विश्वास-प्रस्तुतिः
निरवयवस्यैवाकाशस्य
+++(वैशेषिक-मते कर्ण-सम्बद्ध-ख-प्रदेशस्य)+++ श्रोत्रेन्द्रियत्वे ऽपीन्द्रिय+++(+अनिन्द्रिय-प्रदेश-)+++-व्यवस्थावद्
ब्रह्मण्य् अपि व्यवस्थोपपद्यत
इति चेत् - न।
नीलमेघः
[[११६]]
आगे द्वैताद्वैतवादी ने
उपर्युक्त व्यवस्था को सिद्ध करते हुये कहा कि
वैशेषिकों ने निरवयव आकाश को ही श्रोत्रेन्द्रिय माना है ।
उन लोगो ने प्रत्येक मनुष्य का शरीर
चलते रहने पर भी
उन शरीरों का विभिन्न आकाश-प्रदेशों में सम्बन्ध होते रहने पर भी
प्रत्येक जीव के श्रोत्रेन्द्रिय को व्यवस्थित माना है ।
तथा उन लोगों ने यह भी माना है कि
कर्ण सम्बद्ध आकाशप्रदेश श्रोत्रेन्द्रिय है
कर्णसम्बन्ध-रहित आकाश अनिन्द्रिय है ।+++(5)+++
इस प्रकार आकाश एक होने पर भी
इन्द्रियत्व और अनिन्द्रियत्व की व्यवस्था होती है ।
उसी प्रकार ही प्रकृत में भी मानना चाहिये ।
ब्रह्म निरवयव एवं एक है ।
उसका विविधप्रदेशों में
विविध उपाधियों से सम्बन्ध होता है ।
उपाधिसम्बद्ध ब्रह्मप्रदेश जीव है,
उपाधिसम्बन्धरहित ब्रह्मप्रदेश ब्रह्म है ।
इस प्रकार जीव और ब्रह्म में
व्यवस्था घट जाती है ।
जिस प्रकार वैशेषिकों के मत में
प्रत्येक मनुष्य का शरीर चलते रहने पर भी
उन शरीरों का
विभिन्न आकाशप्रदेशों से सम्बन्ध होते रहने पर भी
प्रत्येक जीव का श्रोत्रेन्द्रिय व्यवस्थित माना जाता है
उसी प्रकार अन्तःकरणादि उपाधि चलकर
विभिन्न ब्रह्मप्रदेशों से सम्बन्ध पाते रहने पर भी
जीव व्यवस्थित रहते हैं ।
इस प्रकार जीवों में
परस्पर व्यवस्था घट जाती है ।
यह द्वैताद्वैतवादी का कथन है ।
मूलम्
निरवयवस्यैवाकाशस्य श्रोत्रेन्द्रियत्वे ऽपीन्द्रियव्यवस्थावद् ब्रह्मण्य् अपि व्यवस्थोपपद्यत इति चेत् - न
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायु-विशेष-संस्कृत–कर्ण-प्रदेश-संयुक्तस्यैवाकाश-प्रदेशस्येन्द्रियत्वात्
तस्य च प्रदेशान्तराभेदे ऽपीन्द्रिय-व्यवस्थोपपद्यते
+++(यतः श्रोत्रेन्द्रिय-नित्यत्वे नास्ति तच्छास्त्राग्रहः)+++।
नीलमेघः
इसका निराकरण करते हुये श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
हम आकाश को श्रोत्रेन्द्रिय नहीं मानते ।
यह अर्थ आगे विस्तारपूर्वक कहा जायेगा ।
वैशेषिक दार्शनिक आकाश को
श्रोत्रेन्द्रिय मानते हैं ।
उनके मत के अनुसार विचार करने पर
यह सिद्ध होता है कि
निरवयव आकाश को
श्रोत्रेन्द्रिय मानकर इन्द्रियानिन्द्रिय व्यवस्था
एवं श्रोत्रेन्द्रियों में परस्पर व्यवस्था घटाई जा सकती है,
किन्तु प्रकृत जीवब्रह्मव्यवस्था तथा जीवों में
परस्पर व्यवस्था उनके मत के अनुसार भी
घटाई नहीं जा सकती ।
जिससे शब्द का साक्षात्कार हो
वह श्रोत्रेन्द्रिय कहा जाता है ।
विशेषणविशिष्ट आकाश
शब्दसाक्षात्कार का कारण बनता है
अतएव श्रोत्रेन्द्रिय कहलाता है ।
अब प्रश्न उठता है कि
वह विशेषण कौन है ?
उत्तर यह है कि मनुष्य जब शब्द का उच्चारण करता है,
तब उस उच्चारणप्रयत्न से एक वायुविशेष उत्पन्न होकर
मुख से बाहर फैलता है ।
उस वायु का संयोग दूसरे मनुष्य के कर्ण से हो जाता है ।
वायुविशेष के संयोग से
उसका कर्ण संस्कृत होता है ।+++(5)+++
इस प्रकार वायुविशेष के संयोग से संस्कृत होने वाले कर्णप्रदेश से संयुक्त आकाशप्रदेश
श्रोत्रेन्द्रिय बनता है
क्योंकि उससे ही शब्द का साक्षात्कार होता है ।
इस प्रकार के कर्णदेश से
जब कोई भी आकाशप्रदेश संयुक्त रहता है,
तब वह शब्दसाक्षात्कार का कारण होने से श्रोत्रेन्द्रिय कहलाता है
क्योंकि शरीर चलते समय वायुविशेषसंस्कृत कर्ण भी चलता रहता है,
उसका विभिन्न आकाशप्रदेशों से सम्बन्ध होता है।
वे विविध आकाशप्रदेश भी कर्ण से संयुक्त रहते समय श्रोत्रेन्द्रिय बन जाते हैं ।
जो आकाशप्रदेश उपर्युक्त विशेषणविशिष्ट कर्ण से संयुक्त होकर
शब्दसाक्षात्कार का कारण होता है वह
[[१२०]]
श्रोत्रेन्द्रिय कहलाता है,
जो आकाशप्रदेश उपर्युक्तविशेषणविशिष्ट कर्ण से संयुक्त न होने के कारण शब्दसाक्षात्कार का कारण नहीं बनता वह आकाशप्रदेश अनिन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियभिन्न कहलाता है ।
इस प्रकार आकाशप्रदेशों में इन्द्रियत्व और अनिन्द्रियत्व की व्यवस्था घट जाती है ।
श्रोत्रेन्द्रियों में परस्पर व्यवस्था भी
इस प्रकार घट जाती है कि
जिस पुरुष के वायुविशेष संस्कृत कर्ण से
जब जो आकाशप्रदेश संयुक्त रहता है,
वह उस समय उस पुरुष को
शब्दसाक्षात्कार कराकर
उस पुरुष का श्रोत्रेन्द्रिय बन जाता है,
दूसरे पुरुष के वैसे कर्ण से संयुक्त आकाशप्रदेश
दूसरे पुरुष को शब्दसाक्षात्कार करा सकता है,
प्रथम पुरुष को नहीं ।
इसलिये प्रथम पुरुष का श्रोत्रेन्द्रिय नहीं बनता,
किन्तु दूसरे पुरुष का ही श्रोत्रेन्द्रिय बनता है ।
इस प्रकार प्रतिपुरुष श्रोत्रेन्द्रिय व्यवस्थित हो जाते हैं ।
यही श्रोत्रेन्द्रियों में परस्पर व्यवस्था है ।
यह इस प्रकार घट जाती है ।
मूलम्
वायुविशेषसंस्कृतकर्णप्रदेशसंयुक्तस्यैवाकाशप्रदेशस्येन्द्रियत्वात् तस्य च प्रदेशान्तराभेदे ऽपीन्द्रियव्यवस्थोपपद्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाशस्य तु
सर्वेषां शरीरेषु गच्छत्स्व् अनियमेन सर्वप्रदेशसंयोग इति
ब्रह्मण्य् उपाधिसंयोगप्रदेशानियम एव
+++(येन शास्त्रोक्त-जीव-नित्यत्वं न घटते,
अपि च जीवैर् अनुभव-कलनम् अपि न घटते)+++।
नीलमेघः - जीव-नित्यत्व-विरोधः
यह तो मानना ही पड़ेगा कि
कर्ण का आकाश के प्रदेशविशेष से सम्बन्ध नियत नहीं रहता ।
शरीर चलते रहते समय कर्ण का विभिन्न आकाशप्रदेशों से सम्बन्ध होता रहता है
इस प्रकार प्रदेशविशेष से कर्ण का सम्बन्ध नियत न होने पर भी
जब जो आकाशप्रदेश कर्णसंयुक्त होकर शब्दसाक्षात्कार कराता है,
वह उस समय श्रोत्रेन्द्रिय बन जाता है ।
प्रकृत में वैसी व्यवस्था नहीं घटती ।
अन्तःकरण इत्यादि उपाधि
ब्रह्म के प्रदेशविशेष से सदा सम्बद्ध नहीं रहते
किन्तु चलते समय
विभिन्न ब्रह्मप्रदेशों से सम्बद्ध होते जाते हैं ।
जो ब्रह्मप्रदेश इस समय उपाधिसंयुक्त नहीं है
वह भी किसी समय
इस उपाधि से सम्बद्ध रहा,
या सम्बद्ध होने वाला है ।
ऐसा कोई ब्रह्मप्रदेश सिद्ध होता ही नहीं
जो तीनों कालों में भी उपाधि से सम्बद्ध रहे ।
इसलिये जीवब्रह्मव्यवस्था नहीं घटती ।
द्वैताद्वैतवादियों ने यह कहा था कि
उपाधि से सम्बद्ध ब्रह्मप्रदेश जीव है,
उपाधिरहित ब्रह्मप्रदेश ब्रह्म है ।+++(5)+++
इस प्रकार जीवब्रह्मव्यवस्था घट जाती है।
उनका यह कथन समीचीन नहीं, क्योंकि ऐसा ब्रह्मप्रदेश होता ही नहीं
जो तीनों कालों में उपाधिसम्बन्धरहित हो ।
यदि द्वैताद्वैतवादियों का यह अभिप्राय है कि
जब जो ब्रह्मप्रदेश उपाधि से युक्त होगा,
तब वह जीव होगा,
जब वह ब्रह्मप्रदेश उपाधि से रहित होगा,
तब वह ब्रह्म बन जायेगा ।
तब तो जीव की उत्पत्ति और विनाश मानना होगा
क्योंकि उपाधिसंयोग होने पर उस ब्रह्मप्रदेश में जीवत्व आता है
उपाधि हटने पर उस ब्रह्मप्रदेश में जीवत्व नष्ट हो जाता है।
जीव की उत्पत्ति और विनाश
शास्त्रविरुद्ध है
क्योंकि शास्त्र जीव को अजन्मा
एवं नित्य बतलाता है ।
नीलमेघः - ब्रह्म-प्रदेश-मात्रेण नानुभव-कलनम्
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि
द्वैताद्वैतवादियों के मत में
जीवब्रह्मव्यवस्था नहीं घटती है ।
जीवों में परस्पर व्यवस्था भी नहीं घटती है ।
प्रत्येक जीव
अपने २ सुख दुःख इत्यादि को समझते हैं,
दूसरों के सुख दुःख इत्यादि को नहीं समझते ।
यही जीवों में परस्पर व्यवस्था है ।
यह व्यवस्था भी द्वैताद्वैतवादियों के मत में नहीं घटती है
क्योंकि सभी ब्रह्मप्रदेशों से
सभी उपाधियों का सम्बन्ध होता रहता है,
सभी जीव ब्रह्म का प्रदेश ही हैं
ब्रह्म ही जानने की क्षमता रखता है,
उपाधि नहीं,
क्योंकि वह जड है ।
जीव बनने वाले ब्रह्मप्रदेशों को
अपने में लगे हुये
सब तरह की उपाधियों के संसर्ग से होने वाले
सुख दुःखों के विषय में
जानकारी रखना चाहिये ।
ऐसा तो होता नहीं । [[१२१]]
यदि कहा जाय कि दूसरा ब्रह्मप्रदेश
अन्य उपाधि से होने वाले सुख दुःखों को समझने में असमर्थ है, तो,
उपाधि एक प्रदेश में सुख दुःखों को उत्पन्न कराकर
जब दूसरे ब्रह्मप्रदेश में पहुँचता है,
तब पहले ब्रह्मप्रदेश में हुये सुख दुःखों का जो दूसरे ब्रह्मप्रदेशों में स्मरण होता है
उसमें बाधा पड़ेगी,
क्योंकि वह दूसरा प्रदेश है,
पहले प्रदेश में हुये सुख दुःखों को समझने में वह असमर्थ ही रहेगा ।
यदि इस दोष को दूर करने के लिये
यह माना जाय कि
एक प्रदेश में हुये सुख दुःखों को दूसरा प्रदेश समझने में क्षमता रखता है,
तब तो उपाधियों को इधर उधर चलते रहने पर
विभिन्नब्रह्मप्रदेशरूपी जीवों पर हुये सुख दुःखों को
अन्यान्य ब्रह्मप्रदेशरूपी जीवों को समझते रहना चाहिये ।
इसलिये जीवों में परस्पर व्यवस्था भी द्वैताद्वैतवाद में नहीं जमती है ।
नीलमेघः - निगमनम्
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने
वैशेषिकों के मत के अनुसार
आकाश को ही श्रोत्रेन्द्रिय मानकर
दृष्टान्त एवं दाष्टन्तिक में यह अन्तर दिखलाया है कि
दृष्टान्त में इन्द्रियानिन्द्रिय व्यवस्था
एवं श्रोत्रेन्द्रियों में परस्पर व्यवस्था घट जाती है,
किन्तु दान्तिक में जीवब्रह्मव्यवस्था तथा जीवों में परस्पर व्यवस्था नहीं घटती है ।
मूलम्
आकाशस्य तु सर्वेषां शरीरेषु गच्छत्स्वनियमेन सर्वप्रदेशसंयोग इति ब्रह्मण्य् उपाधिसंयोगप्रदेशानियम एव।
उपनिषत्-तिरस्कारः
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाशस्य स्वरूपेणैव श्रोत्रेन्द्रियत्वम् अभ्युपगम्यापीन्द्रियव्यवस्थोकता ।
नीलमेघः
[[१२२]]
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
उपर्युक्त विवेचन आकाश स्वरूप को श्रोत्रेन्द्रिय मानकर किया गया है ।
मूलम्
आकाशस्य स्वरूपेणैव श्रोत्रेन्द्रियत्वम् अभ्युपगम्यापीन्द्रियव्यवस्थोकता ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परमार्थतस् त्व् आकाशो न श्रोत्रेन्द्रियम् ।
नीलमेघः
वास्तव में आकाश श्रोत्रेन्द्रिय नहीं हैं ।
मूलम्
परमार्थतस् त्व् आकाशो न श्रोत्रेन्द्रियम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैकारिकाद् अहंकाराद् एकादशेन्द्रियाणि जायन्त इति हि वैदिकाः ।
नीलमेघः
वैदिकों का यह सिद्धान्त है कि सात्त्विकाहंकार से एकादश (ग्यारह) इन्द्रिय उत्पन्न होते हैं ।
मूलम्
वैकारिकाद् अहंकाराद् एकादशेन्द्रियाणि जायन्त इति हि वैदिकाः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तं भगवता पराशरेण
+++(राजसाहङ्कारजानि←)+++तैजसानीन्द्रियाण्य् आहुर् +++(परे)+++,
+++(वयं तु -)+++ देवा+++(=इन्द्रियाणि)+++ वैकारिका+++(=सात्त्विकाहङ्कारजानीति)+++ दश ।
एकादशं मनश् चात्र
देवा वैकारिकाः स्मृताः ॥
इति ।
नीलमेघः
यह श्रीपराशरब्रह्मर्षि के वचन से सिद्ध होता है ।
वह वचन यह है कि-
तैजसानीन्द्रियाण्याहुर्देवा
वैकारिका दश ।
एकादशं मनश्चात्र देवा वैकारिकाः स्मृताः ॥
अर्थात् दूसरे वादी कहते हैं कि इन्द्रिय तैजस अर्थात् राजसाहंकार से उत्पन्न हैं ।
परन्तु यह बात नहीं ।
किन्तु स्मृतिकारों ने यही माना है कि
दस इन्द्रिय वैकारिक अर्थात् सात्त्विकाहंकार से उत्पन्न हैं, तथा ग्यारहवाँ मन भी सात्त्विकाहंकार से उत्पन्न है ।
इस प्रकार ग्यारह इन्द्रिय सात्त्विकाहंकार से उत्पन्न हैं ।
यही सिद्धान्त है ।
मूलम्
यथोक्तं भगवता पराशरेणतैजसानीन्द्रियाण्य् आहुर् देवा वैकारिका दश ।एकादशं मनश् चात्र देवा वैकारिकाः स्मृताः ॥ इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयम् अर्थः -
वैकारिकस् तैजसो भूतादिर्
इति॥
त्रिविधो ऽहंकारः ।
स च क्रमात्
सात्त्विको राजसस् तामसश् च ।
नीलमेघः
भावार्थ यह है कि अहंकार तीन प्रकार का है (१) वैकारिक (२) तैजस और (३) भूतादि ।
ये ही सात्त्विक राजस और तामस कहलाते हैं ।
मूलम्
अयम् अर्थः । वैकारिकस् तैजसो भूतादिर् इति॥ त्रिविधो ऽहंकारः । स च क्रमात् सात्त्विको राजसस् तामसश् च ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तामसाद् भूतादेर्
आकाशादीनि भूतानि जायन्त
इति सृष्टिक्रमम् उक्त्वा
तैजसाद् राजसाद् अहंकाराद्
एकदशेन्द्रियाणि जायन्त
इति परमतम् उपन्यस्य
सात्त्विकाहंकाराद् वैकारिकानीन्द्रियाणि जायन्त
इति स्व-मतम् उच्यते।
नीलमेघः
उनमें तामसाहंकार अर्थात् भूतादि से
आकाश इत्यादि पंचभूत उत्पन्न होते हैं।
इस प्रकार सृष्टिक्रम को बतलाकर उपर्युक्त श्लोक से
श्रीपराशरब्रह्मर्षि ने यह कहा कि
कई वादी यह कहते हैं कि तैजस अर्थात् राजसाहंकार से ग्यारह इन्द्रिय उत्पन्न होते हैं ।
इस प्रकार दूसरे वादियों के मत को कहकर
महर्षि ने अपने मत को उपस्थापित करते हुये कहा कि
ग्यारह इन्द्रिय वैकारिक अर्थात् सात्त्विकाहंकार से उत्पन्न होते हैं ।
मूलम्
तत्र तामसाद् भूतादेर् आकाशादीनि भूतानि जायन्त इति सृष्टिक्रमम् उक्त्वा
तैजसाद् राजसाद् अहंकाराद् एकदशेन्द्रियाणि जायन्त इति परमतम् उपन्यस्य
सात्त्विकाहंकाराद् वैकारिकानीन्द्रियाणि जायन्त इति स्वमतम् उच्यते।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवा वैकारिकाः स्मृता
इति । देवा इन्द्रियाणि ।
नीलमेघः
इस श्लोक में देवशब्द इन्द्रियों का वाचक है ।
मूलम्
देवा वैकारिकाः स्मृता
इति । देवा इन्द्रियाणि ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् इन्द्रियाणाम् आहंकारिकाणां भूतैश् चाप्यायनं महाभारत उच्यते ।
नीलमेघः
इस प्रकार सात्त्विकाहंकार से उत्पन्न होने वाले इन्द्रियों की पुष्टि पंचभूतों से हुआ करती है । यह अर्थ महाभारत से प्रमाणित है ।
इन्द्रिय अहंकार से उत्पन्न होते हैं, पंचभूतों से पुष्ट होते हैं,
इस मर्म को बिना समझे ही
वैशेषिकों ने
इन्द्रियों को भौतिक घोषित किया है ।
मूलम्
एवम् इन्द्रियाणाम् आहंकारिकाणां भूतैश् चाप्यायनं महाभारत उच्यते ।
दृष्टान्त-वैषम्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
भौतिकत्वे ऽपीन्द्रियाणाम्
आकाशादि-भूत-विकारत्वाद् एवाकाशादि-भूत-परिणाम-विशेषा व्यवस्थिता एव
शरीरवत् पुरुषाणाम् इन्द्रियाणि भवन्तीति
+++(अविकारे ब्रह्मणि, अजे जीवे च नैवम्)+++
नीलमेघः
इन्द्रियों को भौतिक मानने पर भी
प्रतिपुरुष व्यवस्था कही जा सकती है।
जिस प्रकार आकाशादि पंचमहाभूत सब पुरुषों के साधारण होने पर भी
उनके परिणामरूप शरीर
प्रतिपुरुष व्यवस्थित रहते हैं,
अतएव यह कहा जाता है कि
यह शरीर इस जीव का है उस जीव का नहीं ।
इसी प्रकार ही पंचमहाभूतों के परिणामात्मक इन्द्रिय,
विलक्षण परिणाम होने के कारण
प्रतिपुरुष व्यवस्थित रहते हैं ।
अतएव यहाँ पर भी यह कहा जा सकता है कि
ये इन्द्रिय इस जीव का है,
उस जीव का नहीं ।
इस प्रकार इन्द्रियव्यवस्था इन्द्रियों को भौतिक मानने वालों के मत में भी घट जाती है ।
नीलमेघः - अत्वाद् वैषम्यम्
किन्तु द्वैताद्वैतवादियों के मत में यह व्यवस्था तभी घट सकती है
जब जीव उसी प्रकार
ब्रह्म का परिणाम हों
जिस प्रकार इन्द्रिय भूतों का परिणाम है।
जीव तो ब्रह्म का परिणाम नहीं बन सकते
क्योंकि वे शास्त्र में अज अर्थात् उत्पत्तिरहित एवं नित्य कहे गये हैं ।
मूलम्
भौतिकत्वे ऽपीन्द्रियाणाम् आकाशादिभूतविकारत्वाद् एवाकाशादिभूतपरिणामविशेषा व्यवस्थिता एव शरीरवत् पुरुषाणाम् इन्द्रियाणि भवन्तीति
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मण्य् अच्छेद्ये निरवयवे निर्विकारे त्व्
अनियमेनानन्त-हेयोपाधि-संसर्ग-दोषो दुष्-परिहर एवेति,
+++(न्याये ऽशक्त्या)+++ श्रद्दधानानाम् एवायम् पक्ष
इति शास्त्रविदो न बहु मन्यन्ते ।
नीलमेघः
[[१२३]]
द्वैताद्वैतवादियों के मत में यह दोष लग ही जाता है कि
जो ब्रह्म निरवयव एवं निर्विकार होने से अच्छेद्य है
उसी ब्रह्मस्वरूप में ही
अनन्तदोषनिधि उपाधि लगकर
उसे दूषित करते हैं,
ब्रह्म निर्दोष नहीं चन सकता ।
इस दोष का परिहार होता ही नहीं ।
अतएव शास्त्रज्ञों ने यह माना है यह द्वैताद्वैतपक्ष
उन लोगों की ही मान्यता को प्राप्त कर सकता है
जो न्यायनिरूपण में असमर्थ हैं,
तथा उपदेशमात्र से तृप्त हैं,
मनन करने में असमर्थ हैं ।
यह पक्ष शास्त्रज्ञों के बहुमान का पात्र नहीं बन सकता ।
मूलम्
ब्रह्मण्य् अच्छेद्ये निरवयवे निर्विकारे त्व् अनियमेनानन्तहेयोपाधिसंसर्गदोषो दुष्परिहर एवेति श्रद्दधानानाम् एवायम् पक्ष इति शास्त्रविदो न बहु मन्यन्ते ।