१२ नेति नेति

विश्वास-प्रस्तुतिः

“अथात आदेशो नेति नेती"ति बहुधा निषेधो दृष्यत

इति चेत् -
किम् अत्र निषिध्यत
इति वक्तव्यम् ।

मूलम्

अथात आदेशो नेति नेतीति बहुधा निषेधो दृष्यत इति चेत् - किम् अत्र निषिध्यत इति वक्तव्यम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

“द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे
मूर्तं चैवामूर्तं चे"ति
मूर्तामूर्तात्मकः प्रपञ्चः सर्वो ऽपि निषिध्यत

इति चेन् नैवम् ।

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

[[८५]]
आगे अद्वैतियों ने “अथात प्रादेशो नेति नेति” इस वाक्य का उद्धरण देकर
कहा कि यह वाक्य प्रप का निषेध करता है ।

वहाँ के प्रकरण के आरम्भ में
“द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूतं चामूर्तमेव च” कहकर
यह बतलाया गया है कि
ब्रह्म के दो रूप हैं,
एक मूर्तप्रपञ्च है,
दूसरा अमूर्तप्रपच है ।

इस प्रकार मूर्तामूर्तप्रपच को ब्रह्म का रूप कहकर
आगे “प्रथात प्रदेशो नेति नेति”
ऐसा कहा गया है ।
इसका अर्थ यह है कि
इसके आगे एक उपदेश है,
वह यह है कि
ब्रह्म ऐसा नहीं ऐसा नहीं
अर्थात् मूर्तामूर्त पश्च उसका रूप नहीं ।
इससे मूर्तीमूर्तप्रपञ्च का निषेध होता है।
उससे इस प्रपञ्च का मिथ्यात्व सिद्ध होता है ।
यह अद्वैतियों का कथन है ।

मूलम्

द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं चेति मूर्तामूर्तात्मकः प्रपञ्चः सर्वो ऽपि निषिध्यत इति चेन् नैवम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मणो रूपतया ऽप्रज्ञातं सर्वं रूपतयोपदिश्य
पुनस् तद् एव निषेद्धुम् अयुक्तम् -

प्रक्षालनाद् धि पङ्कस्य
दूराद् अस्पर्शनं वरम्

इति न्यायात् ।

नीलमेघः

इस पर समालोचना करते हुये श्रीरामानुज स्वामी जी आगे कहते हैं कि
उपर्युक्त अर्थ समीचीन नहीं है ।
मूर्तामूर्तप्रपञ्च ब्रह्म का रूप है,
यह अर्थ श्रुतिप्रमाण को छोड़कर दूसरे किसी प्रमाण से विदित नहीं हो सकता ।
श्रुति से ही इसे जानना होगा।
श्रुति इस अज्ञात अर्थ को बतलाकर पीछे इसका निषेध करे यह उचित नहीं ।
अज्ञात किसी अर्थ को बतलाकर उसके निषेध करने की अपेक्षा तो यही अच्छा है कि उस अर्थ को बतलाया ही न जाय ।
यह लोकाक्ति प्रसिद्ध है कि “प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्” ।
इसका अर्थ है कि पक का लेप लगाकर उसको धोने की अपेक्षा उसका स्पर्श न करना ही अच्छा है ।
जिस प्रकार पक्क का स्पर्श करके उसको धोने की अपेक्षा उसका स्पर्श न करना ही अच्छा है उसी प्रकार मूर्तीमूर्तप्रपच को ब्रह्म का रूप कहकर भ्रम को बढ़ाना (क्योंकि अद्वैतमत के अनुसार यह भ्रम ही है) आगे उसका निषेध करना इसकी अपेक्षा मूर्तीमूर्तप्रपञ्च को ब्रह्म का रूप न कहना ही अच्छा है ।

किसी अज्ञात अर्थ को कहकर उसका निषेध करना अच्छा नहीं, उस बात को न कहना ही उचित है ।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि उपर्युक्त वाक्य का अद्वैतियों के द्वारा किया गया अर्थ समीचीन नहीं ।

मूलम्

ब्रह्मणो रूपतयाप्रज्ञातं सर्वं रूपतयोपदिश्य पुनस् तद् एव निषेद्धुम् अयुक्तम् - प्रक्षालनाद् धि पङ्कस्य दूराद् अस्पर्शनं वरम् इति न्यायात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस् तर्हि निषेधवाक्यार्थः ?

नीलमेघः

अब प्रश्न उठता है कि
यह
उपर्युक्त वाक्य का क्या अर्थ होना चाहिये ।

मूलम्

कस् तर्हि निषेधवाक्यार्थः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूत्रकारः स्वयम् एव वदति

प्रकृतैतावत्त्वं हि प्रतिषेधति
ततो ब्रवीति च भूय

इति ।

नीलमेघः

उत्तर देते हुये श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि ब्रह्मसूत्रकार ने “प्रकृतंतावत्त्वं हि प्रतिषेधति ततो नवीति च भूयः” इस सूत्र के द्वारा उपर्युक्त श्रुतिवाक्य का अर्थ स्वयं इस प्रकार किया है कि “नेति नेति” इस वाक्य का यह अर्थ है कि ब्रह्म मूर्तामूर्तप्रपञ्च रूप वाला है, इतना ही ब्रह्म का रूप नहीं है, ब्रह्म का रूप इससे कहीं अधिक है ।

मूलम्

सूत्रकारः स्वयम् एव वदति प्रकृतैतावत्त्वं हि प्रतिषेधति ततो ब्रवीति च भूय इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरत्र

अथ नामधेयं सत्यस्य सत्यं
प्राणा वै सत्यं
तेषाम् एष सत्यम्

इति सत्यादि-गुण-गणस्य प्रतिपादितत्वात्,
पूर्व-प्रकृतैतावन्-मात्रं न भवति ब्रह्मेति,
ब्रह्मण एतावन्मात्रता प्रतिषिध्यत

इति सूत्रार्थः ।

नीलमेघः

मूर्तमूर्तप्रपच को ब्रह्म का रूप कहने पर
यह धारणा हो सकती है कि
ब्रह्म इतने ही रूप वाला हो ।
इस धारणा को दूर करने के लिये “नेति नेति” कहकर श्रुति ने बतलाया कि ब्रह्म इतना ही नहीं, इतना ही नहीं।
इसका भाव यही है कि ब्रह्म इससे भी अधिक [[८६]] रूप वाला है । इस प्रकार यह श्रुति प्रकृत इयत्ता का निषेध करती है, यह नहीं कि रूपों का ही निषेध करती हो । यदि रूपों का निषेध करके ब्रह्म को निर्विशेष सिद्ध करना श्रुति ब्रह्म के गुणों का वर्णन न करना चाहिये ।

किन्तु श्रुति आगे ब्रह्म के श्रुतिवाक्य यह है कि “अथ नामधेयं सत्यस्य सत्यं प्राणा वै सत्यं तेषामेव सत्यम्”

इसका अर्थ यह है कि ब्रह्म का नाम “सत्य का सत्य” ऐसा है । जीव सत्य हैं उनसे बढ़कर ब्रह्म सत्य है ।

निर्विकारवस्तु को सत्य कहते हैं ।
जडपदार्थ के स्वरूप में विकार होता रहता है ।
जडपदार्थ विकार वाला है।
जीव के स्वरूप में नहीं होता किन्तु जीव का स्वभाव बनने वाले धर्मभूतज्ञान में विकार होता है ।+++(5)+++

जीव स्वरूप में विकार वाला नहीं,
इसलिये वह सत्य कहा जा सकता है ।
ब्रह्म के स्वरूप में विकार नहीं,
स्वभाव में भी विकार नहीं ।
इसलिये जीव से बढ़कर ब्रह्म निर्विकार सिद्ध होता है ।+++(5)+++

अतएव उसका “सत्य का सत्य”
ऐसा नाम रक्खा गया है।
इस प्रकार उपनिषद् में आगे ब्रह्म के निर्विकारत्व इत्यादि गुणों का वर्णन है ।

नीलमेघः - निगमनम्

इससे विदित होता है कि “नेति नेति” श्रुति का प्रपञ्च के निषेध में तात्पर्य नहीं है, किन्तु ब्रह्म की इयत्ता के निषेध में तात्पर्य है । इस प्रकार सूत्रकार ने ही उपर्युक्त श्रुति का अर्थ किया है। इस विवेचन से सिद्ध होता है। कि “नेति नेति” श्रुति निर्विशेष ब्रह्म की प्रतिपादिका नहीं, न प्रपञ्च की ही निषेधिका है ।

मूलम्

उत्तरत्र अथ नामधेयं सत्यस्य सत्यं प्राणा वै सत्यं तेषाम् एष सत्यम् इति सत्यादिगुणगणस्य प्रतिपादितत्वात् पूर्वप्रकृतैतावन्मात्रं न भवति ब्रह्मेति, ब्रह्मण एतावन्मात्रता प्रतिषिध्यत इति सूत्रार्थः ।