०५ स्वरूप-परिणामतः श्रुतिबाधा

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वरूप-परिणामाभ्युपगमाद् अविकारत्व-श्रुतिर् बाध्यते
निरवद्यता च ।

नीलमेघः

किंच, द्वैताद्वैतवादियों ने यह भी माना है कि
ब्रह्मस्वरूप ही अचेतन जडवस्तु के रूप में परिणत होता है ।
उनका यह कथन भी समीचीन नहीं,
क्योंकि ऐसी स्थिति में
ब्रह्म निर्विकार एवं निर्दोष नहीं बन सकता ।
ब्रह्म के निर्विकारत्व एवं निर्दोषत्व बतलाने वाली श्रुतियों का बाध होता है ।

मूलम्

स्वरूपपरिणामाभ्युपगमाद् अविकारत्वश्रुतिर् बाध्यते, निरवद्यता च ।

शक्ति-परिणाम-वादः

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मणः शक्तिपरिणाम

इति चेत् -

केयं शक्तिर् उच्यते ?
किं ब्रह्मपरिणामरूपा?
उत ब्रह्मणो ऽनन्या कापीति ।

नीलमेघः

इस दोष को दूर करने के लिये
यदि द्वैताद्वैतवादी यह कहें कि
अचेतन के रूप में ब्रह्म परिणत नहीं होता,
किन्तु ब्रह्म की शक्ति परिणत होती है,
तब यह प्रश्न उठता है कि
वह शक्ति क्या ब्रह्म का परिणाम रूप है,
या ब्रह्म ही है ?

मूलम्

ब्रह्मणः शक्तिपरिणाम इति चेत् - केयं शक्तिर् उच्यते । किं ब्रह्मपरिणामरूपा? उत ब्रह्मणो ऽनन्या कापीति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(एकत्र ब्रह्म → शक्तिर् इति, अपत्र ब्रह्म/शक्तिर् → लोकवस्त्व् इति)+++
उभयपक्षे ऽपि स्वरूपपरिणामो ऽवर्जनीय एव ।

नीलमेघः

दोनों पक्षों में भी ब्रह्म का स्वरूप परिणाम
मानना ही होगा
क्योंकि यदि शक्ति ब्रह्म का परिणाम है,
तो इस पक्ष में मानना होगा कि
ब्रह्म शक्तिरूप से परिणत होता है ।
यदि शक्ति ब्रह्मस्वरूप है
तो शक्तिपरिणाम एवं ब्रह्मपरिणाम एक ही पदार्थ है ।
ऐसी स्थिति में ब्रह्म का परिणाम मानना होगा ।
ब्रह्म का स्वरूप परिणाम मानने पर
ब्रह्म के निर्विकारत्व एवं निर्दोषत्व को
बतलाने वाली श्रुतियाँ
अवश्य बाधित होकर श्रप्रमाण बन जायेंगी।

इस विचार से सिद्ध होता है श्रीभास्कराचार्यसंमत द्वैताद्वैतवाद समीचीन नहीं ।
इस प्रकार समालोचना करके
श्रीरामानुज स्वामी जी ने भास्कराचार्यसंमत द्वैताद्वैतवाद को अमान्य ठहराया है ।

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मूलम्

उभयपक्षे ऽपि स्वरूपपरिणामो ऽवर्जनीय एव ।