विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि च
केन वा ऽविद्या-निवृत्तिः,
सा कीदृशीति विवेचनीयम् ।
नीलमेघः
[[१०५]]
अद्वैतियोँ ने
व्यावहारिकदशा में अविद्या की स्थिति
एवं पारमार्थिकदशा में अविद्या की निवृत्ति मानी है ।
श्रीरामानुज स्वामी जी ने प्रसंगसंगति से
एकजीववाद का खण्डन करके
अविद्यानिवृत्ति का खण्डन करते हुये
यह प्रश्न रक्खा है कि
किससे अविद्या की निवृत्ति होती है ?
तथा अविद्यानिवृत्ति
किस प्रकार की है ?
मूलम्
अपि च केन वाविद्यानिवृत्तिः सा कीदृशीति विवेचनीयम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(सद्-असद्-विलक्षणा ऽविद्येति स्मृत्वा)+++
“ऐक्य-ज्ञानं निवर्तकं,
निवृत्तिश् चानिर्वचनीय+++(-अविद्या)+++-प्रत्यनीकाकारे"ति चेत् -
अनिर्वचनीय+++(-अविद्या)+++-प्रत्यनीकं निर्वचनीयं +++(- प्रत्यनीकत्वात्)+++।
नीलमेघः
इस प्रश्न के उत्तर में
अद्वैतियों ने कहा है कि
जीव और ब्रह्म में ऐक्य का ज्ञान
अविद्या को हटा देता है,
उपर्युक्त ज्ञान से विद्यानिवृत्ति होती है ।
अनिर्वचनीय का विरुद्ध होना
यही अविद्यानिवृत्ति का आकार है ।
अविद्या सद्-असद्-विलक्षण होने से
अनिर्वचनीय मानी जाती है ।+++(5)+++
अनिर्वचनीय अविद्या की निवृत्ति
अनिर्वचनीय नहीं हो सकती ।
यदि यह निवृत्ति अनिर्वचनीय होती
तो सब अनिर्वचनीयों की निवृत्ति
कैसे बन सकती है
जब स्वयं अनिर्वचनीय है ।
इसलिये मानना पड़ता है कि अविद्यानिवृत्ति अनिर्वचनीय के विरुद्ध आकार रखती है ।
यह अद्वैतियों का कथन है ।
मूलम्
ऐक्यज्ञानं निवर्तकं निवृत्तिश् चानिर्वचनीयप्रत्यनीकाकारेति चेत् - अनिर्वचनीयप्रत्यनीकं निर्वचनीयम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच् च सद् वा ऽसद् वा द्विरूपं वा?
कोट्यन्तरं न विद्यते ।
नीलमेघः
इस पर विकल्प करते हुये
श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
यदि अविद्यानिवृत्ति निर्वचनीय है
तो कहना होगा कि
क्या वह सत् है या असत् है अथवा सदसत् पूछ है ।
भाव यह है कि
वह अविद्यानिवृत्ति अबाधित है
या बाधित है,
अथवा कुछ अंश में बाधित
और कुछ अंश में अबाधित है।
निर्वचनीय होने पर
अविद्यानिवृत्ति को इनमें किसी रूप में मानना चाहिये ।
इससे अतिरिक्त रूप तो है ही नहीं ।
मूलम्
तच् च सद् वा ऽसद् वा द्विरूपं वा?
कोट्यन्तरं न विद्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्म-व्यतिरेकेणैतद्-अभ्युपगमे
पुनर् अ-विद्या न निवृत्ता स्यात्
+++(यतो “ब्रह्मैकमात्रताभावे ऽविद्यापि भवत्य् एवे"ति शाङ्कराः)+++।
नीलमेघः
इस प्रकार प्रश्न करके
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
आगे खण्डन करते हुये कहा कि
यदि विद्यानिवृत्ति सत् अर्थात् अबाधित होती,
साथ ही ब्रह्मव्यतिरिक्त होती
तो अद्वैत का भंग होगा
क्योंकि ब्रह्म और अविद्यानिवृत्ति
ऐसे दो अबाधित पदार्थ मानने पड़ेंगे,
किंच, आपके अर्थात् अद्वैती के मत में
यह माना जाता है कि
यदि ब्रह्मव्यतिरिक्त कोई पदार्थ रहे
तो अविद्या भी बनी रहेगी,
ऐसी स्थिति में
ब्रह्मव्यतिरिक्त अविद्यानिवृत्ति जब रहेगी,
तब अविद्या को भी बने रहना होगा,
अविद्या के बने रहते
विद्यानिवृत्ति कैसे हो सकती है ।
इस प्रकार ब्रह्मव्यतिरिक्त अविद्यानिवृत्ति पक्ष में
अविद्यानिवृत्ति होना असंभव है ।
मूलम्
ब्रह्मव्यतिरेकेणैतदभ्युपगमे पुनर् अविद्या न निवृत्ता स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मैव चेन् निवृत्तिस्
तत्-प्राग् अप्य् अविशिष्टम् इति
वेदान्त-ज्ञानात् पूर्वम् एव निवृत्तिः स्यात् ।
नीलमेघः
यदि यह माना जाय कि
अविद्यानिवृत्ति अबाधित सत् है
साथ ही
वह ब्रह्मस्वरूप है
ब्रह्मव्यतिरिक्त नहीं ।
इस पक्ष में
यह दोष होता है कि
ब्रह्म वेदान्तज्ञान से पहले से ही विद्यमान है ।
इसलिये मानना पड़ेगा कि अविद्यानिवृत्ति भी
वेदान्तज्ञान के पहले से है ।
मूलम्
ब्रह्मैव चेन् निवृत्तिस् तत्प्राग् अप्य् अविशिष्टम् इति वेदान्तज्ञानात् पूर्वम् एव निवृत्तिः स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“ऐक्यज्ञानं निवर्तकं,
तद्-अभावात् संसार”
इति भवद्दर्शनं विहन्यते ।
नीलमेघः
यदि विद्यानिवृत्ति ब्रह्मरूप होने के कारण प्रारम्भ से ही विद्यमान हो
तो ऐक्यज्ञान से उसे उत्पन्न होने की आवश्यकता नहीं,
ऐसी स्थिति में अद्वैतियों का यह सिद्धान्त -
कि ऐक्यज्ञान से अविद्या की निवृत्ति होती है,
ऐक्यज्ञान न होने के कारण
संसार बना रहता है–
कट ही जायेगा ।
अविद्यानिवृत्ति को सत्
अर्थात् अबाधित मानने पर
उपर्युक्त दोष लगते हैं ।
मूलम्
ऐक्यज्ञानं निवर्तकं तदभावात् संसार इति भवद्दर्शनं विहन्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किञ् च +++(पक्षान्तरे)+++ निवर्तक-ज्ञानस्याप्य् अविद्या-रूपत्वात्
तन्निवर्तनं केनेति वक्तव्यम् ।
नीलमेघः
यदि अविद्या-निवृत्ति असत् अर्थात् बाधित होगी
तो अविद्या का सद्भाव मानना होगा ।
यदि विद्यानिवृत्ति को सदसत् अर्थात् कुछ अंश में बाधित
और कुछ अंश में अबाधित माना जाय
तो अबाधित अंश को लेकर अद्वैत-हानि होगी,
बाधित अंश को लेकर
अविद्या का सद्भाव प्रसक्त होगा,
क्योंकि अविद्यानिवृत्ति बाधित होने पर
अविद्या का सद्भाव मानना पड़ेगा।
इस प्रकार श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने अविद्यानिवृत्ति का खण्डन किया है ।
[[१०६]]
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने प्रकारान्तर से निवर्तकज्ञान का खण्डन करते हुये
यह कहा कि
अद्वैती यह मानते हैं कि
ऐक्यज्ञान अविद्या का निवर्तक है,
यह ऐक्यज्ञान वेदान्तश्रवण से उत्पन्न होता है ।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
निवर्तकज्ञान उत्पाद्यवस्तु है,
अतएव ब्रह्मयतिरिक्त है
अतएव अद्वैतियों को मानना पड़ता है कि
निवर्तकज्ञान भी अविद्या का कार्य है,
जब तक निवर्तकज्ञान बना रहेगा,
तब तक अविद्या भी बनी रहेगी।
यदि निवर्तकज्ञान भी निवृत्त हो,
तभी पूर्णरूप से अविद्या की निवृत्ति होगी ।
निवर्तकज्ञान की निवृत्ति किससे होती है ?
यह प्रश्न उपस्थित होता है ।
मूलम्
किञ् च निवर्तकज्ञानस्याप्य् अविद्यारूपत्वात् तन्निवर्तनं केनेति वक्तव्यम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवर्तकज्ञानं स्वेतरसमस्तभेदं निवर्त्य
क्षणिकत्वाद् एव
स्वयम् एव विनश्यति
दावानल–विष-नाशन-विषान्तरवद्
इति चेन् न ।
नीलमेघः
इसके उत्तर में
अद्वैतवादी कहते हैं कि
निवर्तकज्ञान स्वव्यतिरिक्त सम्पूर्ण भेदों को निवृत्त कराकर
स्वयं निवृत्त हो जाता है
क्योंकि सभी ज्ञान क्षणिक होने के कारण
निवर्तकज्ञान भी क्षणिक है,
क्षणिक होने के कारण
अन्तर क्षण में स्वयं नष्ट हो जाता है,
इसके लिये
दूसरे किसी कारण को ढूँढने की आवश्यकता नहीं।
कई पदार्थ स्वयं नष्ट होते हुये देखे गये हैं,
वैसे ही निवर्तकज्ञान भी स्वयं नष्ट हो जायेगा ।
उदाहरण-वन में लगी हुई अग्नि
सबको जलाकर
अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है,
लोक में विष को नष्ट करने के लिये
विष का प्रयोग किया जाता है ।
वहाँ उत्तर विष पूर्वविष को नष्ट करके
स्वयं नष्ट हो जाता है ।
उसी प्रकार प्रकृत में
सम्पूर्ण भेदों को निवृत्त करने वाला ऐक्यज्ञान
सबको निवृत्त करके
स्वयं निवृत्त होता है ।
यह अद्वैतियों का उत्तर है ।
मूलम्
निवर्तकज्ञानं स्वेतरसमस्तभेदं निवर्त्य क्षणिकत्वाद् एव स्वयम् एव विनश्यति दावानलविषनाशनविषान्तरवद् इति चेन् न ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवर्तक-ज्ञानस्य ब्रह्म-व्यतिरिक्तत्वेन
तत्–स्व-रूप–तद्-उत्पत्ति-विनाशानां मिथ्या-रूपत्वात्
तद्-विनाशरूपाऽविद्या तिष्ठत्य् एवेति
तद्-विनाश-दर्शनस्य निवर्तकं वक्तच्यम् एव ।
नीलमेघः
इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने यह दोष दिया कि
निवर्तकज्ञान उत्पाद्यवस्तु होने से
ब्रह्मव्यतिरिक्त है । ब्रह्मव्यतिरिक्त होने से
ऐक्यज्ञान का स्वरूप ही मिथ्या है।
इसकी उत्पत्ति स्थिति और विनाश कल्पित हैं
वास्तविक नहीं ।
निवर्तकज्ञान स्वयं निवृत्त होने पर
मानना पड़ेगा कि
उस समय निवर्तकज्ञान का विनाश है ।
यह विनाश अविद्याकल्पित पदार्थ है ।
मानना पड़ेगा कि
जब तक यह विनाश है
तब तक अविद्या भी बनी रहती है ।
मिथ्यापदार्थ तब तक ही सत्ता रखता है
जब तक उसका ज्ञान होता रहे ।
इसलिये मानना पड़ता है कि
जब तक विनाश है
तब तक वह ब्रह्म का दृष्टिगोचर होकर रहता है ।
मिथ्यापदार्थ विनाश का दर्शन
यदि ब्रह्म को होता है
तो कहना पड़ेगा कि
ब्रह्म को भ्रम बना रहता है ।
उस भ्रम की निवृत्ति किससे हो ?
अद्वैतियों के पास क्या उत्तर है ?
मूलम्
निवर्तकज्ञानस्य ब्रह्मव्यतिरिक्तत्वेन तत्स्वरूपतदुत्पत्तिविनाशानां मिथ्यारूपत्वात् तद्विनाशरूपा विद्या तिष्ठत्य् एवेति तद्विनाशदर्शनस्य निवर्तकं वक्तच्यम् एव ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दावाग्न्य्-आदीनाम् अपि
पूर्वावस्था-विरोधि-परिणाम-परंपरा-वर्जनीयैव ।
नीलमेघः
किंच यहाँ दावानल और विषनाशक विष का जो दृष्टान्त दिया गया है,
वह भी समीचीन नहीं
क्योंकि दावानल के विनाश का यही अर्थ है कि
अग्निद्रव्य अग्नित्वावस्था को छोड़कर
विरोधी दूसरी अवस्था को प्राप्त हो गया है,
विष नाश का भी ऐसा ही अर्थ है ।
उसी प्रकार अविद्यानाश के विषय में भी
यदि यह माना जाय कि
अविद्या विरोधी अवस्था को प्राप्त हो गई है,
तब तो अविद्या का सर्वथा नाश सिद्ध नहीं होगा
अविद्या की रूपान्तर में स्थिति रहेगी ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने
निवर्तकज्ञान की निवृत्ति का खण्डन किया है ।
मूलम्
दावाग्न्यादीनाम् अपि पूर्वावस्थाविरोधिपरिणामपरंपरावर्जनीयैव ।