०४ निर्विशेष-ब्रह्म-स्वयं-प्रकाशवादः

पूर्व-पक्षः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ स्यात् -

नास्माभिर् निर्विशेषे स्वयं-प्रकाशे वस्तुनि
शब्दः प्रमाणम् इत्य् उच्यते - स्वतः-सिद्धस्य प्रमाणानपेक्षत्वात् ।

नीलमेघः

श्रीभाष्यकार स्वामी जी के द्वारा यह सिद्ध किये जाने पर
कि निर्विशेष ब्रह्म शब्दप्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकता,
अद्वैतवादी विद्वान् कहते हैं कि
हम शब्दप्रमाण के द्वारा ब्रह्म की सिद्धि नहीं मानते ।
ब्रह्म स्वयंसिद्ध पदार्थ है,
उसे किसी प्रमाण से सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं ।
ब्रह्म ज्ञानस्वरूप है ।
[[६४]]

ज्ञान स्वयंप्रकाश वस्तु है ।
बाह्य पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान
अपने को स्वयं प्रकाशित करे,
यह युक्त ही है ।
बाह्य पदार्थ स्वयं प्रकाशित नहीं होते
किंतु ज्ञान से प्रकाशित होते हैं,
अतः जब तक ज्ञान न हो,
तब तक उन पदार्थों की सत्ता के विषय में
मनुष्यों को सन्देह होता है ।
मनुष्यों को ज्ञान के विषय में
यह सन्देह कभी नहीं होता कि
हमको इस समय ज्ञान हो रहा है या नहीं।
इसका कारण यही है कि
ज्ञान रहते समय
स्वयं अपने को प्रकाशित करता रहता है ।
बाह्य पदार्थ ज्ञान से सिद्ध होते हैं
ज्ञान स्वयंप्रकाश होने के कारण
स्वयंसिद्ध होता है,
उसे दूसरे किसी प्रमाण से सिद्ध होने की आवश्यकता नहीं ।

मूलम्

अथ स्यात् नास्माभिर् निर्विशेषे स्वयंप्रकाशे वस्तुनि शब्दः प्रमाणम् इत्य् उच्यते - स्वतःसिद्धस्य प्रमाणानपेक्षत्वात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वैः शब्दैस् तद्-उपराग-विशेषा ज्ञातृत्वादयः सर्वे निरस्यन्ते ।+++(5)+++

नीलमेघः

यहाँ पर यह शंका होती है कि
यदि ज्ञानस्वरूप ब्रह्म स्वयंसिद्ध है
तो वेदान्तशास्त्र निरर्थक हो जायगा,
क्योंकि ब्रह्म को सिद्ध करने के लिये
उसकी आवश्यकता नहीं है।
इस शंका का समाधान यह है कि
वेदान्तशास्त्र ब्रह्म को सिद्ध करने के लिये नहीं आये हैं
किन्तु ब्रह्म में आरोपित ज्ञातृत्व इत्यादि विशेषों का निषेध करने के लिये आये हैं ।+++(5)+++
विशेषों का निषेध करके वेदान्तशास्त्र सफल होते हैं ।

मूलम्

सर्वैः शब्दैस् तदुपरागविशेषा ज्ञातृत्वादयः सर्वे निरस्यन्ते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषु विशेषेषु निवृत्तेषु
वस्तुमात्रम् अनवच्छिन्नं स्वयंप्रकाशं स्वत एवावतिष्ठत

इति ।

नीलमेघः

ज्ञातृत्व इत्यादि सभी आरोपित विशेषों का बाध होने पर
निर्विशेष ब्रह्म स्वरूपमात्र रह जाता है ।
वह किसी भी विशेष से विशिष्ट न होकर
स्वयंसिद्ध बना रहता है ।
यह निर्विशेषब्रह्मसिद्धि के विषय में अद्वती विद्वानों का कथन है ।

मूलम्

सर्वेषु विशेषेषु निवृत्तेषु वस्तुमात्रम् अनवच्छिन्नं स्वयंप्रकाशं स्वत एवावतिष्ठत इति ।

ज्ञप्तेस् सविशेषत्वम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतद् एवम् ।
केन शब्देन
तद् वस्तु निर्दिश्य
तद्-गत-विशेषा निरस्यन्ते ?

नीलमेघः

अद्वैतियों के उपर्युक्त वाद का निराकरण करते हुये
श्रीरामानुज स्वामी जी ने कहा है कि
यदि उपनिषच्-छात्र ब्रह्म में आरोपित विशेषों का निषेध करने के लिये प्रवृत्त हैं
तो किस शब्द से ब्रह्मवस्तु का निर्देश करके
वेदान्तशास्त्र उसमें आरोपित विशेषों का निषेध करते हैं?

क्योंकि किसी शब्द से ब्रह्म का निर्देश करके ही
वेदान्तशास्त्र को बतलाना होगा कि
ब्रह्म में ये विशेष नहीं है।

मूलम्

नैतद् एवम् । केन शब्देन तद्वस्तु निर्दिश्य तद्गतविशेषा निरस्यन्ते ?

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञप्ति-मात्र-शब्देनेति चेन् न ।
सो ऽपि सविशेषम् एव वस्त्व् अवलम्बते -
प्रकृति-प्रत्यय-रूपेण विशेष-गर्भत्वात् ।

नीलमेघः

अद्वैती कहते हैं कि
ज्ञप्ति शब्द से ब्रह्म का निर्देश कर
वेदान्तशास्त्र आरोपितविशेषों का निषेध करते हैं ।
अद्वैतियों का यह कथन ठीक नहीं
क्योंकि ज्ञप्ति शब्द
सविशेष वस्तु को ही बतला सकता है,
निर्विशेष पदार्थ को नहीं बतला सकता ।
ज्ञप्ति शब्द अर्थात् ज्ञानवाची शब्द
प्रकृति और प्रत्यय से बना है ।
विशेषविशिष्ट पदार्थ ही उस पद से बोधित होता है ।

मूलम्

ज्ञप्तिमात्रशब्देनेति चेन् न ।
सो ऽपि सविशेषम् एव वस्त्ववलम्बते - प्रकृतिप्रत्ययरूपेण विशेषगर्भत्वात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

“ज्ञा अवबोधन” इति
स-कर्मकः स-कर्तृकः क्रिया-विशेषः
क्रियान्तर-व्यावर्तक–स्व-भाव–विशेषश् च
प्रकृत्या ऽवगम्यते ।

नीलमेघः

ज्ञप्ति शब्द में प्रधान प्रकृति भाग ज्ञा-धातु है जिस का अर्थ ज्ञान है ।
“ज्ञा अवबोधने” ऐसा धातुपाठ है ।
अवबोधन शब्द का अर्थ है ज्ञान ।
ज्ञा-धातु ज्ञान-रूपी क्रिया-विशेष को बतलाता है
जो सकर्मक एवं सकर्तृक है।

जानकार पुरुष ज्ञान का कर्ता है
ज्ञान का विषय घटादिपदार्थ ज्ञान का कर्म है ।
इस प्रकार ज्ञान क्रिया
सकर्मक एवं सकर्तृक होती है।
ज्ञान क्रिया में
असाधारण एक स्वभाव रहता है
जो दूसरी किसी क्रिया में नहीं पाया जाता ।
वह स्वभाव यही है कि

ज्ञान परप्रकाशक
एवं स्वयंप्रकाश है,
अन्य सभी क्रियायें
जड होने के कारण
ज्ञान के द्वारा प्रकाशित होने वाली हैं,
स्वयंप्रकाश नहीं ।

इस प्रकार सकर्मक सकतृक
तथा विलक्षण स्वभावविशिष्ट ज्ञानरूपी क्रियाविशेष
प्रकृतिभाग से अभिहित होता है ।

मूलम्

ज्ञा अवबोधन इति सकर्मकः सकर्तृकः क्रियाविशेषः क्रियान्तरव्यावर्तकस्वभावविशेषश् च प्रकृत्यावगम्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्ययेन च लिङ्ग-संख्यादयः ।

नीलमेघः

प्रत्ययभाग से लिङ्ग संख्या आदि अभिहित होते हैं ।

इस विवेचन से सिद्ध होता है कि
ज्ञान सकर्मकत्व और सकर्तृकत्व इत्यादि विशेषों से युक्त है,
ज्ञान निर्विशेष नहीं हो सकता ।

विषयों का प्रकाशक होने के कारण
ज्ञान सकर्मक माना जाता है
तथा अहम्-अर्थ का आश्रय लेकर रहने के कारण
[[६५]] ज्ञान सकतृक माना जाता है ।

मूलम्

प्रत्ययेन च लिङ्गसंख्यादयः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वतः-सिद्धाव् अप्य् एतत्–स्व-भाव–विशेष-विरहे
सिद्धिर् एव न स्यात् ।

नीलमेघः

इस प्रकार सविशेष होने के कारण ही
ज्ञान स्वयंप्रकाश सिद्ध होता है ।+++(5)+++

मूलम्

स्वतःसिद्धाव् अप्य् एतत्स्वभावविशेषविरहे सिद्धिर् एव न स्यात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यसाधनस्वभावतया हि ज्ञप्तेः स्वतःसिद्धिर् उच्यते ।

नीलमेघः

अद्वैतवादी भी ज्ञान के स्वयंप्रकाशत्व के विषय में
यही युक्ति देते हैं कि
ज्ञान इतर पदार्थों का प्रकाशक होने के कारण
स्वयंप्रकाश है ।

जो ज्ञान दूसरों को प्रकाशित करने में क्षमता रखता है
वह अपने को प्रकाशित करने में दूसरों की अपेक्षा नहीं रख सकता ।
वह अपने को प्रकाशित करने की
क्षमता स्वयं रखता है ।
दूसरों को प्रकाशित करने वाले ज्ञान को
सकर्मक मानना ही होगा ।+++(5)+++
ज्ञान में सकर्मकत्व इत्यादि विशेष न माने जायँ तो
ज्ञान का स्वयंप्रकाशत्व ही सिद्ध नहीं होगा ।+++(4)+++
ज्ञान को स्वयंप्रकाश मानने वाले अद्वैतवादियों को
ज्ञान सविशेष मानना ही होगा ।

यदि ज्ञान निर्विशेष माना जाय
तो वह स्वयंप्रकाश सिद्ध नहीं होगा ।
ब्रह्म के निर्विशेषत्व के विषय में
यह एक दोष है जो अबतक कहा गया है ।

मूलम्

अन्यसाधनस्वभावतया हि ज्ञप्तेः स्वतःसिद्धिर् उच्यते ।

आच्छादितं सविशेष-ब्रह्मांशः?

विश्वास-प्रस्तुतिः

“ब्रह्मस्वरूपं कृत्स्नं सर्वदा स्वयम् एव प्रकाशते” चेन् न -
तस्मिन्न् अन्य-धर्माध्यासः संभवति ।

नीलमेघः

दूसरा दोष यह है कि
यदि पूरा ब्रह्मस्वरूप
सदा स्वयं प्रकाशित होता रहता है
तो उसमें अन्यत्र विद्यमान
किसी भी धर्म का आरोप नहीं हो सकता ।

मूलम्

ब्रह्मस्वरूपं कृत्स्नं सर्वदा स्वयम् एव प्रकाशते चेन् न तस्मिन्न् अन्यधर्माध्यासः संभवति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि रज्जुस्वरूपे ऽवभासमाने सर्पत्वादिर् अध्यस्यते ।

नीलमेघः

लोक में देखा जाता है कि
जबतक रज्जु-स्वरूप प्रकाशता रहता है
तबतक सर्पत्व आदि धर्म का आरोप नहीं होता ।
किन्तु जब रज्जुस्वरूप नहीं प्रकाशता है
तभी सर्पत्व आदि धर्मों का आरोप अर्थात् भ्रम होता है ।

मूलम्

न हि रज्जुस्वरूपे ऽवभासमाने सर्पत्वादिर् अध्यस्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत एव हि भवद्भिर् आच्छादिका ऽविद्या ऽभ्युपगम्यते ।

नीलमेघः

आप लोगों ने अर्थात् अद्वैतवादियों ने भी
इस बात को माना है कि
ब्रह्मस्वरूप पूरा प्रकाशते समय
आरोप नहीं हो सकता ।
अतएव आप लोगों ने
ब्रह्मस्वरूप को आच्छादित करने वाली अविद्या को माना है ।

मूलम्

अत एव हि भवद्भिर् आच्छादिकाविद्याभ्युपगम्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश् च शास्त्रीय-निवर्तक-ज्ञानस्य
ब्रह्मणि तिरोहितांशो विषयः ।

नीलमेघः

आप लोगों ने यह स्वीकार किया है कि
प्रथमतः अविद्या ब्रह्म को आच्छादित करती है
ब्रह्मस्वरूप का अच्छी तरह से प्रकाश नहीं होता
अतएव आगे नाना प्रकार का आरोप होता रहता है ।
यह आरोप तभी बन्द होगा
जब शास्त्रजन्य तत्त्वज्ञान से अविद्या नष्ट हो जायेगी ।
आच्छादित ब्रह्मगत विशेष का ग्रहण करने वाला तत्त्वज्ञान ही अविद्या को नष्ट कर सकता है,

मूलम्

ततश् च शास्त्रीयनिवर्तकज्ञानस्य ब्रह्मणि तिरोहितांशो विषयः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यथा तस्य निवर्तकत्वं च न स्यात् ।

नीलमेघः

यदि वह ज्ञान
उस तिरोहित विशेष का ग्रहण न करे
तो अविद्या को नष्ट नहीं कर सकता ।

मूलम्

अन्यथा तस्य निवर्तकत्वं च न स्यात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिष्ठानातिरेकि-रज्जुत्व-प्रकाशनेन हि सर्पत्वं बाध्यते ।

नीलमेघः

रज्जुसर्पभ्रम में
रज्जुस्वरूप अधिष्ठान है,
सर्प अध्यस्त है ।
अधिष्ठान रज्जुस्वरूप की अपेक्षा अतिरिक्त बनने वाले
रज्जुत्वरूप विशेषधर्म का ग्रहण करने वाले में वह तत्त्वज्ञान के द्वारा ही
सर्पभ्रम निवृत्त होता है ।

प्रकृत में यह मानना होगा कि
ज्ञानस्वरूप ब्रह्म विशेष वेदान्तशास्त्र से बतलाया जाता है
जिसको जान लेने पर
यह सम्पूर्ण भ्रम नष्ट हो जाता है ।
वह विशेष ब्रह्म में रहने वाला कोई विशेष धर्म है ।

मूलम्

अधिष्ठानातिरेकिरज्जुत्वप्रकाशनेन हि सर्पत्वं बाध्यते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकश् चेद् विशेषो
ज्ञानमात्रे वस्तुनि शब्देनाभिधीयते
स च ब्रह्मविशेषणं भवतीति
सर्व-श्रुति-प्रतिपादित-
सर्व-विशेषण-विशिष्टं ब्रह्म भवति ।+++(5)+++

नीलमेघः

ऐसी स्थिति में प्रपञ्च भ्रम का बाध करने वाले शास्त्रजन्य तत्त्वज्ञान के द्वारा
गृहीत होने वाले एक विशेष धर्म को ब्रह्म में मानना होगा ।
यदि ब्रह्म एक विशेषण से भी विशिष्ट हो जाता है
तो वह सविशेष बन ही जाता है।
ऐसी स्थिति में ब्रह्म को सभी श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित
सर्वविशेषणों से विशिष्ट मानना ही उचित होगा ।

मूलम्

एकश् चेद् विशेषो ज्ञानमात्रे वस्तुनि शब्देनाभिधीयते स च ब्रह्मविशेषणं भवतीति सर्वश्रुतिप्रतिपादितसर्वविशेषणविशिष्टं ब्रह्म भवति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः प्रामाणिकानां
न केनापि प्रमाणेन
निर्विशेष-वस्तु-सिद्धिः ।

नीलमेघः

इस प्रकार विवेचन कर
श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
यह सिद्ध किया है कि
प्रामाणिक पुरुषों को
किसी भी प्रमाण से
निर्विशेषवस्तु सिद्ध नहीं होती ।
प्रामाणिकों को निर्विशेषवस्तु मानना उचित नहीं ।
इस प्रकार सिद्ध कर
श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
निर्विशेष ब्रह्मवाद का खण्डन किया है ।[[६६]]

मूलम्

अतः प्रामाणिकानां न केनापि प्रमाणेन निर्विशेषवस्तुसिद्धिः ।