१७ निवर्तक-ज्ञानोत्पादकम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि च निखिल-भेद-निवर्तकम् इदम् ऐक्य-ज्ञानं
केन जातम् इति विमर्शनीयम् ।

नीलमेघः

[[१०६]]

आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने
निवर्तकज्ञान के कारण का खण्डन किया है ।
वह इस प्रकार है कि अद्वैतियों ने माना है कि ऐक्यज्ञान सम्पूर्ण भेदों का निवर्तक होता है ।
उस ऐक्यज्ञान के विषय में
यह विचार करना चाहिये कि वह ज्ञान किससे उत्पन्न होता है ?

मूलम्

अपि च निखिलभेदनिवर्तकम् इदम् ऐक्यज्ञानं केन जातम् इति विमर्शनीयम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्यैवेति चेन् न ।
तस्या ब्रह्म-व्यतिरिक्ताया अ-विद्या-परिकल्पितत्वात् +++(दोष-मूलत्वात्)+++
प्रपञ्च-बाधक-ज्ञानस्योत्पादकत्वं न संभवति +++(वक्ष्यमाण-निदर्शनेन)+++।

नीलमेघः

अद्वैती कहते हैं कि वह ज्ञान
" तत्त्वमसि " इत्यादि श्रुतिवाक्यों से उत्पन्न होता है ।
इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
यह प्रपञ्चबाधकज्ञान श्रुति से उत्पन्न नहीं होगा ।
श्रुति ब्रह्मव्यतिरिक्त है
अतएव अविद्या से कल्पित है ।
यह अर्थ अद्वैतियों को मान्य है ।
अविद्या दोष है ।
अविद्याकल्पित श्रुति दोषजन्य सिद्ध होती है ।
दोषजन्य श्रुति के द्वारा जो ज्ञान होगा
वह दूषित है,
उससे किसी का भी बाध नहीं होगा ।

मूलम्

श्रुत्यैवेति चेन् न ।
तस्या ब्रह्मव्यतिरिक्ताया अविद्यापरिकल्पितत्वात् प्रपञ्चबाधकज्ञानस्योत्पादकत्वं न संभवति ।

भ्रान्तौ प्रति-भ्रान्तिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा हि दुष्ट-कारण-जातम् अपि रज्जु-सर्प-ज्ञानं
न दुष्ट-कारण-जन्येन
“रज्जुर् इयं न सर्प”
इति ज्ञानेन बाध्यते ।

नीलमेघः

यहाँ पर यह दृशन्त ध्यान देने योग्य है,
मान लिया जाय कि
किसी मनुष्य को इन्द्रियदोष के कारण
रज्जु में सर्पज्ञान हो गया ।
इसमें सन्देह नहीं कि
यह ज्ञान दुष्ट कारण से उत्पन्न है ।

मूलम्

तथा हि दुष्टकारणजातम् अपि रज्जुसर्पज्ञानं न दुष्टकारणजन्येन रज्जुर् इयं न सर्प इति ज्ञानेन बाध्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रज्जु-सर्प-ज्ञान-भये वर्तमाने
केनचिद् भ्रान्तेन पुरुषेण
“रज्जुर् इयं न सर्प” इत्य् उक्ते ऽप्य्
“अयं भ्रान्त” इति ज्ञाते सति
तद्-वचनं रज्जु-सर्प-ज्ञानस्य बाधकं न भवति,
भयं च न निवर्तते ।

नीलमेघः

वैसे ही दूसरा कोई मनुष्य है
जिसके इन्द्रिय में दूसरा कोई दोष हैं उसको रज्जु देखकर
यह ज्ञान होता है कि
यह रज्जु है, सर्प नहीं ।
रज्जुसर्पज्ञान से भयभीत होने वाले प्रथम मनुष्य को
दूसरा मनुष्य समझाता है कि यह रज्जु है, सर्प नहीं।
ऐसा समझाने पर भी प्रथम मनुष्य का
न भ्रम ही दूर होता है
न भय ही
क्योंकि प्रथम मनुष्य,
द्वितीय मनुष्य के विषय में समझता है कि इस [[११०]] मनुष्य के इन्द्रिय में दोष है,
यह भ्रान्त है,
इसके वचन पर विश्वास नहीं करना चाहिये ।
ऐसी स्थिति में प्रथम मनुष्य का भ्रम दूर नहीं होता,
न द्वितीय मनुष्य के उपदेश से
वहाँ सर्प का बाध ही होता है ।
यह दृष्टान्त है ।

मूलम्

रज्जुसर्पज्ञानभये वर्तमाने केनचिद्भ्रान्तेन पुरुषेण रज्जुर् इयं न सर्प इत्युक्ते ऽप्य् अयं भ्रान्त इति ज्ञाते सति तद्वचनं रज्जुसर्पज्ञानस्य बाधकं न भवति भयं च न निवर्तते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयोजक-ज्ञानवतः श्रवण-वेलायाम् एव हि
ब्रह्म-व्यतिरिक्तत्वेन श्रुतेर् अपि भ्रान्ति-मूलत्वं ज्ञातम् इति
+++(तत्त्व-ज्ञानम् अपि न जायेत)+++।

नीलमेघः

प्रकृत में भी वैसा ही समझना चाहिये ।
साधक शास्त्र सुनते समय ही
यह जान लेता है कि
ब्रह्मव्यतिरिक्त सभी पदार्थ अविद्या से कल्पित हैं,
वे भ्रम से ही दिखाई देते हैं,
वे सब मिथ्या हैं ।

शास्त्र सुनते समय साधक
यह भी समझ लेता है कि
वेदशास्त्र भी ब्रह्मव्यतिरिक्त होने से अविद्या से कल्पित हैं
तथा मिथ्या हैं ।
ऐसे समझने वाले साधक को
दोषदूषित शास्त्र
प्रपञ्चबाधक ज्ञान नहीं उत्पन्न कर सकता,
न उस ज्ञान से प्रपञ्च का बोध ही होगा।

कहने का तात्पर्य यह है कि
प्रपञ्चबाधक ज्ञान का
यह अविद्यादोषप्रसूत शास्त्र उत्पादक नहीं हो सकता ।

मूलम्

प्रयोजकज्ञानवतः श्रवणवेलायाम् एव हि ब्रह्मव्यतिरिक्तत्वेन श्रुतेर् अपि भ्रान्तिमूलत्वं ज्ञातम् इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवर्तक-ज्ञानस्य, ज्ञातुस्, तत्-सामग्री-भूत-शास्त्रस्य च
ब्रह्म-व्यतिरिक्ततया यदि बाध्यत्वम् उच्यते
हन्त तर्हि प्रपञ्च-निवृत्तेर् मिथ्यात्वम् आपततीति
प्रपञ्चस्य सत्यता स्यात् - +++(5)+++
स्वप्न-दृष्ट-पुरुष-वाक्यावगत-
पित्रादि-मरणस्य मिथ्यात्वेन
पित्रादि-सत्यतावत् ।

नीलमेघः

किंच, अद्वैतियोँ ने यह माना है कि प्रपञ्चनिवर्तक ज्ञान, उसका ज्ञाता, और उस ज्ञान का साधन बनने वाला शास्त्र यह सब ब्रह्मव्यतिरिक्त होने के कारण अन्त में बाधित हो जाते हैं ।
इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने यह दोष दिया कि यदि प्रपञ्चनिवर्तक ज्ञान इत्यादि बाधित माने जायेंगे तो प्रपञ्चनिवर्तकज्ञान से होने वाली प्रपञ्चनिवृत्ति मिथ्या हो जायेगी तथा प्रपञ्च सत्य हो जायेगा ।

नीलमेघः - दृष्टान्तम्

दृष्टान्त-मान लिया जाय किसी मनुष्य के स्वप्न में स्वप्नदृष्ट पुरुष ने उससे कहा कि तुम्हारे पिता मर गये हैं । जागने पर वह पुरुष - जिसने स्वप्न देखा था - समझता है कि स्वप्नदृष्ट पुरुप मिथ्या है, उसके द्वारा कथित पितृमरण भी मिथ्या है।
ऐसा समझने वाला पुरुष पिता को जीवित मानता है ।

जिस प्रकार स्वप्नश्रुत पितृमरण मिथ्या सिद्ध होने पर
पिता का जीवन सत्य सिद्ध होता है
उसी प्रकार स्वप्नदृष्ट पुरुष के समान निवर्तकज्ञान का बाध होने पर
स्वप्नत पितृमरण की तरह
प्रपञ्चनिवृत्ति भी मिथ्या सिद्ध होगी,
तथा पितृजीवन के समान प्रपञ्च का सत्यत्व सिद्ध होगा ।

मूलम्

निवर्तकज्ञानस्य ज्ञातुस् तत्सामग्रीभूतशास्त्रस्य च ब्रह्मव्यतिरिक्ततया यदि बाध्यत्वम् उच्यते हन्त तर्हि प्रपञ्चनिवृत्तेर् मिथ्यात्वम् आपततीति प्रपञ्चस्य सत्यता स्यात् -
स्वप्नदृष्टपुरुषवाक्यावगतपित्रादिमरणस्य मिथ्यात्वेन पित्रादिसत्यतावत् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किञ् च “तत् त्वम् अस्य्”-आदि-वाक्यं
न प्रपञ्चस्य बाधकम् -
भ्रान्ति-मूलत्वाद्
भ्रान्त-प्रयुक्त–रज्जु-सर्प-बाधक–वाक्यवत् ।+++(5)+++

नीलमेघः

किंच, अद्वैती यह मानते हैं. कि भ्रान्त पुरुष का वाक्य रज्जुसर्प का बाध नहीं करता उसी प्रकार अद्वैतियोँ को

यह भी मानना चाहिये
कि भ्रान्तिमूलक होने के कारण " तत्त्वमसि ” इत्यादि वाक्य भी प्रपञ्च का बाध नहीं कर सकते ।

मूलम्

किञ्च तत् त्वम् अस्य् आदिवाक्यं न प्रपञ्चस्य बाधकम् - भ्रान्तिमूलत्वाद् भ्रान्तप्रयुक्तरज्जुसर्पबाधकवाक्यवत् ।

स्वप्ने प्रतिस्वप्नः

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु च स्वप्ने कस्मिंश्चिद् भये वर्तमाने
स्वप्न-दशायाम् एव
“+अयं स्वप्न” इति ज्ञाते सति
पूर्व-भय-निवृत्तिर् दृष्टा ।
तद्वद् अत्रापि संभवति

+इति । +++(5)+++

नीलमेघः

इस प्रसंग पर अद्वैती ने यह कहा कि भ्रान्तिमूलक “तत्त्वमसि" इत्यादि वाक्य प्रपञ्च का बाध कर सकते हैं
क्योंकि भ्रान्तिमूलक ज्ञान का भी बाधकत्व
अनेक स्थलों में देखा गया है ।

उदाहरण– मान लिया जाय कि
स्वप्न में किसी मनुष्य को किसी दुर्घटना को सुनकर भय हो रहा है,
यदि उस स्वप्न में ही वह मनुष्य यह भी समझ ले कि हमको दुर्घटना सुनने का स्वप्न हुआ है,
हमने स्वप्न में दुर्घटना सुनी है
तो उसका भय दूर हो जाता है ।

यहाँ पर “हमने स्वप्न में दुर्घटना सुनी है”
यह बाधकज्ञान स्वप्न में होता है,
अतएव भ्रान्तिमूलक है ।
भ्रान्तिमूलक होने पर भी
वह भय को निवृत्त कर देता है ।

वैसे ही प्रकृत में भी
भ्रान्तिमूलक तत्त्वमस्यादि वाक्य से होने वाला ज्ञान भी
प्रपञ्च का बाध कर सकता है।
यह अद्वैती का कथन है ।

मूलम्

ननु च स्वप्ने कस्मिंश्चिद् भये वर्तमाने स्वप्नदशायाम् एवायं स्वप्न इति ज्ञाते सति पूर्वभयनिवृत्तिर् दृष्टा ।
तद्वद् अत्रापि संभवतीति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवम् ।
स्वप्न-वेलायाम् एव
“सो ऽपि स्वप्न” इति ज्ञाते सति
पुनर् भयानिवृत्तिर् एव दृष्टेति
न कश्चिद् विशेषः ।

नीलमेघः

[[१११]]

इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
स्वप्न में होने वाला भय
“यह स्वप्न है” ऐसा समझने पर
जरूर दूर होता है
पर यदि वहाँ मनुष्य यह समझ ले
“यह स्वप्न है”
ऐसा ज्ञान हमको स्वप्न में हो रहा है
तो फिर भय होने लगता है
क्योंकि भयबाधक ज्ञान के विषय में
“यह ज्ञान स्वप्न में हो रहा है”
ऐसा* ज्ञान होने पर
वह ज्ञान भय को नहीं दूर सकता है,
फिर भय होना उचित ही है ।
वैसे ही प्रकृत में
भेद-प्रपञ्च-बाधक तत्-त्वम् अस्यादि वाक्यजन्य ज्ञान के विषय में भी
श्रवणकाल से लेकर
“यह ज्ञान मिथ्या है यह ज्ञान अविद्याविजृम्भित है”
ऐसी धारणा बन जाने के कारण
वह ज्ञान भी प्रपञ्च को नहीं बाध सकता ।

इस प्रकार विवेचना करके श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने निवर्तकज्ञान को उत्पन्न करने वाली सामग्री का खण्डन किया है ।

मूलम्

नैवम् । स्वप्नवेलायाम् एव सो ऽपि स्वप्न इति ज्ञाते सति पुनर्भयानिवृत्तिर् एव दृष्टेति न कश्चिद् विशेषः ।

ब्रह्म-सत्यत्व-भ्रान्तिः

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रवण-वेलायाम् एव
“सोऽपि स्वप्न” इति ज्ञातम् एवेत्य् उक्तम् ।

मूलम्

श्रवणवेलायाम् एव सोऽपि स्वप्न इति ज्ञातम् एवेत्युक्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् अपि चेदम् उक्तं

भ्रान्ति-परिकल्पितत्वेन मिथ्या-रूपम् अपि शास्त्रम्
अद्वितीयं ब्रह्मेति बोधयति
तस्य सतो ब्रह्मणो विषयस्य
पश्चात्तन-बाधादर्शनाद्
ब्रह्म सुस्थितम्

एवेति
तद् अयुक्तम् -
“शून्यम् एव तत्त्वम्” इति वाक्येन
तस्यापि बाधितत्वात् ।+++(5)+++

नीलमेघः

अद्वैती ने मिथ्या बनने वाले शास्त्र से सिद्ध होने वाले ब्रह्म को सत्य माना है ।
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने इस अर्थ का खण्डन करते हुये कहा है कि
अद्वैती कहते हैं कि

शास्त्र भ्रान्ति से कल्पित है ।
अतएव मिथ्या है, यह शास्त्र सम्पूर्ण प्रपञ्च को मिथ्या सिद्ध करके एकमात्र निर्विशेष ब्रह्म को बतलाता है ।
शास्त्रप्रतिपाद्य इस ब्रह्म का उत्तरकाल में बाघ नहीं होता है,
इसलिये यह ब्रह्म सत्य सिद्ध होता है ।
इसे सत्य मानना चाहिये ।

इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि “शून्य ही तत्त्व है” इस माध्यमिक बौद्ध के कथन से ब्रह्म का बाध हो जाता है ।
उत्तरकाल में ब्रह्म का बाध नहीं होता,
ऐसी बात नहीं ।
माध्यमिक के वाक्य से
ब्रह्म का बाध हो ही जाता है ।
ऐसी स्थिति में ब्रह्म कैसे सिद्ध होगा ?

मूलम्

यद् अपि चेदम् उक्तं भ्रान्तिपरिकल्पितत्वेन मिथ्यारूपम् अपि शास्त्रम् अद्वितीयं ब्रह्मेति बोधयति तस्य सतो ब्रह्मणो विषयस्य पश्चात्तनबाधादर्शनाद् ब्रह्म सुस्थितम् एवेति तद् अयुक्तम् -
शून्यम् एव तत् त्वम् इति वाक्येन तस्यापि बाधितत्वात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

“इदं भ्रान्ति-मूल-वाक्यम्” इति चेत् -
“सद् अद्वितीयं ब्रह्मे"ति वाक्यम् अपि भ्रान्ति-मूलम्
इति त्वयैवोक्तम् । +++(5)+++

नीलमेघः

अद्वैती ने कहा कि

माध्यमिक का वाक्य भ्रान्तिमूलक है
इसलिये वह ब्रह्म को नहीं बाध सकता ।

इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
अद्वैती के मत के अनुसार शास्त्र भी भ्रान्तिकल्पित है,
ऐसी स्थिति में शास्त्र से ब्रह्म की सिद्धि कैसे होगी ।
यदि भ्रान्तिमूलक शास्त्र से ब्रह्म की सिद्धि होगी तो
भ्रान्तिमूलक माध्यमिक वाक्य से ब्रह्म का बाध भी हो सकता है ।

मूलम्

इदं भ्रान्तिमूलवाक्यम् इति चेत् - सद् अद्वितीयं ब्रह्मेति वाक्यम् अपि भ्रान्तिमूलम् इति त्वयैवोक्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्चात्तन-बाधादर्शनं तु
+++(शाङ्कर-ब्रह्मवाद-सहित-)+++सर्व-शून्य-वाक्यस्यैवेति विशेषः । +++(5)+++

नीलमेघः

उत्तरकाल में बाघ न होना
यह बात माध्यमिक सिद्धान्त में ही घटती है ।

नीलमेघः

सर्वशून्यवाद ही सबको काटने वाला अन्तिमवाद है ।
वही विजयी होगा ।
इस विवेचन से यह सिद्ध होता है कि
सत्य शास्त्र से ही
ब्रह्म सिद्ध होगा,
भ्रान्तिकल्पितशास्त्र से वह सिद्ध नहीं होगा ।
ब्रह्मसिद्धि को मानने वालों को
शास्त्र सत्य मानना चाहिये ।
इस प्रकार कहकर श्रीरामानुज स्वामी जी ने
यह सिद्ध किया कि मिथ्या शास्त्र से ब्रह्म की सिद्धि नहीं होगी ।

मूलम्

पश्चात्तनबाधादर्शनं तु सर्वशून्यवाक्यस्यैवेति विशेषः ।

वादानर्हता

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्व-शून्य-वादिनो ब्रह्म-व्यतिरिक्त-वस्तु-मिथ्यात्व-वादिनश् च
स्व-पक्ष-साधन-प्रमाण-पारमार्थ्यानभ्युपगमेन
+अभियुक्तैर् वादानधिकार एव प्रतिपादितः -

अधिकारो ऽनभ्युपायत्वान्
न वादे शून्य-ब्वादिनः ।

इति ।+++(5)+++

नीलमेघः

[[११२]]

आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने यह सिद्ध किया है कि
माध्यमिक एवं अद्वैती को शास्त्रार्थ करने में अधिकार नहीं ।
माध्यमिक सबको शून्य मानता है ।
इसलिये उसको अपने पक्ष को सिद्ध करने वाले प्रमाण तक को शून्य मानना पड़ता है।+++(5)+++

अद्वैती ब्रह्मव्यतिरिक्त सभी वस्तुओं को मिथ्या मानते हैं इसलिये इनको अपने पक्ष को सिद्ध करने वाले प्रमाण तक को मिथ्या मानना पड़ता है ।

कहने का तात्पर्य यह है कि
ये दोनों अपने पक्ष को सिद्ध करने वाले प्रमाण को
सत्य नहीं मानते हैं ।
इसलिये इनको वाद में अर्थात् शास्त्रार्थ करने में
अधिकार नहीं होता है ।

वाद भी संग्राम के समान है ।
जिस प्रकार आयुधधारियों को ही
युद्ध करने में अधिकार है ।
वैसे ही प्रमाण और तर्कों को मानने वालों को ही
वाद में अधिकार हो सकता है ।+++(5)+++

ये दोनों प्रमाणतर्कों को सत्य नहीं मानते ।
इनको अपने मत के अनुसार मानना पड़ता है कि
वास्तव में मेरे पास प्रमाण और तर्क नामक कोई पदार्थ हैं ही नहीं ।

जिस प्रकार मध्यस्थ पुरुष एक शस्त्रधारी व्यक्ति
और दूसरे शस्त्रहीन व्यक्ति को
युद्ध में नहीं लगा सकता,
वह शस्त्रधारी व्यक्तियों को ही
युद्ध करने की अनुमति दे सकता है
अतएव शस्त्रहीन व्यक्ति को युद्ध में अनधिकार सिद्ध होता है । +++(5)+++

उसी प्रकार ही शास्त्रार्थ के प्रसंग में भी
मध्यस्थ पुरुष
प्रमाणतर्कों को मानने वाले वादियों के साथ
शास्त्रार्थ करने के लिये
प्रमाणतर्कों को न मानने वाले वादियों को
अनुमति नहीं दे सकते,
यदि देंगे उनकी मध्यस्थता ही न रहेगी ।+++(5)+++

वास्तव में अपने को मध्यस्थ मानने वाले पुरुष
प्रमाणतर्कों को मानने वालों को ही शास्त्रार्थ करने के लिये अनुमति दे सकते हैं।
प्रमाणतर्क न मानने वालों को
शास्त्रार्थ में अनधिकार ही सिद्ध होता है ।

मीमांसाचार्य कुमारिल भट्टाचार्य ने
इस अर्थ का प्रतिपादन करते हुये यह कहा कि—

सर्वदा सद्-उपायानां
वादमार्गः प्रवर्तते ।
अधिकारो, ऽनुपायत्वान्
न वादे शून्यवादिनः ।। +++(5)+++

अर्थात् शास्त्रार्थ में उपाय बनने वाले प्रमाण और तर्कों को
वास्तव में अपने पास रखने वालों के लिये ही
वादमार्ग में अधिकार माना जाता है ।
जो अपने मत के अनुसार
वास्तव में प्रमाणतर्करूपी उपायों को अपने पास न रखते हों
उन शून्यवादियों को शास्त्रार्थ में अधिकार नहीं होता है ।

यद्यपि इस श्लोक में शून्यवादी का ही उल्लेख है,
तथापि यहाँ दी गई व्यवस्था
अद्वैती के प्रति भी संगत हो जाती है
क्योंकि अद्वैती भी प्रमाणतर्कों को मिथ्या मानते हैं,
सत्य नहीं मानते।
[[११३]]
इसलिये ये भी उपाग्रहीन होने से
वाद के अधिकारी नहीं बन सकते हैं ।

इस प्रकार विवेचना कर श्रीरामानुज स्वामी जी ने
अद्वैतियों के वादानधिकार को सिद्ध किया है ।
वादाधिकार को सूचित करने वाले
ग्रन्थ लोकरञ्जनार्थ प्रवृत्त हैं ।

मूलम्

सर्वशून्यवादिनो ब्रह्मव्यतिरिक्तवस्तुमिथ्यात्ववादिनश् च स्वपक्षसाधनप्रमाणपारमार्थ्यानभ्युपगमेनाभियुक्तैर् वादानधिकार एव प्रतिपादितः -

अधिकारो ऽनभ्युपायत्वान् न वादे शून्यवादिनः ।

इति ।