०६ जाति-व्यक्ति-विषये भेदाभेद-वादः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत +++(→ प्रथमग्रहणे जातेर् विशेषणत्वेन ग्रहणेन)+++ एवैकस्य पदार्थस्य
भिन्नाभिन्नत्व-रूपेण द्व्य्-आत्मकत्वं विरुद्धं
प्रत्युक्तम् ।

नीलमेघः - प्रसङ्ग-सङ्गतिः

आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने प्रसंगसंगति से
भेदाभेदवादियों के मत का खण्डन किया है ।
भेदाभेदवादियों ने
जाति और व्यक्ति में
भेद के साथ
अभेद भी माना है ।
यह अर्थ श्रीभाष्यकार स्वामी जी के
स्मरणपथ में आ गया है ।

स्मरण में आये हुये अर्थ पर विचार करना चाहिये,
उपेक्षा नहीं करनी चाहिये।
यही प्रसंगसंगति कहलाती है ।+++(5)+++

नीलमेघः - पूर्वपक्षः

अब प्रसंगसंगति के अनुसार
भेदाभेदवादियों के मत पर विचार किया जाता है ।
भेदाभेदवादी जाति और व्यक्ति के विषय में
भेदाभेद मानते हुये
यह कहते हैं कि
जाति व्यक्ति से भिन्न
एवं अभिन्न है ।
इसमें चार हेतु हैं

(१) सहोपलम्भ नियम है
अर्थात् जाति और व्यक्ति
सदा साथ ही प्रतीत होते रहते हैं,
इसलिये इनमें भेदाभेद सिद्ध होता है ।

(२) सामानाधिकरण्य प्रत्यय है
अर्थात् जाति और व्यक्ति
अभिन्न रूप में प्रतीत होते हैं । [[६६]]
“यह गौ है” इस प्रतीति में “यह " शब्द व्यक्ति वाचक है,
“गो” शब्द जातिवाचक है ।
“यह गौ है” अभेद भी सिद्ध होता है और भेद भी ।
घट और कलश इत्यादि अत्यन्त अभिन्न पदार्थों के विषय में अभेदप्रतीति नहीं होती,
घट और पट इत्यादि अत्यन्त भिन्न पदार्थों के विषय में अभेदप्रतीति नहीं होती,
इस प्रतीति के अनुसार
किन्तु जाति और व्यक्ति के विषय में “यह गौ है” ऐसी अभेदप्रतीति होती है ।
यही सामानाधिकरण्य प्रत्यय है ।
इससे जाति और व्यक्ति में भेदाभेद सिद्ध होता है ।

(३) एकशब्दानुविद्ध प्रत्यय है अर्थात् “यह एक गौ है” ऐसी प्रतीति होती है, इससे भी जाति और व्यक्ति में अभेद सिद्ध होता है क्योंकि एक शब्द ऐक्य का वाचक है ।

(४) प्रथमपिण्डग्रहण में
जाति और व्यक्ति में अभेद प्रतीति होती है ।
भाव यह है कि
मनुष्य जब सर्वप्रथम गोव्यक्ति को देखता है,
उस समय व्यक्ति और जाति में भेद विदित नहीं होता ।
भेद तभी विदित हो सकता है जब भेद कराने वाले आकार विदित हो ।
व्यक्ति और जाति में भेद कराने वाले आकार ये ही हैं कि
व्यक्ति व्यावृत्त रहती है
अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति अलग २ रहती है,
जाति अनुवृत्त रहती है अर्थात् सब व्यक्तियों में बनी रहती है ।
प्रथमपिण्डग्रहण के समय अन्यान्य व्यक्ति विदित न होने के कारण
न व्यक्ति व्यावृत्त दिखाई देती है,
न जाति ही अनुवृत्त दिखाई देती है ।
इस प्रकार भेद कराने वाले आकारों का भान न होने के कारण
प्रथमपिण्डग्रहण में जाति और व्यक्ति में भेद विदित नहीं होता किन्तु अभेद विदित होता हैं ।

इस प्रकार उपर्युक्त चार हेतुओं से
जाति और व्यक्ति में भेद और अभेद सिद्ध होते हैं ।
जाति और व्यक्ति में भेदाभेद सिद्ध होने पर
यह भी कहा जा सकता है कि
सभी व्यक्ति व्यक्ति की दृष्टि से भिन्न हैं,
तथा जाति की दृष्टि से अभिन्न हैं ।
इस प्रकार एक ही पदार्थ
भिन्नाभिन्नरूप से उभयरूप बन जाता है ।
यह भेदाभेदवादियों का कथन है ।

नीलमेघः - प्रथमग्रहणे भेदः

इस वाद पर समालोचना करते हुये श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने यह कहा है कि
एक पदार्थ भिन्नाभिन्न रूप से
उभयरूप वाला नहीं बन सकता
क्योंकि वह भिन्न होने पर
अभिन्न नहीं हो सकता
तथा अभिन्न होने पर भिन्न भी नहीं बन सकता ।
भिन्नत्व और अभिन्नत्व ये दोनों धर्म परस्पर विरुद्ध हैं
अतएव एकत्र समावेश नहीं पा सकते ।

जाति और व्यक्ति में भेदाभेद को सिद्ध करने के लिये
जो चार हेतु बतलाये गये हैं वे हेत्वाभास हैं,
उनसे भेदाभेद सिद्ध नहीं हो सकता ।

तथाहि —यह जो चतुर्थ हेतु बताया गया है कि प्रथमपिण्डग्रहण - व्यावृत्तिरूप और अनुवृत्तिरूप भेदक आकार विदित न होने से
जाति और व्यक्ति में अभेद सिद्ध होता है,
यह हेतु हेत्वाभास है
क्योंकि प्रथमपिण्डग्रहण में भी
जाति और व्यक्ति में भेद ही
विदित होता है
कारण यह कि
“यह गौ है”
इस प्रकार के प्रथमपिण्डग्रहण में
व्यक्ति विशेष्यरूप में
तथा जाति प्रकाररूप में भासती है,+++(5)+++
प्रथमपिण्डग्रहण व्यक्ति को विशेष्यरूप में
तथा जाति को विशेषणरूप में दिखाता हुआ
उनमें भेद को ही सिद्ध करता है।
यह विशेष्यविशेषणभाव ही
भेदक आकार है ।
इससे भेद ही सिद्ध होता है ।

मूलम्

अत एवैकस्य पदार्थस्य भिन्नाभिन्नत्वरूपेण द्व्यात्मकत्वं विरुद्धं प्रत्युक्तम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संस्थानस्य+++(=जातेः)+++ संस्थानिनः+++(→व्यक्तेः)+++ प्रकारतया पदार्थान्तरत्वम् ।

नीलमेघः

व्यावृत्तिरूप और अनुवृत्तिरूप भेदक आकार
विदित न होने पर भी
[[७०]]
विशेष्य-विशेषण-भावरूपी भेदक आकार प्रथमपिण्ड-ग्रहण में भी भासता है उससे जाति और व्यक्ति में भेद ही सिद्ध होता है ।

मूलम्

संस्थानस्य संस्थानिनः प्रकारतया पदार्थान्तरत्वम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकारत्वाद् एव
पृथक्-सिद्ध्य्-अनर्हत्वं
पृथग्-अनुपलम्भश् चेति
न द्व्य्-आत्मकत्व-सिद्धिः ।

नीलमेघः - सहोपलम्भः

प्रथमहेतु सहोपलम्भ नियम है,
वह भी हेत्वाभास है ।
जाति और व्यक्ति सदा साथ प्रतीत होते रहते हैं इसमें यह कारण नहीं है कि
इनमें अभेद है,
किन्तु कारण यही है कि
जाति व्यक्ति के साथ ही रहने वाली वस्तु है ।
जाति और व्यक्ति में जो अपृथक् सिद्धि सम्बन्ध है
वह यही है कि जाति व्यक्ति को छोड़कर नहीं रह सकती,
साथ ही रहने वाली है ।
जाति और व्यक्ति
चक्षुरादि इन्द्रियों की ग्राह्यवस्तु है ।
एक इन्द्रिय से ग्राह्य होने के कारण
तथा साथ रहने के कारण ही
जाति और व्यक्ति साथ विदित होती हैं ।
इनमें अभेद होने के कारण
साथ विदित होती हों,
यह बात नहीं । द्वितीय हेतु

नीलमेघः - सामानाधिकरण्यम्

सामानाधिकरण्य हैं,
यह भी हेत्वाभास है ।
द्वितीय हेतु की व्याख्या करते हुये
भेदाभेदवादियों ने यह कहा है कि
“यह गौ है” ऐसी प्रतीत होती है, इसमें “यह” शब्द व्यक्तिवाचक है “गो” शब्द जातिवाचक है ।
“यह गौ है” इस अभेद प्रतीत से
जाति और व्यक्ति में अभेद सिद्ध होता है ।
अभेदप्रतीति ही सामानाधिकरण्य प्रत्यय कहलाती है ।

उनका यह कथन ठीक नहीं,
क्योंकि गोशब्द गोत्वजाति भर का वाचक नहीं,
किन्तु गोत्वविशिष्टपदार्थ का वाचक है ।+++(5)+++
गो शब्द से गोत्वजाति प्रकार रूप में
तथा गोव्यक्ति विशेष्यरूप में अभिहित होती है ।
जाति अपृथक् सिद्ध विशेषण है,
अतएव जातिबोधक गोशब्द
व्यक्ति तक का बोध करता है ।
“यह गौ है” इस प्रतीति का यह अर्थ नहीं है कि
“यह गोत्वजाति है”
किन्तु यही अर्थ है कि
“यह गोत्वजातिविशिष्ट है” ।+++(5)+++

जातिवाचकशब्द
जातिमात्र में पर्यवसान न पाकर
व्यक्ति तक का बोध कराते हैं ।
“यह गौ है”
इस प्रतीति से
जाति और व्यक्ति में
अभेद सिद्ध नहीं होता
किन्तु व्यक्ति विशिष्टवस्तु
और जातिविशिष्टवस्तु में अभेद सिद्ध होता है ।

नीलमेघः - एकत्व-प्रतीतिः

तृतीय हेतु यह कहा गया है कि
“यह एक गौ है”
इस एकशब्दयुक्त प्रतीति से जाति और व्यक्ति में ऐक्य सिद्ध होता है ।
यह हेतु भी हेत्वाभास ही है
क्योंकि “यह एक गौ है” यह प्रतीति व्यक्ति को एक सिद्ध करती है
जाति और व्यक्ति में एकता को सिद्ध नहीं करती।+++(4)+++
इस प्रतीति का यही भाव है कि
यह एक व्यक्ति है
अनेक गोव्यक्ति नहीं ।

नीलमेघः - उपसंहारः

इस प्रकार श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने चार हेतुओं को अन्यथासिद्ध कहकर
जाति और व्यक्ति में भेदाभेद का खण्डन किया है
तथा उनमें भेद को ही सिद्ध किया है ।

यह विचार अद्वैत से सम्बन्ध न रखने पर भी प्रसंगसंगति से यहाँ वर्णित हुआ है ।

मूलम्

प्रकारत्वाद् एव पृथक्सिद्ध्यनर्हत्वं पृथगनुपलम्भश् चेति न द्व्यात्मकत्वसिद्धिः ।