विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वितीये तु पक्ष
उपाधि-ब्रह्म-व्यतिरिक्त-वस्त्व्-अन्तरानभ्युपगमाद्
ब्रह्मण्य् एवोपाधि-संसर्गाद्
औपाधिकाः सर्वे दोषा
ब्रह्मण्य् एव भवेयुः ।
नीलमेघः
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने
श्री भास्कराचार्य के द्वैताद्वै तसिद्धान्त का निराकरण किया है ।
निराकरण करते हुये उन्होंने कहा कि
श्रीभास्कराचार्य के मत में
उपाधि और ब्रह्म को छोड़कर
तीसरी वस्तु नहीं मानी जाती है ।
जिस प्रकार महाकाश, घट और मठ इत्यादि उपाधियों से सम्बन्ध पाकर
घटाकाश एवं मठाकाश बन जाता है
उसी प्रकार ब्रह्म
अन्तःकरण इत्यादि जड उपाधियों से सम्बन्ध पाकर
विविध जीव बन जाता है ।
प्रपञ्च और संसार इत्यादि सत्य हैं ।
यह भास्कराचार्य का मत है ।
इस मत को मिथ्या मानने पर
होने वाले दोष नहीं लगते जिस प्रकार श्रीशंकराचार्य के मत में लगते हैं ।
इस दृष्टि से यह मत श्रीशंकराचार्य के मत से समीचीन प्रतीत होता है ।+++(5)+++
किन्तु इस मत में भी
जीव और ब्रह्म में स्वरूपैक्य माना जाता है ।
इसलिये जीव ब्रह्मैक्य मानने पर
प्राप्त होने वाले दोष
इस मत में भी लग जाते हैं ।+++(5)+++
इनके मत के अनुसार
उपाधिसम्बन्ध पाकर
ब्रह्म ही जीव बन जाता है ।
उपाधिसम्बन्ध के कारण जीव में होने वाले दुःख इत्यादि दोषों के विषय में
मानना पड़ेगा कि
ये दोष ब्रह्म में होते रहते हैं ।
मूलम्
द्वितीये तु पक्ष उपाधिब्रह्मव्यतिरिक्तवस्त्वन्तरानभ्युपगमाद् ब्रह्मण्य् एवोपाधिसंसर्गाद् औपाधिकाः सर्वे दोषा ब्रह्मण्य् एव भवेयुः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश् चापहत-पाप्मत्वादि-निर्दोषत्व-श्रुतयः
सर्वे विहन्यन्ते ।
नीलमेघः
ऐसी स्थिति में ब्रह्म
अपहतपाप्मत्व और निर्दोषत्व इत्यादि विशेषताओं को बतलाने वाली
सभी श्रुतियाँ वाधित हो जायेंगी ।
यह इस मत में महान् दोष है ।
मूलम्
ततश् चापहतपाप्मत्वादिनिर्दोषत्वश्रुतयः सर्वे विहन्यन्ते ।