विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि च प्रत्यक्षदृष्टस्य प्रपञ्चस्य मिथ्यात्वं
केन प्रमाणेन साध्यते?
नीलमेघः
अद्वै अद्वैतियोँ ने माना है कि शास्त्र बाधक है, और प्रत्यक्ष बाध्य है । इस अर्थ का खण्डन करते हुये श्रीरामानुज स्वामी जी ने यह प्रश्न किया है कि प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रपञ्च सत्य दिखाई देता है । इस प्रपञ्च का मिथ्यात्व किस प्रमाण से सिद्ध होता है ?
मूलम्
अपि च प्रत्यक्षदृष्टस्य प्रपञ्चस्य मिथ्यात्वं केन प्रमाणेन साध्यते?
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षस्य दोष-मूलत्वेन
+अन्यथा–सिद्धि-संभवान्
निर्दोषं शास्त्रम् अनन्यथा-सिद्धं
प्रत्यक्षस्य बाधकम्
इति चेत् -
केन दोषेण
जातं प्रत्यक्षम् अनन्तभेद-विषयम्
इति वक्तव्यम् ।
नीलमेघः - पूर्व-पक्षः
इस प्रश्न के उत्तर में अद्वैती कहते हैं कि
प्रत्यक्ष के मूल में दोष है,
दोष से प्रत्यक्ष होते हैं,
दोषमूलक होने से प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं बन सकते, वे अप्रमाण कोटि में रक्खे जा सकते हैं ।
शास्त्र दोषरहित है,
अप्रमारणकोटि में रक्खा नहीं जा सकता ।
उसे प्रमाण मानना ही होगा ।
ऐसी स्थिति में निर्दोष शास्त्र से दोषमूलक प्रत्यक्ष बाधित हो जाता है । शास्त्र,
प्रपञ्च को मिथ्या बतलाता है ।
प्रत्यक्ष प्रपञ्च को सत्य सिद्ध करता है ।
शास्त्र और प्रत्यक्ष में विरोध है ।
विरोध होने पर शास्त्र से प्रत्यक्ष कट जाता है।
शास्त्र निर्दोष होने से प्रबल है, प्रत्यक्ष, दोषमूलक होने से दुर्बल है ।
शास्त्र के बल पर प्रपञ्च मिथ्या माना जाता है।
यह अद्वैती का कथन है ।
नीलमेघः - प्रश्नः
[[११४]]
इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने यह प्रश्न रक्खा कि
विभिन्न प्रकार के प्रत्यक्षों से
यह नानाप्रकार का भेद, प्रपञ्च सिद्ध होता है ।
इन सभी प्रत्यक्षों में
कौनसा दोष लागू होता है ।
तिमिर इत्यादि दोष सभी प्रत्यक्षों में लागू नहीं होते ।
किस दोष के कारण ये
सभी प्रत्यक्ष उत्पन्न होते हैं ? यह प्रश्न है ।
मूलम्
प्रत्यक्षस्य दोषमूलत्वेनान्यथासिद्धिसंभवान् निर्दोषं शास्त्रम् अनन्यथासिद्धं प्रत्यक्षस्य बाधकम् इति चेत् -
केन दोषेण जातं प्रत्यक्षम् अनन्तभेदविषयम् इति वक्तव्यम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनादि-भेद-वासनाख्य-दोष-जातं प्रत्यक्षम्
इति चेत् -
“हन्त तर्ह्य् अनेनैव दोषेण जातं शास्त्रम् अपी"त्य्
एक-दोष-मूलत्वाच् छास्त्र-प्रत्यक्षयोर् न बाध्य-बाधक-भाव-सिद्धिः ।+++(5)+++
नीलमेघः
इस प्रश्न के उत्तर में अद्वैती ने कहा कि
अनादिकाल से होने वाली भदवासना ही महान् दोष है,
इस दोष से प्रत्यक्ष उत्पन्न होते हैं,
अतएव वे अप्रमाण हैं ।
इस उत्तर को पाकर श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
तब तो आपके मत के अनुसार शास्त्र के मूल में भी यह भेदवासना दोष रहता है ।
शास्त्र और प्रत्यक्ष दोनों के मूल में भेदवासना दोष काम कर रहा है ।
दोनों ही एक दोषमूलक हैं ऐसी स्थिति में इनमें बाध्यबाधकभाव हो नहीं सकता क्योंकि दोनों समान बल वाले हैं ।
दुर्बल और प्रबल में ही बाध्यबाधकभाव होता है।
किंच, इनमें बाध्यबाधकभाव मानना भी उचित नहीं क्योंकि दोनों के विषय भिन्न २ हैं ।
मूलम्
अनादिभेदवासनाख्यदोषजातं प्रत्यक्षम् इति चेत् -
हन्त तर्ह्य् अनेनैव दोषेण जातं शास्त्रम् अपीत्य् एकदोषमूलत्वाच् छास्त्रप्रत्यक्षयोर् न बाध्यबाधकभावसिद्धिः ।
सिद्धान्तः
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाश-वाय्व्-आदि–भूत–
तद्-आरब्ध-शब्द-स्पर्शादि-युक्त-मनुष्यत्वादि–
संस्थान-संस्थित-पदार्थ-ग्राहि प्रत्यक्षम् ।
नीलमेघः
आकाश और वायु इत्यादि पंचमहाभूत तथा इनसे बने हुये एवं शब्दस्पर्शादिगुणयुक्त मनुष्य आदि पदार्थ - जो मनुष्यत्व और मृगत्व इत्यादि सन्निवेशों में रहते हैं
प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय हैं ।
प्रत्यक्ष प्रमाण इन पदार्थों का ग्रहण करता है ।
मूलम्
आकाशवाय्वादिभूततदारब्धशब्दस्पर्शादियुक्तमनुष्यत्वादिसंस्थानसंस्थितपदार्थग्राहि प्रत्यक्षम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
शास्त्रं तु
प्रत्यक्षाद्य्–अ-परिच्छेद्य–
सर्वान्तरात्मत्व-सत्यत्वाद्य्-
अनन्त-विशेषण-विशिष्ट-ब्रह्म–स्व-रूप–
तद्-उपासनाद्य्-आराधन-प्रकार-
तत्-प्राप्ति-पूर्वक–
तत्-प्रसाद-लभ्य-फल-विशेष–
तद्-अनिष्ट-करण-मूल–निग्रह-विशेष-विषयम्
इति न शात्र-प्रत्यक्षयोर् विरोधः । +++(5)+++
नीलमेघः
प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध न होने वाले निम्नलिखित पदार्थ शास्त्र के विषय हैं । वे ये हैं कि
(१) सर्वान्तरात्मत्व और सत्यत्व इत्यादि अनन्त विशेषताओं से युक्त ब्रह्मस्वरूप शास्त्र का विषय है
(२) उस ब्रह्म का आराधन बनने वाले ब्रह्मोपासन याग और दान इत्यादि धर्म भी शास्त्र के विषय हैं ।
(३) उस ब्रह्म के अनुग्रह से प्राप्त होने वाले मोक्ष अर्थात् ब्रह्मप्राप्ति इत्यादि चारों पुरुषार्थ शास्त्र के विषय हैं ।
(४) उस ब्रह्म के प्रति अनिष्टाचरण करने से होने वाले निग्रहसंकल्प और उसके द्वारा मिलने वाले नाना प्रकार के दण्ड भी शास्त्र के विषय हैं इन अर्थों को बतलाने के लिये शास्त्र प्रवृत्त हैं ।
इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि शास्त्र और प्रत्यक्ष का विषय भिन्न २ है ।
इनमें कोई विरोध नहीं ऐसी स्थिति में इनमें बाध्यबाधकभाव हो नहीं सकता ।
मूलम्
शास्त्रं तु प्रत्यक्षाद्यपरिच्छेद्यसर्वान्तरात्मत्वसत्यत्वाद्यनन्तविशेषणविशिष्टब्रह्मस्वरूपतदुपासनाद्याराधनप्रकारतत्प्राप्तिपूर्वकतत्प्रसादलभ्यफलविशेषतदनिष्टकरणमूलनिग्रहविशेषविषयम् इति न शात्रप्रत्यक्षयोर् विरोधः ।
शास्त्र-बल-सिद्धेः प्रत्यक्ष-मूलत्वम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनादि-निधनाविच्छिन्न-पाठ-संप्रदायताद्य्-
अनेक-गुण-विशिष्टस्य +++(प्रत्यक्ष-प्रमाणैः)+++ शास्त्रस्य बलीयस्त्वं वदता
प्रत्यक्ष-पारमार्थ्यम् अवश्यम् अभ्युपगन्तव्यम् +++(5)+++
नीलमेघः
किंच, अद्वैतियोँ को भी प्रत्यक्ष को प्रमाण मानना पड़ेगा।
जो अद्वैतवादी शास्त्र को प्रबल एवं प्रत्यक्ष को दुर्बल मानते हैं
उनको भी प्रत्यक्ष से ही शास्त्रस्वरूप की सिद्धि माननी होगी ।
शास्त्र है इसमें क्या प्रमाण है ?
ऐसा प्रश्न उपस्थित होने पर उन्हें
यही उत्तर देना होगा कि हम श्रोत्रेन्द्रिय से शास्त्र को सुनते हैं,
इसलिये शास्त्र हैं ।
यहाँ प्रत्यक्ष से ही शास्त्र सिद्ध होता है ।
शास्त्र प्रमाण है इसमें क्या प्रमाण है ?
ऐसा प्रश्न उपस्थित होने पर
उन्हें यही उत्तर देना होगा कि
वेदादि शास्त्र अपौरुषेय हैं,
नित्य हैं,
इनका पाठसम्प्रदाय अविच्छिन्न है,
इन कारणों से वेदादिशास्त्र प्रमाण हैं ।
इन कारणों को प्रत्यक्ष अथवा प्रत्यक्षमूलक अनुमान से
सिद्ध करना होगा ।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि अद्वैतियों को भी
प्रत्यक्ष को प्रमाण मानना होगा।
सभी प्रत्यक्ष वाध्य नहीं हो सकते ।
इस प्रकार विवेचना करके श्रीरामानुज स्वामी जी ने
शास्त्र और प्रत्यक्ष में बाध्यबाधकभाव का निराकरण कर सामरस्य की स्थापना की ।
मूलम्
अनादिनिधनाविच्छिन्नपाठसंप्रदायताद्यनेकगुणविशिष्टस्य शास्त्रस्य बलीयस्त्वं वदता प्रत्यक्षपारमार्थ्यम् अवश्यम् अभ्युपगन्तव्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्य् अलम् अनेन श्रुति-शत-वितति–वात-वेग–पराहत-
कु-दृष्टि–दुष्ट-युक्ति–जाल-
तूल-निरसनेनेत्य् उपरम्यते ।+++(5)+++
नीलमेघः
[[११५]]
अन्त में श्रीरामानुज स्वामी जी ने अद्वैतसिद्धान्तसमालोचन का उपसंहार करते हुये यह कहा कि उपनिषदों का अपार्थ करने वाले श्रीशंकराचार्य इत्यादि कुदृष्टि विद्वानों के द्वारा शास्त्रार्थ में रक्खी जाने वाली दुष्ट युक्तियों का समूह तूलों के समान हैं। जिस प्रकार तूल वायुवेग से उड़ जाते हैं, टिकते नहीं, वैसे ही यह युक्तिजाल भी वेदशास्त्रविस्तार के सामने टिकने वाला नहीं है, यह युक्तिजाल वेदशास्त्र वाक्यों से खण्डित हो जाता है ।
वेदशास्त्रविस्ताररूप वायुवेग के सामने ये कुदृष्टियों द्वारा वर्णित दुष्ट युक्तिजालरूप तूल टिक नहीं सकता, उसको विस्तार से निराकरण करने की क्या आवश्यकता है । अब तक जो समालोचना की गई है, यही पर्याप्त है । इस प्रकार कहकर श्रीरामानुज स्वामी जी ने अद्वैत सिद्धान्त की समालोचना का उपसंहार किया है ।
मूलम्
इत्य् अलम् अनेन श्रुतिशतविततिवातवेगपराहतकुदृष्टिदुष्टयुक्तिजालतूलनिरसनेनेत्य् उपरम्यते ।