०२ विशिष्टाद्वैतेन परिहारः

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् विलक्षणो ऽयं जीवांश

इति चेत् -
आगतो ऽसि तर्हि मदीयं पन्थानम् । +++(5)+++

नीलमेघः

उपर्युक्त दोष से बचने के लिये
यदि यादवप्रकाशाचार्य यह कहें कि
जीव ब्रह्म का अंश है
वह ब्रह्म से सर्वथा भिन्न है,
तो वे विशिष्टाद्वैतमत के समीप में आ जायेंगे ।
अतएव श्रीरामानुज स्वामी जी ने यह कहा कि
आप हमारे मार्ग पर आ गये हैं।

विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में चेतनाचेतनों से विशिष्ट ईश्वरतत्त्व
ब्रह्म माना जाता है ।
इस विशिष्ट ब्रह्मतत्त्व में
चेतन विशेषण है ।
विशेषण विशिष्ट का अंश है,
इस दृष्टि से जीव ब्रह्म का अंश सिद्ध होता है ।
विशेषण विशेष्य से सर्वथा भिन्न होता है,
इस दृष्टि से जीव ईश्वर से सर्वथा भिन्न सिद्ध होता है ।

यदि यादवप्रकाशाचार्य जीव को ईश्वर से
अत्यन्त भिन्न ब्रह्मांरा मानेंगे,
तब उन्हें श्रीविशिष्टाद्वैतसिद्धान्त को अपनाना होगा ।
विशिष्टाद्वैतसिद्धान्त में जीव और ब्रह्म में
स्वरूपैक्य नहीं माना जाता ।

मूलम्

तस्माद् विलक्षणो ऽयं जीवांश इति चेत् - आगतो ऽसि तर्हि मदीयं पन्थानम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरस्य स्वरूपेण तादात्म्य-वर्णने स्याद् अयं दोषः ।

नीलमेघः

यादवप्रकाशाचार्य इत्यादि के मत में
जीव और ब्रह्म में
स्वरूपैक्य माना जाता है
इसलिये उपर्युक्त दोष लग जाते हैं।

मूलम्

ईश्वरस्य स्वरूपेण तादात्म्यवर्णने स्याद् अयं दोषः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्म-शरीरभावेन +++(विशेष्य-विशेषण-भावेन वा)+++ तु
तादात्म्य-प्रतिपादने न कश्चिद् दोषः
+++(- जीव-ब्रह्म-भेदो वर्तत एव)+++।

विश्वास-टिप्पनी

भोगायतनं शरीरमिति पक्षे शरीरपीडनया आत्मनः पीडा स्यात्। प्रकृते न तादृशं शरीरं । किन्तु “यस्य चेतनस्य … नियन्तुम् …” इति हि शरीरलक्षणं वक्ष्यते।

“मच्छरीरपीडया मत्पीडा भवती"ति व्यवहारः कर्म-बद्ध-शरीरिष्व् एव।

नीलमेघः

विशिष्टाद्वैतसिद्धान्त में
शरीरात्मभाव सम्बन्ध को लेकर
ऐक्य कहा जाता है ।
इसलिये ब्रह्म में कोई भी दोष नहीं लगता,

मूलम्

आत्मशरीरभावेन तु तादात्म्यप्रतिपादने न कश्चिद् दोषः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्युत निखिल-भुवन-नियमनादिर्
महान् अयं गुण-गणः प्रतिपादितो भवति । +++(5)+++

नीलमेघः

किन्तु ईश्वर में अनन्त गुण ही सिद्ध होते हैं
क्योंकि चेतनाचेतन और ईश्वर में
आत्मशरीरभाव सम्बन्ध मानने पर
यह सिद्ध होता है कि
चेतनाचेतन ईश्वर का शरीर बनकर
ईश्वर के द्वारा धृत रहते हैं,
ईश्वर के नियन्त्रण में रहते हैं,
तथा ईश्वर के मुखोल्लासार्थ उनके शेष बनकर रहते हैं ।

ईश्वर उन चेतनाचेतनों का आत्मा है
इनका धारक नियन्ता एवं स्वामी है ।

शरीरात्मभाव को मानने पर
ईश्वर में इस प्रकार
अनन्त कल्याणगुण सिद्ध होते हैं ।

मूलम्

प्रत्युत निखिलभुवननियमनादिर् महान् अयं गुणगणः प्रतिपादितो भवति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(आत्मशरीरभावेन जीव-ब्रह्म-)+++सामानाधिकरण्यं च +++(“तत्त्वमसि” इत्यादौ)+++ मुख्य+++(-अर्थ)+++-वृत्तम् +++(, न तु लक्षणया ध्वनिना वा लभ्यमान्म्)+++।

नीलमेघः

यह अर्थ पहले ही कहा जा चुका है कि
श्रीविशिष्टाद्वैतसिद्धान्त में “तत्त्वमसि" इत्यादि अभेदपरक वचन
मुख्यार्थ को लेकर समन्वय पाते हैं, गौणार्थ को लेने की आवश्यकता नहीं रहती ।
विशिष्टाद्वैतमत में
यही महान् गुण है कि
इस मत में सभी श्रुतियों का समन्वय होता है,
तथा ब्रह्म निर्दोष एवं कल्याणगुणनिधि सिद्ध होता है ।

इस प्रकार श्रीरामानुजाचार्य स्वामी जी ने यादवप्रकाशसंमत द्वैताद्वैतवाद की समालोचना करके
विशिष्टाद्वैतसिद्धान्त की महत्ता का प्रतिपादन किया है ।

मूलम्

सामानाधिकरण्यं च मुख्यवृत्तम् ।