विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि च चिन्-मात्र-ब्रह्म-व्यतिरिक्त-
कृत्स्न-निषेध-विषय-ज्ञानस्य
को ऽयं ज्ञाता ?
नीलमेघः
ग्ग्[[१०७]]
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने
निवर्तकज्ञान के ज्ञाता का खण्डन किया है ।
वह इस प्रकार है कि
अद्वैतियोँ का यह मत है कि
चिन्मात्र ब्रह्म ही सत्य है ।
उसे छोड़कर और सब मिथ्या है ।
तत्त्वज्ञान से उन सबका निषेध हो जाता है ।
उन ब्रह्मव्यतिरिक्त सब पदार्थों के अभाव का ग्रहण करने वाला ज्ञान ही
निषेधज्ञान एवं निवर्तकज्ञान कहलाता है ।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
उस निषेधज्ञान का आश्रय बनने वाला ज्ञाता कौन है ?
क्योंकि सभी ज्ञान
किसी न किसी ज्ञाता का आश्रय लेकर हो रहते हैं ।
ऐसी स्थिति में
यह प्रश्न उठना सहज है कि
निवर्तकज्ञान का आश्रय बनने वाला ज्ञाता कौन है ?
यदि यह कहा जाय कि
मूलम्
अपि च चिन्मात्रब्रह्मव्यतिरिक्तकृत्स्ननिषेधविषयज्ञानस्य को ऽयं ज्ञाता ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यास-रूप इति चेन् न -
तस्य निषेधतया निवर्तक-ज्ञान-कर्मत्वात् तत्-कर्तृत्वानुपपत्तेः ।
नीलमेघः
ब्रह्म में आरोपित अहंकार ज्ञाता है
तो वह निवर्तकज्ञान का कर्ता नहीं बन सकता
क्योंकि वह ब्रह्मव्यतिरिक्त होने से निषेध्य है
अतएव निवर्तकज्ञान का कर्म है,
निवर्तकज्ञान का कर्ता नहीं बन सकता । कर्मकारक और कर्तृ कारक
भिन्न २ होते हैं ।
निवर्तकज्ञान का कर्ता बनने वाला ही ज्ञाता होता है ।
वह अहंकार मिथ्यापदार्थ होने से
निवर्तकज्ञान का कर्म बनता है,
कर्ता ज्ञाता नहीं बन सकता ।
यह दोष इस पक्ष में होता है ।
मूलम्
अध्यासरूप इति चेन् न । तस्य निषेधतया निवर्तकज्ञानकर्मत्वात् तत्कर्तृत्वानुपपत्तेः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मस्वरूप एवेति चेन् न ।
ब्रह्मणो निवर्तक-ज्ञानं प्रति ज्ञातृत्वं
किं स्वरूपम् उताध्यस्तम् ?
नीलमेघः
निवर्तकज्ञान का ज्ञाता
ब्रह्म ही होता है,
ऐसा यदि कहा जाय तो
इस पक्ष में भी यह प्रश्न उपस्थित होता है कि
निवर्तकज्ञान के प्रति
ब्रह्म का जो ज्ञातृत्व है
क्या वह ब्रह्म का स्वाभाविक धर्म है
या ब्रह्म में आरोपित धर्म हैं ?
मूलम्
ब्रह्मस्वरूप एवेति चेन् न । ब्रह्मणो निवर्तकज्ञानं प्रति ज्ञातृत्वं किं स्वरूपम् उताध्यस्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यस्तं चेद्
अयम् अध्यासस्, तन्-मूल-विद्यान्तरं च निवर्तक-ज्ञान-विषयतया तिष्ठत्य् एव ।
नीलमेघः
यदि इस प्रश्न के उत्तर में
यह कहा जाय कि
वह ज्ञातृत्व धर्म ब्रह्म में आरोपित धर्म है
तो यह दोष उपस्थित होता है कि
निवर्तकज्ञान के समय में भी
ब्रह्म में ज्ञातृत्व का अध्यास बना रहेगा,
तथा उसका कारण अविद्या भी बनी रहेंगी।
ये दोनों निवर्तकज्ञान के विषय नहीं बनेंगे
इसलिये उससे निवृत्त नहीं होंगे,
बने ही रहेंगे।
यह दोष उपर्युक्त पक्ष में होता है ।
मूलम्
अध्यस्तं चेद् अयम् अध्यासस् तन्मूलविद्यान्तरं च निवर्तकज्ञानविषयतया तिष्ठत्य् एव ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्-निवर्तकान्तराभ्युपगमे
तस्यापि +++(ज्ञाता, ज्ञेयम्, ज्ञानम् इति)+++ त्रि-रूपतया ऽनवस्थैव ।
नीलमेघः
यदि उक्त दोष का निराकरण करने के लिये
यह कहें कि
ये दोनों दूसरे निवर्तकज्ञान से निवृत्त होते हैं,
तो उस दूसरे निवर्तकज्ञान में भी ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान ऐसी त्रिपुटी अवश्य होगी,
बिना त्रिपुटी के कोई ज्ञान हो ही नहीं सकता
क्योंकि किसी ज्ञाता के प्रति किसी अर्थ की सिद्धि ही ज्ञान है ।
इसमें सिद्धि ज्ञान है,
अर्थ ज्ञेय है,
पुरुष ज्ञाता है।
इस प्रकार सभी ज्ञानों में
त्रिपुटी अवश्य होती है
दूसरे निवर्तकज्ञान में भी त्रिपुटी अवश्य होगी।
ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठता है कि
उस दूसरे निवर्तकज्ञान का ज्ञाता कौन है।
[[१०८]]
प्रथम निवर्तकज्ञान के विषय में
जैसा कहा गया है उसी प्रकार यदि द्वितीय निवर्तकज्ञान के विषय में भी यह कहा जाय कि ब्रह्म ही ज्ञाता है, उसमें ज्ञातृत्व आरोपित है-तो यह दोष उपस्थित होता है कि द्वितीय निवर्तकज्ञान के समय में भी ज्ञातृत्वाध्यास और उसका कारण अविद्या भी बनी रहती है,
उनको निवृत्त करने के लिये तीसरे निवर्तकज्ञान की अपेक्षा होगी ।
इस प्रकार अनवस्था चलेगी।
मूलम्
तन्निवर्तकान्तराभ्युपगमे तस्यापि त्रिरूपतयानवस्थैव ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वस्य हि ज्ञानस्य त्रिरूपकत्व-विरहे
ज्ञानत्वम् एव हीयते -
कस्यचित् कंचनार्थ-विशेषं प्रति सिद्धि-रूपत्वात् ।
नीलमेघः
यदि यह कहें कि निवर्तकज्ञान में त्रिपुटी नहीं,
तो वह ज्ञान ही न होगा ।
सब ज्ञानों में त्रिपुटी नियत है ।
मूलम्
सर्वस्य हि ज्ञानस्य त्रिरूपकत्वविरहे ज्ञानत्वम् एव हीयते - कस्यचित् कंचनार्थविशेषं प्रति सिद्धिरूपत्वात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानस्य त्रि-रूपत्व-विरहे
भवतां +++(त्रि-रूप-रहित–ब्रह्म-)+++स्व-रूप–भूत-ज्ञानवन् निवर्तक-ज्ञानम् अप्य्
अ-निवर्तकं स्यात् ।
नीलमेघः
किंच, निवर्तकज्ञान में त्रिपुटी न हो तो
वह निवर्तक ही नहीं होगा।
जिस प्रकार ब्रह्म का स्वरूप ज्ञान-स्वरूप होने पर भी
वह त्रि-पुटी-शून्य होने के कारण
निवर्तक नहीं होता
वैसे ही यह निवर्तकज्ञान भी -
जो निवृत्तिज्ञान माना जाता है— त्रिपुटी-शून्य होने पर
निवर्तक ही नहीं होगा ।
संसार सदा के लिये बना रहेगा ।
मूलम्
ज्ञानस्य त्रिरूपत्वविरहे भवतां स्वरूपभूतज्ञानवन् निवर्तकज्ञानम् अप्य् अनिवर्तकं स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्म–स्व-रूपस्यैव ज्ञातृत्वाभ्युपगमे
ऽस्मदीय एव पक्षः परिगृहीतः स्यात्
+++(यतो भवन्मते ज्ञातृत्वादि-धर्म-विहीन-स्वरूपम् ब्रह्म)+++।
नीलमेघः
यदि इन दोषों को दूर करने के लिये
यह माना जाय कि
ब्रह्म-स्वरूप का ज्ञातृत्व-धर्म स्वाभाविक है, अध्यस्त नहीं,
तब तो विशिष्टाद्वैतियों के पक्ष को अपनाना होगा
क्योंकि विशिष्टाद्वैती के सिद्धान्त में ही
ब्रह्म का ज्ञातृत्व-धर्म स्वाभाविक माना जाता है ।
अद्वैती के मत में
ब्रह्म निर्धर्मक है,
उसमें ज्ञातृत्वधर्म स्वाभाविक नहीं हो सकता ।+++(5)+++
ब्रह्म के ज्ञातृत्वधर्म को
स्वाभाविक मानने पर
अद्वैती को अपसिद्धान्त दोष भी लगेगा ।+++(5)+++
मूलम्
ब्रह्मस्वरूपस्यैव ज्ञातृत्वाभ्युपगमे ऽस्मदीय एव पक्षः परिगृहीतः स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवर्तक-ज्ञान–स्व-रूप–ज्ञातृत्वं च
स्व-निवर्त्यान्तर्गतम्
इति वचनं
“भू-तल-व्यतिरिक्तं कृत्स्नं छिन्नं देवदत्तेने"त्य्
अस्याम् एव छेदन-क्रियायाम् -
अस्याश् छेदन-क्रियायाश्, छेत्तृत्वस्य च
छेद्य+++(य्)++++अन्तर्भाव-वचनवद्
उपहास्यम् ।+++(5)+++
नीलमेघः - दृष्टान्तेनोपहासः
अद्वैती यदि यह कहें कि
निवर्तकज्ञान के द्वारा
जो पदार्थ निवर्त्य है
उसमें निवर्तक ज्ञानस्वरूप और ज्ञातृत्व भी अन्तर्गत है,
अतएव वे निवर्तकज्ञान से ही
निवृत्त हो जाते हैं,
तदर्थ ज्ञानान्तर की आवश्यकता नहीं
तो कहना पड़ता है अद्वैतियोँ का यह कथन उपहास के योग्य है ।
यह अर्थ एक दृष्टान्त के द्वारा समझाया जा सकता है ।
दृष्टान्त यह है कि
किसी ने कहा
देवदत्त ने भूमिव्यतिरिक्त
सब पदार्थों को काट डाला है।
इस वचन की यदि इस प्रकार व्याख्या की जाय कि
देवदत्त के द्वारा जितने पदार्थ काटे गये हैं,
उनमें छेदन क्रिया
और देवदत्त का छेदनकर्तृत्व भी अन्तर्गत है ।
देवदत्त ने जैसे अन्यान्य पदार्थों को काटा है
उसी प्रकार
छेदन क्रिया को भी काट डाला
एवं अपने छेदनकर्तृत्व को भी काट डाला।
इस प्रकार उपयुक्त कथन की व्याख्या करना उपहास्य हैं,
इस बात को सभी मान सकते हैं
क्योंकि देवदत्त के द्वारा भले ही अन्यान्य पदार्थ कटें
किन्तु छेदन क्रिया और उसका कर्तृत्व नहीं कट सकता ।
इनके कट जाने पर
सबको काटना असंभव होगा ।
उसी प्रकार ही
प्रकृत में भी समझना चाहिये।
नीलमेघः - निगमनम्
निवर्तकज्ञान के द्वारा
ब्रह्मव्यतिरिक्त सब पदार्थों के निवृत्त होते समय
निवर्तकज्ञान का स्वरूप
और उसका ज्ञातृत्व निवृत्त नहीं हो सकते,
ये तो बने ही रहेंगे ।
निवर्तकज्ञान के द्वारा निवृत्त होने वाले पदार्थों में
निवर्तक ज्ञानस्वरूप
और इसके ज्ञातृत्व का अन्तर्भाव मानना उपहास्य ही है ।
इस प्रकार विवेचना करके
श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
निवर्तकज्ञान के ज्ञाता का खण्डन किया है ।
मूलम्
निवर्तकज्ञानस्वरूपज्ञातृत्वं च स्वनिवर्त्यान्तर्गतम् इति वचनं भूतलव्यतिरिक्तं कृत्स्नं छिन्नं देवदत्तेनेत्य् अस्याम् एव छेदनक्रियायाम् अस्याश् छेदनक्रियायाश् छेत्तृत्वस्य च छेद्यान्तर्भाववचनवद् उपहास्यम् ।