अविद्या-नित्यत्वाद् अनिर्मोक्षः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि चाच्छादिका ऽविद्या
श्रुतिभिश् चैक्योपदेश-बलाच् च
ब्रह्म–स्व-रूप–तिरोधान–
हेय-दोष-रूपा ऽऽश्रीयते।
नीलमेघः
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने अद्वैत सिद्धान्त
एवं विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में अन्तर बतलाकर
अविद्या के विषय में
स्वरूपानुपपत्ति दोष को सिद्ध करते हुये
यह कहा है कि
अद्वैतियों ने अविद्या के विषय में कहा है कि
अविद्या श्रुतियों से सिद्ध होती है
तथा ऐक्योपदेश से भी सिद्ध होती है,
विना अविद्या लगे ब्रह्म जीव नहीं बन सकता ।
ब्रह्म जीव बना है
इससे भी अविद्या प्रमाणित होती है ।
यह अविद्या ब्रह्मस्वरूप का आच्छादन करने वाला
तथा विविध भ्रमों को उत्पन्न करने वाला महान् दोष है ।यह दोष भी मिथ्या है
क्योंकि एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है ।
मूलम्
अपि चाच्छादिकाविद्या श्रुतिभिश् चैक्योपदेशबलाच् च ब्रह्मस्वरूपतिरोधानहेयदोषरूपाश्रीयते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याश् च मिथ्या-रूपत्वेन प्रपञ्चवत्
स्व-दर्शन-मूल-दोषापेक्षत्वात् -
न सा मिथ्या-दर्शन–मूल-दोषः स्याद्
इति ब्रह्मैव मिथ्या-दर्शनमूलं स्यात् ।
नीलमेघः
अद्वैतियों का यह सिद्धान्त समीचीन नहीं है
क्योंकि अविद्या मूल दोष नहीं बन सकती ।
दूसरा ही मूल दोष होना चाहिये ।
अद्वैतमत के अनुसार अविद्या मिथ्या है।
मिथ्यापदार्थ की सत्ता
तब तक होती है
जब तक उसका भान बना रहता है ।
ब्रह्म अविद्या का दर्शन करे
तब ही अविद्या सिद्ध हो सकती है ।
मिथ्याभूत अविद्या का दर्शन
ब्रह्म को तभी होगा
जब ब्रह्म दोष से आक्रान्त हो।
इससे सिद्ध होता है कि
अविद्यादर्शन का कारण बनने वाला
एक दोष आवश्यक [[१०२]] है ।
ऐसी स्थिति में
अविद्या मूल दोष नहीं बन सकती
ब्रह्म में दूसरा भी कोई दोष नहीं है
जिससे आक्रान्त होकर ब्रह्म अविद्या का दर्शन करे ।
यही कहना होगा कि ब्रह्म स्वयं ही अविद्या का दर्शन करता है ।
इससे यही सिद्ध होगा कि
मिथ्यादर्शन का मूल कारण ब्रह्म ही है,
ब्रह्म जब तक रहेगा,
तब तक मिथ्यादर्शन होता रहेगा,
इससे छुटकारा नहीं हो सकता ।
मूलम्
तस्याश्च मिथ्यारूपत्वेन प्रपञ्चवत्स्वदर्शनमूलदोषापेक्षत्वात्न सा मिथ्या दर्शनमूलदोषः स्यादिति ब्रह्मैव मिथ्यादर्शनमूलं स्यात्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(अविद्यायास्)+++ तस्याश् चानादित्वे ऽपि
मिथ्या-रूपत्वाद् एव ब्रह्म-दृश्यत्वेनैवानादित्वात्
तद्-दर्शन-मूल-परमार्थ-+++(पृथग्-)+++दोषानभ्युपगमाच् च
ब्रह्मैव तद्-दर्शन-मूलं स्यात् ।
नीलमेघः
यहाँ पर अद्वैती यह कहते हैं कि
अविद्या अनादि है
इसके लिये दूसरे दोष की आवश्यकता नहीं ।
अद्वैती का यह कथन भी समीचीन नहीं है
क्योंकि अद्वैतियों ने यह माना है कि
जीवभेद अनादि है ।
अनादिकाल से ब्रह्म
जीवभेद का दर्शन करता रहता है ।
इसलिये जीवभेद
अनादि माना जाता है ।
अनादि जीवभेद का दर्शन जो ब्रह्म को हो रहा है
उसका कारण अविद्या दोष है।
यह अद्वैतियों का मत है ।
इससे सिद्ध होता है कि
किसी अनादि मिथ्यापदार्थ के दर्शन के लिये
दोष की आवश्यकता है ।
अनादि मिथ्यापदार्थ अविद्या का दर्शन
ब्रह्म को होता रहता है
इसका मूल कारण दोष क्या है ।
ब्रह्म को छोड़कर दूसरा कोई सत्य तो है नहीं ।
इसलिये मानना होगा कि
ब्रह्म ही अविद्यादर्शन का मूल कारण है,
दूसरा कोई दोष नहीं ।
मूलम्
तस्याश् चानादित्वे ऽपि मिथ्यारूपत्वाद् एव ब्रह्मदृश्यत्वेनैवानादित्वात् तद्दर्शनमूलपरमार्थदोषानभ्युपगमाच् च ब्रह्मैव तद्दर्शनमूलं स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य नित्यत्वाद् अनिर्मोक्ष एव ।
नीलमेघः
ऐसी स्थिति में यह दोष आ जाता है कि
ब्रह्म नित्य है,
सदा अविद्या एवं मिथ्या प्रपञ्च का दर्शन करता रहेगा
कभी इससे छुटकारा नहीं पा सकता ।
ऐसी स्थिति में मोक्ष सिद्ध होगा ही नहीं ।
मिथ्यादर्शन से छुटकारा पाना ही तो मोक्ष है ।
इस प्रकार दोष देकर
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
अविद्यास्वरूप का खण्डन किया
तथा यह भी बतलाया कि अविद्या मूल दोष नहीं हो सकती ।
मूलम्
तस्य नित्यत्वाद् अनिर्मोक्ष एव ।
एक-जीव-वादे स्वप्न-दृष्टान्त-वैकल्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत +++(→अविद्या-कल्पनेन)+++ एवेदम् अपि निरस्तम् -
एकम् एव शरीरं जीववत्,
निर्जीवानीतराणि शरीराणि -
स्वप्न-दृष्ट-नाना-विधानन्त-शरीराणां यथा निर्जीवत्वम् ।
नीलमेघः
[[१८३]]
आगे श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने अद्वैतियों के एकजीववाद का खण्डन किया है।
अद्वैतियों ने एकजीववाद को इस प्रकार सिद्ध किया है कि
संसार में अनन्त शरीर दिखाई देते हैं,
इनमें किसी एक शरीर में
ब्रह्म जीव बनकर संसार-स्वप्न को देख रहा है
उसको इस संसार-स्वप्न में
अनेक शरीर दिखाई देते हैं,
उन शरीरों में अवस्थित होकर
काम करते हुये अनेक जीव प्रतीत होते हैं ।
ब्रह्म को इस संसारस्वप्न में दिखाई देने वाले
अनेक शरीर मिथ्या हैं
उनमें जो जीव प्रतीत होते हैं
वे भी मिथ्या हैं
इसलिये वे सभी शरीर वास्तव में निर्जीव हैं।
जिस शरीर में ब्रह्म जीवरूप में अवस्थित होकर इस स्वप्न को देखता है, वह एक शरीर ही जीववाला है ।
यही एकजीववाद है ।
नीलमेघः - दृष्टान्तम्
इसका भाव लौकिक दृष्टान्त से खुल जाता है ।
वह दृष्टान्त यह है कि
मान लिया जाय कि कोई मनुष्य स्वप्न में
अनेक देहधारी जीवों को
विभिन्न कार्य करते हुये देखता है ।
यहाँ पर स्वप्न में दीखने वाले अनेक शरीर
वास्तव में निर्जीव हैं,
उनमें जीव केवल प्रतीत होते हैं, वास्तव में हैं नहीं ।
मूलम्
अत एवेदम् अपि निरस्तम् एकम् एव शरीरं जीववत्, निर्जीवानीतराणि शरीराणि स्वप्नदृष्टनानाविधानन्तशरीराणां यथा निर्जीवत्वम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र स्वप्ने
द्रष्टुः शरीरम् एकम् एव जीववत् ।
नीलमेघः
जिस शरीर में वह मनुष्य रहकर स्वप्न देखता है
केवल वही शरीर जीववाला है ।
मूलम्
तत्र स्वप्ने द्रष्टुः शरीरम् एकम् एव जीववत् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य स्वप्नवेलायां दृश्य-भूत-नाना-विध-शरीराणां निर्जीवत्वम् एव ।
नीलमेघः
उसी प्रकार प्रकृत में भी समझना चाहिये ।
जिस शरीर में ब्रह्म जीव बनकर स्वप्न देखता है,
वह देह जीववाला है ।
उस ब्रह्म को इस संसारस्वप्न में
जितने शरीर दिखाई देते हैं
वे सब जीवयुक्त प्रतीत होने पर भी वास्तव में निर्जीव हैं ।
यही अद्वैतियों का एकजीववाद है ।
मूलम्
तस्य स्वप्नवेलायां दृश्यभूतनानाविधशरीराणां निर्जीवत्वम् एव ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेनैकेनैव परिकल्पितत्वाज् जीवा मिथ्या-भूता -
इति ब्रह्मणा स्व–स्व-रूप–व्यतिरिक्तस्य जीव-भावस्य
सर्व-शरीराणां च कल्पितत्वाद्,
एकस्मिन्न् अपि शरीरे
शरीरवज् जीव-भावस्य च मिथ्या-रूपत्वात्
सर्वाणि शरीराणि मिथ्यारूपाणि,
नीलमेघः
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
इस एकजीववाद का निराकरण करते हुये कहा है कि
अद्वैतियों के मत में
यह अर्थ सुनसिद्ध है कि एक ब्रह्म ही सत्य है,
और सब मिथ्या हैं,
अविद्या से कल्पित हैं ।
तत्त्वज्ञान से ब्रह्मव्यतिरिक्त सबका बाध
उसी प्रकार हो जाता है
जिस प्रकार जागते ही स्वप्नदृष्ट प्रपञ्च का बाध हो जाता है,
एक ब्रह्म ही अबाधित रहता है ।
इस अद्वैत सिद्धान्त से
इस एकजीववाद का मेल नहीं होता
क्योंकि अद्वैतसिद्धान्त के अनुसार
वह एक शरीर भी मिथ्या ही है ।
मूलम्
अनेनैकेनैव परिकल्पितत्वाज्जीवा मिथ्याभूता
इति ब्रह्मणा स्वस्वरूपव्यतिरिक्तस्य जीवभावस्य
सर्वशरीराणां च कल्पितत्वादेकस्मिन्नपि शरीरे शरीरवज्जीवभावस्य च मिथ्यारूपत्वात्सर्वाणि शरीराणि मिथ्यारूपाणि,
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र +++(शरीरे ब्रह्मण)+++ जीवभावश् च मिथ्यारूप
इत्य् एकस्य शरीरस्य, तत्र जीवभावस्य च
न कश्चिद् विशेषः ।
नीलमेघः
जिसमें जीवभाव से
ब्रह्म की स्थिति मानी गई है,
उसमें ब्रह्म का जीवभाव भी मिथ्या ही है
क्योंकि वह भी ब्रह्मव्यतिरिक्त ठहरता है ।
वह शरीर एवं उसमें ब्रह्म का जीवभाव
ये दोनों भी तत्त्वज्ञान से
मोक्षरूपी जागरण में बाधित होने वाले हैं
इसलिये मानना पड़ता है कि
वास्तव में न रहने पर भी
वह शरीर तथा उसमें ब्रह्म का जीवभाव
भ्रम से ब्रह्म को दिखाई देता है,
वास्तव में वे दोनों हैं ही नहीं ।
इससे सिद्ध होता है कि
भ्रम से दिखाई देने वाला वह शरीर भी निर्जीव ही है ।
जिस प्रकार संसारस्वप्न में ब्रह्म को दिखाई देने वाले अन्यान्य शरीर वास्तव में निर्जीव हैं,
उसी प्रकार वह शरीर भी वास्तव में निर्जीव जो है
जिसमें मिथ्याभूत जीवभाव को प्राप्त होकर
ब्रह्म संसारस्वप्न देखता है ।
इस विवेचन से सिद्ध होता है
कि वह शरीर—जिसमें ब्रह्म मिथ्याभूत जीवभाव को प्राप्त होकर
संसारस्वप्न देखता है—
तथा संसारस्वप्न में दिखाई देने वाले
अन्यान्य शरीर भी निर्जीव ही हैं ।
यह अन्तर सर्वथा अयुक्त है कि
एक शरीर सजीव हो
अन्य शरीर निर्जीव हों ।
इससे फलित होता है कि
अद्वैतसिद्धान्त के अनुसार
भले ही निर्जीववाद सिद्ध हो,
एकजीववाद सिद्ध नहीं हो सकता ।
मूलम्
तत्र जीवभावश् च मिथ्यारूप इत्य् एकस्य शरीरस्य तत्र जीवभावस्य च न कश्चिद् विशेषः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्माकं तु -
स्वप्ने द्रष्टुः स्वशरीरस्य
तस्मिन्न् आत्म-सद्भावस्य च
प्रबोधवेलायाम् अबाधितत्वात्
अन्येषां शरीराणां तद्-गत-जीवानां च बाधितत्वात्
ते सर्वे मिथ्या-भूताः
स्व-शरीरम् एकं,
तस्मिन् जीव-भावश् च परमार्थ इति विशेषः ।
नीलमेघः - विशिष्टाद्वैतानुकूल्यम्
[[१०४]]
दृष्टान्त में यह घटता है कि
जिस शरीर में अवस्थित मनुष्य स्वप्न देखता है
वह शरीर जीववाला है
क्योंकि जागने पर भी
यह अर्थ बाधित नहीं होता है ।
जागनेवाला समझता है कि
मैं इस शरीर में हूँ,
यह शरीर सजीव है ।
केवल स्वप्न में दिखाई देने वाले शरीर एवं उनमें प्रतीत होने वाले जीव
जागरणदशा में बाधित होते हैं
क्योंकि जागनेवाला समझता है कि स्वप्न में दिखाई देने वाले शरीर
एवं उनमें प्रतीत होने वाले जीव
वास्तव में थे ही नहीं,
केवल भ्रम से दिखाई देते थे ।
इस प्रकार जागरणदशा में बाधित होने के कारण
स्वप्नदृष्ट शरीर
निर्जीव माने जा सकते हैं,
अबाधित होने के कारण केवल वह शरीर —
जिसमें रहकर मनुष्य स्वप्न देखता है—
सजीव माना जा सकता है ।
इस प्रकार यह बात दृष्टान्त में घट जाती है ।
नीलमेघः - निगमनम्
प्रकृत में यह बात नहीं घटती है । प्रकृत में ब्रह्मव्यतिरिक्त
सब तत्त्वज्ञान से बाधित हो जाते हैं।
इसलिये वह शरीर -
जिसमें ब्रह्म जीवभाव को प्राप्त होकर स्वप्न देखता है—
तथा जीवभाव भी बाधित होते हैं,
एवं अन्यान्य शरीर—
जो संसारस्वप्न में
ब्रह्म को दिखाई देते हैं -
एवं उनमें प्रतीत होने वाले जीव भी बाधित होते हैं ।
ऐसी स्थिति में
सभी शरीर निर्जीव ही सिद्ध होते हैं ।
एवं च एकजीववाद
अद्वैतसिद्धान्त के अनुसार ही कट जाता है ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने
प्रसंगसंगति से
एकजीववाद का खण्डन किया है ।
मूलम्
अस्माकं तु स्वप्ने द्रष्टुः स्वशरीरस्य तस्मिन्न् आत्मसद्भावस्य च प्रबोधवेलायाम् अबाधितत्वात् अन्येषां शरीराणां तद्गतजीवानां च बाधितत्वात् ते सर्वे मिथ्याभूताः स्वशरीरम् एकं तस्मिञ् जीवभावश् च परमार्थ इति विशेषः ।