विश्वास-प्रस्तुतिः
“नेह नानास्ति किंचने"त्य्-आदिना
नानात्व-प्रतिषेध एव दृष्यत इति चेत् …
नीलमेघः
आगे अद्वैतियों ने कहा कि
“नेह नानास्ति किंचन” यह श्रुतिवाक्य भेदप्रपञ्च का निषेध करता है ।
इसका यह अर्थ है कि यहाँ नाना प्रकार के पदार्थ सर्वथा हैं ही नहीं ।
मूलम्
नेह नानास्ति किंचनेत्यादिना नानात्वप्रतिषेध एव दृष्यत इति चेत् …
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्य् उत्तरत्र
सर्वस्य वशी सर्वस्येशन
इति सत्य-सङ्कल्पत्व-सर्वेश्वरत्व-प्रतिपादनाच्
चेतनवस्तुशरीर ईश्वर इति
सर्व-प्रकार-संस्थितः स एक एवेति
तत्-प्रत्यनीकाब्रह्मात्मक-नानात्वं प्रतिषिद्धं,
न भवद्-अभिमतम् ।
नीलमेघः
अद्वैतियोँ के इस कथन पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि यह वाक्य भी प्रपञ्च का निषेध नहीं करता क्योंकि आगे ब्रह्म के अनेक गुणों का वर्णन होता है, उससे विरोध न हो, ऐसा उपर्युक्त श्रुतिवाक्य का अर्थ करना चाहिये। आगे “सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः” “सर्वस्याधिपतिः” “सर्वमिदं प्रशास्ति” “एष सेतुविधरणः” इत्यादि वाक्य है । ईश्वर सबको वश में रखने वाले हैं, सब पर शासन करने वाले हैं, सबके स्वामी हैं । सबका धारण करने वाले हैं। इन [[८७]] वाक्यों से ईश्वर में सत्यसंकल्पत्व सर्वेश्वरत्व स्वामित्व नियन्तृत्व और धारकत्व इत्यादि गुण सिद्ध होते हैं ।
इससे फलित होता है कि यह चेतनाचेतनप्रपञ्च ईश्वर की शेष नियाम्य एवं धार्य वस्तु है ।
अतएव यह प्रपञ्च ईश्वर का शरीर है,
ईश्वर इसका आत्मा है ।
सर्वपदार्थों के अन्दर आत्मा के रूप में विराजमान एकमात्र ईश्वर ही विश्वरूप से दिखाई देते हैं, दूसरा कोई नहीं ।
यहाँ के सब पदार्थ ब्रह्मात्मक हैं अब्रह्मात्मक कोई भी पदार्थ नहीं।
किसी पदार्थ के देखते समय यह समझना चाहिये कि ईश्वर ही इस पदार्थ के अन्दर आत्मा के रूप में विराजमान होकर सामने अवस्थित हैं।
इस प्रकार सब पदार्थों को ब्रह्मात्मक समझना चाहिये ।
तदर्थ यह श्रुतिवाक्य अब्रह्मात्मक नाना पदार्थों का निषेध करता है,
यह नहीं कि प्रपञ्चस्वरूप का निषेध करता हो ।
ब्रह्मात्मकप्रपञ्च श्रुति का अभिप्रेत है ।
इस प्रकार अर्थ करने पर ही उपर्युक्त श्रुतिवाक्य का आगे के श्रुतिवाक्यों से मेल हो सकता है ।
मूलम्
अत्राप्य् उत्तरत्र सर्वस्य वशी सर्वस्येशन इति
सत्यसङ्कल्पत्वसर्वेश्वरत्वप्रतिपादनाच् चेतनवस्तुशरीर ईश्वर इति
सर्वप्रकारसंस्थितः स एक एवेति
तत्प्रत्यनीकाब्रह्मात्मकनानात्वं प्रतिषिद्धं न भवदभिमतम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वास्व् एवं-प्रकारासु श्रुतिष्व्
इयम् एव स्थितिर् इति
न क्वचिद् अपि
ब्रह्मणः स-विशेषत्व-निषेधक-वाची
को ऽपि शब्दो दृश्यते ।
नीलमेघः
अन्यान्य श्रुतिवाक्यों का भी निर्वाह इस प्रकार हो जाता है। अबतक कहे गये न्यायों के अनुसार सब श्रुतियों का समन्वय हो जाता है । सब श्रुतियों का अर्थ ऐसा ही है जैसा अबतक कहा गया है। श्रुतियों में कहीं भी ब्रह्म के सविशेषत्व का खण्डन करने वाला एक भी शब्द नहीं है । इस विस्तृत विचार से सिद्ध होता है कि श्रीशंकराचार्यप्रवर्तित अद्वै तसिद्धान्त श्रुतिविरुद्ध है ।
मूलम्
सर्वास्व् एवंप्रकारासु श्रुतिष्व् इयम् एव स्थितिर् इति न क्वचिद् अपि ब्रह्मणः सविशेषत्वनिषेधकवाची को ऽपि शब्दो दृश्यते ।
स्वरूप-तिरोधाने न्याय-विरोधः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि च
निर्विशेष-ज्ञान-मात्रं ब्रह्म
तच् चाच्छादिकाऽविद्या-तिरोहित–स्व-रूपं
स्व-गत-नानात्वं पश्यति
+इत्य् अयम् अर्थो न घटते ।
नीलमेघः
यहाँ तक ग्रन्थ से श्रीरामानुज स्वामी जी ने
अद्वैतसिद्धान्त को श्रुतिविरुद्ध सिद्ध किया है ।
आगे उसे न्यायविरुद्ध अर्थात तर्कविरुद्ध सिद्ध करते हुये आपने कहा कि अद्वैतियों का सिद्धान्त यही है कि ब्रह्म निर्विशेषज्ञानमात्रस्वरूप है ।
उसका स्वस्वरूप आच्छादिका अविद्या से तिरोहित हो जाता है, तिरोहित होने पर वह परब्रह्म अपने में भेदप्रपञ्च को देखता रहता है ।
अद्वैतियोँ का उपर्युक्त सिद्धान्त समीचीन नहीं ।
मूलम्
अपि च निर्विशेषज्ञानमात्रं ब्रह्म तच् चाच्छादिकाविद्यातिरोहितस्वरूपं स्वगतनानात्वं पश्यतीत्य् अयम् अर्थो न घटते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिरोधानं नाम प्रकाश-निवारणम् ।
नीलमेघः
प्रकाश को नष्ट करना ही तिरोधान है ।
मूलम्
तिरोधानं नाम प्रकाशनिवारणम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्व-रूपातिरेकि–प्रकाश-धर्मानभ्युपगमेन
प्रकाशस्यैव स्व-रूपत्वात्
स्व-रूप-नाश एव स्यात् ।
नीलमेघः
ब्रह्म ज्ञानस्वरूप होने से स्वयंप्रकाश है ।
प्रकाश उसका स्वरूप है, धर्म नहीं है ।
यदि प्रकाशधर्म बनता तो प्रकाश स्वरूपातिरिक्त सिद्ध होता है ।
किन्तु अद्वैतियों ने प्रकाश को धर्म नहीं माना,
मानने पर ब्रह्म सधर्मक सिद्ध हो जायेगा ।
इसी भय से ही अद्वैतियों ने प्रकाश को धर्म न मानकर ब्रह्म का स्वरूप माना ।
प्रकाश का नाश ही तिरोधान है ।
प्रकाश ब्रह्मस्वरूप है ।
ऐसी स्थिति में अविद्या से ब्रह्मस्वरूप का तिरोधान होते समय ब्रह्मस्वरूप को नष्ट होना पड़ेगा ।
यह दोष उपस्थित होता है अद्वैतियों ने ब्रह्म को नित्य माना है ।
यह अर्थ खण्डित हो जाता है ।
मूलम्
स्वरूपातिरेकिप्रकाशधर्मानभ्युपगमेन प्रकाशस्यैव स्वरूपत्वात् स्वरूपनाश एव स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकाश-पर्यायं ज्ञानं नित्यं,
स च प्रकाशो ऽविद्या-तिरोहित
इति बालिश-भाषितम् इदम् ।
नीलमेघः
ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध है कि नित्य ब्रह्मप्रकाशात्मक ज्ञानस्वरूप है, तथा वह प्रकाश अविद्या से तिरोहित है ।
मूलम्
प्रकाशपर्यायं ज्ञानं नित्यं स च प्रकाशो ऽविद्यातिरोहित इति बालिशभाषितम् इदम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविद्यया प्रकाश-तिरोहित
इति प्रकाशोत्पत्ति-प्रतिबन्धो,
विद्यमानस्य विनाशो वा ।
नीलमेघः
अद्वैती यह जो कहते हैं कि अविद्या से प्रकाशतिरोहित होता है, इसका भाव क्या है ?
क्या इसका यह भाव है कि
अविद्या से प्रकाश की उत्पत्ति रुक जाती है,
अथवा यह भाव है कि विद्यमान प्रकाश का नाश हो जाता है।
मूलम्
अविद्यया प्रकाशतिरोहित इति प्रकाशोत्पत्तिप्रतिबन्धो विद्यमानस्य विनाशो वा ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकाशस्यानुत्पाद्यत्वाद्
विनाश एव स्यात् ।
नीलमेघः
अद्वैतियों ने ब्रह्मस्वरूप प्रकाश की उत्पत्ति नहीं मानी है, अतएव प्रकाश की उत्पत्ति को रोक देना यह कोटि नहीं जमती । यदि प्रकाश का विनाश तिरोधान माना जाय तो ब्रह्म का नाश हो जायेगा ।
मूलम्
प्रकाशस्यानुत्पाद्यत्वाद् विनाश एव स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“प्रकाशो नित्यो निर्विकारस् तिष्ठती"ति चेत् -
सत्याम् अप्य् अविद्यायां
ब्रह्मणि न किंचित् तिरोहितम् इति
“नानात्वं पश्यती"ति भवताम् अयं व्यवहारः
सत्स्व् अनिर्वचनीय एव ।
नीलमेघः
यदि अद्वैती यह कहें कि
प्रकाशात्मक ब्रह्म नित्य निर्विकार होकर
सदा बना रहता है,
तब तो मानना होगा कि
विद्या से ब्रह्म में कुछ भी तिरोहित नहीं हुआ है । ऐसी स्थिति में यह बात सन्तों के समक्ष नहीं रक्खी जा सकती कि ब्रह्म
विद्या से तिरोहित होकर भेदप्रपच को देखता है क्योंकि पहले तिरोधान ही नहीं जमता है ।
मूलम्
प्रकाशो नित्यो निर्विकारस् तिष्ठतीति चेत् - सत्याम् अप्य् अविद्यायां ब्रह्मणि न किंचित् तिरोहितम् इति नानात्वं पश्यतीति भवताम् अयं व्यवहारः सत्स्व् अनिर्वचनीय एव ।
विशिष्टाद्वैते स्वरूप-तिरोधानारोपः
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु च भवतो ऽपि
विज्ञान-स्व-रूप आत्मा ऽभ्युपगन्तव्यः +++(“विज्ञानघनः” इति श्रुतेः)+++।
स च स्वयंप्रकाशः
+++(“अत्रायं पुरुषः स्वयं-ज्योतिर् भवति” इति श्रुतेः)+++।
नीलमेघः
आगे अद्वैतियोँ ने विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त पर एक दोष दिया है जिसका निराकरण भाष्यकार स्वामी जी ने किया है ।
वह दोष यह है कि
अद्वैतियों ने कहा कि
आपको अर्थात् विशिष्टाद्वैती को भी
आत्मा ज्ञानस्वरूप अभिप्रेत है ।
जीवात्मा को ज्ञानस्वरूप मानना चाहिये
क्योंकि उपनिषदों में
“विज्ञानघनः” कहकर जीवात्मा ज्ञानस्वरूप बताया गया है।
ज्ञान स्वयंप्रकाशवस्तु है ।
आत्मा को स्वयंप्रकाश मानना चाहिये ।
उपनिषद् में
“अत्रायं पुरुषः
स्वयं-ज्योतिर् भवति”
यह वाक्य आत्मा को
स्वयंप्रकाश सिद्ध करता है ।
मूलम्
ननु च भवतो ऽपि विज्ञानस्वरूप आत्माभ्युपगन्तव्यः ।
स च स्वयंप्रकाशः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य च देवादि–स्व-रूपात्माभिमाने
स्व-रूप-प्रकाश-तिरोधानम्
अवश्यम् आश्रयणीयम् -
स्वरूप-प्रकाशे सति
स्वात्मन्य् आकारान्तराध्यासायोगात् ।
नीलमेघः
नाश ही तिरोधान है।
इसका यह अर्थ है कि
यहाँ यह पुरुष स्वयंप्रकाश होता है ।
यह स्वयंप्रकाश जीवात्मा
अपने को देव मनुष्य इत्यादि रूप में समझता है ।
यह समझ भ्रम है ।
इसे ही देहात्माभिमान कहते हैं ।
जीव-स्वरूप का तिरोधान होने पर ही
यह भ्रम हो सकता है ।
यदि जीवात्मस्वरूप का तिरोधान नहीं ही होता,
जीवात्मस्वरूप स्वयंप्रकाश होने से
अपने स्वरूप में चमकता रहता
तो देहात्माभिमान इत्यादि भ्रम
नहीं हो सकते ।
इन भ्रमों का उपपादन करने के लिये
आत्मस्वरूप का तिरोधान मानना होगा ।
आत्मा प्रकाशस्वरूप है,
प्रकाश का इसलिये विशिष्टाद्वैती के मत में
देहात्मभ्रम इत्यादि को सम्हालने के लिये
आत्मस्वरूप में तिरोधान आवश्यक होने के कारण
प्रकाशरूपी आत्मा का नाश हो जायेगा ।
मूलम्
तस्य च देवादिस्वरूपात्माभिमाने स्वरूपप्रकाशतिरोधानम् अवश्यम् आश्रयणीयम् ।
स्वरूपप्रकाशे सति
स्वात्मन्याकारान्तराध्यासायोगात्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो भवतश् चायं समानो दोषः ।
किं चास्माकम्
एकस्मिन्न् एवात्मनि
भवद्-उदीरितं दुर्घटत्वम्
भवताम् आत्मानन्त्याभ्युपगमात्
सर्वेष्व् अयं दोषः परिहरणीयः ।
नीलमेघः
तिरोधान मानने पर जो दोष अद्वैती के मत में दिया गया है,
वह दोष विशिष्टाद्वैती के मत में भी आ जाता है ।
किंच विशिष्टाद्वैती के मत में अधिक दोष होता है ।
विशिष्टाद्वैतियों ने अनेक जीवात्माओं को माना है ।
जीवों में कई सुखी हैं, कई दुःखी हैं, कई शिष्य हैं, कई आचार्य हैं, कई बद्ध हैं तथा कई मुक्त हैं ।
ये सब व्यवस्थायें प्रामाणिक हैं ।
अनेक जीवों को मानने पर ही ये सब व्यवस्थायें घट सकती हैं ।
इन व्यवस्थाओं को प्रामाणिक मानने वाले विशिष्टाद्वैतियों ने
अनेक जीवों को माना है ।
अद्वैतियोँ ने इन व्यवस्थाओं को
काल्पनिक माना है।
अतएव अद्वैतियों को
अनेक जीव मानने की आवश्यकता नहीं रहती ।
विशिष्टाद्वैती के मत में
प्रामाणिक इन व्यवस्थाओं का निर्वाह
नहीं हो सकता ।
यह दूसरा दोष है ।
कारण, तिरोधान से
जहाँ प्रकाशस्वरूप जीवात्मा का नाश हो जाता है,
वहाँ अपने को सुखी और दुःखी इत्यादि कौन माने ?
ऐसी स्थिति में इन व्यवस्थाओं का
भंग हो जाता है।
अद्वैती के मत में ये व्यवस्थायें काल्पनिक हैं,
अतएव इनका भंग दोष नहीं होता ।
विशिष्टाद्वैती के मत में ये व्यवस्थायें सत्य हैं । इनका भंग दोष ही है । विशिष्टाद्वैती के मत में इन व्यवस्थाओं का भंग हो ही जाता है,
क्योंकि एक जीव अपने को सुखी मानता है ।
दूसरा जीव अपने को दुःखी मानता है ।
यह अभिमानरूपी भ्रम स्वरूप तिरोहित होने पर ही हो सकेगा ।
तिरोधान से यदि प्रकाशरूपी जीवों का नाश होगा
तो ये व्यवस्थायें कहाँ रह सकेंगी ।
इस प्रकार विशिष्टाद्वैत में
दो दोष उपस्थित होते हैं,
विशिष्टाद्वैती इन दोषों का जैसा परिहार करते हैं
वैसा हम भी हमारे मत में आये हुये दोषों का परिहार करेंगे ।
यह अद्वैतियोँ का पूर्वपक्ष है ।
मूलम्
अतो भवतश् चायं समानो दोषः ।
किं चास्माकम् एकस्मिन्न् एवात्मनि भवदुदीरितं दुर्घटत्वम् भवताम् आत्मानन्त्याभ्युपगमात् सर्वेष्व् अयं दोषः परिहरणीयः ।
परिहारः
शास्त्राधारः, ब्रह्मज्ञानस्यासङ्कोचः
नीलमेघः - तर्कहानाज् जीव-प्रकाश-सङ्कोचोपपत्तिः
श्रीरामानुज स्वामी जी ने अद्वैतियों के उपर्युक्त पूर्वपक्ष का समाधान करते हुये
विस्तार से अपने सिद्धान्त का इस प्रकार प्रतिपादन किया है कि
हम शास्त्रोक्तरीति से परब्रह्म के स्वरूप और स्वभाव को मानते हैं
तथा वेदशास्त्र को परमप्रमाण मानते हैं ।
अतएव हम लोगों को
सब कुछ सिद्ध हो सकता है ।
अद्वैतियों ने यह माना है कि
विशिष्टाद्वैती उपर्युक्त दोष का निराकरण जिस प्रकार करेंगे
उसी प्रकार हम भी करेंगे।
विशिष्टाद्वैती को पूर्वपक्ष का समाधान इस प्रकार करना होगा कि
शास्त्रों से यह अर्थ प्रमाणित है कि
जीवस्वरूप नित्य है,
तथा संसार में वह तिरोहित रहता है ।
जो तर्क शास्त्रप्रतिपादित इस अर्थ का खण्डन करे,
वह तर्क ही दुष्ट माना जायेगा ।
" न हि वचनविरोधे न्यायः प्रवर्तते” यह न्याय प्रसिद्ध है ।+++(5)+++
इसका अर्थ यह है कि
शास्त्रवचन से विरोध होने पर
तर्क चल नहीं सकता ।
ज्ञानस्वरूप जीवात्मा का नित्यत्व
एवं उसका तिरोधान शास्त्रसिद्ध है,
तर्क से इसका खण्डन नहीं हो सकता,
उल्टा तर्क ही खण्डित हो जायेगा ।
इसलिये तिरोधान होने पर भी प्रकाशस्वरूप जीवात्मा
नित्य माना जा सकता है ।
यही समाधान विशिष्टशती को कहना होगा ।
नीलमेघः - तर्काविरोधाद् ब्रह्मणि सङ्कोचानुपपत्तिः
हम अद्वैती भी वैसा ही समाधान करेंगे । प्रकाशस्वरूप ब्रह्म का नित्यत्व
एवं अविद्या से उसका तिरोधान
ये दोनों अर्थ शाखसिद्ध हैं ।
तिरोधान होने पर
प्रकाश का नाश हो जायेगा ।
ऐसे तर्क से शास्त्रोक्त अर्थ खण्डित नहीं होगा
उल्टा तर्क ही दुष्ट माना जायेगा ।
श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
अद्वैती अपने मत में आये हुये दोष का इस प्रकार ही समाधान करना चाहते हैं ।
परन्तु उनका मनोरथ सिद्ध नहीं होगा
क्योंकि वचन से विरोध होने पर
यद्यपि तर्क कट जाता है
तथापि वचन कट नहीं सकता है ।+++(5)+++
स्पष्ट अर्थ को बतलाने वाले अनेक वचनों के अनुसार
अस्पष्टार्थक वचन का अर्थ करना चाहिये ।
अनेक शास्त्रवचन यह बतलाते हैं कि
ब्रह्म निर्दोष है
तथा सर्वज्ञत्व इत्यादि कल्याणगुणों का निधि है ।
यह जगत् ब्रह्म की विभूति है,
अधीन रहने वाली वस्तु है इससे सिद्ध होता है कि
सर्वज्ञ ब्रह्म भ्रान्त नहीं,
तथा जगत् भ्रम से दिखाई देने वाली वस्तु नहीं है ।
ब्रह्म को भ्रमाश्रय मानना तथा जगत् को भ्रमविषयक मानना अनेक वचनों से विरोध रखता है । अतएव ऐसा मानना उचित नहीं है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्म का तिरोधान एवं भ्रम को बतलाने में शास्त्र का तात्पर्य है ही नहीं ।
अद्वैती लोग ब्रह्म का तिरोधान एवं भ्रम मानते हैं,
शास्त्रविरुद्ध अर्थ को
तर्क काट सकता है ।+++(5)+++
अतएव अद्वैत सिद्धान्त को काटने के लिये
यह तर्क प्रस्तुत करना उचित ही है कि
प्रकाशस्वरूप ब्रह्म का तिरोधान होने पर
उसका नाश हो जायेगा ।
जीवस्वरूप का तिरोधान इत्यादि अर्थ किसी वचन से भी विरोध नहीं रखते हैं ।
अतएव वचन
इन अर्थों का प्रतिपादन कर सकते हैं
इन वचनसिद्ध अर्थों को काटने वाला तर्क ही
त्याज्य माना जायेगा ।
इस विवेचन से फलित होता है कि
जीवस्वरूप का तिरोधान इत्यादि उपपन्न हैं
तथा ब्रह्मस्वरूप का तिरोधान इत्यादि अनुपपन्न हैं ।
सम्पूर्ण शास्त्रार्थ पर ध्यान देने पर
इसी निष्कर्ष पर ही पहुँचना पड़ता है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रोच्यते -
स्वभावतो मल-प्रत्यनीकानन्त-ज्ञानानन्दैक–स्व-रूपं …
नीलमेघः
उपनिषद् इत्यादि शास्त्र यह प्रतिपादन करते हैं कि ब्
रह्म का स्वरूप निर्दोष है तथा दोषों को नष्ट करने वाला है ।
स्वभाव से ही
ब्रह्म दोषों का शत्रु होता है ।
इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्म में अविद्या दोष हो ही नहीं सकता ।
किंच, शास्त्र यह बतलाता है कि
अपरिच्छिन्न ज्ञानानन्द ही ब्रह्म का स्वरूप है ।
ब्रह्म के किसी भी अंश में जडत्व नहीं,
अननुकूलत्व नहीं ।
वह अनन्त ब्रह्म पूरा ज्ञानस्वरूप है तथा आनन्दस्वरूप है ।
मूलम्
अत्रोच्यते स्वभावतो मलप्रत्यनीकानन्तज्ञानानन्दैकस्वरूपं
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाभाविकानवधिकातिशयापरिमितोदार-गुण-सागरं …
नीलमेघः
ब्रह्म में ऐसे २ कल्याणगुण विद्यमान हैं
जो स्वाभाविक है
चरमसीमा तक पहुँचे हैं
उनसे बढ़कर कोई भी गुण अन्यत्र नहीं पाया जा सकता ।
उनमें एक २ गुण ही अनेक गुणों का सागर है
ऐसे अपरिमित उदारगुणों का समुद्र श्रीभगवान् में लहराता रहता है ।
सर्वज्ञत्व इत्यादि ये सब गुण स्वाभाविक हैं ।
यह अर्थ “स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च” इस श्रुतिवाक्य से प्रमाणित है ।
सर्वज्ञ ब्रह्म भ्रम का आश्रय नहीं हो सकता ।
अद्वैती ब्रह्म को भ्रमाश्रय मानते हैं
जो उचित नहीं ।
मूलम्
स्वाभाविकानवधिकातिशयापरिमितोदारगुणसागरं
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमेष-काष्ठा-कला-मुहूर्तादि–परार्ध-पर्यन्तापरिमित-व्यवच्छेद–स्व-रूप–
सर्वोत्पत्ति-स्थिति-विनाशादि-
सर्व-परिणाम-निमित्त-भूत-
काल-कृत-परिणाम+
अस्पष्टानन्त-महा-विभूति–
स्व-लीला-परिकर-
स्वांश-भूतानन्त–बद्ध-मुक्त–नाना-विध–चेतन-
तद्-भोग्य-भूतानन्त-विचित्र-परिणाम-शक्ति-चेतनेतर-वस्तु-जात+
अन्तर्यामित्व-कृत–सर्व-शक्ति-शरीरत्व-
सर्व-प्रकर्शावस्थानावस्थितं परं ब्रह्मैव वेद्यम्
नीलमेघः
शास्त्र कहता है कि श्रीभगवान् की दो विभूतियाँ हैं
(१) लीलाविभूति (२) भोगविभूति ।
दोनों भी विभूति अनन्त हैं,
लीलाविभूति नीचे अनन्त है,
भोगविभूति ऊपर अनन्त है ।
ये दोनों श्रीभगवान् के अधीन रहती हैं
तथा उनकी सम्पत्ति हैं
इसलिये विभूति कहलाती हैं ।
इनमें लीलाविभूति से भोग-विभूति बड़ी है ।
उस विभूति में काल का जोर नहीं है,
वहाँ कालकृत परिणाम नहीं होते ।
वहाँ परिणाम केवल भगवत्संकल्प से ही होते रहते हैं ।
काल इस लीलाविभूति में
निमेष काष्टा कला और मुहूर्त से लेकर परार्ध पर्यन्त अनेक विभागों को प्राप्त करता हुआ
सब पदार्थों की उत्पत्ति स्थिति और विनाश का कारण होता है ।
परन्तु भोगविभूति में
इसका प्रभाव नहीं है ।
इस प्रकार अनन्त महान् भोगविभूति
श्रीभगवान् की है ।
यह प्रकृतिमण्डल ही
लीलाविभूति है ।
इसमें श्रीभगवान् लीला करते हैं ।
विविध रूपों में रहने वाले अनन्त बद्धचेतन तथा मुक्तचेतन
श्रीभगवान की लीला के परिकर हैं,
मुक्त जीव श्रीभगवान् की मोक्षलीला में सहायक होते हैं,
बद्ध जीव सांसारिक लीला में सहायक होते हैं
इन चेतनों को भोग्य बनने के लिये प्रकृति इत्यादि अचेतन पदार्थ
अनन्त विचित्र रूपों में परिणत होते रहते हैं,
ऐसी शक्ति उनमें निहित है ।
इन चेतनाचेतन पदार्थों में
परब्रह्म अन्तर्यामी के रूप में अवस्थित रहता है,
ये सब उसके शरीर हैं ।
परब्रह्म ही विश्वशरीरक होकर
विश्वरूप में अवस्थित है ।
इस प्रकार परब्रह्म
शास्त्रों से बोधित होता है ।
ये विभूतियाँ परमात्मा की सम्पत्ति हैं । ये ठोस सत्य हैं, भ्रम से
दिखाई देने वाली नहीं हैं ।
अद्वैती जो इनको भ्रम से दिखाई देने वाली मानते हैं, वे ही भ्रम में हैं ।
[[९२]]
सार यह है
निर्दोष सर्वज्ञ ब्रह्म को
अज्ञान एवं भ्रम मानना
तथा सत्यविभूतियों को मिथ्या मानना महान् दोष है ।
यह अर्थ अनेक शास्त्रों से विरोध रखता है ।
कोई भी शास्त्र इस अर्थ को सिद्ध नहीं कर सकता ।
अद्वैतियों के शास्त्रविरुद्ध ये अर्थ
तर्क से कट सकते हैं ।
मूलम्
निमेषकाष्ठाकलामुहूर्तादिपरार्धपर्यन्तापरिमितव्यवच्छेदस्वरूपसर्वोत्पत्तिस्थितिविनाशादिसर्वपरिणामनिमित्तभूतकालकृतपरिणामास्पष्टानन्तमहाविभूति स्वलीलापरिकरस्वांशभूतानन्तबद्धमुक्तनानाविधचेतनतद्भोग्यभूतानन्तविचित्रपरिणामशक्तिचेतनेतरवस्तुजातान्तर्यामित्वकृतसर्वशक्तिशरीरत्वसर्वप्रकर्शावस्थानावस्थितं परं ब्रह्मैव वेद्यं
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्-साक्षात्-कार-क्षम–
भगवद्-द्वैपायन–पराशर-वाल्मीकि–
मनु-याज्ञवल्क्य-गौतमापस्तम्ब-प्रभृति–
मुनि-गण-प्रणीत–
विध्य्–अर्थ-वाद–मन्त्र-स्वरूप-वेद-मूल-
+इतिहास-पुराण–धर्म-शास्त्रोपभृंहित-
परमार्थ-भूतानादि-निधनाविच्छिन्न-पाठ-संप्रदाय-
र्ग्-यजुः-सामाथर्व-रूपानन्त-शाखं वेदं
चाभ्युपगच्छताम् अस्माकं किं न सेत्स्यति ।
नीलमेघः - अद्वैति-शास्त्र-तिरस्कारः
किंच, अद्वैतियोँ ने यह माना है कि वेदादि शास्त्र अविद्यासिद्ध हैं,
उनका प्रामाण्य भी अविद्यासिद्ध है
तथा तर्क और उसका प्रामाण्य भी अविद्यासिद्ध है ।
अविद्यासिद्ध होने से ये सब मिथ्या हैं ।+++(5)+++
ऐसी स्थिति में
तर्क से शास्त्र का प्राबल्य सिद्ध नहीं होगा
तथा शास्त्र से तर्क नहीं कटेगा ।
नीलमेघः - शास्त्र-बलम्
विशिष्टाद्वैतियों के मत में शास्त्र और उसका प्रामाण्य सत्य है ।
शास्त्र निर्दोष है
क्योंकि वेद शास्त्र पुरुषप्रणीत नहीं हैं,
किन्तु नित्य हैं,
सम्प्रदाय में उसका पाठ अविच्छिन्न रूप में चला आता है ।
वेद शास्त्र ऋक् यजु साम और अथर्व रूप से चार प्रकार का है।
प्रत्येक में अनेक शाखायें हैं ।
सब शाखाओं में
प्रतिपादित अर्थ एक है।
अधीत शाखा और अनधीत शाखाओं को मिलाकर
विचार करने पर
वेदार्थ विशद रूप में समझ में आता है ।
हम लोग अनधीत शाखाओं को समझ नहीं सकते हैं
उनमें प्रतिपादित अर्थों को कैसे समझें ।
हमारे इस क्लेश को दूर करने के लिये
भगवान् व्यास पराशर वाल्मीकि मनु याज्ञवल्क्य गौतम और आपस्तम्ब इत्यादि महर्षियों ने—
जो वेदप्रतिपाद्य प्रधान अर्थ परब्रह्म के साक्षात्कार में सामर्थ्य रखते थे
वेदों के आधार पर
अर्थात् अनधीत वेदार्थों को भी लेकर
उपबृंहण शास्त्रों का निर्माण किया है ।
जिन शास्त्रों से वेदार्थ व्यक्त होते हैं,
वे उपबृंहण शास्त्र कहलाते हैं ।
वेद में जो विधिभाग है,
उसके आधार पर धर्मशास्त्र निर्मित हुये ।
वेदों में जो अर्थवाद भाग एवं मन्त्र भाग हैं,
उनके आधार पर पुराण और इतिहास निर्मित हुये ।
ये सब उपबृंहण शास्त्र हैं ।
इनसे वेदार्थ स्पष्ट विदित होते हैं ।
इनसे उपबृंहित होने वाले निर्दोष अनादिसिद्ध वेदों को
हम प्रमाण मानते हैं ।
हमारे मत में निर्दोष वेद से
सदोष तर्क कट सकता है ।+++(5)+++
अविद्यासिद्ध होने के कारण
अद्वैत मत में
शास्त्र से तर्क नहीं कट सकता है ।
यह महान् अन्तर है ।
इससे सिद्ध होता है कि
उपर्युक्तरीति से
परब्रह्म को वेदवेद्य
तथा वेदों को परमप्रमाण मानने वाले विशिष्टाद्वैतियों के
सभी अर्थ सिद्ध हो सकते हैं ।
नीलमेघः - सारः
सारांश यह है
जीवस्वरूप का संसार में तिरोधान प्रबल शास्त्रों से प्रमाणित है,
इसे तर्क नहीं काट सकता ।
सर्वज्ञ परब्रह्म का तिरोधान भ्रम
एवं जगत् का भ्रान्तिसिद्धत्व इत्यादि अर्थ
शास्त्रविरुद्ध तथा तर्कविरुद्ध हैं,
इनको तर्क काट सकता है ।+++(5)+++
अद्वैतमत और विशिष्टाद्वैतमत में
समता सर्वथा है ही नहीं ।
मूलम्
तत्साक्षात्कारक्षमभगवद्द्वैपायनपराशरवाल्मीकिमनुयाज्ञवल्क्यगौतमापस्तम्बप्रभृतिमुनिगणप्रणीतविध्यर्थवादमन्त्रस्वरूपवेदमूलेतिहासपुराणधर्मशास्त्रोपभृंहितपरमार्थभूतानादिनिधनाविच्छिन्नपाठसंप्रदायर्ग्यजुःसामाथर्वरूपानन्तशाखं वेदं चाभ्युपगच्छताम् अस्माकं किं न सेत्स्यति ।
क्षराक्षरौ
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तं भगवता द्वैपायनेन महाभारते
यो माम् अजम् अनादिं च
वेत्ति लोक-महेश्वरम् ।
[असम्मूढः स मर्त्येषु
सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥]
नीलमेघः
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने
उपर्युक्त अर्थों के विषय में
महर्षियों के वचनों को
प्रमाणरूप से उपस्थापित करते
यह कहा कि
भगवान् कृष्णद्वैपायन व्यास जी ने
महाभारतान्तर्गत भगवद्गीता में
निम्नलिखित रूप में श्रीभगवान् की श्रीसूक्ति को ग्रथित किया है कि-
यो मामजमनादि च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
अर्थात श्रीभगवान ने कहा कि मनुष्यों में जो मनुष्य
हमें इतरसजातीय न मानकर
अच्छी तरह से समझता हो वह भक्त्युत्पत्ति के विरोधी सब पापों से छूट जाता है ।
हमें वह इस प्रकार समझता है कि
श्रीभगवान् अज हैं अर्थात् नहीं जन्मने वाले हैं।
इससे सिद्ध होता है
श्रीभगवान् जडपदार्थ और बद्धचेतन
से विलक्षण है
क्योंकि जडपदार्थ विकार वाला द्रव्य है,
अतएव वह पूर्वावस्था को छोड़ता हुआ उत्तरावस्था को प्राप्त होता रहता है, अतएव उसका नाश एवं उत्पत्ति होती रहती है उसके संसर्ग में पड़कर संसारिचेतन को भी जन्मना एवं मरना पड़ता है ।
संसारिचेतन का नूतन देहसम्बन्ध ही
जन्म एवं देहवियोग ही मरण है ।
इस प्रकार जढपदार्थ एवं संसारिचेतन
जन्म लेने वाले होते हैं ।
श्रीभगवान् कभी जन्मने वाले नहीं हैं
अतएव वे इनसे विलक्षण हैं।
श्रीभगवान् अज होते हुये अनादि हैं, अर्थात् अनादिकाल से ही श्रीभगवान् [[९४]] का जन्म नहीं होता है ।
इससे सिद्ध होता है कि
श्रीभगवान् मुक्त जीवों से विलक्षण है क्योंकि मुक्त जीव पहले संसार में रहते समय जन्मते रहे हैं मोक्ष में पहुँचने के बाद ही उनका जन्म लेना बन्द होता है ।
श्रीभगवान् का तो कभी भी जन्म न हुआ,
अवतार को जन्म मानना भ्रम है
वह तो जन्म से अत्यन्त विलक्षण है।
मुक्त जीवों का पहले संसार में रहते समय दोषों से सम्बन्ध था ।
श्रीभगवान् का कभी भी दोषसम्बन्ध नहीं ।
इससे श्रीभगवान् मुक्तपुरुषों से विलक्षण सिद्ध होते हैं।
किंच श्रीभगवान् लोकमहेश्वर हैं,
अर्थात् लोकेश्वरों के भी ईश्वर हैं ।
श्रीभगवान् सर्वविलक्षण हैं ।
उन्हें इतरसजातीय न समझना चाहिये ।
लोक में अत्यन्त श्रेष्ठ पुरुष भी
दूसरों के सजातीय ही प्रतीत होते हैं ।
श्रीभगवान् को वैसा नहीं समझना चाहिये ।
लोक में राजा शासक होने के कारण
मनुष्यों में श्रेष्ठ माना जाता है
परन्तु वह इतरमनुष्यों का सजातीय ही है
क्योंकि वह भी एक मनुष्य ही है ।
वैसे ही देवों का अधिपति इन्द्र देवों से श्रेष्ठ होने पर भी
देवों का सजातीय ही है ।
वैसे ही ब्रह्माण्ड के अधिपति ब्रह्मा जी
सब जीवों से श्रेष्ठ होने पर भी
इतरसंसारियों के सजातीय ही हैं।
इसी प्रकार अणिमा इत्यादि ऐश्वर्यों को प्राप्त हुये उत्तम साधक भी
अन्यान्य जीवों के सजातीय ही हैं । परन्तु श्रीभगवान् सर्वविलक्षण हैं।
वे कार्यकारण रूप में रहने वाले अचेतन द्रव्य
तथा बद्ध मुक्तचेतन
इत्यादि सभी पदार्थों से
सब तरह से अत्यन्त विलक्षण हैं ।
श्रीभगवान् कहते हैं कि
इस प्रकार हमको जो साधक समझता है ।
वह सर्व पापों से छूट जाता है ।
इस वचन से सिद्ध होता है कि
श्रीभगवान् चेतनाचेतन पदार्थों से सर्वथा विलक्षण हैं।
मूलम्
यथोक्तं भगवता द्वैपायनेन महाभारते
यो माम् अजम् अनादिं च
वेत्ति लोक-महेश्वरम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वाव् इमौ पुरषौ लोके
क्षरश् चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि
कूटस्थो ऽक्षर उच्यते ॥
नीलमेघः
श्रीवेदव्यास जी ने श्रीभगवद्गीता में इन श्लोकों को भी प्रथित किया है कि-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्वाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ 137
उत्तमः
पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभत्र्त्यव्यय ईश्वरः ॥
TIT
प
अर्थात् पुरुष दो प्रकार के हैं (१) क्षरपुरुष (२) और अक्षर पुरुष ।
उत्पत्ति विनाशशील शरीर रूप में परिणत जडपदार्थ से मिलकर उत्पत्ति और विनाश को प्राप्त होने वाले जीव क्षरपुरुष कहलाते हैं ।
अचेतन संसर्ग से रहित एवं निर्विकार स्वस्वरूप में अवस्थित मुक्त जीव अक्षरपुरुष कहलाते हैं ।
एक उत्तम पुरुष ही इन क्षराक्षरपुरुषों से अर्थात् बद्ध और मुक्तपुरुषों से सर्वथा भिन्न है ।
वह उपनिषदों में परमात्मा कहा गया है ।
जडशरीरों के अन्दर रहने वाले जीवात्मा वस्तुतः एक आत्मा हैं ।
ये जीवात्माओं के अन्दर रहते हैं
अतएव उनसे भिन्न हैं।
उनके अन्दर रहने वाला कोई आत्मा नहीं है ।
वे ही जड और जीवों के अन्दर रहने वाले आत्मा हैं
इसलिये वे परमात्मा कहे गये हैं ।
प्रमाणों से विदित होने वाले जडपदार्थ, बद्धचेतन और मुक्तचेतन इन तीन प्रकार के पदार्थों में
अन्तरात्मा के रूप में प्रवेश करके
परमात्मा इन पदार्थों का धारण करते हैं।
ये पदार्थ उनके द्वारा आविष्ट हैं वे आवेश करने वाले हैं।
[[९५]]
इससे वे इनसे भिन्न सिद्ध होते हैं । ।
ये पदार्थ उनके द्वारा धृत हैं, वे इनका धारण करने वाले हैं।
इससे वे इनसे भिन्न सिद्ध होते हैं ।
जडपदार्थ विकार वाला है
इसका सम्बन्ध पाकर
बद्ध जीव भी ज्ञान में संकोच एवं विकास रूपी विकारों को प्राप्त होते हैं ।
मुक्तपुरुष विकाररहित होने पर भी परतन्त्र चेतन होने के कारण विकारों
को प्राप्त करने के योग्य हैं ।
परमात्मा सदा निर्विकार हैं तथा सदा एक रूप रहते हैं।
इस दृष्टि से भी वे इनसे भिन्न सिद्ध होते हैं ।
मूलम्
द्वाव् इमौ पुरषौ लोके
क्षरश् चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि
कूटस्थो ऽक्षर उच्यते ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तमः पुरुषस् त्व् अन्यः
परमात्मेत्य् उदाहृतः ।
यो लोकत्रयम् आविश्य
बिभर्त्य् अव्यय ईश्वरः ॥
नीलमेघः
वे उत्तम पुरुष स्वामी होकर इन पर शासन करते हैं।
इसलिये वे ईश्वर कहलाते हैं ।
ये पदार्थ उनके नियन्त्रण में रहने वाले हैं।
उत्तम पुरुष में
जड़ और चेतनपदार्थों से भेद सिद्ध होता है ।
इस प्रकार श्रीभगवान् ने
पुरुषोत्तमतत्त्व को बद्ध और मुक्त चेतनों से भिन्न सिद्ध किया है ।
श्रीभगवान् ने पूर्वश्लोक में
“वेदविदेव चाहम्” कहकर
यह बतलाया कि
हम ही वेद को जानने वाले हैं।
आगे वेदप्रतिपाद्य प्रधानार्थ पुरुषोत्तमतत्त्व का वर्णन करते हुये
श्रीभगवान् ने उसे सर्वविलक्षण बतलाया है ।
इससे पुरुषोत्तमतत्त्व चेतनाचेतनों से सर्वथा विलक्षण प्रमाणित होता है ।
मूलम्
उत्तमः पुरुषस् त्व् अन्यः
परमात्मेत्य् उदाहृतः ।
यो लोकत्रयम् आविश्य
बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥
लीला-नित्य-विभूती
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालं च पचते तत्र +++(स्वर्गादौ)+++,
न कालस् तत्र +++(नित्यविभूतौ)+++ वै प्रभूः ।
एते +++(स्वर्गादयो)+++ वै निरयास्+++(=नरकास्)+++ तात
स्थानस्य परमात्मनः ॥
नीलमेघः
श्रीवेदव्यास जी ने महाभारत में कहा है कि-
कालं स पचते तत्र न कालस्तत्र वै प्रभुः ।
एते वै निरयास्तात स्थानस्य परमात्मनः ॥
अर्थात् श्रीभगवान् की भोगविभूति में काल का प्रभाव नहीं चलता है,
वहाँ भगवान् काल को पचा देते हैं ।
परमात्मा श्रीभगवान् के उस दिव्य स्थान के समक्ष
ये स्वर्ग इत्यादि लोक नरक के समान हैं ।
इन वचनों से श्रीवेदव्यास जी ने श्रीभगवान् की उस भोगविभूति को सिद्ध किया है
जो अकालकाल्य एवं परमभोग्य है ।
मूलम्
कालं च पचते तत्र
न कालस् तत्र वै प्रभूः ।
एते वै निरयास् तात
स्थानस्य परमात्मनः ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तादि-विशेषान्तं
परिणाम-र्द्धि-संयुक्तम् ।
क्रीडा हरेर् इदं सर्वं
क्षरम् इत्य् अवधार्यताम् ॥
नीलमेघः
श्रीवेदव्यास जी ने महाभारत में लीलाविभूति के विषय में कहा है कि-
अव्यक्तादिविशेषान्तं परिणामद्धिसंयुतम् ।
क्रीडा हरेरिदं सर्वं क्षरमित्युपधार्यताम् ॥
अर्थात् अव्यक्त अर्थात् प्रकृति से पंचमहाभूत तक के जितने पदार्थ हैं
ये परिणाम और वृद्धि इत्यादि अवस्थाओं को प्राप्त होने वाले हैं।
ये सब श्रीमन्नारायण भगवान् की लीलाविभूति हैं ।
इन्हें तर समझना चाहिये क्योंकि यह नश्वर हैं । इस वचन से लीलाविभूति सिद्ध होती है ।
मूलम्
अव्यक्तादि-विशेषान्तं
परिणाम-र्द्धि-संयुक्तम् ।
क्रीडा हरेर् इदं सर्वं
क्षरम् इत्य् अवधार्यताम् ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्ण एव हि लोकानाम्
उत्पत्तिर् अपि चाप्य् अयः ।
कृष्णस्य हि कृते भूतम्
इदं विश्वं चराचरम् ॥
इति ।
नीलमेघः
महाभारत में अन्यत्र वेदव्यास जी ने कहा हैं कि-
कृष्ण एव हि लोकानामुत्पत्तिरपि चाप्ययः ।
कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम् ॥
अर्थात् इन लोकों की उत्पत्ति एवं प्रलय का कारण श्रीकृष्ण हैं । यह चराचर विश्व श्रीकृष्ण भगवान्
के लिये है, उनके मुखोल्लास के लिये है ।
मूलम्
कृष्ण एव हि लोकानाम्
उत्पत्तिर् अपि चाप्ययः ।
कृष्णस्य हि कृते भूतम्
इदं विश्वं चराचरम् ॥
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णस्य हि कृत इति
कृष्णस्य शेषभूतं सर्वम् इत्यर्थः ।+++(5)+++
नीलमेघः
इस वचन से सिद्ध होता है कि इस जगत् की उत्पत्ति स्थिति और विनाश श्रीभगवान् के अधीन हैं तथा यह जगत् श्रीभगवान् की वस्तु है ।[[९६]]
मूलम्
कृष्णस्य हि कृत इति कृष्णस्य शेषभूतं सर्वम् इत्यर्थः ।
गुणवाची भगवच्छब्दः, महा-विभूतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवता पराशरेणाप्य् उक्तम्
शुद्धे महा-विभूत्य्-आख्ये
परे ब्रह्मणि शब्द्यते ।
मैत्रेय भगवच्-छब्दः
सर्व-कारण-कारणे ॥
नीलमेघः
श्रीभगवान् पराशरब्रह्मर्षि ने विष्णु पुराण में कहा है कि-
शुद्धे महा-विभूत्य्-आख्ये
परे ब्रह्मणि शब्द्यते ।
मैत्रेय भगवच्-छब्दः
सर्वकारणकारणे ॥
ज्ञान-शक्ति-बलैश्वर्य-
वीर्य-तेजांस्य् अशेषतः ।
भगवच्-छब्द-वाच्यानि
विना हेयैर् गुणादिभिः ॥
एवम् एष महा-शब्दो
मैत्रेय भगवान् इति ।
परम-ब्रह्म-भूतस्य
वासु-देवस्य नान्यगः ॥
तत्र पूज्य-पदार्थोक्ति-
परिभाषा-समन्वितः ।
शब्दो ऽयं नोपचारेण
त्व् अन्यत्र ह्य् उपचारतः ॥
इससे उनका
वे परब्रह्म हैं ।
अर्थात् हे मैत्रेय,
श्रीभगवान् नित्यशुद्ध हैं।
वे बड़ी भोगविभूति के स्वामी हैं
“महाविभूति” ऐसा नाम पड़ा है ।
वे लीलाविभूति के अन्तर्गत सब पदार्थों के कारण हैं ।
मूलम्
भगवता पराशरेणाप्य् उक्तम्
शुद्धे महाविभूत्याख्ये
परे ब्रह्मणि शब्द्यते ।
मैत्रेय भगवच्छब्दः
सर्वकारणकारणे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञान-शक्ति-बलैश्वर्य-
वीर्य-तेजांस्य् अशेषतः ।
भगवच्-छब्द-वाच्यानि
विना हेयैर् गुणादिभिः ॥+++(5)+++
नीलमेघः
उनके नाम के रूप में
भगवच्छब्द प्रयुक्त होता है ।
“भगवान् " इस शब्द में “भ ग व अन्” ऐसे चार वर्ण हैं ।
“अन्” को उलटने पर “न” बन जाता है ।
पहले तीन वर्गों से
ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, और तेज ये ६ गुण बतलाये जाते हैं ।
“न” से दोषाभाव बतलाया जाता है। +++(5)+++
“भगवान् " इस शब्द से सम्पूर्ण ६ गुणों से युक्त एवं निर्दोष भगवत्तत्त्व
बतलाया जाता है ।
मूलम्
ज्ञानशक्तिबलैश्वर्य-
वीर्यतेजांस्य् अशेषतः ।
भगवच्छब्दवाच्यानि
विना हेयैर् गुणादिभिः ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् एष महा-शब्दो
मैत्रेय भगवान् इति ।
परम-ब्रह्म-भूतस्य
वासु-देवस्य नान्यगः ॥
नीलमेघः
हे मैत्रेय
इस प्रकार महान् अर्थ को बतलाने वाला “भगवान्” यह महान शब्द परमब्रह्म वासुदेव को बतलाता है,
दूसरे किसी को भी नहीं बतलाता
है ।
इस शब्द में योगशक्ति और रूढिशक्ति नामक दो शक्तियाँ हैं ।
इस शब्द में अवयव बनने वाले एक २ अक्षर से
श्रेष्ठ गुणों का बतलाना यह
योगशक्ति है ।
मूलम्
एवम् एष महाशब्दो
मैत्रेय भगवान् इति ।
परमब्रह्मभूतस्य
वासुदेवस्य नान्यगः ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र पूज्य-पदार्थोक्ति-
परिभाषा-समन्वितः ।
शब्दो ऽयं नोपचारेण
त्व् अन्यत्र ह्य् उपचारतः ॥
नीलमेघः
समुदायशक्ति से अर्थ को बतलाना यह रूढिशक्ति है ।
इसे ही परिभाषा कहते हैं ।
योगशक्ति एवं रूढिशक्ति से युक्त यह शब्द
मुख्यरूप से श्रीवासुदेव भगवान् को बतलाता है । श्रीवासुदेव भगवान् इस शब्द का मुख्यार्थ है ।
यदि अन्य किसी अर्थ में प्रयुक्त हो तो वह गौण अर्थ है ।
श्रीपराशर के इन वचनों से श्रीभगवान् की दोनों विभूतियाँ तथा श्रीभगवान् का नित्य निर्दोषत्व और कल्याणगुणाकरत्व सिद्ध होते हैं ।
मूलम्
तत्र पूज्य-पदार्थोक्ति-
परिभाषा-समन्वितः ।
शब्दो ऽयं नोपचारेण
त्व् अन्यत्र ह्य् उपचारतः ॥
वैकुण्ठम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं-प्रकारम् अमलं
सत्यं व्यापकम् अक्षयम् ।
समस्त-हेय-रहितं
विष्ण्व्-आख्यं परमं पदम् ॥
नीलमेघः
श्रीपराशरब्रह्मर्षि ने विष्णुपुराण में अन्यत्र कहा है कि-
एवं प्रकारममलं सत्यं व्यापकमक्षयम् ।
समस्तहेयरहितं विष्ण्वाख्यं परमं पदम् ॥
अर्थात् श्रीविष्णु भगवान् का स्वरूप ही परमप्राप्य वस्तु है ।
वह स्वरूप वैसे गुणों से युक्त हैं
जैसे गुण मुक्तों में हुआ करते हैं ।
वह स्वरूप निर्मल एवं मलों को नष्ट करने वाला है।
वह स्वरूप सत्य अर्थात् निर्विकार व्यापक एवं क्षयहीन है।
वह स्वरूप सभी दोषों से शून्य हैं।
इससे श्रीभगवान् का विशुद्ध स्वरूप सिद्ध होता है ।
मूलम्
एवंप्रकारम् अमलं
सत्यं व्यापकम् अक्षयम् ।
समस्त-हेय-रहितं
विष्ण्व्-आख्यं परमं पदम् ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कला-मुहूर्तादिमयश् च कालो
न यद्विभूतेः परिणाम-हेतुः ॥
नीलमेघः
श्रीपराशरब्रह्मर्षि ने यह भी कहा है कि-
कलामुहूर्तादिमयश्च कालो न यद्विभूतेः परिणामहेतुः ।
[[९७]]
अर्थात् कला और मुहूर्त इत्यादि रूप में परिणत होने वाला काल
श्रीभगवान् की भोगविभूति को परिणत करने में असमर्थ है ।
इससे भोगविभूति का अकालकाल्यत्व (काल के द्वारा परिणत न होना) प्रमाणित होता है ।
मूलम्
कलामुहूर्तादिमयश् च कालो
न यद्विभूतेः परिणाम-हेतुः ॥
लीला-विभूतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रीडतो बालकस्येव
चेष्टास् तस्य निशामय ॥
इत्यादि ।
नीलमेघः
श्री पराशर जी ने कहा है कि-
क्रीडतो बालकस्येव चेष्टां तस्य निशामय ।
अर्थात् श्रीभगवान् बालक की तरह खेल रहे हैं,
उनकी लीला को देखो।
इससे प्रमाणित होता है कि श्रीभगवान् इस लीलाविभूति में लीला करते रहते हैं ।
मूलम्
क्रीडतो बालकस्येव
चेष्टास् तस्य निशामय ॥
इत्यादि ।
गुण-वर्णनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनुनापि
प्रशासितारं सर्वेषाम्
अणीयांसम् अणीयसाम् ।
इत्य् उक्तम् ।
नीलमेघः
श्रीमान् मनु महाराज ने मनुस्मृति में कहा है कि-
प्रशासितारं सर्वेषाम् अणीयांसम् अणीयसाम् ।
अर्थात् श्रीभगवान सब पर शासन करने वाले हैं तथा उनका स्वरूप
अणुओं से भी अणु है
अर्थात् परमसूक्ष्म है ।
इस प्रकार मनु ने श्रीभगवान् की कई विशेषताओं का वर्णन किया है ।
मूलम्
मनुनापि
प्रशासितारं सर्वेषाम्
अणीयांसम् अणीयसाम् ।
इत्य् उक्तम् ।
जीवेश्वरौ
विश्वास-प्रस्तुतिः
याज्ञवल्क्येनापि
क्षेत्रस्येश्वर-ज्ञानाद्
विशुद्धिः परमा मता ।
इति ।
नीलमेघः
याज्ञवल्क्य महर्षि ने कहा है कि-
क्षेत्रज्ञस्येश्वरज्ञानाद्विशुद्धिः परमा मता ।
अर्थात् यह मानी हुई बात है कि
ईश्वरज्ञान से जीवात्मा को परमशुद्धि प्राप्त होती है ।
इस वचन से सिद्ध होता है कि
ईश्वरज्ञान से ही जीव शुद्ध होगा,
निर्गुणब्रह्मज्ञान से नहीं ।
मूलम्
याज्ञवल्क्येनापि
क्षेत्रस्येश्वर-ज्ञानाद्
विशुद्धिः परमा मता ।
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपस्तम्बेनापि
“पूः प्राणिनः सर्व एव गुहाशयस्ये"ति । सर्वे प्राणिनो गुहाशयस्य परमात्मनः पूः पुरं शरीरम् इत्यर्थः ।
प्राणिन इति स-जीवात्म-भूत-संघातः ।
नीलमेघः
आपस्तम्ब महर्षि ने कहा है कि-
पूः प्राणिनः सर्व एव गुहाशयस्य ।
अर्थात् सभी प्राणी हृदयगुहा में विराजमान
श्रीभगवान् के वासस्थान हैं ।
यहाँ प्राणिशब्द से वे शरीर विवक्षित हैं
जिनके अन्दर जीव रहते हैं।
इस वचन से यह सिद्ध होता है कि
श्रीभगवान् सबके अन्तर्यामी हैं ।
इस प्रकार श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने महर्षियों के वचनों का उद्धरण देकर अपने उन सैद्धान्तिक अर्थों को प्रामाणिक सिद्ध किया जिनका अबतक आपने वर्णन किया है ।
मूलम्
आपस्तम्बेनापि
“पूः प्राणिनः सर्व एव गुहाशयस्ये"ति । सर्वे प्राणिनो गुहाशयस्य परमात्मनः पूः पुरं शरीरम् इत्यर्थः ।
प्राणिन इति सजीवात्मभूतसंघातः ।
धर्म-भूत-ज्ञान-तिरोधानम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु च किम् अनेनाडम्बरेण ?
चोद्यं तु न परिहृतम् ।
नीलमेघः
[[९८]]
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
महर्षियों के वचनों के आधार पर
अपने सिद्धान्त का जब विस्तार से प्रतिपादन किया
तब सब बातें सुनकर
अद्वैती ने यह प्रश्न किया कि
आपने बड़े आडम्बर से अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, इससे क्या होगा ?
हमारे आक्षेप का तो आपने परिहार किया ही नहीं ।
मूलम्
ननु च किम् अनेनाडम्बरेण ?
चोद्यं तु न परिहृतम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्यते ।
एवम् अभ्युपगच्छताम् अस्माकम्
आत्म-धर्म-भूतस्य चैतन्यस्य स्वाभाविकस्यापि
कर्मणा पारमार्थिकं संकोचं विकासं च ब्रुवतां
सर्वम् इदं परिहृतम् ।
नीलमेघः - पूर्वपक्षः
अद्वैती के इस प्रश्न का उल्लेख करके श्रीरामानुज स्वामी जी ने उत्तर में कहा कि
हमने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करके
आपके प्रश्न का उत्तर दे दिया है ।
आपने समझा नहीं ।+++(5)+++
आपका और हमारा विवाद
इस बात पर छिड़ा था कि
आपने प्रकाशस्वरूप ब्रह्म का
अविद्या से तिरोधान माना है ।
इस पर हमारी ओर से
यह दोष दिया गया है कि
प्रकाश को नष्ट करना ही तिरोधान होता है ।
ब्रह्म जब निर्विशेष प्रकाशस्वरूप है,
तब उसका तिरोधान होने पर
उस प्रकाशरूपी ब्रह्म को नष्ट होना पड़ेगा
ब्रह्म का नित्यत्व नहीं रहेगा ।
हमारे इस खण्डन पर
आपने कहा कि
यह दोष तुम्हारे मत में भी आता है ।
तुम्हारे मत में भी जीवात्मा ज्ञानस्वरूप होने से
स्वयंप्रकाश है ।
संसार में उस जीवात्मस्वरूप का कम से
तिरोधान आपने भी माना है ।
कर्म से तिरोधान होने पर ही
स्वस्वरूप को यथार्थ रूप से नहीं समझने से
देहात्मभ्रम और स्वतन्त्रात्मभ्रम इत्यादि होते हैं ।
यहाँ पर आपको अर्थात् विशिष्टाद्वैती को
संसार में कर्म से प्रकाशस्वरूप जीवात्मस्वरूप को तिरोधान मानना ही पड़ता है ।
वहाँ पर यह दोष आता है कि
तिरोधान होने पर
जीवात्मस्वरूप को नष्ट होना पड़ेगा
क्योंकि प्रकाश का नाश ही तिरोधान है जीव प्रकाशस्वरूप है ।
आप अर्थात् विशिष्टाद्वैती
इस दोष का जिस प्रकार परिहार करेंगे,
उसी प्रकार हम भी अर्थात् श्रद्वैती भी अपने मत पर आये हुये दोष का परिहार करेंगे ।
आपको अर्थात् विशिष्टाद्वैती को
यही कहकर परिहार करना होगा कि
शास्त्रों से सिद्ध होता है कि जीवात्मा स्वयंप्रकाश ज्ञानस्वरूप है तथा
संसार में उसका कर्म से तिरोधान होता है ।
शास्त्रसिद्ध इस अर्थ को इस तर्क से -
कि तिरोधान होने पर प्रकाशात्मक जीवात्मस्वरूप को नष्ट होना पड़ेगा,
काटा नहीं जा सकता,
क्योंकि वचन से विरुद्ध होने पर तर्क ही कट जाता है न कि तर्क से शास्त्र ।
इसलिये तर्कविरुद्ध होने पर भी उस शास्त्रसिद्ध अर्थ को मानना ही पड़ेगा ।
इसी प्रकार ही हम अद्वैती भी अपने मत पर आये हुये दोष का यह परिहार करेंगे कि
यह अर्थ शास्त्रसिद्ध है कि ब्रह्म प्रकाशस्वरूप एवं नित्य है,
उसका अविद्या से तिरोधान होता है ।
इस शास्त्रसिद्ध अर्थ को इस तर्क से -
कि तिरोधान होने पर प्रकाशात्मक ब्रह्मस्वरूप को नष्ट होना पड़ेगा -
काटा नहीं जा सकता है
क्योंकि तर्क से शास्त्र प्रबल है,
विरोध होने पर
शास्त्र से तर्क ही कटेगा,
न कि तर्क से शास्त्र ।
इसलिये शास्त्रसिद्ध उपर्युक्त ब्रह्मतिरोधान को मानना होगा,
यह अद्वैतियों का मन्तव्य है ।
नीलमेघः - तर्कप्रयोगानुकूल्यम्
अद्वैतियों के इस मन्तव्य का खण्डन करने के लिए
श्रीरामानुज स्वामी जी ने महर्षियों के वचनों के आधार पर
विस्तार से अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है ।
प्रतिपादन करने वाले श्रीरामानुज स्वामी जी का
यह भाव है कि
वचन से विरोध होने पर
तर्क कट जाता है ।
इस युक्ति को हम विशिष्टाद्वैती प्रस्तुत कर सकते हैं
अद्वैती प्रस्तुत नहीं कर सकते ।
इसमें दो कारण हैं
(१) अद्वैतियों के मत में शास्त्रवचन और तर्क
ये दोनों अविद्या से कल्पित हैं
इसलिये शास्त्रवचन प्रवल नहीं बनता,
अतएव विरुद्ध तर्क को नहीं काट सकता ।
विशिष्टाद्वैती के मत में शास्त्रवचन अविद्या से कल्पित नहीं
किन्तु वह सत्य है,
उसका प्रामाण्य भी सत्य है ।
प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा
अज्ञेय अर्थ को बतलाने में
शास्त्र का अधिकार है,
तर्क का नहीं ।
अतएव अधिकृत शास्त्रवचन प्रबल होकर
अनधिकृत तर्क को काट देता है ।
(२) अद्वैतियों का यह सिद्धान्त -
कि स्वयंप्रकाश ज्ञानस्वरूप ब्रह्म
अविद्या से तिरोहित होता है—
न केवल तर्क से विरोध रखता है
किन्तु शास्त्र से भी विरोध रखता है ।
अनेक शास्त्र ब्रह्म को
सर्वज्ञ एवं निर्दोष बतलाते हैं ।
ये शास्त्रवचन
ब्रह्म में अविद्यादोष
एवं भ्रम इत्यादि दोषों का खण्डन करते हैं ।
शास्त्रविरुद्ध अर्थ को
तर्क काट सकता है ।
अद्वैत सिद्धान्त शास्त्रविरुद्ध होने से
तर्क से काटा जा सकता है ।
विशिष्टाद्वैती का यह सिद्धान्त
अनेक शास्त्रवचनों से प्रमाणित है कि
ब्रह्म में अविद्या और भ्रम इत्यादि दोष न होने पर भी
जीवों में ये दोष हुआ करते हैं
जीवों का ज्ञान कर्म से संकुचित हो जाता है ।
अतएव जीव स्वस्वरूप को
ठीक न समझ कर
अज्ञान एवं विविधभ्रमों में फँस जाते हैं ।
ये अर्थ शास्त्रों से प्रमाणित हैं,
कोई भी शास्त्रवचन इन अर्थों का खण्डन नहीं करता ।
अतएव इन अर्थों को बतलाने वाले शास्त्र
प्रबल होकर विरुद्ध तर्क को काट सकते हैं ।
इस प्रकार अद्वैत एवं विशिष्टाद्वैत मत में महान् अन्तर है ।
इस तत्त्व को बतलाने के लिये
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
शास्त्रवचनों से अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था ।
इस मर्म को न समझ कर
अद्वैती ने पूछा कि
हमारे आक्षेप का आपने परिहार नहीं किया ।
नीलमेघः - धर्म-भूत-ज्ञानम्
इस प्रश्न का उत्तर देते हुये श्रीरामानुज स्वामी जी कहते हैं कि
शास्त्रों के आधार पर
उपर्युक्त सिद्धान्तों को मानने वाले
हम लोगों ने यह माना है कि
जीवात्मा स्वयंप्रकाश ज्ञानस्वरूप है ।
उसमें एक ज्ञान धर्म बनकर रहता है
जिसे धर्मभूतज्ञान कहते हैं ।
जिस प्रकार दीप और प्रभा ये दोनों तेजोद्रव्य हैं,
इनमें दीप धर्मी है,
प्रभा उसका धर्म है,
उसी प्रकार आत्मा और उसका ज्ञान ये दोनों ज्ञान द्रव्य हैं ।
इनमें आत्मा धर्मी है,
ज्ञान उसका धर्म है ।
प्रभा जिस प्रकार संकोच और विकास को प्राप्त करती है
उसी प्रकार आत्मा का स्वाभाविक धर्म बनने वाला ज्ञान भी
कर्म से संकोच एवं विकास को प्राप्त होता रहता है।
हमारे मत में आत्मा
अनेक विशेषताओं से युक्त है
निर्विशेष नहीं ।
आत्मा में अहन्त्व अणुत्व नित्यत्व
देहातिरिक्तत्व प्रकृतिविलक्षणत्व और भगवद्दासत्व
इत्यादि अनेक धर्म हैं ।
इनमें अहन्त्व धर्म को लेकर
आत्मा सदा स्वयं प्रकाशता रहता है ।+++(5)+++
अन्य धर्म आत्मस्वरूप के द्वारा प्रकाशित होने वाले नहीं,
वे धर्मभूतज्ञान के द्वारा प्रकाशित होने वाले हैं।+++(5)+++
[[१००]]
धर्मभूतज्ञान कर्म से संकुचित होकर
उन गुण स्वभावों को
जब प्रकाशित नहीं करता
तब उतने रूप में
आत्मा का तिरोधान हो जाता है ।
यह हमारा मत है ।
मूलम्
उच्यते । एवम् अभ्युपगच्छताम् अस्माकम् आत्मधर्मभूतस्य चैतन्यस्य स्वाभाविकस्यापि कर्मणा पारमार्थिकं संकोचं विकासं च ब्रुवतां सर्वम् इदं परिहृतम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवतस् तु प्रकाश एव स्वरूपम्
इति प्रकाशो न धर्मभूतः,
तस्य संकोच-विकासौ वा नाभ्युपगम्येते ।
नीलमेघः
आप लोगों के अर्थात अद्वैतियोँ के मत में
आत्मा निर्विशेष निर्धर्मक एवं निर्गुण है ।
उसमें कोई गुण धर्म नहीं रहता ।
प्रकाश ही आत्मा का स्वरूप है ।
इस बात को आप लोग नहीं मानते कि
प्रकाश आत्मा का धर्म है,
उसका संकोच और विकास होता है ।
मूलम्
भवतस् तु प्रकाश एव स्वरूपम् इति प्रकाशो न धर्मभूतस् तस्य संकोचविकासौ वा नाभ्युपगम्येते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकाश-प्रसारानुत्पत्तिम् एव
तिरो-धान-भूताः कर्मादयः कुर्वन्ति ।
नीलमेघः
तिरोधान करने वाले कर्म आदि
यही करते हैं कि
प्रकाश को फैलने नहीं देते ।
इन अर्थों को आप लोग नहीं मानते।
आप लोगों के मत में
प्रकाश आत्मा का स्वरूप है ।
आप लोग यह भी मानते हैं कि
अविद्या से आत्मा तिरोहित होता है,
तिरोधान का अर्थ है प्रकाश को नष्ट करना ।
मूलम्
प्रकाशप्रसारानुत्पत्तिम् एव तिरोधानभूताः कर्मादयः कुर्वन्ति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविद्या चेत् तिरो-धानं
तिरो-धान-भूततया ऽविद्यया
स्व-रूप-भूत-प्रकाश-नाश
इति पूर्वम् एवोक्तम् ।
नीलमेघः
अविद्या से आत्मा तिरोहित होने पर
आत्मस्वरूप को नष्ट होना पड़ेगा ।
यह दोष अद्वैतसिद्धान्त में लग ही जाता है ।
मूलम्
अविद्या चेत् तिरोधानं तिरोधानभूततयाविद्यया स्वरूपभूतप्रकाशनाश इति पूर्वम् एवोक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्माकं त्व् अविद्या-रूपेण कर्मणा
स्व-रूप–नित्य-धर्म-भूत–प्रकाशः संकुचितः ।
नीलमेघः
हमारे मत में आत्मा सधर्मक है,
आत्मा का धर्मिस्वरूप
सदा अहन्त्व धर्म को लेकर
प्रकाशता ही रहता है ।
यह प्रकाश कभी बन्द नहीं होता ।
आत्मा में अणुत्व इत्यादि अनेक धर्म हैं
जो धर्मभूतज्ञान से ही प्रकाशित होते हैं ।
जब धर्मभूतज्ञान कर्म से संकुचित हो जाता है,
उसका विकास रुक जाता है,
उस समय अणुत्व इत्यादि धर्म प्रकाश में नहीं आते।
मूलम्
अस्माकं त्व् अविद्यारूपेण कर्मणा स्वरूपनित्यधर्मभूतप्रकाशः संकुचितः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन देवादि-स्वरूपात्माभिमानो भवतीति विशेषः ।
नीलमेघः
आत्मा उन धर्मों को–
जो देह आदि से आत्मा को
भिन्न करते हैं-
न समझ कर अज्ञान में फँस जाता है,
अपने को देवादिशरीररूप मान लेता है ।
इस प्रकार विविधभ्रमों में फँस जाता है ।
नीलमेघः - अन्तरम्
हमारे मत में आत्मा अहन्त्व धर्म को सदा प्रकाशित करता रहता है।
इसलिये अन्यान्य धर्मों का तिरोधान होने पर भी
आत्मा के नष्ट होने का प्रसंग नहीं उठता।
अद्वैतमत में आत्मा
केवल प्रकाशस्वरूप होने के कारण
तिरोधान होने पर
आत्मनाश का प्रसंग आ ही जाता है ।
यह इन दोनों मतों में महान् अन्तर है ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने मर्म को खोला है।
मूलम्
तेन देवादिस्वरूपात्माभिमानो भवतीति विशेषः ।
प्रमाणानि
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोक्तम्
अविद्या कर्म-संज्ञा ऽन्या
तृतीया शक्तिर् इष्यते ॥
नीलमेघः
[[१०१]]
उपर्युक्त अर्थ को
निम्नलिखित वचनों से
श्रीरामानुज स्वामी जी ने सिद्ध किया है
वे वचन ये हैं कि—
अविद्या कर्मसंज्ञाऽन्या तृतीया शक्तिरिष्यते ।
यया क्षेत्रज्ञशक्तिः सा वेष्टिता नृप सर्वगा ।
संसारतापानखिलानवाप्नोत्यतिसन्ततान् ।
तया तिरोहितत्वाच्च शक्तिः क्षेत्रज्ञसंज्ञिता ।
सर्वभूतेषु [[114]] भूपाल तारतम्येन वर्तते ॥
अर्थात् हे राजन, कर्म नाम से प्रसिद्ध अविद्या तीसरी शक्ति मानी जाती है ।
मूलम्
यथोक्तम्
अविद्या कर्मसंज्ञान्या
तृतीया शक्तिर् इष्यते ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा क्षेत्र-शक्तिः सा
वेष्टिता नृप सर्व-गा ।
संसार-तापान् अ-खिलान्
अवाप्नोत्य् अतिसंततान् ॥
नीलमेघः
जिससे सब शरीरों में रहने वाला जीवात्मा -
जो श्रीभगवान् का विशेषण होने से शक्ति कहलाता है -
आवृत होकर
लगातार होने वाले सर्वविध संसारतापों को
भोगता रहता है ।
मूलम्
यथा क्षेत्रशक्तिः सा
वेष्टिता नृप सर्वगा ।
संसारतापान् अखिलान्
अवाप्नोत्य् अतिसंततान् ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया तिरोहितत्वाच् च
शक्तिः क्षेत्र-ज्ञसंज्ञिता ।
सर्व-भूतेषु भूपाले
तारतम्येन वर्तते ॥
इति ।
नीलमेघः
हे राजन्, कर्मनामक अविद्याशक्ति से तिरोहित होने के कारण ही
जीवात्मा ज्ञान को लेकर
विविध शरीरों में तारतम्य से रहते हैं ।
किसी शरीर में कोई जीव अधिक ज्ञान वाला होता है,
दूसरे शरीर में दूसरा जीव अल्पज्ञान वाला होता है ।
जिस जीव का ज्ञान कर्म से संकुचित होता है,
वह जीव अल्पज्ञ हो जाता है ।
जिस जीव का ज्ञान कर्म से विकसित होता है
वह बहुज्ञ हो जाता है ।
मूलम्
तया तिरोहितत्वाच् च
शक्तिः क्षेत्रज्ञसंज्ञिता ।
सर्वभूतेषु भूपाले
तारतम्येन वर्तते ॥
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षेत्र-ज्ञानां स्व-धर्म-भूतस्य ज्ञानस्य
कर्म-संज्ञाऽविद्यया
संकोचं विकासं च दर्शयति ।
नीलमेघः
इन वचनों से सिद्ध होता है कि
जीव का धर्मभूतज्ञान
कर्म से संकुचित एवं विकसित होता है ।
मूलम्
क्षेत्रज्ञानां स्वधर्मभूतस्य ज्ञानस्य कर्मसंज्ञाविद्यया संकोचं विकासं च दर्शयति ।