विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्विकल्पक-प्रत्यक्षे ऽपि
स-विशेषम् एव वस्तु प्रतीयते -
अन्यथा सविकल्पके “सो ऽयम्” इति पूर्वावगत-प्रकार-विशिष्ट-प्रत्ययानुपपत्तेः ।
नीलमेघः
आगे श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने अद्वैतवादियों के इस कथन का —
कि निर्विकल्पकप्रत्यक्ष निर्विशेषवस्तु का ग्रहण करता है-
खण्डन किया है ।
बौद्ध और अद्वैती इत्यादि वादियों ने
यह माना है कि
निर्विकल्पक-प्रत्यक्ष सर्व-विशेष-शून्य वस्तु का ग्रहण करता है ।
उनका यह मन्तव्य समीचीन नहीं है ।
‘यह वस्तु ऐसी है’
इस प्रकार का ही
ज्ञान का स्वरूप होता है।
ज्ञान में “यह वस्तु” कहकर
पदार्थ का स्वरूप
तथा “ऐसी” कहकर तद्गत विशेष भासित होता है ।
इससे यही फलित होता है कि
सभी ज्ञान सविशेषवस्तु का ही ग्रहण करते हैं ।
मूलम्
निर्विकल्पकप्रत्यक्षे ऽपि सविशेषम् एव वस्तु प्रतीयते - अन्यथा सविकल्पके सो ऽयम् इति पूर्वावगतप्रकारविशिष्टप्रत्ययानुपपत्तेः।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वस्तु+++(→अवयवादि)+++-संस्थान-विशेष-रूपत्वाद् गोत्वादेर्
निर्विकल्पक-दशायाम् अपि
स-संस्थानम् एव वस्त्व् “इत्थम्” इति प्रतीयते ।
नीलमेघः
कई वादियों ने यह माना है कि
निर्विकल्पकप्रत्यक्ष में
जाति गुण और द्रव्य इत्यादि
बिना आपसी सम्बन्ध के
अलग गृहीत होते हैं ।
उनका यह वाद भी ठीक नहीं है -
क्योंकि परस्पर में
सदा सम्बन्ध रखने वाले
तथा एक इन्द्रिय से गृहीत होने योग्य
जाति, गुण और द्रव्य इत्यादि पदार्थ
विशेष्य-विशेषणभाव से
एक साथ गृहीत हो सकते हैं।
तथा यह अनुभव भी —
कि “यह पदार्थ ऐसा है”—
यही सिद्ध करता है कि
प्राथमिक-प्रत्यक्ष में जातिगुण और द्रव्य इत्यादि पदार्थ विशेष्यविशेषणभाव से गृहीत होते हैं ।
मूलम्
वस्तुसंस्थानविशेषरूपत्वाद् गोत्वादेर् निर्विकल्पकदशायाम् अपि ससंस्थानम् एव वस्त्व् इत्थम् इति प्रतीयते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(“पूर्वदृष्टेवेयम् अपि गौर्” इतिवत्)+++
द्वितीयादि-प्रत्ययेषु
तस्य संस्थान-विशेषस्यानेक-वस्तु-निष्ठता-मात्रं +++(अधिकं)+++ प्रतीयते ।
नीलमेघः
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि
अन्यान्य-वादियों ने
निर्विकल्पक एवं सविकल्पक-प्रत्यक्ष में
इस प्रकार भेद को सिद्ध किया है कि
निर्विकल्पक-प्रत्यक्ष विशेषण-रहित-वस्तु का ग्रहण करता है
स-विकल्पक-प्रत्यक्ष विशेषण-विशिष्ट पदार्थ का ग्रहण करता है ।
यदि सिद्धान्त में ये दोनों प्रत्यक्ष विशेषण-विशिष्ट-वस्तु के ग्राहक माने जायँ
तो इनमें भेद कैसे सिद्ध किया जा सकता है ?
इस प्रश्न के उत्तर में
श्रीरामानुज स्वामी जी ने यह कहा है कि
अनुभव के अनुसार
सभी ज्ञान विशेषण-विशिष्ट-वस्तु के ही ग्राहक सिद्ध होते हैं,
कोई भी ज्ञान
निर्विशेष-वस्तु का ग्राहक
प्रतीत नहीं होता ।
उसको सिद्ध करने के लिये
परवादियों के द्वारा कही जाने वाली युक्तियाँ सारहीन हैं ।
ऐसी स्थिति में
निर्विकल्पक-प्रत्यक्ष और सविकल्पक-प्रत्यक्ष में भेद
इस प्रकार ही सिद्ध करना होगा कि
अधिक-विशेषण-विशिष्ट पदार्थ का ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष
सविकल्पक-प्रत्यक्ष है ।+++(5)+++
अल्पविशेषण से विशिष्ट पदार्थ का ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष
निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है ।
जिस प्रकार लोक में
अल्प धन वाले पुरुष को निर्धन
एवं अधिक धन [[६७]] वाले पुरुष को धनिक कहा जाता है,
उसी प्रकार प्रकृत में समझना चाहिये ।
इस प्रकार भेद करना असंगत ही है कि
निर्विशेषवस्तु का ग्राहक ज्ञान
निर्विकल्पक है
तथा सविशेषवस्तु का ग्राहक ज्ञान सविकल्पक है ।
यह प्रश्न उठता है कि
किस प्रकार के प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक
एवं किस प्रकार के प्रत्यक्ष को सविकल्पक कहना चाहिये ।
उत्तर यही है कि प्रथमपिण्ड के विषय में होने वाले प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक
एवं द्वितीय आदि पिण्डों के विषय में होने वाले प्रत्यक्ष को सविकल्पक कहना चाहिये ।
भाव यह है कि प्रथम गोव्यक्ति को देखने वाला मनुष्य
समझता है कि यह गौ है ।
वही मनुष्य आगे दूसरे और तीसरे इत्यादि गोव्यक्तियों को देखते समय
समझता है कि
यह भी गौ है ।
प्रथमपिण्डग्रहण में “यह गौ है "
ऐसा ज्ञान होता है ।
द्वितीय आदि पिण्डग्रहण में
“यह भी गौ है” ऐसा ज्ञान होता है ।
प्रथमपिण्डग्रहण में गोव्यक्ति
विशेष्य के रूप में
तथा गोत्वजाति प्रकार रूप में भासती है ।
द्वितीय आदि पिण्डग्रहण में भी
गोव्यक्ति विशेष्यरूप में
तथा गोत्वजाति
प्रकार रूप में भासती है ।
इस प्रकार दोनों ही प्रत्यक्ष
प्रकारविशिष्ट-वस्तु का ही ग्रहण करते हैं ।
कोई भी प्रत्यक्ष
निष्प्रकारवस्तु का ग्रहण नहीं करता ।
अन्तर इतना ही है कि
प्रथम पिण्डग्रहण में
यद्यपि गोत्वजाति भासती है
किन्तु उस समय यह पता नहीं चलता कि
यह गोत्वजाति व्यक्त्यन्तर में भी रहने वाली है ।
किन्तु द्वितीयादिपिण्डग्रहण में
गोत्वजाति के भान के साथ
यह भी विदित होता है कि
यह गोत्वजाति-जो पहले व्यक्ति में देखी गयी है-
इन द्वितीयादि व्यक्तियों में भी दिखाई देती है ।
इस प्रकार
गोत्वजाति की व्यक्त्यन्तरों में अनुवृत्ति
द्वितीयादिपिण्डग्रहण में भासती है,
प्रथमपिण्डग्रहण में नहीं ।
मूलम्
द्वितीयादिप्रत्ययेषु तस्य संस्थानविशेषस्यानेकवस्तुनिष्ठतामात्रं प्रतीयते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(अवयवादि-)+++संस्थान-रूप–प्रकाराख्यस्य+++(=जातेः)+++ पदार्थस्यानेकवस्तु-निष्ठतया ऽनेक-वस्तु-विशेषणत्वं
द्वितीयादि-प्रत्ययावगम्यम्
इति द्वितीयादि-प्रत्ययाः
स-विकल्पका इत्य् उच्यन्ते ।
नीलमेघः - प्रथम-ग्रहण-प्रकार-ज्ञान-संस्कारापेक्षा
प्रथमपिण्डग्रहरण में व्यक्ति और जाति भासती है
किन्तु जाति की व्यक्त्यन्तर में अनुवृत्ति नहीं भासती है ।
अतएव प्रथमपिण्डग्रहण अल्पग्राहक होने से
निर्विकल्पक कहलाता है । द्वितीयादिपिण्डग्रहणों में गोव्यक्ति जाति एवं जाति की
व्यक्त्यन्तर में अनुवृत्ति
ये तीनों अर्थ भासते हैं ।
अतएव द्वितीयादिपिण्डग्रहण अधिक ग्राहक होने से सविकल्पक कहलाते हैं ।
द्वितीयादिपिण्डग्रहण में जाति की अनुवृत्ति भी भासती है अतएव उस ज्ञान का आकार “यह भी गौ है” इस प्रकार का होता है ।
प्रथमपिण्डग्रहण में गोत्वजाति की अनुवृत्ति नहीं भासती है ।
अतएव उस ज्ञान का आकार " यह गौ है”
इस प्रकार का होता है ।
द्वितीयादिपिण्डग्रहण में अनुवृत्ति भासने का कारण यही है कि
प्रथमपिण्डग्रहण में भी
जाति का साक्षात्कार हो गया,
उससे संस्कार उत्पन्न हुआ,
उस संस्कार से युक्त इन्द्रिय से
द्वितीयादिपिण्डों को देखते समय
जाति की जानकारी के साथ ही साथ
यह भी विदित होता है कि
यह जाति पहले एक व्यक्ति में देखी गई है
अब इस अन्य व्यक्ति में दिखाई देती है ।
अत एव द्वितीयादिपिण्डग्रहण में अनुवृत्ति भी भासने लगती है ।
निर्विकल्प कहे जाने वाले प्रथमपिण्डग्रहण में भी
जातिविशिष्टवस्तु ही भासती है
निर्विशेष नहीं ।
निर्विकल्प में
जाति का भान होने पर ही
सविकल्प में अनुवृत्ति का भान घट सकता है ।
“वैसे ही यह भी गौ है”
यही सविकल्पक ज्ञान का आकार है ।
इसमें पूर्वविदित गोत्व-जाति की व्यक्त्य्-अन्तर-सम्बन्ध-रूपिणी अनुवृत्ति
संस्कारबल से भासती है ।
निर्विकल्पक में यदि जाति का भान न होता
तो सविकल्पक [[६८]] में उसकी अनुवृत्ति का भान हो ही नहीं सकता ।
किन्तु हो रहा है,
इसलिये मानना पड़ता है कि निर्विकल्पक में भी जातिविशिष्टवस्तु का ही भान होता है,
निर्विशेष का नहीं ।
नीलमेघः - गव्-उदाहरणम्
गोव्यक्ति में जो विलक्षण अवयवसन्निवेश है,
वही गोत्वजाति है,
उससे अतिरिक्त नहीं ।+++(5)+++
प्रथम गोव्यक्ति को देखते समय भी
विलक्षण अवयव-सन्निवेश से युक्त व्यक्ति ही
“यह गौ है” ऐसा भासता है ।
द्वितीयादि-पिण्ड-ग्रहणों में
उसी सन्निवेश का
अन्य व्यक्ति में भी सद्भाव प्रतीत होता है ।
सन्निवेश ही जाति है,
वही ज्ञान में प्रकाररूप में भासती है,
उसका अन्यान्य व्यक्तियों के प्रति
विशेषण के रूप में भान
द्वितीयादिपिण्डग्रहणों में ही होता है ।
अतएव अधिक ग्राहक होने के कारण
द्वितीयादि-पिण्ड-ग्रहण सविकल्पक कहलाते हैं,
अल्पग्राहक होने से
प्रथमपिण्डग्रहण निर्विकल्पक कहलाता है ।
नीलमेघः - उपसंहारः
विषयभान की दृष्टि से
निर्विकल्पक और सविकल्पक में
यह भेद सिद्ध होता है कि निर्विकल्पक में व्यक्ति और जाति
ये दो पदार्थ भासते हैं,
सविकल्पक में व्यक्ति जाति और जाति की अनुवृत्ति ये तीन पदार्थ भासते हैं ।
ज्ञानोत्पादक कारण की दृष्टि से
इन दोनों में यह भेद सिद्ध होता है कि
केवल इन्द्रिय से निर्विकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है,
संस्कारसहित इन्द्रिय से
सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होता है ।
यह भेद सर्वथा असंगत है कि निर्विकल्पक निर्विशेषवस्तु का ग्राहक है,
तथा सविकल्पक सविशेषवस्तु का ग्राहक है ।
इस प्रकार विवेचन करके
श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
अद्वैतवादी इत्यादि वादियों के इस मत का –
कि निर्विकल्पक निर्विशेषवस्तु का ग्राहक है -
खण्डन किया है ।
मूलम्
संस्थानरूपप्रकाराख्यस्य पदार्थस्यानेकवस्तुनिष्ठतयानेकवस्तुविशेषणत्वं द्वितीयादिप्रत्ययावगम्यम् इति द्वितीयादिप्रत्ययाः सविकल्पका इत्य् उच्यन्ते ।