विश्वास-प्रस्तुतिः
यतो वास्तव-कार्य-कारण-भावादि-विज्ञाने प्रवृत्तम्
अत एव “+असद् एवेदम् अग्र आसीद्”
इत्य् आरभ्यासत्-कार्य-वाद-निषेधश् च क्रियते
“कुतस् तु खलु सोम्यैवं स्याद्” इति ।
नीलमेघः
[[७६]]
“सदेव सोम्य” इत्यादि वाक्य वास्तविक कार्यकारणभाव को बतलाने के लिये प्रवृत्त है ।
अतएव “असदेवेदमग्र आसीत् " इस वाक्य से असत्कार्यवाद का उल्लेख करके
“कुतस्तु खलु सोम्यैवं स्यात् "
इस वाक्य से उसका निराकरण किया गया है।
वैशेषिक इत्यादि दार्शनिक असत्कार्यवाद को मानते हैं ।
वे कहते हैं कि
नूतन कार्यद्रव्य उत्पन्न होता है
जो उत्पत्ति के पहले नहीं रहा ।
यही असत्कार्यवाद है,
इसमें उत्पत्ति के पूर्व नहीं रहने वाले नये कार्यद्रव्य की उत्पत्ति मानी जाती है ।
उपनिषदों ने सत्कार्यवाद का स्वीकार किया है ।
उसका अर्थ यह है कि पहले से द्रव्य विद्यमान रहता है,
वह नूतन अवस्था को प्राप्त होने पर कार्य कहलाता है ।
कार्य कहा जाने वाला द्रव्य पहले से ही
विद्यमान होने के कारण
वह सत्कार्य कहलाता है ।
“अ-सद् एवेदम् अग्र आसीत्”
इस वाक्य का अर्थ यह है कि
यह कार्य बनने वाला जगद्-रूपी द्रव्य
सृष्टि के पूर्व
असत् ही था ।
इस असत्कार्यवाद का निराकरण करने वाले
“कुतस्तु खलु सोम्येवं स्यात् " इस वाक्य का यह अर्थ है कि
हे सोम्य ? उपर्युक्त बात कैसे जम सकती है। यदि जगद्-द्रव्य उत्पत्ति के पहले असत् है
तो उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ।
द्रव्य का आश्रय लेकर ही तो
उत्पत्ति को सत्ता प्राप्त करनी होगी ।
आश्रय द्रव्य ही न रहा तो किसका आश्रय लेकर उत्पत्ति टिक सकती है ।
इस प्रकार कहकर असत्कार्यवाद का निराकरण किया गया है।
मूलम्
यतो वास्तवकार्यकारणभावादिविज्ञाने प्रवृत्तम् अत एवासद् एवेदम् अग्र आसीद् इत्यारभ्यासत्कार्यवादनिषेधश् च क्रियते कुतस् तु खलु सोम्यैवं स्याद् इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रागसत उत्पत्तिर् अ-हेतुकेत्य् अर्थः ।
मूलम्
प्रागसत उत्पत्तिर् अहेतुकेत्यर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् एवोपपादयति “कथम् असतः सज् जायेते"ति ।
नीलमेघः
इस निराकरण का उपपादन आगे मिलता है
वह वाक्य यह है कि
" कथमसतः सज्जायेत” ।
इसका अर्थ यह है कि असत् से सत् कैसे उत्पन्न होगा ।
मूलम्
तद् एवोपपादयति कथम् असतः सज् जायेतेति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असत उत्पन्नम् असदात्मकम् एव भवतीत्यर्थः - यथा मृद् उत्पन्नं घटादिकं मृदात्मकम् ।
नीलमेघः
असत् से उत्पन्न होने वाला पदार्थ भी
असत् ही होगा ।
जिस प्रकार मृत्तिका से उत्पन्न घटादि
मृत्तिका बनकर रहते हैं,
उसी प्रकार असत् से उत्पन्न होने वाला यह जगत् भी
असत् ही होगा।
यह जगत् असत् नहीं किन्तु सत् है ।
इससे विदित होता है कि
यह सत् जगत्,
सत् से ही उत्पन्न हुआ है ।
मूलम्
असत उत्पन्नम् असदात्मकम् एव भवतीत्यर्थः - यथा मृद् उत्पन्नं घटादिकं मृदात्मकम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत उत्पत्तिर् नाम
व्यवहार-विशेष-हेतु-भूतो ऽवस्था-विशेष-योगः ।
नीलमेघः
यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है यदि
यह जगद्-द्रव्य
पहले से ही सत् है
तो उसकी उत्पत्ति कैसे घट सकती है ?
उत्तर यह है कि पहले से हो विद्यमान द्रव्य जब उसी नयी अवस्था को —
जो नये व्यवहार का कारण बनती है— प्राप्त होता है,
तब उसकी उत्पत्ति कही जाती है ।
मूलम्
सत उत्पत्तिर् नाम
व्यवहार-विशेष-हेतु-भूतो ऽवस्था-विशेष-योगः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् उक्तं भवति -
एकम् एव कारणभूतं द्रव्यम्
अवस्थान्तरयोगेन कार्यम्
इत्य् उच्यत
इत्य् एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं प्रतिपिपादयिषितम् ।
नीलमेघः
इस सत्कार्यवाद के
निराकरण का भाव यह है कि
उपनिषत् सिद्धान्त में
यह माना जाता है कि
एक ही द्रव्य कारण एवं कार्य बन जाता है ।
पूर्वावस्था में रहने वाला वह द्रव्य कारण है,
वही द्रव्य पूर्वावस्था को छोड़कर जब नयी व्यवस्था को प्राप्त होता है तब कार्य कहलाता है ।
सम्पूर्ण जगत् का कारण [[८०]]
बनने वाले द्रव्य को समझने पर
उससे बने हुये सभी कार्य जाने जा सकते हैं क्योंकि वह कारणद्रव्य ही जगद्रूप में परिणत हुआ है ।
इस प्रकार
एक को जानने से
सबको ज्ञात होना यह अर्थ ही यहाँ कहने के लिये अभिमत है ।
इसे ही एक विज्ञान से होने वाले सर्वविज्ञान की प्रतिज्ञा कहते हैं ।
मूलम्
एतदुक्तं भवति
एकमेव कारणभूतं द्रव्यमवस्थान्तरयोगेन कार्यमित्युच्यत
इत्येकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं प्रतिपिपादयिषितम्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् असत्कार्यवादे न सेत्स्यति ।
नीलमेघः
यह प्रतिज्ञा उस असत्कार्यवाद में -
जो वैशेषिक दार्शनिकों के द्वारा वर्णित है—
नहीं सिद्ध होती ।
मूलम्
तद् असत्कार्यवादे न सेत्स्यति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा हि
निमित्त-समवाय्य्–अ-समवायि-प्रभृतिभिः कारणैर्
अवयव्य्-आख्यं कार्यं द्रव्यान्तरम् एवोत्पद्यत
इति +++(असत्कार्यवादि-मते)+++ कारण-भूताद् वस्तुनः
कार्यस्य वस्त्व्-अन्तरत्वान्
न तज्-ज्ञानेनास्य ज्ञातता
कथम् अपि संभवतीति ।
नीलमेघः
तथाहि — वैशेषिकों ने यह माना है कि
निमित्तकारण समवायिकारण और असमवायिकारण इत्यादि कारणों के द्वारा
अवयवी नामक नया कार्यद्रव्य उत्पन्न होता है ।
उदाहरण-वस्त्र के निर्माण में
कुविन्द अर्थात् जुलाहा निमित्तकारण है,
तन्तुगण समवायिकारण हैं,
तन्तुओं का पारस्परिक संयोग असमवायिकारण है,
तुरी और वेमदण्ड इत्यादि सहकारिकारण है ।
इन कारणों से
वस्त्रनामक नूतन अवयविद्रव्य उत्पन्न होता है
जो पहले नहीं था ।
यह वैशेषिकों के द्वारा वर्णित
असत्कार्यवाद है ।+++(5)+++
इस वाद में
कारण बनने वाले द्रव्य से
कार्य बनने वाला द्रव्य
भिन्न होता है ।
उदाहरण -
तन्तुद्रव्य से
वस्त्रद्रव्य भिन्न है ।
द्रव्यभेद होने के कारण
इस वाद में
यह बात घट नहीं सकती कि
कारण को समझने से
कार्य ज्ञान हो जाय।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि
एक के विज्ञान से सम्पन्न होने वाले सर्वविज्ञान की प्रतिज्ञा
वैशेषिकों के द्वारा वर्णित असत्कार्यवाद में
नहीं जमती है
अतएव उपनिषद ने उसका निराकरण किया है ।
मूलम्
तथा हि निमित्तसमवाय्यसमवायिप्रभृतिभिः कारणैर् अवयव्याख्यं कार्यं द्रव्यान्तरम् एवोत्पद्यत इति कारणभूताद् वस्तुनः कार्यस्य वस्त्वन्तरत्वान् न तज्ज्ञानेनास्य ज्ञातता कथम् अपि संभवतीति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथम् अवयवि द्रव्यान्तरं निरस्यत
+++(उपादानद्रव्यापेक्षया, तन्नास्माभिर् उक्तम्)+++
इति चेत् -
कारण-गतावस्थान्तर-योगस्य द्रव्यान्तरोत्पत्ति-वादिनः संप्रतिपन्नस्यैवैकत्व-नामान्तरादेर् उपपादकत्वाद्
द्रव्यान्तरादर्शनाच्
चेति
कारणम् एवावस्थान्तरापन्नं कार्यम्
इत्य् उच्यत
इत्य् उक्तम् ।
नीलमेघः
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
कारण बनने वाला द्रव्य ही
नूतन अवस्था को प्राप्त होकर
कार्यद्रव्य कहलाता है,
अवयविनामक नया द्रव्य
उत्पन्न नहीं होता तो
वैशेषिकों के द्वारा वर्णित
अवयविनामक द्रव्यान्तर का निराकरण करना चाहिये,
वह कैसे किया जाय ?
उत्तर यह है कि द्रव्यान्तर की
उत्पत्ति मानने वाले वैशेषिकों ने भी
कारणद्रव्य में नूतनावस्था मानी है ।
उदाहरण - वस्त्र का कारण तन्तुद्रव्य हैं ।
वस्त्रोत्पत्ति के पूर्व उन तन्तुद्रव्यों में
विलक्षण संयोगनामक अवस्था उत्पन्न होती है ।
इस बात को वैशेषिकों ने माना है ।
इसी संयोग को ही उन्होंने
असमवायिकारण कहा है
जिससे वस्त्रद्रव्य की उत्पत्ति होती है ।
उपनिषद्वादी और वैशेषिकों में
यही अन्तर हैं कि
वैशेषिकों ने समवायिकारण तन्तुगण एवं उनमें होने वाली संयोगावस्था -
जिसे उन्होंने असमवाथिकारण माना है-
से वस्त्रनामक नूतन कार्यद्रव्य की उत्पत्ति मानी है ।
औपनिषदवादियों ने यह माना है कि संयोगावस्था को प्राप्त होने वाले
तन्तु ही पट बनकर
पट कहलाते हैं,
पटनामक द्रव्यान्तर उत्पन्न नहीं होता ।+++(5)+++
जहाँ दोनों मतों में माने हुये पदार्थों से ही काम चल जाता है,
वहाँ अन्य पदार्थ की कल्पना करना उचित नहीं है ।
वैशेषिकों ने अवयविनामक द्रव्यान्तर को साधने के लिये
जिन युक्तियों को प्रस्तुत किया है,
वे सारहीन हैं ।
नीलमेघः - पदार्थान्तरोत्पत्तिवादः
तथाहि — वैशेषिकों ने कहा है कि
तन्तुओं बहुत्वसंख्या है,
वस्त्र में एकत्वसंख्या है ।
इस प्रकार इनमें संख्याभेद है ।
तन्तुओं का नाम तन्तु है,
वस्त्र का नाम वस्त्र है,
इस प्रकार इनके नामों में भेद है ।
तन्तुओं से होने वाला काम दूसरा है,
वस्त्र से होने वाला काम उससे भिन्न है ।
इस प्रकार इनके व्यवहार में भेद है ।
इस प्रकार बहुत से भेद हैं ।
इन भेदों के कारण
यह मानना पड़ता है कि
तन्तुद्रव्य से वस्त्रद्रव्य दूसरा द्रव्य है ।
नीलमेघः - सत्कार्यवाद-प्रतिष्ठा
[[८१]]
वैशेषिकों की ये युक्तियाँ सारहीन हैं
क्योंकि तन्तुद्रव्य और वस्त्रद्रव्य एक होने पर भी
नूतनावस्था भिन्न होने के कारण
उनमें नामभेद,
संख्या भेद और व्यवहारभेद उपपन्न हो जाते हैं।
उनसे द्रव्यान्तर की कल्पना नहीं हो सकती ।
किंच, तन्तुगण ही पटरूप से दिखाई देते हैं,
वहाँ दूसरा द्रव्य दिखाई नहीं देता ।
वहाँ द्रव्यान्तर की कल्पना करना प्रत्यक्षविरुद्ध है ।
इस विवेचन से यही सिद्ध होता है कि
कारणद्रव्य ही नूतन अवस्था को प्राप्त कर
कार्य बन जाता है । वहाँ
नया द्रव्य उत्पन्न नहीं होता । वैशेषिकों का सत्कार्यवाद असमीचीन है ।
औपनिषद सत्कार्यवाद ही समीचीन है ।
श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
उपनिषद्वर्णित असत्कार्यवाद के निराकरण की यह व्याख्या की कि
वैशेषिकों द्वारा वर्णित असत्कार्यवाद का यहाँ निराकरण किया गया है।
मूलम्
कथम् अवयवि द्रव्यान्तरं निरस्यत इति चेत् - कारणगतावस्थान्तरयोगस्य द्रव्यान्तरोत्पत्तिवादिनः संप्रतिपन्नस्यैवैकत्वनामान्तरादेर् उपपादकत्वाद् द्रव्यान्तरादर्शनाच् चेति कारणम् एवावस्थान्तरापन्नं कार्यम् इत्य् उच्यत इत्य् उक्तम् ।
शून्यवादनिराकरणं न
पूर्वपक्षः
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु निर्-+++(रज्जु-सदृश-)+++अधिष्ठान-+++(सर्प-निभ-)+++भ्रमासंभव-ज्ञापनाय
+असत्कार्यवादनिरासः क्रियते ।
नीलमेघः
यहाँ पर अद्वैतवादी कहते हैं कि
यहाँ पर वैशेषिकवर्णित असत्कार्यवाद का खण्डन
श्रुति का अभिप्रेत नहीं ।
किन्तु माध्यमिक बौद्धों ने
जिस असत्कार्यवाद का प्रतिपादन किया है,
उस असत्कार्यवाद का निराकरण
श्रुति का अभिप्रेत है ।
माध्यमिक ने यह माना है कि
शून्य ही तत्त्व है।
सभी पदार्थ शून्य हैं ।
कारण असत् है,
तथा कार्य भी असत् है ।
जिस प्रकार भ्रम में
एक पदार्थ दूसरे के रूप में दिखाई देता है
उसी प्रकार ही
सभी पदार्थ असत् होते हुये
सत् के रूप में
भ्रम से दिखाई देते हैं ।
यही माध्यमिकसंमत असत्कार्यवाद है ।
श्रुति इसी असत्कार्यवाद का निराकरण करती है।
मूलम्
ननु निरधिष्ठानभ्रमासंभवज्ञापनायासत्कार्यवादनिरासः क्रियते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा ह्य् एकं चिद्-रूपं सत्यम् एव
+अविद्याच्छादितं
जगद्-रूपेण विवर्ततइत्य्
अ-विद्याश्रयत्वाय
मूल-कारणं सत्यम्इत्य् अभ्युपगन्तव्यम्,
इत्य् असत्कार्यवादनिरासः ।
नीलमेघः
श्रुतिसंमत सिद्धान्त यह है कि
एक चिद्रूप ब्रह्म सत्य है,
वही अविद्या से आच्छादित होकर
जगत् के रूप में भासता है ।
अविद्या का आश्रय बनने के लिये
एक सत्य मूल-कारण की आवश्यकता है ।
वह सत्य मूल-कारण ही ब्रह्म है ।
यह श्रुतिसंगत सिद्धान्त है ।
नीलमेघः - सत्यापेक्षा
[[८२]]
यह समीचीन है क्योंकि कम से कम
एक वस्तु तो सत्य होनी चाहिये ।
भ्रम में भी एक वस्तु सत्य अवश्य है ।
शुक्तिरजत भ्रम में शुक्ति सत्य है,
रजत आरोपित है रज्जुसर्पभ्रम में रज्जु सत्य है,
सर्प अध्यस्त है ।
इन भ्रमों में अधिष्ठान बनने वाले
शुक्ति और रजत इत्यादि पदार्थ सत्य हैं ।
आरोपित होने वाले रजत और सर्प इत्यादि पदार्थ ही मिथ्या होते हैं ।
भ्रम में,
भले ही अध्यस्त पदार्थ मिथ्या बने,
किन्तु अधिष्ठान तो सत्य होना चाहिये ।
यदि भ्रम में अधिद्ष्ठान को भी मिथ्या माना जाय
तो अनवस्था दोष होगा ।
मिथ्या बनने वाला वह अधिष्ठान भी किसी दूसरे अधिष्ठान पर अध्यस्त होगा,
वह दूसरा अधिष्ठान भी किसी तीसरे अधिष्ठान पर अध्यस्त होगा,
अधिष्ठान को मिथ्या मानने पर
इस प्रकार अनवस्था होगी।
इस अनवस्था दोष से त्राण पाने के लिये
यह मानना होगा कि भ्रम में अधिष्ठान सत्य होना चाहिये ।
सत्य अधिष्ठान के विना
भ्रम हो ही नहीं सकता
अतएव उपनिषत्सिद्धान्त में
जगद्-भ्रम में अधिष्ठान बनने वाले ब्रह्म को
सत्य मानकर आरोपित जगत् भर को
मिथ्या माना गया है ।
नीलमेघः - उपनिषद्-विरोधः
असत्कार्यवाद को मानने वाले शून्यवादी माध्यमिक
यह मानते हैं कि
विना सत्य अधिष्ठान के ही
भ्रम होता रहता है,
अधिष्ठान भी अध्यस्त है,
वह सत्य नहीं है
अतएव शून्य ही तत्त्व होता है ।
यह माध्यमिकसंमत असत्कार्यवाद,
अधिष्ठान को सत्य मानने वाले उपनिषत्सिद्धान्त से
मेल नहीं खाता ।
अतएव उपनिषद् ने उपर्युक्त माध्यमिकसंगत असत्कार्यवाद का
खण्डन किया है ।
यह खण्डन आवश्यक है,
इसके विना उपनिषत् सिद्धान्त टिक नहीं सकता ।
उपनिषद् ने वैशेषिक-संमत असत्कार्यवाद का खण्डन नहीं किया है,
किन्तु माध्यमिकसंमत असत्कार्यवाद अर्थात् शून्यवाद का खण्डन किया है।
यह अद्वैतियों का कथन है।
इस पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा है कि उपनिषद् ने वैशेषिकसंमत असत्कार्यवाद का ही खण्डन किया है।
मूलम्
तथा ह्य् एकं चिद्रूपं सत्यम् एवाविद्याच्छादितं जगद्रूपेण विवर्तत इत्य् अविद्याश्रयत्वाय मूलकारणं सत्यम् इत्य् अभ्युपगन्तव्यम् इत्य् असत्कार्यवादनिरासः ।
उत्तरपक्षः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतद् एवम् …
नीलमेघः
अद्वैतियों ने यह सिद्धान्त माना है कि एक ब्रह्म ही सत्य है,
वह अविद्या से आच्छादित होकर जगत् के रूप में भासता है,
जगत् मिथ्या है ।
यदि यह सिद्धान्त श्रुति का विवक्षित होता
तभी माध्यमिक-संमत असत्कार्यवाद का निरास
श्रुति का विवक्षित हो सकता है।
सूक्ष्म दृष्टि से विवेचना करने पर
विदित होता है कि
अद्वैतियों के द्वारा वर्णित
उपर्युक्त सिद्धान्त
श्रुति का विवक्षित नहीं है।
मूलम्
नैतद् एवम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(यतः-)+++ “एक-विज्ञानेन सर्व-विज्ञान”-प्रतिज्ञा-दृष्टान्त-मुखेन
सत्-कार्य-वादस्यैव प्रसक्तत्वाद् +++(नैवम्)+++ इत्य् उक्तम्
+++(यतो माध्यमकोक्त-शून्यवादस्य प्रसक्तिर् एव नास्ति)+++।
नीलमेघः
श्रुति ने आरम्भ में एकविज्ञान से सर्वविज्ञान की प्रतिज्ञा का वर्णन किया है।
नीलमेघः - शाङ्करासङ्गतिः
यह प्रतिज्ञा अद्वैतिमत से
मेल नहीं खाती।
अद्वैतमत में यह माना जाता है कि
एकमात्र ब्रह्म सत्य है
तथा जगत् मिथ्या है।
सत्य ब्रह्म के समझने पर
मिथ्या जगत् विदित नहीं हो सकता ।
सत्य-अधिष्ठान रज्जु को समझने पर
उसमें अध्यस्त होने वाले सर्प,
+++(मृग-तृष्णिकायाम्)+++ भूविदलन और जलधारा इत्यादि
लोक में विदित नहीं होते ।
पूर्वोक्त प्रतिज्ञा ही अद्वैतमत में नहीं घटती
इतनी बात नहीं,
किन्तु दृष्टान्त भी नहीं घटता ।
यहाँ पर दृष्टान्त का वर्णन इस प्रकार है कि
मृत्तिका को ज्ञात करने पर मृत्तिका के विकार घट और शराव आदि ज्ञात होते हैं ।
यह दृष्टान्त अद्वैतमत में नहीं घटता
क्योंकि श्वेतकेतु जिस प्रकार रज्जु को सत्य और उसमें अध्यस्त होने वाले सर्प आदि को मिथ्या समझ सकता है
उस प्रकार मृत्तिका को सत्य और घट शराव आदि को मिथ्या नहीं समझ सकता,
तदर्थ उसके पास न कोई प्रमाण ही है न युक्ति ही ।
वह तो मृत्तिका और घट आदि को सत्य ही समझ सकता है जैसे हम लोग समझते हैं ।
[[८३]]
अद्वैतियों के मत के अनुसार
यहाँ रज्जुसर्प और शुक्तिरजत आदि दृष्टान्तों का वर्णन होना चाहिये ।
वह तो है नहीं ।
इस प्रकार श्रुतिवर्णित प्रतिज्ञा और दृष्टान्त
दोनों अद्वैतमत में नहीं घटते ।
इससे यह सिद्ध होता है कि
उपर्युक्त अद्वैतसिद्धान्त श्रुति का संमत नहीं
तथा माध्यमिकसंमत असत्कार्यवाद का खण्डन भी श्रुति का संमत नहीं है।
नीलमेघः - वैशेषिक-वाद-प्रसक्तिः
वैशेषिकवर्णित असत्कार्यवाद का निराकरण ही
श्रुतिसंमत हो सकता है।
श्रुति ने एकविज्ञान से होने वाले सर्वविज्ञान की प्रतिज्ञा
एवं मृद्विकार दृष्टान्त को कहकर
सत्कार्यवाद का इस प्रकार समर्थन किया है कि
कारणद्रव्य ही दूसरी अवस्था को प्राप्त कर
कार्यद्रव्य बन जाता है,
कारणद्रव्य और कार्यद्रव्य एक है,
कारणद्रव्य को समझने पर
कार्यद्रव्य समझा जाता है ।
उपयुक्त सत्कार्यवाद से
वैशेषिकवरिणत असत्कार्यवाद विरोध रखता है
जिसमें कारणद्रव्य से
कार्यद्रव्य को भिन्न माना जाता है ।
विरुद्ध होने के कारण
वैशेषिकसंमत असत्कार्यवाद का निराकरण आवश्यक हो जाता है ।
अतएव श्रुति ने
वैशेषिकवर्णित असत्कार्यवाद का ही
यहाँ निराकरण किया है।
श्रुति का इस प्रकार ही अर्थ करना चाहिये
तभी सभी श्रुतिवाक्यों का समन्वय हो सकता है।
मूलम्
एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञादृष्टान्तमुखेन सत्कार्यवादस्यैव प्रसक्तत्वाद् इत्य् उक्तम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(यतश् च, वक्ष्यमाण-रीत्या -)+++ भवत्-पक्षे +++(सुनिराकृते)+++ निर्-अधिष्ठान-भ्रमासंभवस्य दुर्-उपपादत्वाच् च
+++(नास्मत् पक्षे)+++।
नीलमेघः
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने
अद्वैतियों के प्रति यह कहा है कि
आप लोगों ने माध्यमिकसंमत शून्यवाद का निराकरण करते हुये
यह जो कहा कि
सत्य अधिष्ठान को लेकर ही भ्रम हो सकते हैं
विना अधिष्ठान के भ्रम हो नहीं सकता,
यह युक्ति निःसार है ।
मूलम्
भवत्पक्षे निरधिष्ठानभ्रमासंभवस्य दुरुपपादत्वाच्च ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य हि
चेतन-गत-दोषः पारमार्थिको
दोषाश्रयत्वं च पारमार्थिकं
तस्य पारमार्थिक-दोषेण युक्तस्य
+अपारमार्थिक-गन्धर्व-नगरादि-दर्शनम् उपपन्नम्।
नीलमेघः
लोक में भ्रम ऐसे स्थल में भी
देखे गये हैं
जहाँ चेतन में कोई सत्य दोष हो,
दोषसम्बन्ध भी सत्य हो,
तथा अधिष्ठान भी सत्य हो ।
वहाँ सत्य दोष से युक्त उस चेतन को सत्य अधिष्ठान में
गन्धर्वनगर इत्यादि मिथ्या पदार्थों का भ्रम होता है ।
(कभी २ आकाशस्थ मेघमण्डल में दिखाई देने वाला नगर
गन्धर्वनगर कहलाता है ।)
मूलम्
यस्य हि चेतनगतदोषः पारमार्थिको दोषाश्रयत्वं च पारमार्थिकं तस्य पारमार्थिकदोषेण युक्तस्यापारमार्थिकगन्धर्वनगरादिदर्शनम् उपपन्नम्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य तु +++(मिथ्या-वादि-निभस्य)+++
दोषश् चापारमार्थिको
दोषाश्रयत्वं चापारमार्थिकं
तस्यापारमार्थिकेनाप्य् आश्रयेण
तद् +++(अपारमार्थिक-गन्धर्व-नगरादि-दर्शनम्)+++ उपपन्नम्
इति भवत्-पक्षे न निरधिष्ठानभ्रमासंभवः ।
नीलमेघः
आप लोगों के मत में दोष मिथ्या है
तथा दोष सम्बन्ध भी मिथ्या है
इस मिथ्या दोष के बल से
भ्रम आप लोगों के मत में होता है ।
ऐसी स्थिति में
मिथ्या अधिष्ठान को लेकर भी भ्रम
आप लोगों के मत में हो सकता है ।
‘भ्रम के लिये सत्य अधिष्ठान की आवश्यकता है’
यह अर्थ आप लोगों के मत के अनुसार सिद्ध नहीं हो सकता ।
यदि आप लोगों के प्रति
माध्यमिक यह कहें कि
जिस प्रकार आप लोगों के मत में
मिथ्या दोष के बल से
भ्रमोत्पत्ति मानी जाती है
उसी प्रकार मिथ्या अधिष्ठान को लेकर भी
भ्रम हो सकता है,
अधिष्ठान सत्यता की आवश्यकता नहीं
तो आप लोग माध्यमिक को क्या उत्तर देंगे ?
कहने का भाव यह है कि
आप लोगों के मत के अनुसार
विचार करने पर
यही फलित होता है कि
सत्य अधिष्ठान न होने पर
भ्रम उसी प्रकार घट सकता है
जिस प्रकार दोष सत्य न होने पर भी
भ्रम होता है ।
माध्यमिक के शून्यवाद का निराकरण करने के लिये
आप लोगों के द्वारा प्रस्तावित युक्ति
आप लोगों के सिद्धान्त से मेल नहीं रखती ।
आप लोगों के मत के अनुसार
निरधिष्ठान भ्रम हो सकता है ।
आप लोगों की युक्ति सारहीन होने के कारण
यह मानना पड़ता है,
कि यहाँ वैशेषिकसंमत असत्कार्यवाद का निराकरण ही
श्रुति का अभिप्रेत है,
माध्यमिकसंमत असत्कार्यवाद का निराकरण श्रुति का अभिप्रेत नहीं ।
[[८४]]
मूलम्
यस्य तु दोषश् चापारमार्थिको दोषाश्रयत्वं चापारमार्थिकं तस्यापारमार्थिकेनाप्य् आश्रयेण तद् उपपन्नम् इति भवत्पक्षे न निरधिष्ठानभ्रमासंभवः ।