०९ "सद् एव" इत्यादाव् एवकारद्वयादि

विश्वास-प्रस्तुतिः

सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद्
एकम् एवाद्वितीयम्

इत्य् अत्र
“सद् एवैकम् एवे"त्य् अवधारण-द्वयेनाद्वितीयम् इत्य् अनेन च
सन्-मात्रातिरेकि–स-जातीय-विजातीयाः सर्वे विशेषा निषिद्धा
इति प्रतीयत इति चेन्नैतद् एवम् ।

नीलमेघः

आगे अद्वैत-वादियों ने
सद्विद्या के अन्तर्गत “सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्”
इस श्रुतिवाक्य को प्रस्तुत कर
यह कहा है कि
यह वाक्य ब्रह्मव्यतिरिक्त
सभी भेदों का निषेध करता है ।

इस वाक्य का अर्थ है कि
यह विश्व पहले
अर्थात् प्रलयकाल में सत् ही था,
एक ही था, तथा अद्वितीय था ।
इस वाक्य में “सदेव” में
एव अवधारण अर्थात् एवकार है
जो “ही” इस अर्थ का वाचक है।

दूसरा " एकमेव” में एक अवधारण है ।
तीसरा “अद्वितीयम् " पद है।
इनसे सन्मात्र से व्यतिरिक्त
वे सभी विशेष
निषिद्ध होते हैं
जो सजातीय और विजातीय इत्यादि रूप से विविध होते हैं ।

इन सब विशेषों का निषेध करने से
यह फलित होता है कि
निर्विशेष ब्रह्म ही सत्य है,
तथा सभी विशेष मिथ्या है।
यह अद्वैतियों का वाद है ।

मूलम्

सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद् एकम् एवाद्वितीयम् एवाद्वितीयम् इत्य् अत्र सद् एवैकम् एवेत्य् अवधारणद्वयेनाद्वितीयम् इत्य् अनेन च सन्मात्रातिरेकिसजातीयविजातीयाः सर्वे विशेषा निषिद्धा इति प्रतीयत इति चेन्नैतद् एवम् ।

सद् एव सौम्येदम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्य-कारण-भावावस्था-द्वयावस्थितस्य
+एकस्य वस्तुन एकावस्थावस्थितस्य ज्ञानेन
+अवस्थान्तरावस्थितस्यापि
वस्त्व्-ऐक्येन ज्ञाततां
दृष्टान्तेन दर्शयित्वा
श्वेतकेतोर् अप्रज्ञातं
सर्वस्य ब्रह्मकारणत्वं च वक्तुं
“सद् एव सोम्येदम्” इत्य् आरब्धम् ।

नीलमेघः

इसका निराकरण करते हुये
श्री भाष्यकार स्वामी जी ने कहा है कि
यह बात सर्वमान्य है कि
दृष्टान्तवाक्य के अनुसार
दार्ष्टान्तिक वाक्य का अर्थ करना चाहिये ।
यहाँ पर “यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन”..इत्यादि दृष्टान्त वाक्य है
जिसका भाव यह है कि
जिस प्रकार कारणावास्था अर्थात् पिण्डावस्था में अवस्थित मृत्तिका को समझने से
कार्यावस्था अर्थात् घटत्व और शरावत्व इत्यादि अवस्थाओं में अवस्थित मृत्तिका एक द्रव्य होने के कारण विदित मानी जाती है,
उसी प्रकार ही कार्यावस्था और कारणावस्थारूपी दोनों अवस्थाओं को प्राप्त होने वाली
एक वस्तु जहाँ होती है,
वहाँ एक अवस्था में अवस्थित को जानने पर
दूसरी अवस्था में अवस्थित वह वस्तु
एक द्रव्य होने के कारण
विदित हो जाती है ।
यह दृष्टान्त का भाव है।

इसके अनुसार “सदेव सोम्य” इत्यादि वाक्य का अर्थ करना चाहिये ।
वैसा अर्थ किया जा सकता है ।
श्वेतकेतु ने [[७५]]
इस बात को जाना ही नहीं था कि
यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है,
तथा ब्रह्म इसका कारण है ।
इस बात को बतलाने के लिये ही
पिताजी ने “सदेव सोम्येदम्” इत्यादि कहा था ।
इस वाक्य में विद्यमान विविध पदों से
विविध विशेष ही सिद्ध होते हैं
निर्विशेष ब्रह्म सिद्ध नहीं होता ।

मूलम्

कार्यकारणभावावस्थाद्वयावस्थितस्यैकस्य वस्तुन एकावस्थावस्थितस्य ज्ञानेनावस्थान्तरावस्थितस्यापि वस्त्वैक्येन ज्ञाततां दृष्टान्तेन दर्शयित्वा श्वेतकेतोर् अप्रज्ञातं सर्वस्य ब्रह्मकारणत्वं च वक्तुं सद् एव सोम्येदम् इत्य् आरब्धम् ।

अग्रे सद् एवासीत्

विश्वास-प्रस्तुतिः

“इदम् अग्रे सद् एवासीद्” इति -
अग्र इति कालविशेषः ।

मूलम्

इदम् अग्रे सद् एवासीद् इति -
अग्र इति कालविशेषः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदंशब्दवाच्यस्य प्रपञ्चस्य
सद्-आपत्ति-रूपां क्रियां,
सद्-द्रव्यतां
च वदति ।

नीलमेघः

तथाहि “इदमग्रे सदेवासीत्” इस वाक्य खण्ड से
यह बतलाया जाता है कि
यह प्रपञ्च पहले, अर्थात् कालविशेष में,
सत् ही था ।
वह कालविशेष प्रलयकाल है ।
इस वाक्य से कालविशेष सिद्ध होता है ।

इस प्रपञ्च को सत् बनकर रहना एक क्रिया है ।
वह क्रिया भी इस वाक्य से सिद्ध होती है ।

सूक्ष्मचिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म द्रव्य ही सत् है ।
इससे इस प्रपञ्च का
सूक्ष्मंचिदचिद्विशिष्ट सद्द्रव्य के रूप में
बने रहना भी
सिद्ध होता है ।
इस प्रकार
तीन विशेष
इस वाक्य से वर्णित होते हैं ।

मूलम्

इदंशब्दवाच्यस्य प्रपञ्चस्य सदापत्तिरूपां क्रियां सद्रव्यतां च वदति ।

एकम् एव

विश्वास-प्रस्तुतिः

“एकम् एवे"ति चास्य नाना-नाम-रूप-विकार-प्रहाणम् ।

नीलमेघः

यहाँ पर यह शंका होती है कि
अब भी अर्थात् सृष्टिकाल में भी
जगत् सत् है ।
यदि प्रलयकाल में भी यह जगत् सत् है
तो सृष्टिकाल से प्रलयकाल में क्या विशेषता है ।
इस शंका का समाधान करने के लिये ही
“एकमेव " ऐसा कहा गया है ।
इसका भाव यह है कि
प्रलयकाल में यह जगत् एक था
अर्थात् नाना प्रकार के नामरूप विकारों को छोड़कर
एक होकर रहता था ।
वही जगत् सृष्टिकाल में नाना प्रकार
नामरूप विकारों से युक्त होकर
बहु बनकर रहता है ।
सृष्टिकाल से प्रलयकाल में
यही विशेषता है कि
उस समय जगत् नामरूपविभाग को छोड़कर
एक होकर रहता है ।
यह विशेषता “एकमेव " से बतलायी गई है।

मूलम्

एकम् एवेति चास्य नानानामरूपविकारप्रहाणम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन् प्रतिपादिते
ऽस्य जगतः
सद्-उपादानता प्रतिपादिता भवति ।

नीलमेघः

इससे फलित होता है कि
इस जगत् का उपादान कारण सत् है,
यह जगत् सत् का कार्य है।

पूर्वावस्थाविशिष्टवस्तु उस अवस्था को छोड़कर
जब उत्तरावस्था को प्राप्त होता
है,
तब उत्तरावस्थाविशिष्ट कार्य तथा पूर्वावस्थाविशिष्ट उपादान कारण माना जाता है ।
सत् द्रव्य
पूर्वावस्था अर्थात् प्रलयकालिक एकत्वावस्था को छोड़कर
सृष्टिकाल में बहुत्वावस्था को प्राप्त होता है ।
बहुत्वावस्थाविशिष्ट सद् द्रव्य ही यह जगत् है
यही कार्य हैं ।
इसका कारण एकत्वावस्थाविशिष्ट सत् है ।
इससे एकत्वावस्थाविशिष्ट सत् का उपादान कारणत्व
तथा बहुत्वावस्थाविशिष्ट इस प्रपञ्च का कार्यत्व व्यक्त होता है ।
इस कार्यकारणभाव को व्यक्त करने के लिये ही “एकमेव” कहा गया है ।

मूलम्

एतस्मिन् प्रतिपादिते ऽस्य जगतः सद्-उपादानता प्रतिपादिता भवति ।

अद्वितीयः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यत्रोपादानकारणस्य स्व-व्यतिरिक्ताधिष्ठात्र्-अपेक्षा-दर्शने ऽपि

सर्व-विलक्षणत्वाद्
अस्य सर्वज्ञस्य ब्रह्मणः
सर्व-शक्ति-योगो न विरुद्ध

इत्य् अद्वितीय-पदम्
अधिष्ठात्र्-अन्तरं निवारयति - +++(5)+++
सर्व-शक्ति-युक्तत्वाद् एव ब्रह्मणः ।

नीलमेघः

यहाँ पर यह शंका होती है कि लोक में देखा जाता है कि
उपादान कारण बनने वाली वस्तु अपने से व्यतिरिक्त
निमित्त कारण की अपेक्षा रखती है ।
उदाहरणार्थ - घट आदि के रूप में परिणत होने वाली मृत्तिका घट आदि का उपादान कारण है ।
वह मृत्तिका घट आदि के रूप में परिणत होने के लिये कुलाल की अपेक्षा रखती है ।
कुलाल नहीं हो तो मृत्तिका घट आदि के रूप में अपने आप परिणत नहीं हो सकती ।
वह कुलाल निमित्त कारण है,
वही अधिष्ठाता कहलाता है वह मृत्तिका को अधिष्ठित करके उसे घट रूप में परिणत कर देता है ।
क्या प्रकृत में भी उपादान कारण बनने वाली सद्वस्तु दूसरे किसी निमित्त कारण की अपेक्षा रखती है ?
इस शंका का समाधान करने के लिये ही “अद्वितीयम्” ऐसा कहा गया है।

इसका भाव यह है कि
यहाँ दूसरा कोई निमित्त कारण नहीं है,
सत् ब्रह्म ही निमित्त कारण है।

लोक में उपादान कारण दूसरे निमित्त कारण की अपेक्षा इसलिये रखता है,
कि वह स्वयं जड है,
इसलिये वहाँ दूसरे चेतनरूपी निमित्त कारण की अपेक्षा होती है ।७६

प्रकृत में तो जो सूक्ष्मचिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म सत् कहा गया है, वह सर्वज्ञ है, परमचेतन है ।
यहाँ दूसरे निमित्तकारण की आवश्यकता नहीं ।
वही संकल्प करके अपने को जगत् के रूप में परिणत कर सकता है ।
यह ब्रह्म सर्वविलक्षणवस्तु है।
इसमें वैसी सब प्रकार की शक्तियाँ निहित हैं जो अन्यत्र नहीं देखी गयी हैं ।
जिस प्रकार अग्नि विलक्षणवस्तु होने के कारण
जल आदि में दीखने में न आने वाली उष्णता उसमें मानी जाती है,
उसी प्रकार परब्रह्म विलक्षणवस्तु होने के कारण,
अन्यत्र दीखने में न आने वाली सर्वशक्तियाँ
उसमें मानी जा सकती हैं
तथा माननी भी चाहिये ।

वह परब्रह्म सूक्ष्मचेतनाचेतनविशिष्ट होने के कारण
उपादान कारण बन जाता है
तथा संकल्पविशिष्ट होकर निमित्तकारण बन जाता है ।
यहाँ दूसरे किसी निमित्तकारण की आवश्यकता नहीं ।

यह अद्वितीयपद का भाव है ।
इससे जगत् का अभिन्न निमित्तोपादानत्व फलित होता है ।

मूलम्

अन्यत्रोपादानकारणस्य स्वव्यतिरिक्ताधिष्ठात्रपेक्षादर्शनेऽपि सर्वविलक्षणत्वादस्य सर्वज्ञस्य ब्रह्मणः सर्वशक्तियोगो न विरुद्ध इत्यद्वितीयपदमधिष्ठात्रन्तरं निवारयति - सर्वशक्तियुक्तत्वाद् एव ब्रह्मणः ।

उपादान-निमित्त-कारणैक्य-दर्शन-विधी

विश्वास-प्रस्तुतिः

काश्चन श्रुतयः प्रथमम् उपादानकारणत्वं प्रतिपाद्य निमित्तकारणम् अपि तद् एवेति प्रतिपादयन्ति - यथेयं श्रुतिः ।

विस्तारः (द्रष्टुं नोद्यम्)

अभिन्न निमित्तोपादानत्व की प्रतिपादक श्रुतियों की व्याख्या
प्रन्याश्च श्रुतयो ब्रह्मणो निमित्तकारणत्वमनुज्ञाय प्रस्यैवोपादानतादि कथमिति परिचोद्य सर्वशक्तियुक्तत्वादुपादानकारणं तदितराशेषीपकरणं च ब्रह्म वेति परिहरन्ति, “किंस्विद्वनं क उ स वृक्ष प्रासीद्यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः । मनीषिरणो मनसा पृच्छते दुतद्यदध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन् । ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष प्रासीद्यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः । मनीषिणो मनसा विब्रवीमि वो ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्” इति सामान्यो दृष्टेन विरोधमाशङ्कय ब्रह्मणः सर्वविलक्षणत्वेन परिहार उक्तः ।

आगे श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
यह कहा है कि
अनेक श्रुतिवाक्यों से
जगत् का उपादानकारण
एवं निमित्तकारण एक सिद्ध होता है ।

ब्रह्म सर्वशक्तिसम्पन्न है ।
उसमें उपादानकारण बनने की शक्ति है,
तथा निमित्त कारण बनने की भी शक्ति है।
कई श्रुतियाँ प्रारम्भ में जगत् का उल्लेख करके बाद में ब्रह्म का वर्णन करती हैं।
ये श्रुतियाँ प्रथमतः ब्रह्म को जगत् का उपदानकारण सिद्ध करती हैं,
बाद में ब्रह्म को जगत् का निमित्तकारण कहती हैं ।
सद्विद्या के उपर्युक्त “सदेव सोम्येदम्” इत्यादि वाक्य ने
प्रथमतः “एकमेव” कहकर ब्रह्म को उपादानकारण कहा,
बाद में “प्रद्वितीयम्” कहकर ब्रह्म को निमित्तकारण कहा ।

मूलम्

काश्चन श्रुतयः प्रथमम् उपादानकारणत्वं प्रतिपाद्य निमित्तकारणम् अपि तद् एवेति प्रतिपादयन्ति - यथेयं श्रुतिः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्याश् च श्रुतयो
ब्रह्मणो निमित्त-कारणत्वम् अनुज्ञाय
+अस्यैवोपादानतादि कथम् इति परिचोद्य,
सर्व-शक्ति-युक्तत्वाद् उपादान-कारणं
तद्-इतराशेषोपकरणं च
ब्रह्मैवेति परिहरन्ति

नीलमेघः

अन्य श्रुतियाँ जो
प्रथमतः ब्रह्म का वर्णन करने वाली हैं वे,
ब्रह्म चेतन होने के कारण
प्रथमतः ब्रह्म को निमित्तकारण कहकर
बाद में ब्रह्म को उपादानकारण सिद्ध करती है ।

मूलम्

अन्याश् च श्रुतयो ब्रह्मणो निमित्तकारणत्वम् अनुज्ञायास्यैवोपादानतादि कथम् इति परिचोद्य, सर्वशक्तियुक्तत्वाद् उपादानकारणं तदितराशेषोपकरणं च ब्रह्मैवेति परिहरन्ति

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंस्विद् वनं, क उ स वृक्ष आसीद्
यतो द्यावापृथिवी निष्टक्षुर्

मणीषिणो मनसा पृच्छतेद् उ तद्
यद् अध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन् ।

ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष आसीद्
यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुर्

मनीषिणो मनसा विब्रवीमि
वः ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्न्

मूलम्

किंस्विद् वनं क उ स वृक्ष आसीद् यतो द्यावापृथिवी निष्टक्षुर्मणीषिणो मनसा पृच्छतेद् उ तद्यद् अध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन् । ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष आसीद् यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुर् मनीषिणो मनसा विब्रवीमि वः ब्रह्माध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन्न्

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति सामान्यतो दृष्टेन विरोधम् आशङ्क्य
ब्रह्मणः सर्व-विलक्षणत्वेन
परिहार उक्तः ।

नीलमेघः

[[७७]]

उदाहरण - “कि स्विद्वनम्” इत्यादि श्रुतिवाक्य ब्रह्म की निमित्तकारणता का स्वीकार कर इस शंका को—
कि ब्रह्म उपादानकारण इत्यादि कैसे बन सकता है उठाकर
इस प्रकार समाधान करती है कि
सर्वशक्तिसम्पन्न होने के कारण ब्रह्म उपादानकारण
एवं अन्यान्य उपकरण भी बन जाता है ।

इस जगत् का उपादानकारण निमित्तकारण एवं सहकारिकारण सब कुछ ब्रह्म ही है ।

“किस्विद्वनम्” इत्यादि श्रुतिवाक्य इस प्रकार है कि

किंस्विद्वनं क उ स वृक्ष आसीद्यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः । मनीषिणो मनसा पृच्छते दुतद्यदध्यतिष्ठद्भुवनानि धारयन् ॥
ब्रह्म वनं ब्रह्म स वृक्ष आसीद्यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः । मनीषिणो मनसा विब्रवीमि वो ब्रह्माध्यतिष्ठद्भुवनानि धारयन् ॥

इन मन्त्रों में प्रथम मन्त्र में लोकरीति से यह मानकर -
कि जगत के निर्माण में भी निमित्त उपादान एवं सहकारी
ऐसे कारण भिन्न २ होना चाहिये -
किये गये प्रश्न का वर्णन है ।

दूसरे मन्त्र में
उपर्युक्त प्रश्न का इस प्रकार उत्तर दिया गया है कि
सर्वविलक्षणवस्तु होने के कारण
ब्रह्म एक ही सर्वविध कारण बन जाता है ।

इन मन्त्रों में द्यावापृथिवी शब्द - जो द्युलोक और पृथिवीलोक का वाचक है—
सम्पूर्ण जगत् का निर्देशक है ।
सम्पूर्ण जगत् को काष्ठों से बने हुये पदार्थ के समान मानकर
ये मन्त्र प्रवृत्त हैं ।

मन्त्रों का अर्थ यह है कि

हे विद्वानों
आप लोग मन से सोचकर यही प्रश्न करते हैं कि वह वन कौन है ?
अर्थात् जगन्निर्माण में आधार बनने वाला कारण कौन है ?

वह वृक्ष कौन है ?
अर्थात् जगत् का उपादानकारण कौन है ?

जिससे इस द्यावापृथिव्यात्मक सम्पूर्ण जगत् का निर्माण ईश्वर ने किया है ।

तथा भुवनों के धारण करने वाले ईश्वर ने
जिस सहकारिकारण पर अधिष्ठान किया होगा,
वह सहकारिकारण कौन है ?

तात्पर्य यह है कि ब्रह्म अर्थात् ईश्वर जगत् का निमित्तकारण है
यह मानी हुई बात है ।
किन्तु लोक में उपादानकारण सहकारिकारण एवं निमित्तकारण भिन्न २ देखे गये हैं ।
वैसे ही जगत् के वे कारण भी भिन्न २ होना चाहिये ।
वे कौन हैं ।
इस प्रश्न का वर्णन प्रथम मन्त्र में है द्वितीय मन्त्र का अर्थ उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर है जो इस प्रकार है कि

हे विद्वानों,
मैं मन से विचार कर
आप लोगों को उत्तर बताता हूँ कि
ब्रह्म ही वन है अर्थात् जगत् का आधारकारण है ।
ब्रह्म ही वह वृक्ष है अर्थात् जगत् का उपादानकारण है,
जिससे ईश्वर ने द्यावापृथिव्यात्मक जगत् का निर्माण किया है ।
भुवनों के धारण करने वाले ईश्वर ने
जिस सहकारिकारण पर अधिष्ठान किया है
वह भी ब्रह्म है।
अधिष्ठाता ईश्वर भी ब्रह्म है,
उनके द्वारा अधिष्ठेय सहकारिकारण भी ब्रह्म है ।
तात्पर्य यह कि ब्रह्म सर्वविलक्षण पदार्थ है
अतएव वह जगत् का सर्वविध कारण बन जाता है।
इस प्रकार कहकर
इन मन्त्रों से उपादानकारण और निमित्तकारण की एकता ही सिद्ध की गई है ।

मूलम्

इति सामान्यतो दृष्टेन विरोधम् आशङ्क्य ब्रह्मणः सर्वविलक्षणत्वेन परिहार उक्तः ।

सविशेष-ब्रह्मणि तात्पर्यम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः “सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद्” इत्य् अत्राप्य्
“अग्र” इत्याद्य्-अनेक-विशेषा
ब्रह्मणः प्रतिपादिताः ।

नीलमेघः

अद्वैप्तियों ने “सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्” इस श्रुतिवाक्य को प्रमाणरूप में रखकर
निर्विशेषब्रह्म को सिद्ध करना चाहा।
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
उस वाक्य के अर्थ पर पूर्णविवेचना की ।
उपसंहार में आपने कहा कि
इस वाक्य में भी “अग्रे” इत्यादि शब्दों से
ब्रह्म के अनेक विशेष ही प्रतिपादित हुये हैं,

मूलम्

अतः सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद् इत्य् अत्राप्य् अग्र इत्याद्यनेकविशेषा ब्रह्मणः प्रतिपादिताः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवद्-अभिमत-विशेष-निषेध-वाची
को ऽपि शब्दो न दृश्यते ।

नीलमेघः

आप अद्वैतियों ने जैसा चाहा
वैसा विशेष का निषेध करने वाला
एक भी शब्द नहीं ।

मूलम्

भवदभिमतविशेषनिषेधवाची को ऽपि शब्दो न दृश्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्य् उत जगद्-ब्रह्मणोः कार्य-कारण-भाव-ज्ञापनायाग्र इति काल-विशेष–सद्-भावः ।

नीलमेघः

उल्टा जगत् और ब्रह्म में कार्य कारणभाव को बतलाने के लिये प्रवृत्त
इस वाक्य में “अग्र” शब्द से
कालविशेष का सद्भाव

मूलम्

प्रत्य् उत जगद्ब्रह्मणोः कार्यकारणभावज्ञापनायाग्र इति कालविशेषसद्भावः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीद् इति क्रियाविशेषो,
जगद्-उपादानता जगन्-निमित्तता च,
निमित्तोपादानयोर् भेद-निरसनेन
तस्यैव ब्रह्मणः सर्व-शक्ति-योगश् चेत्य्
अप्रज्ञाताः सहस्रशो विशेषा एव प्रतिपादिताः ।

नीलमेघः

प्रतिपादित हुआ है । “एकमेव " शब्द से ब्रह्म को जगत् का उपादानकारण कहा गया है। इससे ब्रह्म में जगदुपादानत्वरूप विशेष सिद्ध होता है । “अद्वितीयम्” शब्द से ब्रह्म को निमित्तकारण कहा गया है। इससे ब्रह्म में जगन्निमित्तत्व नामक विशेष सिद्ध होता है । जगत् के विषय में उपादानकारण और निमित्तकारण में भेद का निराकरण करके उसी ब्रह्म का सर्वशक्तित्वनामक विशेष कहा गया है । इस प्रकार अज्ञात अनेक विशेष बताये गये हैं । इससे सिद्ध होता है कि यह वाक्य सविशेष ब्रह्म का प्रतिपादन करने के लिये ही प्रवृत्त है ।

मूलम्

आसीद् इति क्रियाविशेषो, जगदुपादानता जगन्निमित्तता च, निमित्तोपादानयोर् भेदनिरसनेन तस्यैव ब्रह्मणः सर्वशक्तियोगश् चेत्य् अप्रज्ञाताः सहस्रशो विशेषा एव प्रतिपादिताः ।