विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि च
निर्विशेष-वस्त्व्-आदिना
स्वयं-प्रकाशे वस्तुनि
तद्-उपराग-विशेषाः
सर्वैः शब्दैर् निरस्यन्त
इति वदता
के ते शब्दा निषेधका
इति वक्तव्यम् ।
नीलमेघः
[[७१]]
आगे श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
अद्वैतियों के इस वाद का -
कि वेदान्त ब्रह्म में आरोपित भेदों का निषेध करने के लिये प्रवृत्त हैं-
खण्डन करते हुये कहा कि
अद्वैती लोग कहा करते हैं कि
ब्रह्म निर्विशेष एवं स्वयंप्रकाश पदार्थ है ।
उसमें अविद्या से विविध भेदरूपी विशेष आरोपित होते रहते हैं
वेदान्तों से उन भेदों का निषेध किया जाता है ।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि वेदान्त में ऐसे कौन से शब्द हैं जिनसे उन विशेषों का निषेध होता है जो ब्रह्म में आरोपित हैं ।
मूलम्
अपि च निर्विशेषवस्त्वादिना स्वयंप्रकाशे वस्तुनि तदुपरागविशेषाः सर्वैः शब्दैर् निरस्यन्त इति वदता के ते शब्दा निषेधका इति वक्तव्यम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचारम्भणं विकारो नामधेयं,
मृत्तिकेत्य् एव सत्यम्इति विकार-नामधेययोर् वाचारम्भण-मात्रत्वात्,
यत् तत्र कारणतयोपलक्ष्यते वस्तु-मात्रं
तद् एव सत्यम्
अन्यद् असत्यम्
इतीयं श्रुतिर् वदति
इति चेन् - नैतद् उपपद्यते ।
नीलमेघः
इस प्रश्न का उत्तर देते हुये अद्वैतवादी कहते हैं कि
सद्विद्या में
“वाचारम्भं विकारो नामधेय मृत्तिकेत्येव सत्यम्"
ऐसा एक वाक्य है ।
इस वाक्य से
ब्रह्म में आरोपित विशेषों का निषेध होता है ।
इस वाक्य का अर्थ यह है कि
जहाँ मृत्तिका घट और शराव इत्यादि रूप में परिणत होकर
विविध विकार एवं नामधेयों को प्राप्त करती है
वहाँ विकार और नामधेय कहने भर के हैं
अत एव मिथ्या हैं,
वहाँ कारण रूप में रहने वाला
मृत्तिकाद्रव्य ही सत्य है ।+++(5)+++
ऐसे ही जगत् में विद्यमान सभी विकार
नामधेयमात्र - कहने भर के हैं,
अतएव मिथ्या हैं ।
यहाँ कारण रूप में लक्षित होने वाला सन्मात्र ब्रह्म ही सत्य है और सब असत्य है ।
यह इस श्रुति का अर्थ है ।
इस श्रुति से ब्रह्म में आरोपित सभी विशेषों का निषेध हो जाता है ।
यह अद्वैतियोँ का कथन है ।
मूलम्
वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्य् एव सत्यम् इति विकारनामधेययोर् वाचारम्भणमात्रत्वात् । यत् तत्र कारणतयोपलक्ष्यते वस्तुमात्रं तद् एव सत्यम् अन्यद् असत्यम् इतीयं श्रुतिर् वदतीति चेन् नैतद् उपपद्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“एकस्मिन् विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवती"ति +++(गुरुणा)+++ प्रतिज्ञाते
ऽन्य-ज्ञानेनान्य+++(-वस्तु)+++-ज्ञानासंभवं मन्वानस्य +++(शिष्यस्य)+++
+एकम् एव वस्तु
विकाराद्य्-अवस्था-विशेषेण पारमार्थिकेनैव +++(=सत्येनैव)+++
नाम-रूपम् अवस्थितं चेत्तत्रैकस्मिन् विज्ञाते
तस्माद् विलक्षण-संस्थानान्तरम् अपि तद् एव
+इति
तत्र दृष्टान्तो ऽयं निदर्शितः ।
नीलमेघः
यह ठीक नहीं है क्योंकि श्रुति
आरम्भ में
यह प्रतिज्ञा दूसरे ही अर्थ का प्रतिपादन करती है ।
यह वाक्य सद्-विद्या का है ।
सद्विद्या के वर्णित है कि
एक को जानने से सब कुछ जाना जाता है।
इसे ही एक विज्ञान से सम्पन्न होने वाले
सर्वविज्ञान की प्रतिज्ञा कहते हैं ।
इस प्रतिज्ञा को सुनकर शिष्य ने यह सोचा कि
एक को जानने से
सबको जानना असंभव है
क्योंकि जगत् में विविध पदार्थ हैं
उनमें एक को जानने से
दूसरे पदार्थ नहीं जाने जा सकते ।
शिष्य की इस जिज्ञासा को समझकर
गुरु ने इस भाव से उत्तर दिया कि
इस सम्पूर्ण जगत् का आदि कारण एक वस्तु है ।
वह कारणावस्था में एक रूप से रहता है,
वही विविध कार्यावस्थाओं को प्राप्त करता हुआ विविध रूपां में अवस्थित रहता है।
उसका कारणावस्था में होने वाला रूप
तथा कार्यावस्था में होने वाले सभी रूप सत्य हैं ।
कारणावस्था में अवस्थित वही एक वस्तु
जब कार्यावस्था में होने वाले [[७२]] विविध रूपों को प्राप्त करता है
तब कारणवस्तु को जानने से
सभी कार्यपदार्थ जाने जा सकते हैं, क्योंकि कारणवस्तु और कार्यपदार्थ
सभी अन्त में एक ही पदार्थ है ।
वही विविध रूपों को प्राप्त होता रहता है,
उस कारणवस्तु को जानने से
सब कुछ जाना जा सकता है ।
इस बात का समर्थन करने के लिये
यहाँ पर मृत्तिकादृष्टान्त वर्णित हुआ है ।
मूलम्
एकस्मिन् विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवतीति प्रतिज्ञाते ऽन्यज्ञानेनान्यज्ञानासंभवं मन्वानस्यैकम् एव वस्तु विकाराद्यवस्थाविशेषेण पारमार्थिकेनैव नामरूपम् अवस्थितं चेत् तत्रैकस्मिन् विज्ञाते तस्माद् विलक्षणसंस्थानान्तरम् अपि तद् एवेति तत्र दृष्टान्तो ऽयं निदर्शितः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नात्र कस्यचिद् विशेषस्य निषेधकः को ऽपि शब्दो दृश्यते ।
नीलमेघः
यहाँ ऐसा कोई भी शब्द नहीं है
जो किसी भी विशेष का निषेध करता हो ।
मूलम्
नात्र कस्यचिद् विशेषस्य निषेधकः को ऽपि शब्दो दृश्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचारम्भणम् इति
वाचा व्यवहारेणारभ्यत
इत्य् आरम्भणम् ।
मूलम्
वाचारम्भणम् इति वाचा व्यवहारेणारभ्यत इत्य् आरम्भणम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिण्डरूपेणावस्थितायाः मृत्तिकाया
नाम वान्यद्
व्यवहारश् चान्यः ।
नीलमेघः
इस दृष्टान्त का भाव यह है कि
मृत्तिका ही घट और शराव आदि के रूप में
परिणत होती है ।
मृत्तिका की पिण्डत्वावस्था
कारणावस्था है,
उसकी घटत्व और शरावत्व इत्यादि अवस्थायें
कार्यावस्था हैं ।
मृत्तिका का कारणावस्था में
मृत्पिण्ड ऐसा नाम है
उससे भित्ति और घट इत्यादि कार्य होते हैं।
घट और शराव इत्यादि
कार्यावस्था में उसी मृत्तिकाद्रव्य के
घट और शराव इत्यादि नाम होते हैं,
तथा जलाहरण इत्यादि कार्य होते हैं ।
मूलम्
पिण्डरूपेणावस्थितायाः मृत्तिकाया नाम वान्यद्व्यवहारश् चान्यः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घट-शरावादि-रूपेणावस्थितायास् तस्या एव मृत्तिकाया
अन्यानि नामधेयानि
व्यवहाराश् चान्यद्-दशाः ।
नीलमेघः
इस प्रकार एक ही मृत्तिकाद्रव्य
कारणावस्था में किसी एक नाम को प्राप्त होता है
तथा किसी एक कार्य को सम्पन्न करता है
वही मृत्तिकाद्रव्य कार्यावस्था में
दूसरे नाम को प्राप्त होता है,
तथा दूसरे कार्य को सम्पन्न करता है ।
वाणी के द्वारा होने वाले
विभिन्न व्यवहार को साधने के लिये
मृत्तिका-द्रव्य ही घटत्व और शरावत्व इत्यादि विभिन्न कार्यावस्था को
तथा विभिन्न नामों को प्राप्त करता है ।
मूलम्
घटशरावादिरूपेणावस्थितायास् तस्या एव मृत्तिकाया अन्यानि नामधेयानि व्यवहाराश् चान्यद्दशाः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथापि सर्वत्र मृत्तिका-द्रव्यम् एकम् एव
नाना-संस्थान–नाना-नामधेयाभ्यां नाना-व्यवहारेण चारभ्यत
इत्य् एतद् एव सत्यम्
इत्य् अनेनान्य-ज्ञानेनान्य-ज्ञान-संभवो निदर्शितः ।
नीलमेघः
कार्यावस्था एवं कारणावस्था में होने वाले
नामभेद और कार्यभेद के कारण
मृत्तिकाद्रव्य में भेद नहीं होता । मृत्तिकाद्रव्य एक ही है ।
उसमें अवस्था भेद के कारण
नामभेद और कार्यभेद हुआ करता है ।
इसलिये घट और शराव इत्यादि कार्यपदार्थ भी
वास्तव में मृत्तिकाद्रव्य ही है,
उससे भिन्न नहीं ।
यही सत्य है,
यही प्रामाणिक बात है।
कारणद्रव्य और कार्यद्रव्य एक ही वस्तु है,
इसलिये यह प्रतिज्ञा युक्त ही है कि
कारण को समझने से
कार्य विदित हो सकता है ।
सम्पूर्ण जगत् का कारण बनने वाले सब्रह्म को जानने से
जगत् के अन्तर्गत सभी पदार्थ जाने जा सकते हैं ।
इस प्रतिज्ञा का भाव
एक दृष्टान्त के द्वारा विशद जाना जा सकता है ।
वह दृष्टान्त यह है कि
मान लिया जाय कि
बचपन में देवदत्त को यज्ञदत्त ने
देख लिया था ।
युवावस्था में पहुँचे हुये
उसी देवदत्त को
फिर वही यज्ञदत्त देखकर कहता है कि
इसे मैंने पहले ही देखा है ।
यदि उस प्रसंग में
यज्ञदत्त से यह पूछा जाय कि
क्या आपने इसे इसी युवत्वावस्था में ही पहले देखा था
तो वह क्या उत्तर देगा ?
यही उत्तर देगा कि
यद्यपि मैंने इसे पहले ऐसी युवत्वावस्था में नहीं देखा था,
तथापि बाल्यावस्था में इसे मैंने देखा था
इसलिये मेरा यह कथन युक्त ही है कि
इसे मैंने पहले देखा था ।
इस दृष्टान्त के अनुसार प्रकृत में
इस प्रतिज्ञा का भाव समझना चाहिये ।
कारणब्रह्म को जानने पर
यह कहा जा सकता है कि
यह सम्पूर्ण कार्यजगत् भी जान लिया गया है
क्योंकि वह कारणब्रह्म ही तो
इस जगत् के रूप में बना है।
यही इस श्रुति वाक्य का भाव है ।
मूलम्
तथापि सर्वत्र मृत्तिकाद्रव्यम् एकम् एव नानासंस्थाननानानामधेयाभ्यां नानाव्यवहारेण चारभ्यत इत्येतद् एव सत्यम् इत्य् अनेनान्यज्ञानेनान्यज्ञानसंभवो निदर्शितः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नात्र किंचिद् वस्तु निषिध्यत इति पूर्वम् एवायम् अर्थः प्रपञ्चितः ।
नीलमेघः
इस श्रुति वाक्य में
ऐसा एक भी शब्द नहीं है
जो किसी वस्तु का निषेध करता हो।
इस श्रुति वाक्य का
उपर्युक्त अर्थं पहले भी एकबार विस्तार से कहा गया है ।
इस प्रकार विवेचना कर श्रीरामानुज स्वामी जी ने यह सिद्ध किया है कि
जगत् का निषेध करने वाला
एक भी शब्द श्रुति में नहीं है ।
मूलम्
नात्र किंचिद् वस्तु निषिध्यत
इति पूर्वम् एवायम् अर्थः प्रपञ्चितः ।