विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि च “येनाश्रुतं श्रुतम्” इत्यादिना
ब्रह्म-व्यतिरिक्तस्य सर्वस्य मिथ्यात्वं प्रतिज्ञातं चेद्,
“यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेने"त्य्-आदि-दृष्टान्तः
+++(मिथ्यात्व-रूप-)+++साध्य-विकलः स्यात् ।+++(4)+++
नीलमेघः
[[७३]]
“वाचारम्भणं विकारो नामधेयम्” यह श्रुति जगत् का निषेध करती है
यह अद्वैतियों का मत है ।
इसमें दूसरा दोष देते हुये
श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा कि
उपर्युक्त श्रुति का वह तात्पर्य
तभी माना जा सकता है
जबकि “येनाश्रुतं श्रुतं भवति”
इस श्रुति-वाक्य में
ब्रह्म-व्यतिरिक्त सबका मिथ्यात्व प्रतिज्ञात हो ।
यदि कहा जाय कि
उस श्रुतिवाक्य से
ब्रह्मव्यतिरिक्त सबके मिथ्यात्व की ही प्रतिज्ञा की गई है,
तब तो
उन रज्जुसर्पादि को –
जिसका मिथ्यात्व सुनिश्चित है—
दृष्टान्त रूप में बतलाना चाहिये था ।
श्रुति उसका उल्लेख न करके
“यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन” इत्यादि वाक्य से
मृत्तिकाविकार घट शराव आदि का
दृष्टान्त रूप में उल्लेख करती है ।
यह दृष्टान्त साध्यविकल अर्थात्
साध्यहीन हो जाता है ।
यह महान् दोष है ।
मूलम्
अपि च येनाश्रुतं श्रुतम् इत्यादिना ब्रह्मव्यतिरिक्तस्य सर्वस्य मिथ्यात्वं प्रतिज्ञातं चेद् यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेनेत्यादिदृष्टान्तः साध्यविकलः स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रज्जुसर्पादिवन्
मृत्तिका-विकारस्य घट-शरावादेर् अ-सत्यत्वं
श्वेतकेतोः शुश्रूषोः प्रमाणान्तरेण युक्त्या च
+असिद्धम् इति।
नीलमेघः
यहाँ जगत् में मिथ्यात्व साध्य है,
इसमें दृष्टान्त के रूप में मृत्तिका के विकार
घट और शराव आदि का उल्लेख है ।
दृष्टान्त वही हो सकता है,
जिसमें पहले से ही साध्य सुनिश्चित हो ।
श्वेतकेतु के सामने
घट और शराव इत्यादि विकार
दृष्टान्त रूप में रक्खे जा रहे हैं।
जिस प्रकार श्वेतकेतु
रज्जुसर्प अर्थात् रज्जु में दीखने वाले
सर्प आदि को मिथ्या जान सकता है,
वैसे ही घट और शराव आदि विकार को मिथ्या नहीं जान सकता ।
श्वेतकेतु के पास न ऐसा कोई प्रमाण है,
न ऐसी कोई युक्ति है
जिससे वह घट और शराव आदि को मिथ्या जान सके ।
मूलम्
रज्जुसर्पादिवन्मृत्तिकाविकारस्य घटशरावादेरसत्यत्वं
श्वेतकेतोः शुश्रूषोः प्रमाणान्तरेण युक्त्या चासिद्धमिति।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् अपि सिषाधयिषितम् इति चेत्
यथेति दृष्टान्ततयोपादानं न घटते
+++(यतो दृष्टान्ते साध्यं स्पष्टम् एव स्यात्)+++।+++(5)+++
नीलमेघः
यदि कहा जाय कि यहाँ घट और शराव आदि विकारों को भी
मिथ्या सिद्ध करना है
तो उनको दृष्टान्त के रूप में वर्णन न करना चाहिये ।
वादी और प्रतिवादी
दोनों जिसमें पहले से ही
साध्य को जानते हैं,
उसे ही तो दृष्टान्त रूप में रखना चाहिये
श्रोता का जिसमें
साध्य निश्चित नहीं है,
उसे दृष्टान्त रूप में नहीं रक्खा जा सकता ।
यहाँ दृष्टान्त रूप में
घट और शराव आदि विकार ही रक्खे जाते हैं,
रज्जुसर्पादि नहीं।
इससे विदित होता है कि
यहाँ ब्रह्मव्यतिरिक्त सबके मिथ्यात्व की घोषणा विवक्षित नहीं,
इस प्रकार विवेचन कर
श्रीरामानुज स्वामी जी ने
अद्वैतमत में दृष्टान्तानुपपत्तिरूप दोष को सिद्ध किया है ।
[[७४]]
मूलम्
एतद् अपि सिषाधयिषितम् इति चेत्
यथेति दृष्टान्ततयोपादानं न घटते ।