि पूर्वम् उक्तम् ।

आकृतेर् जातिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

“सो ऽयम् +++(स-जातीयः)+++” इति बुद्धिः प्रकारैक्याद्
“अयम् अपि दण्डी"ति बुद्धिमत् ।

नीलमेघः - आकृतेर् जातित्वम्

अब प्रश्न उठता है कि गोत्वादि जाति कौन वस्तु है ।
विशिष्टाद्वैती यह उत्तर देते हैं कि
जो धर्म सभी गोव्यक्तियों में एकसा रहता हो,
गोव्यक्तियों को छोड़कर
अन्य व्यक्तियों में नहीं रहता हो,
वही गोत्वजाति है।
सभी गोव्यक्तियों में साहना+++(=सास्ना)+++ इत्यादि अवयवों का
विलक्षण सन्निवेश एकसा रहता है,
यह सन्निवेश गोव्यक्तियों को छोड़कर
अन्यत्र नहीं पाया जाता ।
सास्ना आदि असाधारण धर्म ही गोत्वजाति है ।
इसी प्रकार ही अन्यान्य जातियों के विषय में समझना चाहिये ।
उपर्युक्त असाधारण धर्मरूप गोत्वजाति गोव्यक्तियों के प्रति
विशेषणरूप में बनी रहती है।
ये सब अर्थ
पहले निर्विशेषवाद के खण्डन करते समय [[१३३]]
एकबार कहे गये हैं ।

नीलमेघः

अस्तु । प्रत्येक गोव्यक्ति में रहने वाले सास्नादि पदार्थ भिन्न २ हैं,
तथापि एक से हैं,
परस्पर सदृश हैं।
इसलिये दूसरे व्यक्ति को देखते समय
यह कहा जाता है कि

यह भी वैसे ही गौ है ।

यह कथन उस कथन के समान है
जो एक दण्ड वाले पुरुष को देखने के बाद
दूसरे दण्ड वाले पुरुष को देखते ही
मुख से यह निकलता है कि
यह भी दण्डवाला पुरुष है ।

यहाँ पुरुष भी भिन्न है,
तथा दण्ड भी भिन्न है,
तथापि उनमें समता होने के कारण
जिस प्रकार यह कहा जाता है कि
यह भी दण्डवाला पुरुष है,
उसी प्रकार ही गोव्यक्ति और सास्नादि धर्मों में भेद रहने पर भी
इनमें समता होने के कारण यहाँ
“यह भी गौ है” ऐसा कहना भी युक्त ही है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि
सास्नादि पदार्थ
प्रतिव्यक्ति भिन्न होने पर भी
आपस में अत्यन्त सदृश होने के कारण
एकरूप व्यवहार के निर्वाहक होते हैं ।

मूलम्

सो ऽयम् इति बुद्धिः प्रकारैक्याद् अयम् अपि दण्डीति बुद्धिमत् ।

जातेर् भेदः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयम् च जात्यादि-प्रकारो
वस्तुनो भेद इत्य् उच्यते ।

नीलमेघः

वस्तु के प्रति विशेषणरूप में प्रतीत होने वाले ये जात्यादि धर्म ही
भेद कहलाते हैं ।
अश्व से गौ में भेद है,
यह भेद गोत्व ही है,
यह गोत्व अश्व में नहीं रहता,
गोव्यक्ति में ही रहता है ।
इसलिये गौ को अश्व से भिन्न करा देता है।
गौ में रहने वाला अश्वभेद गोत्व है,
एवं अश्व में रहने वाला गोभेद अश्वत्व है ।
इसी प्रकार सर्वत्र उन २ असाधारण धर्मों को भेद समझना चाहिये ।

मूलम्

अयम् च जात्यादिप्रकारो वस्तुनो भेद इत्य् उच्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्+++(→प्रकार)+++-योग एव
वस्तुनो “भिन्नम्”
इति व्यवहारहेतुर् इत्यर्थः ।

नीलमेघः

गौ में रहने वाला अश्वभेद गोत्वरूप है ।
इसी प्रकार ही गोत्व में भी अश्वभेद है
क्योंकि गोत्व अश्व नहीं है ।

‘गोत्व में रहने वाला अश्वभेद कौन पदार्थ है’

यह प्रश्न यहाँ पर उठता है ।
उसका उत्तर यह है कि गोत्व में रहने वाला अश्वभेद गोत्वरूप ही है ।
कारण यह है कि जो गोत्व गौ को अश्व से भिन्न सिद्ध करता है
वह अपने को अश्व से भिन्न सिद्ध करने में क्षमता रखता है।

मूलम्

तद्योग एव वस्तुनो भिन्नम् इति व्यवहारहेतुर् इत्यर्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च +++(प्रकारो)+++
वस्तुनो +++(इतरापेक्षया)+++ भेद-व्यवहार-हेतुः,
स्वस्य च +++(व्यवहार-हेतुः)+++-
संवेदनवत् -
यथा संवेदनं+++(=ज्ञानं)+++ वस्तुनो व्यवहारहेतुः
स्वस्य व्यवहार-हेतुश् च भवति ।

नीलमेघः

इसमें उदाहरण ज्ञान है।
ज्ञान दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करता है
साथ ही अपने को भी
स्वयं प्रकाशित करता है ।
जो दूसरों का निर्वाहक होगा
वह अपना निर्वाह आप ही कर सकता है ।
इसे ही स्वपरनिर्वाहक न्याय कहते हैं।+++(5)+++
[[१३४]]

इसी प्रकार ही गोव्यक्ति को अश्व से सिद्ध करने वाला
गोत्व अपने को भी
अश्व से भिन्न सिद्ध कर देता है ।
इसलिये मानना पड़ता है कि
गोत्व में रहने वाला अश्वभेद गोत्व ही है ।

यह गोत्व स्वरूप की दृष्टि से जब कहा जाता है
तब गोत्व कहा जाता है ।
यही गोत्व जब अश्व आदि प्रतियोगियों की दृष्टि से कहा जाता है,
तब अश्वभेद कहा जाता है ।+++(5)+++

इस प्रकार प्रत्यक्ष भेदरूप गोत्वादि धर्मों से
युक्त व्यक्ति का ग्रहण करता है ।
भेद भी प्रत्यक्ष से ही गृहीत हो जाता है ।

मूलम्

स च वस्तुनो भेदव्यवहारहेतुः स्वस्य च संवेदनवत् - यथा संवेदनं वस्तुनो व्यवहारहेतुः स्वस्य व्यवहारहेतुश् च भवति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत एव सन्मात्रग्राहि प्रत्यक्षं
न भेद-ग्राहीत्य्-आदि-वादा निरस्ताः -

जात्य्-आदि-संस्थान-संस्थितस्यैव वस्तुनः
प्रत्यक्षेण गृहीतत्वात्,

तस्यैव संस्थान-रूप-जात्य्-आदेः प्रतियोग्य्-अपेक्षया
भेद-व्यवहार-हेतुत्वाच् च ।

नीलमेघः

ऐसी स्थिति में अद्वैतियों का यह कथन —
कि प्रत्यक्ष सन्मात्र ब्रह्म का ही ग्रहण करता है,
भेद का ग्रहण नहीं करता है—
असंगत सिद्ध होता है ।

मूलम्

अत एव सन्मात्रग्राहि प्रत्यक्षं न भेदग्राहीत्यादिवादा निरस्ताः ,
जात्यादिसंस्थानसंस्थितस्यैव वस्तुनः प्रत्यक्षेण गृहीतत्वात् तस्यैव संस्थानरूपजात्यादेः प्रतियोग्यपेक्षया भेदव्यवहारहेतुत्वाच् च ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्व-रूप-परिणाम-दोषश् च
पूर्वम् एवोक्तः +++(ब्रह्मणि जीवगत-दोष-सम्भवः … इत्यादि)+++।

नीलमेघः

इन सब उपपादनों से
यादयप्रकाशाचार्य का भेदाभेदमत असमीचीन प्रमाणित हो गया है।

जीव और ब्रह्म में अभेद मानने पर
ब्रह्म निर्दोष नहीं रहेगा ।
तथा यादव-प्रकाशाचार्य भास्कराचार्य के समान
ब्रह्म का स्वरूप परिणाम मानते हैं ।
यदि ब्रह्म जड-वस्तुओं के रूप में परिणत होता है
तो वह निर्विकार न ही रह सकता ।

भास्कराचार्य के मत में कथित उपर्युक्त दोष
यादवप्रकाशाचार्य के मत में भी लग जाता है ।

इन सब विवेचनों से सिद्ध होता है कि
श्रीयादवप्रकाशाचार्य का मत
श्रुति और तर्कों से विरुद्ध होने से अनादरणीय है ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने
श्रीशंकराचार्य के अद्वैतवाद
श्रीभास्कराचार्य के भेदाभेदवाद
तथा श्रीयादवप्रकाशाचार्य के भेदाभेदवाद का खण्डन करके
द्वितीय मंगलाचरण श्लोक की विस्तृत व्याख्या की है।

[[१३५]]

इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने मंगलाचरण में अवस्थित द्वितीय श्लोक -
जो परमत निरास में तात्पर्य रखता है—
की विस्तार से व्याख्या की है।

मूलम्

स्वरूपपरिणामदोषश् च पूर्वम् एवोक्तः ।