नीलमेघः - भास्कर-पक्षः
ग्रन्थ के आरम्भ में श्रीयादवप्रकाशाचार्य का द्वैताद्वैतवाद
तृतीय मत के रूप में वर्णित है ।
श्रीभास्कराचार्यसंमत द्वैताद्वैतवाद -
जिस पर समालोचना की गई है
तथा श्रीयादवप्रकाशाचार्यसंमत द्वैताद्वैतवाद में यह अन्तर है कि
श्रीभास्कराचार्य ने जीव और ब्रह्म में भेदाभेद को मानते हुये
यह कहा कि
इनमें अभेद स्वाभाविक है,
तथा भेद औपाधिक है
क्योंकि वह अन्तःकरण आदि उपाधियों के कारण हुआ करता है।
श्रुति में मोक्षदशा में
जीव और ब्रह्म का अभेद कहा गया है ।
सब तरह के उपाधियों से छुटकारा पाने पर मुक्ति प्राप्त होती है ।
उस दशा में अभेद का वर्णन है
इसलिये अभेद को स्वाभाविक मानना चाहिये,
तथा मिटने वाले भेद को
औपाधिक मानना चाहिये ।
अचेतन और ब्रह्म में भेद और अभेद
दोनों स्वाभाविक हैं
क्योंकि श्रुतियों में सबको ब्रह्मात्मक कहा गया है,
इसलिये अचेतन और ब्रह्म में अभेद मानना पड़ता है,
वैसे ही श्रुतियों में अचेतन को दोषयुक्त एवं ब्रह्म को निर्मल कहा गया है ।
इसलिये इनमें भेद भी मानना पड़ता है ।
यह भास्कराचार्य का मत है ।
नीलमेघः - यादवप्रकाश-मते भेदः
यादवप्रकाशाचार्य के मत में
ब्रह्म और जीव में भेदाभेद माने जाते हैं
दोनों ही स्वाभाविक माने जाते हैं
क्योंकि श्रुतियों में मोक्ष में
जीव और ब्रह्म में भेद और अभेद का वर्णन पाया जाता है ।
इसलिये दोनों को स्वाभाविक मानना पड़ता है ।+++(5)+++
अचेतन और ब्रह्म में भेदाभेद हैं,
दोनों ही स्वाभाविक हैं ।
यही इन दोनों मतों में अन्तर है ।
दोनों मतों में इस बात में समता है कि
दोनों में ही प्रपञ्च सत्य माना गया है।
दोनों आचार्यों ने यह कहा है कि प्रपञ्च को सत्य मानने पर ही
बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था सिद्ध होगी,
तथा अपने २ सिद्धान्तों को सिद्ध करने वाले प्रमाण भी
प्रमाण सिद्ध होंगे,
इसलिये प्रपञ्च को सत्य मानना चाहिये ।
इस प्रकार इन दोनों मतों में कुछ अंश में समता
और कुछ अंशों में अन्तर विद्यमान हैं,
जो ध्यान देने योग्य है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तृतीये ऽपि पक्षे
जीव-ब्रह्मणोर् भेदवद् अ-भेदस्य चाभ्युपगमात्
तस्य +++(=जीवस्य)+++ च तद्+++(→ब्रह्म)+++-भावात्
सौभरि-+++(योगि-नैक-शरीर-)+++भेदवच् च
स्वावतार-भेदवच् च
+++(“न तत्-समश् चाभ्यधिकश् च दृश्यते” इत्यादि श्रुतेर्, ईश्वरो हि ब्रह्म इति स्वीकृत्य)+++
सर्वस्येश्वर-भेदत्वात्
सर्वे जीव-गता दोषास् तस्यैव +++(सर्वज्ञस्येश्वरस्य ब्रह्मणः)+++ स्युः ।
नीलमेघः - ईश्वरस्य ब्रह्मत्वम्
[[१२५]]
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने श्रीयादवप्रकाशाचार्य-संमत द्वैताद्वैतवाद पर समालोचना करते हुये
यह कहा है कि
इस मत में जीव और ब्रह्म में जिस प्रकार भेद माना जाता है
उसी प्रकार अभेद भी माना जाता है ।
वह ब्रह्म ईश्वर ही है,
ईश्वर से अतिरिक्त नहीं ।
यद्य् अपि यादव-प्रकाशाचार्य ने
ब्रह्म को अंशी,
तथा चेतन अचेतन और ईश्वर को ब्रह्म का अंश माना है,
परन्तु उनका यह मत समीचीन नहीं, क्योंकि ईश्वर ही ब्रह्म है,
क्योंकि जगत्-कारणत्व ब्रह्म का लक्षण माना गया है।
श्रुतियाँ ईश्वर को ही जगत् का कारण सिद्ध करती हैं ।
इसलिये ईश्वर को ही
ब्रह्म मानना चाहिये ।
किंच
“न तत्-समश् चाभ्यधिकश् च दृश्यते”
यह श्रुति
ईश्वर के विषय में
यह कहती है कि
ईश्वर के समान कोई नहीं,
तथा ईश्वर से बढ़कर भी कोई नहीं ।
इससे सिद्ध होता है कि
ईश्वर ही सर्वश्रेष्ठ तत्त्व है ।
यदि यादवप्-रकाशाचार्य मत के अनुसार
ईश्वर ब्रह्म का अंश होता,
तथा ब्रह्म ईश्वर का अंशी होता
तो अवश्य ब्रह्म ईश्वर से श्रेष्ठ होगा,
ऐसी स्थिति में उपर्युक्त श्रुति बाधित हो जायेगी ।
इसलिये ईश्वर को ही ब्रह्म मानना चाहिये ।
ब्रह्म और ईश्वर एक ही तत्त्व है ।
नीलमेघः - शरीर-भेदान् नानुभवरोधः
यादवप्रकाशाचार्य के मत में ब्रह्म और जीव में
अभेद भी माना जाता है ।
इससे यह सिद्ध होता है कि
ईश्वर ही जीवभाव को प्राप्त हुआ है।
ईश्वर सर्वज्ञ है
इसलिये उनके मत के अनुसार
ईश्वर सदा यह समझता रहेगा कि
मैं ही अनन्त जीवभाव को प्राप्त हुआ हूँ
जीवों को होने वाले दुःख आदि दोष मुझे ही हो रहे हैं।
यहाँ पर यह नहीं कहा जा सकता कि
जीवों के शरीर भिन्न २ हैं,
शरीरभेद के कारण
दूसरे शरीरों में होने वाले सुख दुःख आदि का पता
ईश्वर को नहीं,
इसलिये ईश्वर में दोष नहीं लगते,
क्योंकि यदि समझने वाला आत्मा एक है
तो शरीरभेद समझ को रोक नहीं सकते,
किसी भी शरीर में रहता हुआ वह आत्मा
अन्यान्य शरीरों में होने वाले सुख दुःख आदि को समझता ही रहेगा।
पुराणों में यह कथा वर्णित है कि
सौभरिनामक योगी जीव ने
पचास शरीरों को धारण किया,
वह जीव किसी भी शरीर में होने वाले
सुख दुःख आदि को
उसी प्रकार समझता ही रहा
जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंगों में होने वाले सुख दुःख आदि को मनुष्य समझता रहता है ।
जिस प्रकार आत्मा एक होने पर
अंगभेद अनुसन्धान को रोक नहीं सकता
उसी प्रकार ही
शरीरभेद भी अनुसन्धान को रोक नहीं सकता ।
किंच, ईश्वर ने समय २ पर
विभिन्न अवतार लिये हैं।
किसी भी अवतार में हुई घटना को
वह दूसरे अवतार में भी समझता रहा ।
वहाँ अवतार-शरीरभेद ने
अनुसन्धान को रोका नहीं,
क्योंकि वहाँ समझने वाले आत्मा ईश्वर एक है ।
नीलमेघः - देष-सङ्क्रमः
इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि
जहाँ समझने वाला आत्मा एक है
वहाँ शरीरभेद अनुसन्धान को रोक नहीं सकता।
किसी भी शरीर में होने वाले सुख और दुःख आदि को
दूसरे शरीर में रहकर भी
वह आत्मा समझता ही रहेगा ।
इसलिये इस द्वैताद्वैत मत में जीव और ईश्वर में
अभेद मानने के कारण
यह दोष लग ही जाता है कि
सर्वज्ञ ईश्वर को सदा यह अनुसन्धान बना रहेगा कि
हम ही विविध शरीरों में विविध जीवों के रूप में रहकर
विविध सुख और दुःख आदि को भोगते रहते हैं ।
इस प्रकार ईश्वर में जीवगत सभी दोष लग जायेंगे,
ईश्वर निर्दोष न रह सकेगा ।
उसके निर्दोषत्व को बतलाने वाली श्रुतियाँ बाधित हो जायेंगी ।
[[१२६]]
मूलम्
तृतीये ऽपि पक्षे जीवब्रह्मणोर् भेदवद् अभेदस्य चाभ्युपगमात् तस्य च तद्भावात् सौभरिभेदवच् च स्वावतारभेदवच् च सर्वस्येश्वरभेदत्वात् सर्वे जीवगता दोषास् तस्यैव स्युः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् उक्तं भवति -
ईश्वरः स्व-रूपेणैव सुर-नर-तिर्यक्-स्थावरादि-भेदेनावस्थित
इति हि तद्-आत्मकत्व-वर्णनं क्रियते ।
नीलमेघः
इस दोष का विवरण करते हुये श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
श्रीयादवप्रकाशाचार्य ने “तत्त्वमसि” इत्यादि अभेद श्रुतियों का भाव बतलाते हुये
यह सिद्ध किया कि ईश्वर अपने स्वरूप से ही
देव मनुष्य तिर्यक् और स्थावर इत्यादि विभिन्न रूपों में अवस्थित है ।
ईश्वर और देव मनुष्य आदि में स्वरूपैक्य है ।
इस प्रकार उन्होंने अभेद की व्याख्या की है ।
मूलम्
एतद् उक्तं भवति - ईश्वरः स्वरूपेणैव सुरनरतिर्यक्स्थावरादिभेदेनावस्थित इति हि तदात्मकत्ववर्णनं क्रियते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा सत्य् एक-मृत्-पिण्डारब्ध–घट-शरावादि-गतान्य् उदकाहरणादीनि सर्व-कार्याणि
यथा तस्यैव भवन्ति,
एवं सर्व-जीव-गत-सुख-दुःखादि सर्वम्
ईश्वर-गतम् एव स्यात् ।
नीलमेघः
यह समीचीन नहीं क्योंकि इस प्रकार व्याख्या करने पर
यह दोष आ जाता है कि
जिस प्रकार मृत्-पिण्ड से बने हुये घट और शराव आदि से होने वाले
जलाहरण इत्यादि
व्यवहार मृत्तिका का व्यवहार बनते हैं
क्योंकि मृत्तिका और घटादिपदार्थ
स्वरूप से एक हैं
उसी प्रकार ही
सर्व जीवों में होने वाले सुख दुःख इत्यादि
सब ईश्वर के माने जायेंगे
क्योंकि उनके मत में
जीव और ईश्वर में स्वरूपैक्य है ।
मूलम्
तथा सत्य् एकमृत्पिण्डारब्धघटशरावादिगतान्य् उदकाहरणादीनि सर्वकार्याणि यथा तस्यैव भवन्ति, एवं सर्वजीवगतसुखदुःखादि सर्वम् ईश्वरगतम् एव स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घट-शरावादि-संस्थानानुपयुक्त–मृद्-द्रव्यं
यथा कार्यान्तरान्वितम्
एवम् एव सुर-पशु-मनुजादि-जीवत्वानुपयुक्तेश्वरः सर्वज्ञः सत्य-संकल्पत्वादि-कल्याण-गुणाकर
इति चेत्
सत्यं स एवेश्वर एकेनांशेन कल्याण-गुण-गणाकरः
स एवान्येनांशेन हेय-गुणाकर
इत्य् उक्तम् -
द्वयोर् अंशयोर् ईश्वराविशेषात् ।
नीलमेघः - पूर्वपक्षः
यादवप्रकाशाचार्य उपर्युक्त दोष का निराकरण करने के लिये
यह कहते हैं कि
मृत्तिका का जो अंश घट और शराव आदि के रूप में परिणत हुआ है
वह उदाहरणादि कार्यों से सम्बन्ध रखता है,
परन्तु जो मृत्तिका का महान् अंश
घट और शराब आदि के रूप में परिणत नहीं हुआ
है वह उन कार्यों से सम्बन्ध नहीं रखता है ।
उसी प्रकार ही ईश्वर का जो अंश देव मनुष्य और पशु [[१२७]] इत्यादि रूप को प्राप्त हो गया है,
वह भले ही जीवगत सुख दुःख आदि को अपनाते रहें,
परन्तु ईश्वर का जो महान् अंश
इन जीवों के रूप में परिणत नहीं हुआ है
वह सर्वज्ञत्व और सत्यसंकल्पत्व इत्यादि कल्याणगुणों का आकर बनकर रहता है ।
नीलमेघः - आक्षेपः
यादवप्रकाशाचार्य का यह प्रतिपादन भी
समीचीन नहीं क्योंकि
इस प्रतिपादन के अनुसार
यही फलित होता है कि
ईश्वर एक अंश में कल्याणगुणों का आकर बनकर रहता है,
तथा दूसरे अंश में त्याज्य दुर्गुणों का आकर बनकर रहता है ।
ऐसी स्थिति में ईश्वर में निर्दोषता कैसे सिद्ध होगी ?
मूलम्
घटशरावादि(करकादि)संस्थानानुपयुक्तमृद्द्रव्यं यथा कार्यान्तरान्वितम् एवम् एव सुरपशुमनुजादिजीवत्वानुपयुक्तेश्वरः सर्वज्ञः सत्यसंकल्पत्वादिकल्याणगुणाकर इति चेत् सत्यं स एवेश्वर एकेनांशेन कल्याणगुणगणाकरः स एवान्येनांशेन हेयगुणाकर इत्य् उक्तम् -
द्वयोर् अंशयोर् ईश्वराविशेषात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वाव् अंशौ व्यवस्थितव्
इति चेत् - कस् तेन लाभः ?
नीलमेघः
इस पर श्रीयादवप्रकाशाचार्य कहते हैं कि
ईश्वर के
ये दोनों अंश व्यवस्थित हैं,
ईश्वर के जिस अंश में सर्वज्ञत्व और सत्यसंकल्पत्व इत्यादि जो कल्याणगुण रहते हैं,
वे उस अंश को छोड़कर
दूसरे अंश में कभी नहीं पहुँचते,
तथा ईश्वर के जिस अंश में
जो जीवों के रूप में परिणत हो गया है -
दुःख इत्यादि दुर्गुण रहते हैं,
वे दुर्गुण भी
उस अंश को छोड़कर
दूसरे अंश में कभी नहीं पहुँचते ।
इस प्रकार कुछ लाभ नहीं होगा क्योंकि
दोनों अंत व्यवस्थित रहते हैं ।
मूलम्
द्वाव् अंशौ व्यवस्थितव् इति चेत् - कस् तेन लाभः ?
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकस्यैवानेकांशेन,
नित्यदुःखित्वाद्,
अंशान्तरेण सुखित्वम् अपि
नेश्वरत्वाय कल्पते ।
नीलमेघः
श्रीयादवप्रकाशाचार्य के इस उपपादन से भी ईश्वर परमात्मा है,
उसके किसी भी अंश में होने वाले गुणदोष आदि का अनुसन्धान
उसको होता ही रहेगा ।
वह यही समझता रहेगा कि
मैं एक अंश में अनन्त जीव बनकर
अनन्त दुःखों को भोगता आ रहा हूँ,
दूसरे अंश में सुखी बनकर रहता हूँ।
ऐसी स्थिति में ईश्वर का ईश्वरत्व सिद्ध नहीं होगा,
वह तभी सिद्ध होगा
जब ईश्वर सभी अंशों में
सदा अपार आनन्द रस का अनुभव करता रहेगा ।
यादवप्रकाश के मत के अनुसार
ईश्वर को एक अंश में नित्यदुःखी बने रहने के कारण
दूसरे अंश में होने वाला सुखित्व ईश्वरत्व का साधक नहीं हो सकता ।
मूलम्
एकस्यैवानेकांशेन नित्यदुःखित्वाद् अंशान्तरेण सुखित्वम् अपि नेश्वरत्वाय कल्पते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा देवदत्तस्यैकस्मिन् हस्ते
चन्दन-पङ्कानुलेप-केयूर-कटकाङ्गुलीयालंकारस्
तस्यैवान्यस्मिन् हस्ते
मुद्गराभिघातः कालानल-ज्वालानुप्रवेशश् च
तद्वद् एवेश्वरस्य स्याद्
इति ब्रह्माज्ञान-पक्षाद् अपि
पापीयान् अयं भेदाभेदपक्षः -
अ-परिमित-दुःखस्य पारमार्थिकत्वात्
संसारिणाम् अनन्तत्वेन दुस्तरत्वाच् च । +++(5)+++
नीलमेघः
उदाहरण - मान लिया जाय कि
देवदत्त का एक हाथ चन्दनपङ्क से लीपा जाता है,
तथा केयूर कटक और अंगुलीयक इत्यादि भूषणों से अलंकृत किया जाता है,
उसी के दूसरे हाथ में मुद्गर से मारा जाता है
तथा प्रलयकाल की अग्नि की ज्वाला का प्रवेश कराया जाता है ।
इस परिस्थिति में देवदत्त की जो दशा होती है
वही दशा उस ईश्वर की होगी
जिसको एक अंश में चन्दनपङ्क लैप के समान
ऐहिक अल्प सुख प्राप्त होता रहेगा
तथा भूषणालंकार के समान मोक्ष सुख भी प्राप्त होता रहेगा,
एवं दूसरे अंश में मुद्गराभिघात के समान ऐहिक अल्प दुःख भी प्राप्त होता रहेगा
तथा कालाग्निज्वालाप्रवेश के समान अनन्त नरकदुःख भी प्राप्त होता रहेगा ।
कणमात्ररूप में उपस्थित दुःख का भी
यह स्वभाव देखा गया है कि
वह अधिक सुखों को भी दबाकर
आत्मा को अपनी अनुभूति कराता ही रहता है ।
ऐसी स्थिति में
यही मानना पड़ता है कि
उपर्युक्त देवदत्त
अपने को दुःखी ही मानता है,
अपने को सुखी नहीं मानता।
उसी प्रकार प्रकृत में ईश्वर अपने को दुःखी ही मानेगा सुखी नहीं ।
नीलमेघः - पापीयस्त्वम्
श्रीयादवप्रकाशाचार्यसंमत यह भेदाभेदपक्ष
तथा श्रीभास्कराचार्यसंमत भेदाभेदपक्ष
श्रीशंकराचार्यसंमत ब्रह्माज्ञानपक्ष से भी अधिक दूषित है
क्योंकि जब शंकराचार्य से यह पूछा जाता है कि
आपके मत में जीव और ब्रह्म में स्वरूपैक्य माना जाता है,
यह सम्पूर्ण सांसारिक दुःख ब्रह्म को ही भोगना पड़ेगा ।
ऐसी स्थिति में ब्रह्म निर्दोष कैसे सिद्ध होगा? [[१२८]]
इस प्रश्न के उत्तर में
शंकराचार्य यह कहकर कि
ये सभी दुःख मिथ्या हैं,
वास्तव में ब्रह्म को कुछ भी भोगना नहीं पड़ता,
ब्रह्म वास्तव में सदा निर्दोष बनकर ही रहता है-
साफ निकल जाते हैं ।
यदि यही प्रश्न भास्कराचार्य और यादवप्रकाशाचार्य के समक्ष रक्खा जाय
तो वे श्रीशंकराचार्य की तरह उत्तर नहीं दे सकते
क्योंकि इनके मत में संसार सत्य है,
अतएव यह अपार दुःख भी सत्य है ।
जीव अनन्त हैं ।
इनके मत के अनुसार ब्रह्म ही अनन्त जीव बना है ।
इन अनन्त संसारी जीवों के दुःख ब्रह्म को प्राप्त होते रहेंगे
ब्रह्म कभी इनसे छुटकारा नहीं पा सकता ।
इस विवेचन से सिद्ध होता है
श्रीशंकराचार्य के ब्रह्माज्ञानपक्ष से
इन दोनों के भेदाभेदपक्ष अधिक दोषदूषित सिद्ध होते हैं ।
मूलम्
यथा देवदत्तस्यैकस्मिन् हस्ते चन्दनपङ्कानुलेपकेयूरकटकाङ्गुलीयालंकारस् तस्यैवान्यस्मिन् हस्ते मुद्गराभिघातः कालानलज्वालानुप्रवेशश् च तद्वद् एवेश्वरस्य स्याद् इति ब्रह्माज्ञानपक्षाद् अपि पापीयान् अयं भेदाभेदपक्षः - अपरिमितदुःखस्य पारमार्थिकत्वात् संसारिणाम् अनन्तत्वेन दुस्तरत्वाच् च ।