०३ शब्दप्रमाणस्य निर्विशेष-वस्त्व्-अ-प्रतिपादकत्वम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चार्थ-भेद–तत्-संसर्ग-विशेष–
बोधन-कृत–
पद-वाक्य–स्व-रूपता–
लब्ध-प्रमाण-भावस्य शब्दस्य निर्विशेष-वस्तु-बोधनासामथ्यान्
न निर्विशेष-वस्तुनि शब्दः प्रमाणम् ।

नीलमेघः

[[६२]]

आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने
अद्वैतियों के द्वारा वर्णित
निर्विशेषब्रह्मवाद का खण्डन किया है ।
अद्वैतियों ने ब्रह्म को निर्विशेष
अर्थात् सर्वविशेषरहित माना है ।
इस अर्थ का खण्डन करते हुये
श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
यह कहा है कि
शब्दप्रमाण से
निर्विशेष ब्रह्म सिद्ध नहीं हो सकता ।
निर्विशेष ब्रह्म क्या,
कोई भी निर्विशेष पदार्थ
शब्दप्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकता ।

शब्दप्रमाण दो प्रकार का है ।
एक पद है,
दूसरा वाक्य है ।
पद एवं वाक्य के स्वरूप पर
यदि ध्यान दिया जाय
तो प्रतीत होगा कि
ये दोनों सविशेष वस्तु का ही प्रतिपादन कर सकते हैं ।

पद में दो भाग हैं ।
(१) प्रकृतिभाग और
(२) प्रत्ययभाग ।
प्रायः करके प्रत्येक पद में
प्रकृतिभाग पहले स्थान पाता है
प्रत्ययभाग बाद स्थान पाता है ।
प्रकृति और प्रत्यय का
भिन्न २ अर्थ होता है ।
ये दोनों अर्थ परस्पर में
अन्वय रखते हैं ।
इससे फलित होता है कि
प्रकृति प्रत्ययार्थ से अन्वित
स्वार्थ का प्रतिपादन करती है,
और प्रत्यय
प्रत्ययार्थ से अन्वय रखने वाले स्वार्थ का
प्रतिपादन करता है ।

पद प्रकृत्यर्थ से युक्त प्रत्ययार्थ का प्रतिपादन करता है ।
इससे सिद्ध होता है कि
पद विशेषणविशिष्ट अर्थ का ही
प्रतिपादन कर सकता है
निर्विशेष का नहीं ।

वाक्य में अनेक पद रहते हैं ।
वाक्य पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध का प्रतिपादन करता है।
इससे फलित होता है कि
वाक्य पदार्थों के संसर्ग का बोधक है ।
पदार्थसंसर्ग एक विशिष्ट वस्तु है
क्योंकि वह पदार्थों से सम्बद्ध है ।
वाक्य भी विशिष्ट वस्तु का ही प्रतिपादन कर सकता है,
निर्विशेष का नहीं ।

निर्विशेष वस्तु का प्रतिपादन करने में
न पद का सामर्थ्य है,
न वाक्य का ।
इससे मानना पड़ता है कि
निर्विशेष वस्तु के विषय में
शब्दप्रमाण बन नहीं सकता ।
ऐसी स्थिति में निर्विशेष ब्रह्म शब्दप्रमाण से सिद्ध हो नहीं सकता ।

मूलम्

अपि चार्थभेदतत्संसर्गविशेषबोधनकृतपदवाक्यस्वरूपतालब्धप्रमाणभावस्य शब्दस्य निर्विशेषवस्तुबोधनासामर्थ्यान् न निर्विशेषवस्तुनि शब्दः प्रमाणम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्विशेष इत्य्-आदि-शब्दास् तु
केनचिद् विशेषेण विशिष्टतया ऽवगतस्य वस्तुनो
वस्त्व्-अन्तर-गत–विशेष-निषेध-परतया बोधकाः ।

नीलमेघः

यहाँ पर अद्वैती विद्वानों के द्वारा यह प्रश्न उठाया जाता है कि
“निर्विशेष" यह शब्द किसका प्रतिपादन करता है मानना पड़ता है कि
यह निर्विशेष शब्द निर्विशेष वस्तु का ही प्रतिपादन करता है ।
जिस प्रकार घट शब्द से
पट का प्रतिपादन हो नहीं सकता,
उसी प्रकार निर्विशेष शब्द से
सविशेष वस्तु का प्रतिपादन नहीं हो सकता।
ऐसी स्थिति में
यह कैसे कहा जा सकता है कि
सभी शब्द सविशेष वस्तु का ही प्रतिपादन करते हैं ?

इस प्रश्न के उत्तर में श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने यह कहा है कि
निर्विशेष शब्द भी सविशेष वस्तु का ही बोधक है ।
विचार करना होगा कि
लोक में निर्विशेष शब्द का प्रयोग
कब होता है ।

लोक में कोई पूछता है कि
उस नगर में आज क्या विशेष है।
दूसरा कहता है कि
आज उस नगर में कोई विशेष नहीं,
आज वह नगर निर्विशेष है अर्थात् विशेषरहित है ।+++(5)+++
क्या इस उत्तर का यह भाव सकता है कि
उस नगर में आज गृहमार्ग जनता और बाजार इत्यादि कोई विशेष है ही नहीं,
वह नगर इन विशेषों से रहित है ?
इस उत्तर का यह भाव नहीं हो सकता क्योंकि नगर में वे सभी विशेष विद्यमान हैं
निर्विशेष कहने का भाव यही है कि
उस नगर में आज कोई विशेष समाचार नहीं है ।
विशेष समाचाररूपी विशेष का ही निषेध करने के लिये
वहाँ निर्विशेष शब्द का प्रयोग होता है ।
इस विवेचन से फलित होता है कि
कई विशेषोँ से युक्त
नगर इत्यादि पदार्थों में
निर्विशेष शब्द का प्रयोग
इस भाव से ही किया जाता है [[६३]] कि
दूसरे नगर इत्यादि पदार्थों में होने वाले
विशेष समाचार इत्यादि विशेष
उस नगर में नहीं हैं ।
इस अर्थ का प्रतिपादन करने के लिये ही
निर्विशेष शब्द प्रयुक्त होता है ।

अनेक विशेषों से युक्त पदार्थ में
अन्य पदार्थों में देखे गये
किसी विशेष के न होने के कारण ही
निर्विशेष शब्द प्रयुक्त होता है ।

निर्विशेष शब्द भी
सविशेष वस्तु का ही प्रतिपादक है ।
अन्यान्य विशेष होने पर भी
विवक्षित विशेष न होने के कारण
निर्विशेष शब्द का प्रयोग होता है ।
इस प्रकार कहकर
श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
इसी सिद्धान्त को स्थिर किया है कि
सभी शब्द सविशेष वस्तु के ही प्रतिपादक हैं ।

rAjagopAla

Words like ‘without particularities’ signify an object understood as qualified by some (attribute) or particularity as being without particularities understood as existing in other objects.

मूलम्

निर्विशेष इत्यादिशब्दास् तु केनचिद् विशेषेण विशिष्टतयावगतस्य वस्तुनो वस्त्वन्तरगतविशेषनिषेधपरतया बोधकाः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतरथा +++(विशेष-वाचकानां→)+++ तेषाम् अप्य् अनवबोधकत्वम् एव -

  • प्रकृति-प्रत्यय-रूपेण - पदस्यैवानेक-विशेष-गर्भत्वाद्
  • अनेक-पदार्थ-संसर्ग-बोधकत्वाच् च वाक्यस्य ।
rAjagopAla

Otherwise, they can signify nothing.
Words which are constituted of roots and terminations (prakriti and pratyaya)
imply through them many particularities or attributes
and much truer is this of sentences,
as they signify the connection existing among more words than one.

मूलम्

इतरथा तेषामप्यनवबोधकत्वमेव
प्रकृतिप्रत्ययरूपेण पदस्यैवानेकविशेषगर्भत्वादनेकपदार्थसंसर्गबोधकत्वाच्च वाक्यस्य ।