विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा घटाकाशादेः परिच्छिन्नतया
महाकाशाद् वैलक्षण्यं परस्-पर-भेदश् च दृश्यते
तत्र-स्था गुणा वा दोषा वा
ऽनवच्छिन्ने महाकाशे न संबध्यन्ते
एवम् उपाधि-कृत–भेद-व्यवस्थित–जीव-गता दोषा
अनुपहिते परे ब्रह्मणि
न संबध्यन्त
इति चेत् । नैतद् उपपद्यते ।
नीलमेघः
उपर्युक्त दोष का निराकरण करते हुये द्वैताद्वैतवादियों ने कहा कि
लोक में देखा जाता है कि घटाकाश और मठाकाश इत्यादि परिच्छिन्न रहते हैं ।
महाकाश-जो इन उपाधियों से श्रसम्बद्ध है -
अपरिच्छिन्न रहता है।
इस प्रकार घटाकाश आदि और महाकाश में भेद रहता है।
किंच, घटाकाश मठाकाश से भिन्न होता है,
तथा मठाकाश घटाकाश से भिन्न होता है ।
इस प्रकार इनमें भी भेद रहता है ।+++(5)+++
इन घटाकाश आदि में होने वाले गुण दोष इनमें ही रह जाते हैं,
उपाधिसम्बन्धरहित महाकाश में नहीं लगते हैं ।
इसी प्रकार ही प्रकृत में भी समझना चाहिये ।
अन्तःकरण इत्यादि उपाधि भिन्न २ हैं,
उपाधिसम्बद्ध ब्रह्मप्रदेश ही जीव हैं,
वे उपाधिभेद के कारण भिन्न २ हो जाते हैं ।
उनमें होने वाले गुण दोष उनमें ही रह जाते हैं,
उपाधिसम्बन्धरहित परब्रह्म में नहीं लगते हैं
क्योंकि उपाधिसम्बद्ध ब्रह्मप्रदेश
जो जीव कहलाता है
उपाधिसम्बन्ध के कारण उपाधिरहित परब्रह्म से भिन्न बन जाता है।
जीव कहे जाने वाले उपाधिसम्बद्ध ब्रह्मप्रदेश
पाप और दुःख इत्यादि दोषों का भाजन हैं ।
उपाधिरहित परब्रह्म निर्दोष रहता है, उसके विषय में निर्दोषत्व श्रुति प्रवृत्त है ।
अपहतपाप्मत्व और निर्दोषत्व आदि को बतलाने वाली श्रुतियों का
बाध नहीं होता है ।
इस प्रकार द्वैताद्वैतवादी उपर्युक्त दोष का समाधान करते हैं ।
मूलम्
यथा घटाकाशादेः परिच्छिन्नतया महाकाशाद् वैलक्षण्यं परस्परभेदश् च दृश्यते तत्रस्था गुणा वा दोषा वानवच्छिन्ने महाकाशे न संबध्यन्ते एवम् उपाधिकृतभेदव्यवस्थितजीवगता दोषा अनुपहिते परे ब्रह्मणि न संबध्यन्त इति चेत् । नैतद् उपपद्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरवयवस्याकाशस्यानवच्छेद्यस्य घटादिभिश् छेदासंभवात्
तेनैवाकाशेन घटादयः संयुक्ता
इति ब्रह्मणो ऽप्य् अच्छेद्यत्वाद्
ब्रह्मैवोपाधि-संयुक्तं स्यात् ।
नीलमेघः
इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि द्वैताद्वै तवादियों द्वारा वर्णित समाधान सावयव पदार्थ में संगत होता है, निरवयव पदार्थ में नहीं ।+++(5)+++
ब्रह्म निरवयव पदार्थ माना गया है ।
शरीर सावयव पदार्थ है ।
सभी अंग इसके अवयव हैं ।
वे अवयव काटे जा सकते हैं ।
अंगुलि में सर्पदंश होने पर वह अंगुलि काटकर फेंक दी जाती हैं,
दोष अंगुलि में रह जाता है।
अवशिष्ट शरीर उस दोष से बच जाता है ।
यदि इस प्रकार उपाधियुक्त प्रदेश ब्रह्म से कटकर अलग हो जाय तो यह व्यवस्था बन सकती है कि दोष उन प्रदेश में रह जाते हैं,
उपाधिरहित परब्रह्म निर्दोष रहता है ।
परन्तु उपाधियुक्त ब्रह्मप्रदेश कटकर ब्रह्म से अलग नहीं हो सकते क्योंकि ब्रह्म निरवयव पदार्थ है।
जिस प्रकार आकाश निरवयव पदार्थ है ।
घट और मठ इत्यादि उपाधियों से आकाश कट २ कर टुकड़ा नहीं होता,
किन्तु वे उपाधि अच्छे आकाश से संयुक्त होते हैं ।
कटने योग्य अवयव न होने से
आकाश सदा निरवयव होकर रहता है ।
उपाधिसम्बन्ध से होने वाले गुण दोष
आकाश में माने जाते हैं ।
उसी प्रकार ही प्रकृत में भी समझना चाहिये ।
ब्रह्म निरवयव पदार्थ है,
उसमें कटने योग्य कोई अवयव नहीं होता
वह उपाधियों से कट २ कर टुकड़ा २ नहीं होता
किन्तु उपाधि उस अच्छे निरवयव [[११७]] ब्रह्म से सम्बद्ध रहते हैं ।
उपाधिसम्बन्ध से होने वाले गुण दोष
ब्रह्म में होते रहते हैं ।
इसलिये द्वैताद्वैतवादियों के मतानुसार विवेचना करने पर
ब्रह्म निर्दोष नहीं रह सकता ।
मूलम्
निरवयवस्याकाशस्यानवच्छेद्यस्य घटादिभिश् छेदासंभवात् तेनैवाकाशेन घटादयः संयुक्ता इति ब्रह्मणो ऽप्य् अच्छेद्यत्वाद् ब्रह्मैवोपाधिसंयुक्तं स्यात् ।