०३ क्षणे क्षणे बन्ध-मोक्षौ

विश्वास-प्रस्तुतिः

घट-संयुक्ताकाश-प्रदेशो ऽन्यस्माद् आकाश-प्रदेशाद् भिद्यत

इति चेत् -
आकाशस्यैकस्यैव प्रदेश-भेदेन
घटादि-संयोगाद् +++(एकस्मात् प्रदेशाद् अन्यत्र)+++ घटादौ गच्छति,
तस्य च प्रदेश-भेदस्यानियम इति

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

यहाँ पर द्वैताद्वैतवादी यह शंका करते हैं कि

जिस प्रकार घटसंयुक्त आकाशप्रदेश मठसंयुक्त आकाशप्रदेश से भिन्न होते हैं,
अतएव उन २ आकाशप्रदेशों में होने वाले गुण दोष वहीं २ व्यवस्थित रहते हैं,
एक प्रदेश के गुणदोष
दूसरे प्रदेश में नहीं माने जाते हैं
उसी प्रकार एक उपाधि से सम्बद्ध ब्रह्मप्रदेश
दूसरे उपाधि से सम्बद्ध ब्रह्मप्रदेश से भिन्न होता है ।
अतएव उन २ ब्रह्मप्रदेशों में होने वाले गुगा दोष
वहीं २ व्यवस्थित रहते हैं,
एक प्रदेश के गुण दोष दूसरे प्रदेशों में नहीं पहुँचेंगे ।
इस प्रकार व्यवस्था बन सकती है ।

यह द्वैताद्वैतवादियों का कथन है ।

नीलमेघः - आकश-बहुत्वे

इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
इस प्रकार की व्यवस्था
दोनों परिस्थितियों में ही घट सकती है ।
यदि आकाश व्यक्ति अनेक हों,
अथवा घट आदि उपाधि न चलने वाले हों,
एक स्थान में ही रहने वाले हों,
तभी यह व्यवस्था घट सकती है ।

आकाश एक ही पदार्थ है,
घट आदि उपाधि भी
एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने वाले हैं
इसलिये यह व्यवस्था पहले आकाश में ही न घटती है ।
भाव यह है कि
यदि आकाश व्यक्ति अनेक होते
घट आदि उपाधि चलते भी रहें
तब भी यह कह सकते हैं कि
चलने वाले घट आदि उपाधि
अपने २ आकाश से ही सम्बद्ध रहते,
दूसरे आकाशों से सम्बद्ध नहीं रहते,
इसलिये उन २ उपाधियों के कारण होने वाले गुण दोष
उन २ आकाश में ही होते रहते हैं,
दूसरे आकाशों में नहीं हुआ करते।

इस प्रकार गुणदोषव्यवस्था घट जाती है ।

यदि आकाश व्यक्ति एक ही जैसा है,
घट आदि उपाधि न चलने वाले होते
तो भी यह कहा जा सकता है कि
घट आदि उपाधि न चलने के कारण
उन २ आकाशप्रदेशों से ही सम्बद्ध रहकर
उन २ आकाशप्रदेशों में ही गुण दोषों को उत्पन्न करते हैं,
दूसरे आकाशप्रदेशों में नहीं ।
इस प्रकार गुणदोषव्यवस्था घट सकती हैं।

नीलमेघः - आकाशैक्ये

वास्तविक स्थिति में तो
आकाश व्यक्ति एक है,
घट आदि उपाधि चलते रहते हैं ।
घट आदि उपाधि
एक क्षण में एक आकाशप्रदेश से सम्बद्ध होते हैं,
दूसरे क्षण में चलकर
दूसरे आकाशप्रदेश में-
जहाँ पहले दूसरा उपाधिसम्बन्ध था-
सम्बद्ध होते हैं ।

ये उपाधि प्रथम क्षण में एक आकाशप्रदेश में गुण दोषों को उत्पन्न करते हैं,
दूसरे क्षण में ये उपाधि अन्यत्र जाकर अन्य आकाशप्रदेश में-
जहाँ पहले अन्य उपाधि ने गुण दोषों को उत्पन्न किया था-
गुण दोषों को उत्पन्न करते हैं,
अन्य उपाधि इस आकाशप्रदेश में आकर गुण दोषों को उत्पन्न करते हैं
इसलिये गुणदोषव्यवस्था नहीं घटती ।
यह हुई दृष्टान्त की बात ।

मूलम्

घटसंयुक्ताकाशप्रदेशो ऽन्यस्माद् आकाशप्रदेशाद् भिद्यत इति चेत् - आकाशस्यैकस्यैव प्रदेशभेदेन घटादिसंयोगाद् घटादौ गच्छति
तस्य च प्रदेशभेदस्यानियम इति।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्वद् ब्रह्मण्य् एव प्रदेश-भेदानियमेनोपाधि-संसर्गाद्

उपाधौ गच्छति
+++(आकाशवत्)+++ संयुक्त-वियुक्त–ब्रह्म-प्रदेश–भेदाच् च
ब्रह्मण्य् एवोपाधि-संसर्गः +++(तत्-तत्-प्रदेशे)+++ क्षणे क्षणे बन्ध-मोक्षौ स्याताम्
इति सन्तः परिहसन्ति ।+++(5)+++

नीलमेघः - दोषैर् ब्रह्म-सम्बन्धः

दार्ष्टान्तिक में भी
इस बात को समझना चाहिये ।
द्वैताद्वैतवादियों के द्वारा वर्णित व्यवस्था
निम्नलिखित दोनों परिस्थितियों में ही घट सकती है ।

यदि ब्रह्म अनेक हों,
अथवा अन्तःकरण आदि उपाधि
न चलने वाले हों,
तभी यह व्यवस्था घट सकती है ।

ब्रह्म एक ही वस्तु है अनेक नहीं,
अन्तःकरण आदि उपाधि भी
एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने वाले हैं।
मान लिया जाय कि एक मनुष्य
अयोध्या से श्रीरंग जाता है,
वहाँ उस मनुष्य का अन्तःकरण और देह अयोध्या से श्रीरंग चले जाते हैं।
वैसे ही एक मनुष्य [[११८]] श्रीरंग से जब अयोध्या चला आता है,
तब उसका अन्तःकरण और देह श्रीरंग से अयोध्या चले जाते हैं ।
इस प्रकार अन्तःकरण आदि उपाधि
सदा चलने वाले हुआ करते हैं
इसलिये उपर्युक्त व्यवस्था
ब्रह्म में नहीं घटती है ।

यदि ब्रह्म व्यक्ति अनेक होते, अन्तःकरण आदि उपाधि भले ही चलने वाले हों,
तो भी यह कह सकते हैं कि
चलने वाले अन्तःकरण आदि उपाधि
अपने २ ब्रह्म में ही लगे रहते हैं
क्योंकि अपना २ ब्रह्म विभु होने से सर्वत्र रहता है,
उससे ही सम्बद्ध रहते हैं,
दूसरे ब्रह्मों से नहीं इसलिये उन २ उपाधियों के कारण होने वाले गुणदोष
उस २ ब्रह्म में ही होते हैं,
दूसरे ब्रह्मों में नहीं ।
इस प्रकार गुणदोषव्यवस्था घट जाती है ।

यदि अन्तःकरण आदि उपाधि न चलने वाले होते,
एकत्र ही स्थिर रहने वाले होते, तो भले ही ब्रह्म एक ही हो,
तो भी यह कहा जा सकता है कि
अन्तःकरण आदि उपाधि न चलने के कारण
उस २ ब्रह्मप्रदेश में ही सम्बद्ध रहकर
उस २ ब्रह्मप्रदेश में ही गुण दोषों को चढ़ा देते हैं,
दूसरे ब्रह्मप्रदेश में नहीं ।
इस प्रकार गुणदोषव्यवस्था घट जाती है ।

वास्तविक स्थिति में तो
ब्रह्म एक ही वस्तु है,
वह विभु भी है ।
अन्तःकरण आदि उपाधि चलते रहते हैं ।
ब्रह्म एक वस्तु होने के कारण सभी अन्तःकरण आदि उपाधि
ब्रह्म से ही सम्बद्ध रहते हैं ।
यह मानना पड़ता है ।

नीलमेघः - क्षणे क्षणे बन्ध-मोक्षौ

यह बात नहीं हो सकती है कि
ब्रह्म उपाधिसम्बन्ध से रहित है ।
चलने वाले अन्तःकरण आदि उपाधि
एक स्थान से दूसरे स्थान में जब चले जाते हैं
तब मानना पड़ता है कि
पूर्व स्थान के ब्रह्मप्रदेश को छोड़कर
दूसरे स्थान के ब्रह्मप्रदेश से सम्बद्ध होते हैं ।
अन्तःकरण आदि उपाधियों से सम्बन्ध ही बन्ध है,
इनसे छुटकारा पाना ही मोक्ष है ।
जहाँ उपाधि एक स्थान से दूसरे स्थान में चले जाते हैं
वहाँ पूर्व स्थान में स्थित ब्रह्मप्रदेश को मोक्ष
तथा दूसरे स्थान में स्थित ब्रह्मप्रदेश को बन्ध हो जाता है ।
इस प्रकार अन्तःकरण आदि उपाधि चलते समय
प्रतिक्षण ब्रह्मप्रदेशों को बन्ध और मोक्ष होते ही रहते हैं ।
एक ब्रह्मप्रदेश को
बिना ज्ञान के ही मोक्ष
तथा दूसरे ब्रह्मप्रदेश को बिना कर्म के ही बन्ध मानना पड़ेगा।
यह बहुत अनुचित है ।
अतएव इस द्वैताद्वैतवाद को सुनकर
सन्तों को हँसी आती है ।

नीलमेघः - निगमनम्

ब्रह्म निरवयव होने से अच्छेद्य है,
ब्रह्म एक है, अनेक नहीं,
उपाधि चलने वाली वस्तु है,
एक स्थान में स्थिर रहने वाली वस्तु नहीं,
इसलिये व्यवस्था दुर्घट हो जातो है ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने
उत्तर देकर
द्वैताद्वैतवाद का खण्डन किया है ।

मूलम्

तद्वद् ब्रह्मण्य् एव प्रदेशभेदानियमेनोपाधिसंसर्गाद् उपाधौ गच्छति संयुक्तवियुक्तब्रह्मप्रदेशभेदाच् च ब्रह्मण्य् एवोपाधिसंसर्गः क्षणे क्षणे बन्धमोक्षौ स्याताम् इति सन्तः परिहसन्ति ।