०२ शोधक-वाक्यानि

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोधक-वाक्यान्य् अपि
निरवद्यं सर्व-कल्याण-गुणाकरं परं ब्रह्म बोधयन्ति ।

नीलमेघः

शोधक वाक्यों से भी ब्रह्म की सविशेषता की सिद्धि
शोधकवाक्यान्यपि निरवद्यं सर्वकल्याणगुणाकरं परं ब्रह्म शोधयन्ति । सर्वप्रत्यनीकाकारताबोधनेऽपि तत्तत्प्रत्यनीकाकारतायां भेदस्यावर्जनीयत्वान्न निर्विशेषवस्तुसिद्धिः ।

सद्विद्या सविशेष ब्रह्म का ही वर्णन करती है
इस अर्थ को सिद्ध करके
श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने आगे यह सिद्ध किया है कि
“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” इत्यादि शोधकवाक्य भी
सविशेष ब्रह्म का ही प्रतिपादन करते हैं ।

कारण-वाक्यों के बाद
शोधकवाक्यों की प्रवृत्ति मानी जाती है ।
ब्रह्म को जगत्कारण कहने वाले वाक्य कारणवाक्य माने जाते हैं ।

उन वाक्यों से
ब्रह्म जगत्कारण सिद्ध होने पर
यह शङ्का होती है कि
जिस प्रकार लोक में
कारण बनने वाले पदार्थों में विकार इत्यादि दोष होते हैं
क्या उसी प्रकार जगत्कारण ब्रह्म में भी
विकार इत्यादि दोष होते हैं ?
इस शङ्का का परिहार करने के लिये शोधकवाक्य प्रवृत्त होते हैं ।

शोधकवाक्य ब्रह्म को सर्वविलक्षण पदार्थ बतलाकर
उन शंकित दोषों को दूर कर देते हैं
जिससे ब्रह्म निर्दोष सिद्ध होता है ।

मूलम्

शोधकवाक्यान्य् अपि निरवद्यं सर्वकल्याणगुणाकरं परं ब्रह्म बोधयन्ति ।

प्रत्यनीकाकार-धर्माः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्व-प्रत्यनीकाकारता-बोधने ऽपि
तत्-तत्-प्रत्यनीकाकारतायां भेदस्यावर्जनीयत्वान्
+++(तत्-तद्-विशेष-विशिष्टताया अनिवार्यत्वात्)+++
न निर्विशेष-वस्तु-सिद्धिः ।

विश्वास-टिप्पनी

न हि नाना-प्रत्यनीकताः स्वरूपगता इति वक्तुम् उचितम्।
घटाभावो पटाभावद् भिन्नं हि वस्तु -
तेन गुणौ ह्य् उभयम् भूत्वैकस्मिन् वस्तुन्य् आश्रयेत।

नीलमेघः

अद्वैतवादी कहते हैं कि

“निष्कलं निष्क्रियं शान्तं
निरवद्यं निरञ्जनम्”

“निर्गुणम्"

इत्यादि वाक्य ब्रह्म को निर्गुण सिद्ध करते हैं । इसलिये ब्रह्म को निर्गुण मानना चाहिये ।

इस प्रकार पूर्वपक्ष उपस्थित होने पर
श्रीभाष्यकार स्वामी जी कहते हैं कि
सभी वेदवाक्यों को
एक सा प्रमाण मानकर
अर्थ करना चाहिये ।+++(4)+++

जिस प्रकार उपर्युक्त वाक्य ब्रह्म में गुणों का निषेध करते हैं,
उसी प्रकार “यः सर्वज्ञः सर्ववित्”

“परास्य शक्तिविविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च"

इत्यादि उपनिषद वाक्य
ब्रह्म में सर्वज्ञत्व और पराशक्ति इत्यादि कल्याणगुणों का विधान करते हैं।

ऐसे ही

" अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर् विशोको
विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः "

यह एक वाक्य ब्रह्म में पाप जरा मृत्यु शोक बुभुक्षा और पिपासा इत्यादि दोषों का निषेध करके
सत्यकामत्व और सत्यसंकल्पत्व इत्यादि कल्याणगुणों का विधान करता है ।

इन सभी वाक्यों का एक सा प्रामाण्य मानना चाहिये।
किसी वाक्य का अकाट्य प्रामाण्य
और किसी वाक्य का कटने वाला प्रामाण्य नहीं मानना चाहिये ।

[[५४]]
ऐसा मानने पर
वह वाक्य अप्रमाण हो जायेगा जिसका प्रामाण्य कटने वाला है ।+++(4)+++

सामान्य-विशेष-न्याय और उत्सर्गापवाद-न्याय
इत्यादि न्यायों के अनुसार
यही निष्कर्ष निकलता है कि
गुण-निषेधक वाक्य
विहितगुणों को छोड़कर
अन्यान्य उन दुर्गुणों का ही निषेध करते हैं
जिनका नाम ले कर अन्यान्य वाक्यों से निषेध किया गया है ।+++(5)+++

गुणविधायक वाक्य कल्याणगुणों का विधान करते हैं।
इससे ब्रह्म निर्दोष एवं सर्वकल्याणगुणनिधि सिद्ध होता है ।
शोधकवाक्य शंकित दोषों का निराकरण करके
उपर्युक्त ब्रह्म का ही प्रतिपादन करते हैं ।

किंच, “सत्यं ज्ञानमनन्त ब्रह्म" इस शोधक वाक्य से ब्रह्म में सत्यत्व ज्ञानत्व और अनन्तत्व गुण ही प्रतिपादित होते हैं ।

नीलमेघः - अद्वैत-मतम्

इस पर अद्वैतवादी कहते हैं कि
सत्य शब्द का अर्थ सत्यत्व वाला नहीं है
किन्तु असत्य से भिन्न वस्तु अर्थ है ।
ज्ञान शब्द का अर्थ ज्ञानत्व वाला नहीं,
किन्तु जडभिन्न अर्थ हैं ।
अनन्त
शब्द का अर्थ अनन्तत्व वाला नहीं, किन्तु परिच्छिन्नभिन्न अर्थ है ।+++(5)+++
ब्रह्म में सत्यत्वादि धर्म है ही नहीं,
क्योंकि वह निर्धर्मक है ।
ब्रह्म सत्य से भिन्न है
जढ से भिन्न है
तथा परिच्छिन्न से भिन्न है ।
इससे यह न समझना चाहिये कि
ब्रह्म में असत्य से भेद इत्यादि धर्म रहते हैं ।
ये असत्यभेद इत्यादि ब्रह्म के धर्म नहीं हैं
किन्तु ये ब्रह्म का स्वरूप ही हैं।

नीलमेघः - शक्ति-त्यागः

यह कथन ठीक नहीं क्योंकि
सत्य आदि पद
सरल रीति से
शक्ति से सत्यत्वादि धर्म वाले पदार्थ का ही प्रतिपादन करते है ।
ये शब्द
लक्षणा से ही असत्यभिन्न इत्यादि अर्थों का प्रतिपादन कर सकते हैं,
शक्ति से नहीं ।
यदि ये शब्द असत्यभिन्न इत्यादि अर्थों का प्रतिपादन करते हैं
तो इन पदों में
लक्षणा माननी होगी ।
यह एक दोष है ।

नीलमेघः - प्रतियोगिता-धर्मत्वम्

अभाव-भेदः॥

ब्रह्मस्वरूप ही असत्य इत्यादि विभिन्न प्रतियोगी के अनुसार
विभिन्नभेद के रूप में बुद्ध्यारूढ होता है ।

विभिन्न भेदों के रूप में
ब्रह्म को बतलाकर
ये सत्य आदि पद सार्थक होते हैं ।
इस प्रकार यह
“सत्यं ज्ञानम्” इत्यादि वाक्य
निर्धर्मक ब्रह्म का ही प्रतिपादन करते हैं ।
यह अद्वैतियों का कथन है।

ऐसा प्रतिपादन करने पर भी
ब्रह्म में तीन धर्म अवश्य सिद्ध होंगे।
यदि सत्य शब्द ब्रह्म को असत्य से भिन्न,
ज्ञान शब्द ब्रह्म को जड से भिन्न
तथा अनन्त शब्द ब्रह्म को परिच्छिन्न से भिन्न बतलाता
तो भी ब्रह्म में असत्य से भेद, जढ से भेद, और परिच्छिन्न से भेद -
ऐसे तीन धर्म अवश्य सिद्ध होंगे ।

असत्य इत्यादि प्रतियोगी भिन्न होने के कारण
तीन भेद भिन्न धर्म हैं,
एक नहीं,
क्योंकि यह सर्वसंमत सिद्धान्त है कि
प्रतियोगी भिन्न होने पर
अभाव भी भिन्न होता है ।
घट का अभाव
और पट का अभाव
विभिन्न पदार्थ हैं।+++(5)+++
ऐसे ही ये तीनों भेद भी विभिन्न पदार्थ हैं ।+++(4)+++
ये तीनों भेद ब्रह्म में रहने वाले धर्म हैं ।+++(5)+++

॥अध्यासायोग्यता॥

यहाँ पर अद्वैती कहते हैं कि
ये तीनों भेद ब्रह्म-स्वरूप ही हैं,
ब्रह्म का धर्म नहीं हैं।
अद्वैतियों का उपर्य्-उक्त कथन समीचीन नहीं है
क्योंकि वहीं स्वरूपभेद माना जाता है
जहाँ स्वरूप का भान
प्रतियोगी के अध्यास को होने नहीं देता ।
जहाँ स्वरूप का भान होने पर भी
दूसरे पदार्थ का अध्यास होता है,
वहाँ धर्मभेद हो जाता है ।

उदाहरण -
मनुष्य रज्जु को देखकर
भ्रम से उसे सर्प समझता है ।
वह समझता है कि
यह सर्प है।
वह रज्जु को
“यह” ऐसा समझता है,
वह रज्जु अधिष्ठान है,
उसमें सर्प का अभास होता है ।
सर्प से भेद को
रज्जु में समझने पर
वह भ्रम बन्द हो जाता है ।
वह भेद रज्जु-स्वरूप नहीं है
क्योंकि रज्जु का “यह” इस रूप में भान होने पर भी +++(5)+++
सर्पभ्रम होता रहता है,
वह भेद रज्जुत्व ही है,
रज्जुत्व को समझने पर
सर्पभ्रम बन्द हो जाता है।

यहाँ अधिष्ठान के रूप में ब्रह्म का भान होता रहता है
तथा जगत् का अध्यास
अर्थात् भ्रम भी होता है,
ब्रह्म का भान होते रहते समय में ही
असत्य जड एवं परिच्छिन्न जगत् का अध्यास चलता रहता है,
यह अर्थ अद्वैतियोँ को मान्य हैं।

यदि असत्य-भेद जडभेद
एवं परिच्छिन्न-भेद ब्रह्मस्वरूप होता
तो अधिष्ठान के रूप में
ब्रह्मस्वरूप का भान होते समय
असत्य, जड और परिच्छिन्न का अध्यास न होना चाहिये
किन्तु होता रहता है।
इससे सिद्ध होता है कि ये भेद ब्रह्मस्वरूप नहीं है
किन्तु ब्रह्म का धर्म हैं ।

अध्यास होते समय अधिष्ठान के रूप में
ब्रह्ममात्र का भान होता है ।
इन धर्मों का जो भ्रमों के प्रतिबन्धक हैं-
भान नहीं होता ।
इसलिये भ्रम होता रहता है ।
जब इन धर्मों की प्रतीति होगी
तभी अध्यास बन्द होंगे ।

इस विवेचन से सिद्ध होता है कि
ये भेद ब्रह्मस्वरूप नहीं हैं
किन्तु ब्रह्म का धर्म हैं ।

नीलमेघः - उपसंहारः

“सत्यं ज्ञानमनन्त ब्रह्म"
इस श्रुति में
सत्यादि पदों में लक्षणा मानकर
इस प्रकार अर्थ करने पर भी —
कि ब्रह्म असत्यभिन्न जडभिन्न एवं परिच्छिन्नभिन्न है—
ब्रह्म में भेद-रूपी धर्म
अवश्य सिद्ध होते हैं ।

शक्ति के अनुसार अर्थ करने पर भी
ब्रह्म में सत्यत्व इत्यादि धर्म सिद्ध होते हैं।

किसी भी अर्थ में
ब्रह्म निर्धर्मक सिद्ध नहीं होता ।

“सत्यं ज्ञानम्" इत्यादि वाक्य से भी
निर्विशेष ब्रह्म सिद्ध नहीं होता ।

मूलम्

सर्वप्रत्यनीकाकारताबोधने ऽपि तत्तत्प्रत्यनीकाकारतायां भेदस्यावर्जनीयत्वान् न निर्विशेषवस्तुसिद्धिः ।

स्वरूप-निरूपक-धर्माः

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु च ज्ञान-मात्रं ब्रह्मेति प्रतिपादिते
निर्विशेष-ज्ञान-मात्रं ब्रह्मेति निश्चीयते
+++(ज्ञानं धर्म्य् एव भवति, न तु धर्म इति)+++?

नैवं ।

नीलमेघः - गुणनिषेधाभिप्रायः

अद्वैतियों ने ब्रह्म को
निर्विशेष माना है ।
उन लोगों ने यह माना है कि
उपनिषद्-वचनों से ब्रह्म
निर्गुण सिद्ध होता है ।
गुण-निषेध - दोनों प्रकार से सिद्ध होता है ।
[[५६]]
एक प्रकार यह है कि
“निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम्”
इत्य्-आदि श्रुतियाँ स्पष्टरूप से
गुणों का निषेध करती हैं ।
इसे ही “श्रौतगुणनिषेध” कहते हैं । इस श्रौतगुणनिषेध का तात्पर्य
श्रीरामानुज स्वामी जी ने यों माना है कि
ये वचन ब्रह्म में दुर्गुणों का निषेध करते हैं।

अद्वैतियों ने गुण-निषेध के
दूसरे प्रकार को आर्थगुणनिषेध कहा है।
आर्थगुणनिषेध का तात्पर्य यह है कि
कई वचन यद्यपि स्पष्टरूप से गुणनिषेध नहीं करते हैं,
तथापि उनसे फलितार्थ के रूप में
गुणनिषेध ही प्रतिपादित होता है ।+++(5)+++
भाव यह है कि
उन वचनों से
अर्थतः गुणनिषेध फलित होता है ।

उदाहरण के रूप में
उन वचनों को लेकर विचार किया जा सकता है
जो ब्रह्म को ज्ञानस्वरूप बतलाते हैं ।
इन वचनों से सिद्ध होता है कि
ज्ञानमात्र ही ब्रह्म का स्वरूप है ।
इन वचनों से फलित होता है कि
ब्रह्म ज्ञान का आश्रय नहीं है
क्योंकि ब्रह्म जब ज्ञानस्वरूप है तब वह ज्ञान का आश्रय बन नहीं सकता,
कारण, ज्ञान ज्ञान का आश्रय नहीं हो सकता ।
वही वस्तु उसी वस्तु का आश्रय हो
ऐसा जगत् में कहीं भी देखा नहीं गया है ।
ब्रह्म को ज्ञानस्वरूप बतलाने वाले वचनों से
अर्थतः फलित होता है कि
ब्रह्म ज्ञान का आश्रय नहीं है ।
यही आर्थगुणनिषेध है ।

मूलम्

ननु च ज्ञानमात्रं ब्रह्मेति प्रतिपादिते निर्विशेषज्ञानमात्रं ब्रह्मेति निश्चीयते । नैवं ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्व-रूप–निरूपण-धर्म-शब्दा +++(← यद्-उक्ता धार्मा न कदापि च्यवन्ति धर्मिणः)+++ हि
धर्म-मुखेन स्वरूपम् अपि प्रतिपादयन्ति - गव्-आदि-शब्दवत् +++(गो-जातिं बोधयन् यो गो-व्यक्तिम् अपि बोधयति)+++।

नीलमेघः

इस आर्थगुणनिषेध के विषय में
श्रीरामानुज स्वामी जी का यह कथन है कि
किसी भी वस्तु का निरूपण
किसी स्थायी धर्म को लेकर ही होता है ।
उसी स्थायी धर्म को “स्वरूप-निरूपक-धर्म” कहते हैं
क्योंकि उस धर्म से ही वस्तु-स्वरूप निरूपित होता है ।

उदाहरण- गो-व्यक्ति गोत्व-धर्म को लेकर ही
बतलायी जा सकती है ।
वह गोत्वधर्म
गौ का स्व-रूप-निरूपकधर्म है ।

ज्ञानरूप धर्म को लेकर ही
ब्रह्म-स्वरूप बतलाया जा सकता है।
ज्ञान ब्रह्म का स्व-रूप-निरूपक धर्म है ।
जिस प्रकार
गोव्यक्ति गोत्व जाति का आश्रय है
उसी प्रकार ब्रह्म
ज्ञान का आश्रय है ।

शब्दों में यह स्वभाव देखने में आता है कि
स्वरूपनिरूपकधर्म को बतलाने वाले शब्द
उस धर्म को बतलाकर
उसमें ही नहीं रुक जाते हैं
किन्तु उस धर्म को बतलाते हुये
धर्मी तक को बतलाते हैं ।+++(4)+++

उदाहरण के लिये
गोशब्द को ही ले लिया जाय ।
गोशब्द गोत्वधर्म को बतलाता हुआ
उस धर्म के आश्रय गोव्यक्ति तक का बोध कराता है ।

उसी प्रकार ब्रह्मस्वरूप को बतलाने वाला ज्ञानशब्द भी
ज्ञानरूपी स्व-रूप-निरूपक-धर्म को बतलाता हुआ
उस धर्म का आश्रय बनने वाले ज्ञाता
अर्थात् जानकार ब्रह्म को बतलाता है ।

ब्रह्म ज्ञाता अर्थात् जानकार है,
ज्ञान उसका सारभूत
अर्थात् स्वरूपनिरूपक धर्म है,
इसलिये ब्रह्म ज्ञान कहा गया है ।

मूलम्

स्वरूपनिरूपणधर्मशब्दा हि धर्ममुखेन स्वरूपम् अपि प्रतिपादयन्ति - गवादिशब्दवत् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् आह सूत्रकारः

तद्-गुण-सारत्वात् तद्-व्यपदेशः प्राज्ञवत् ।

यावद् आत्म-भावितत्वाच् च न दोष

इति ।

नीलमेघः

इस अर्थ को ब्रह्मसूत्रकार ने
“तद्गुणसारत्वात् तद्वयपदेशः प्राज्ञवत्"
इस सूत्र से सिद्ध किया है।
ज्ञान ब्रह्म में सदा रहने वाला धर्म है ।
इस अर्थ को सूत्रकार ने “यावदात्मभावित्वाच्च न दोषः”
इस सूत्रखण्ड से बतलाया है।

मूलम्

तद् आह सूत्रकारः तद्गुणसारत्वात् तद्व्यपदेशः प्राज्ञवत् । यावद् आत्मभावितत्वाच् च न दोष इति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानेन धर्मेण स्वरूपम् अपि निरूपितं न ज्ञानमात्रं ब्रह्मेति ।

नीलमेघः

इस विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि
ब्रह्मस्वरूप को ज्ञान बतलाने वाली श्रुति का
यही तात्पर्य है कि
ब्रह्म ज्ञानरूपी धर्म का आश्रय है
केवल ज्ञानमात्र नहीं ।

मूलम्

ज्ञानेन धर्मेण स्वरूपम् अपि निरूपितं न ज्ञानमात्रं ब्रह्मेति ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथम् इदम् अवगम्यत इति चेद् -

यः सर्वज्ञः सर्वविद्

इत्य्-आदि-ज्ञातृत्व-श्रुतेः

नीलमेघः

ब्रह्म को ज्ञानस्वरूप बतलाने वाली श्रुति का
इस प्रकार अर्थ करने का कारण यही है कि
अनेक श्रुतिवाक्य
ब्रह्म को ज्ञानाश्रय सिद्ध करते हैं।
वे वचन ये हैं (१)
“यः सर्वज्ञः सर्ववित्"
अर्थात् जो ब्रह्म सामान्यरूप से सबको समझता है
तथा विशेषरूप से सबको समझता है ।+++(5)+++

इस वचन से
ब्रह्म ज्ञाता
अर्थात् ज्ञान का आश्रय
सिद्ध होता है ।

[[५०]]

मूलम्

कथमिदमवगम्यत इति चेद् यः सर्वज्ञः सर्वविदित्यादिज्ञातृत्वश्रुतेः

विश्वास-प्रस्तुतिः

परास्य शक्तिर् विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ।

नीलमेघः

(२) “परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते रव भाविकी ज्ञानबलक्रिया च"
अर्थात् इस परब्रह्म की विविध पराशक्ति सुनने में आती है
तथा स्वाभाविक ज्ञान बल क्रिया भी सुनने में आती है ।
इस श्रुति से ब्रह्म का ज्ञान स्वाभाविक बतलाया गया है ।
इससे ब्रह्म का ज्ञातृत्व सिद्ध होता है ।
उसका स्वाभाविकत्व उपर्युक्त श्रुति से
फलित होता है।

इससे अद्वैतियों का यह सिद्धान्त - कि
ब्रह्म का ज्ञातृत्व अविद्यासिद्ध है स्वाभाविक नहीं—
भी खण्डित हो जाता है ।

मूलम्

परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विज्ञातारम् अरे केन विजानीयाद्

इत्य्-आदि-श्रुति-शत-समधिगतम् इदम् ।

नीलमेघः

(३) “विज्ञातारमरे केन विजानीयात् "
अर्थात् जानने वाले ब्रह्म को किससे जान सकते हैं ।
इस वचन से भी ब्रह्म
जानने वाला सिद्ध होता है ।
इस प्रकार अनेक श्रुतियों से
ब्रह्म का ज्ञातृत्व सिद्ध होता है।
इसलिये ब्रह्म को ज्ञान बतलाने वाली श्रुति का भी
ब्रह्म को ज्ञानाश्रय बतलाने में ही
तात्पर्य मानना चाहिये ।

मूलम्

विज्ञातारमरे केन विजानीयादित्यादिश्रुतिशतसमधिगतमिदम्।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानस्य धर्म-मात्रत्वाद्,
धर्म-मात्रस्यैकस्य वस्तुत्व-प्रतिपादनानुपपत्तेश् च
+++(ज्ञाता वै ब्रह्मेति)+++।

नीलमेघः

किंच, लोक में सभी यह जानते हैं कि
ज्ञान आत्मा का धर्म है
ज्ञान आत्मा का आश्रय लेकर ही रहता है ।
धर्म बनने वाला ज्ञान
कभी स्वतन्त्र वस्तु बनकर नहीं रह सकता
इसलिये केवल ज्ञान को ब्रह्म मानना उचित नहीं,
ब्रह्म को ज्ञानाश्रय ही मानना चाहिये ।

मूलम्

ज्ञानस्य धर्ममात्रत्वाद्धर्ममात्रस्यैकस्य वस्तुत्वप्रतिपादनानुपपत्तेश्च ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः सत्य-ज्ञानादि-पदानि
स्वार्थ-भूत+++(=स्वरूप-निरूपक)+++-ज्ञानादि-विशिष्टम् एव ब्रह्म प्रतिपादयन्ति ।

नीलमेघः

इस विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि
“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म”
इस श्रुति के अन्तर्गत
सत्य ज्ञान इत्यादि पद
सत्यत्व ज्ञानत्व आदि गुणविशिष्ट ब्रह्म का ही
प्रतिपादन करते हैं
निर्विशेष ब्रह्म का नहीं ।

मूलम्

अतः सत्यज्ञानादिपदानि
स्वार्थभूतज्ञानादिविशिष्टमेव ब्रह्म प्रतिपादयन्ति ।

स्वार्थो ग्राह्यः - तत्त्वमसि

विश्वास-प्रस्तुतिः

“तत् त्वम्” इति द्वयोर् अपि पदयोः
स्वार्थ-प्रहाणेन निर्विशेष-वस्तु-स्वरूपोपस्थापन-परत्वे मुख्यार्थ-परित्यागश् च ।

नीलमेघः - उद्देशः

[[५८]]

इस प्रकार श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
उन शाब्दगुणनिषेध और आर्थगुणनिषेध –
जिन्हें अद्वैतियों ने ब्रह्म को सिद्ध करने के लिये प्रस्तुत किया था—
उन के विषय में अपना सिद्धान्त बतलाकर
आगे “तत्त्वमसि” इस श्रुति के विषय में अद्वैतियों के द्वारा वर्णित अर्थ का खण्डन किया है ।

नीलमेघः - अद्वैत-दृष्टिः

“तत्त्वमसि ” श्रुति का अर्थ करते हुये
अद्वैतियों ने यह कहा कि
जगत्कारणत्व और सर्वज्ञत्व इत्यादि विशेषणों से विशिष्ट ब्रह्म
तच्छब्द का मुख्यार्थ है,
अल्पज्ञत्व इत्यादि धर्मों से विशिष्ट जीव त्वं शब्द का मुख्यार्थ है ।
ब्रह्म और जीव चैतन्यस्वरूप हैं ।
सर्वज्ञत्वादि-विशिष्ट चैतन्य तच्छदार्थ है,
अल्पज्ञत्वादिविशिष्ट चैतन्य त्वंशब्दार्थ हैं ।

यहाँ पर तच्छब्द
सर्वज्ञत्व इत्यादि विशेषणों को त्याग कर
चैतन्य भर को बतलाता है,
त्वं शब्द अल्पज्ञत्व इत्यादि विशेषणों को त्याग कर
चैतन्य भर को बतलाता है ।
दोनों चैतन्यों में ऐक्य होने में
कोई आपत्ति नहीं ।
इस प्रकार दोनों चैतन्यों में ऐक्य
‘तत्त्वमसि’ वाक्य से बोधित होता है।

नीलमेघः - दोषः

अद्वैतियोँ के इस वाद पर
श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
यह दोष दिया है कि
उपर्युक्त रीति से अर्थ करने पर
यह मानना होगा कि
तच्छब्द
सर्वज्ञत्वादिविशिष्ट चैतन्यरूपी मुख्यार्थ को —
जो शब्दशक्ति से अवगत होता है -
त्याग देता है,
तथा लक्षणा से चैतन्य मात्र को बतलाता है ।

एवं “त्वं” शब्द अल्पज्ञत्वादिविशिष्ट चैतन्यरूपी मुख्यार्थ को त्याग देता है
तथा लक्षणा से चैतन्यमात्र को बतलाता है ।

ऐसा मानने पर
मुख्यार्थ का त्याग
एवं लक्षणा का स्वीकार करना होगा ।

यह दोष उपस्थित होता है
जो वांछनीय नहीं है ।

मूलम्

तत् त्वम् इति द्वयोर् अपि पदयोः स्वार्थप्रहाणेन निर्विशेषवस्तुस्वरूपोपस्थापनपरत्वे मुख्यार्थपरित्यागश् च ।

सामानाधिकरण्यम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्व् ऐक्ये तात्पर्य-निश्चयान्
न लक्षणा-दोषः -
“सो ऽयं देवदत्त” इतिवत् ।

नीलमेघः

श्रीभाष्यकार स्वामी जी के द्वारा दिये गये
उपर्युक्त दोष का समाधान करते हुये
अद्वैती कहते हैं कि
यह बात सर्वसंमत है कि
“तत्त्वमसि“ इस वाक्य का ऐक्य में तात्पर्य है ।
उस तात्पर्य को निभाने के लिये
लक्षणा मानने में
आपत्ति नहीं करनी चाहिये ।
इस बात पर
“सोऽयं देवदत्तः” यह वाक्य दृष्टान्त माना जा सकता है ।

मूलम्

नन्व् ऐक्ये तात्पर्यनिश्चयान् न लक्षणादोषः - सो ऽयं देवदत्त इतिवत् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा “सो ऽयम्” इत्य्-अत्र
स इति शब्देन देशान्तर-कालान्तर-संबन्धी पुरुषः प्रतीयत
“अयम्” इति च संनिहित-देश–वर्तमान-काल-संबन्धी,
तयोः सामानाधिकरण्येनैक्यं प्रतीयते ।

नीलमेघः

“सोऽय देवदत्तः” का यह अर्थ है कि
वही यह देवदत्त है ।
“सः” का अर्थ है
उस देश और उस काल में रहने वाला देवदत्त ।
“अयं” शब्द का अर्थ है
इस देश और इस काल में रहने वाला देवदत्त ।
उस देश और उस काल में रहने वाले देवदत्त
तथा इस देश और इस काल में रहने वाले देवदत्त में
ऐक्य बतलाने के लिये
उपयुक्त वाक्य प्रवृत्त है,
उसका ऐक्य में तात्पर्य है ।
यह अर्थ सर्वसंमत है ।

मूलम्

यथा सो ऽयम् इत्य्-अत्र स इति शब्देन देशान्तरकालान्तरसंबन्धी पुरुषः प्रतीयत अयम् इति च संनिहितदेशवर्तमानकालसंबन्धी, तयोः सामानाधिकरण्येनैक्यं प्रतीयते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैकस्य युगपद्-विरुद्ध-देश-काल-संबन्धितया प्रतीतिर् न घटत इति
द्वयोर् पदयोः स्व-रूप-मात्रोपस्थापन-परत्वं स्व-रूपस्य चैक्यं प्रतिपद्यत

इति चेन् नैतद् एवम् ।

नीलमेघः

यहाँ पर यह आपत्ति आती है कि एक ही देवदत्त उस देश तथा इस देश से एक साथ सम्बन्ध नहीं रख सकता तथा एक ही देवदत्त अतीतकाल एवं वर्तमानकाल से एक साथ सम्बन्ध नहीं रख सकता ।
एक मनुष्य का एक ही साथ दो देशों से सम्बन्ध होना विरुद्ध है तथा एक मनुष्य का एक साथ दो कालों से सम्बन्ध होना [[५६]] विरुद्ध है।
ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि यहाँ उस ऐक्य को— जिसमें वाक्य का तात्पर्य है - कैसे निभाया जाय । उत्तर वहाँ ऐक्य को निभाने के लिये यह मानना पड़ता है कि वहाँ तच्छब्द तत्कालतदेशविशिष्ट देवदत्तरूपी मुख्यार्थ को त्याग कर लक्षणा से देवदत्तमात्र को बतलाता है तथा इदंशब्द एतद्द शैतत्कालविशिष्ट देवदत्तरूपी मुख्यार्थ को त्याग कर लक्षणा से देवदत्तमात्र को बतलाता है ।
देवदत्त देवदत्त के साथ अभेद मानने में कोई आपत्ति नहीं उठती ।

वाक्यतात्पर्यसिद्ध ऐक्य को निभाने के लिये वहाँ दोनों पदों में लक्षणा मानी जाती है ।
उसी प्रकार “तत्त्वमसि " यहाँ पर भी वाक्यतात्पर्यसिद्ध ऐक्य को निभाने के लिये दोनों पदों में लक्षणा मानना दोष नहीं है ।
लक्षणा मानकर उपर्युक्तरीति से ऐक्य को निभाने में ही औचित्य है ।
यह अद्वैतियों का कथन है ।

मूलम्

तत्रैकस्य युगपद्विरुद्धदेशकालसंबन्धितया प्रतीतिर् न घटत इति द्वयोर् पदयोः स्वरूपमात्रोपस्थापनपरत्वं स्वरूपस्य चैक्यं प्रतिपद्यत इति चेन् नैतद् एवम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो ऽयं देवदत्त इत्य्-अत्रापि
लक्षणागन्धो न विद्यते - विरोधाभावात् ।

नीलमेघः

अद्वैतियोँ के उपर्युक्त समाधान का निराकरण करते हुये श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने कहा कि अद्वैतियों के द्वारा दृष्टान्त के रूप में वर्णित “सोऽयं देवदत्त.” इस वाक्य में लक्षणा का गन्ध तक नहीं ।
मुख्यार्थ के अन्वय में विरोध उपस्थित होने पर
लक्षणा मानी जा सकती है ।
परन्तु वहाँ कोई विरोध उपस्थित होता नहीं ।
ऐसी स्थिति में वहाँ लक्षणा मानने की आवश्यकता ही नहीं ।

मूलम्

सो ऽयं देवदत्त इत्य्-अत्रापि लक्षणागन्धो न विद्यते - विरोधाभावात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकस्य भूत-वर्तमान-क्रिया-द्वय-संबंधो न विरुद्धः ।

नीलमेघः

हम लोग बौद्धों की तरह
पदार्थों को क्षणिक नहीं मानते
किन्तु स्थिर मानते हैं ।
ऐसी स्थिति में देवदत्त का अतीतकालसम्बन्ध
एवं वर्तमानकालसम्बन्ध होने में
कोई विरोध दृष्टिगोचर नहीं होता है ।
कुछ काल तक जीवित रहने वाले मनुष्य का
अतीतकाल एवं वर्तमानकाल से सम्बन्ध होता ही है ।

मूलम्

एकस्य भूतवर्तमानक्रियाद्वयसंबंधो न विरुद्धः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देशान्तर-स्थितिर् भूत्वा संनिहित-देश-स्थितिर् वर्तते ।

नीलमेघः

हाँ, यह प्रश्न उठता है कि
एक ही देवदत्त का
दरस्थदेश एवं सन्निहित देश से सम्बन्ध
कैसे हो सकता है ?
उत्तर यह है कि
यद्यपि एक काल में
दोनों देशों से सम्बन्ध नहीं हो सकता
तथापि विभिन्नकाल में
दोनों देशों से सम्बन्ध हो सकता है ।

मूलम्

देशान्तरस्थितिर् भूत्वा संनिहितदेशस्थितिर् वर्तते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो भूत-वर्तमान-क्रिया-द्वय-संबन्धितयैक्य-प्रतिपादनम् अविरुद्धम् ।
देश-द्वय-विरोधश् च काल-भेदेन परिहृतः ।

नीलमेघः

भूतकाल में देवदत्त का दूरस्थदेश के साथ सम्बन्ध है
तथा वर्तमानकाल में देवदत्त का सन्निहित देश के साथ सम्बन्ध है ।
इस प्रकार
विभिन्न कालों में
देवदत्त का दोनों देशों से सम्बन्ध है
इसमें भी कोई विरोध उपस्थित नहीं होता ।

प्रत्यक्ष प्रमाण से देवदत्त का उभयकालसम्बन्ध
तथा विभिन्नकाल में
देशद्वयसम्बन्ध अवगत होता है ।
प्रमाणसिद्ध उस अर्थ को
उसी रीति से ही
शब्द बतलाता है ।
यह शब्द का स्वभाव है ।
कालद्वय सम्बन्ध एक साथ हुआ हो,
देश-द्वय-सम्बन्ध एक साथ हुआ हो
ऐसा शब्द नहीं बतलाता
किन्तु प्रत्यक्षादि प्रमाण से जैसा अर्थ अवगत होता है,
उसी प्रकार ही शब्द बतलाता है ।

स्थिर होने के कारण
अतीत-काल-सम्बद्ध एवं वर्तमान-कालसम्बद्ध देवदत्त में
ऐक्य कहा जा सकता है
तथा भूत-काल दूर-स्थ-देश-सम्बद्ध तथा वर्तमान-काल में सन्निहित-देश-सम्बद्ध देवदत्त में ऐक्य कहा जा सकता है ।
इस प्रकार मुख्यार्थ संगत हो जाता है ।

मूलम्

अतो भूतवर्तमानक्रियाद्वयसंबन्धितयैक्यप्रतिपादनम् अविरुद्धम् ।
देशद्वयविरोधश् च कालभेदेन परिहृतः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्षणायाम् अपि न द्वयोर् अपि पदयोर् लक्षणासमाश्रयणम् -
एकेनैव लक्षितेन विरोधपरिहारात् ।

नीलमेघः

“सोऽयं देवदत्तः " इस वाक्य में लक्षणा की आवश्यकता ही नहीं ।
उस वाक्य को यहाँ दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत करना निरर्थक है ।
“सोऽय देवदत्तः” इस वाक्य में लक्षणा है ही नहीं यही सिद्धान्त है ।
“तुष्यतु” न्याय से
यदि लक्षणा की आवश्यकता मान भी ली जाय,
तो भी किसी एक पद की लक्षणा मानने पर भी विरोध शान्त हो सकता है,
दोनों पदों में लक्षणा की आवश्यकता नहीं ।

मूलम्

लक्षणायाम् अपि न द्वयोर् अपि पदयोर् लक्षणासमाश्रयणम् -
एकेनैव लक्षितेन विरोधपरिहारात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्षणाभाव एवोक्तः -
देशान्तर-संबन्धितया भूतस्यैवान्य-देश-संबन्धितया वर्तमानत्वाविरोधात् ।

नीलमेघः

यह बात [[६०]] “तुष्यतु” न्याय से कही गई है ।
वास्तव में वहाँ लक्षणा की आवश्यकता ही नहीं
क्योंकि भूतकाल में दूरस्थ देश से सम्बन्ध रखने वाले देवदत्त को
वर्तमानकाल में सन्निहित-देश से सम्बन्ध रखने में
कोई विरोध उपस्थित नहीं होता ।

मूलम्

लक्षणाभाव एवोक्तः -
देशान्तरसंबन्धितया भूतस्यैवान्यदेशसंबन्धितया वर्तमानत्वाविरोधात् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवम् अत्रापि
जगत्-कारण-भूतस्यैव परस्य ब्रह्मणो
जीवान्तर्यामितया जीवात्मत्वम्
अविरुद्धम् इति प्रतिपादितम् ।

नीलमेघः

“सोऽयं देवदत्तः” के अनुसार
“तत्त्वमसि’ में लक्षणा की आवश्यकता नहीं ।
यह बात पहले ही कही गई है कि
जगत्कारण ब्रह्म तच्छब्द का अर्थ है,
जीव का अन्तर्यामी
त्वं शब्द का अर्थ है ।
जगत्-कारण पर-ब्रह्म
जीवान्तर्यामी के रूप में
जीव का आत्मा बनकर
रह सकता है ।
इसमें कोई विरोध नहीं ।

“तत्त्वमसि” वाक्य का
यही अर्थ है ।
इसमें लक्षणा की आवश्यकता है ही नहीं ।

मूलम्

एवम् अत्रापि जगत्कारणभूतस्यैव परस्य ब्रह्मणो जीवान्तर्यामितया जीवात्मत्वम् अविरुद्धम् इति प्रतिपादितम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा-भूतयोर् एव हि द्वयोर् ऐक्यं
सामानाधिकरण्येन प्रतीयते ।

नीलमेघः

किंच, जिन रूपों में रहने वाले
दोनों पदार्थों का ऐक्य
अभेद वाक्य से बतलाया जाता है,
उन रूपों को छोड़कर
पदार्थस्वरूपमात्र का ऐक्य अभेद
वाक्य से कहा नहीं जा सकता ।

मूलम्

यथाभूतयोरेव हि द्वयोरैक्यं सामानाधिकरण्येन प्रतीयते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्-परित्यागेन स्व-रूप-मात्रैक्यं
न सामानाधिकरण्यार्थः,
भिन्न–प्रवृत्ति-निमित्तानां शब्दानाम्
एकस्मिन्न् अर्थे वृत्तिः
सामानाधिकरण्यम् इति हि तद्-विदः ।

नीलमेघः

वैयाकरणों ने समानाविकरण वाक्य अर्थात् अभेदपरक वाक्य का इस प्रकार लक्षण कहा है कि “भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानां शब्दानां एकस्मिन् अर्थे वृत्तिः सामानाधिकरण्यम्” ।
इसका अर्थ यह है कि
शब्द जिस निमित्त को लेकर अर्थ को बतलाते हैं, उसे प्रवृत्तिनिमित्त कहते हैं ।

घट शब्द घटत्वरूप निमित्त को लेकर
घटपदार्थ को बतलाता है ।
घट शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त
घटत्व है ।

नीलपद नीलत्वरूपी निमित्त को लेकर
नीलपदार्थ को बतलाता है ।
नीलपद का प्रवृत्तिनिमित्त
नीलत्व है ।

घटत्व और नीलत्व विभिन्न धर्म है ।
इस प्रकार विभिन्न प्रवृत्तिनिमित्तों को लेकर चलने वाले पद
यदि एक ही अर्थ में पर्यवसान पावें
तो उन पदोँ से युक्त वाक्य को
समानाधिकरण वाक्य
अर्थात् अभेदपरक वाक्य कहा जाता हैं ।
“नीलो घटः " यह वाक्य
समानाधिकरण वाक्य है ।

यह वाक्य उस एक अर्थ को बतलाता है
जो नीलत्व-गुणवाला होता हुआ
घटत्व धर्म वाला है ।

उन २ पदों से
बोधित विभिन्न प्रवृत्तिनिमित्तों को लेकर — तयाग कर नहीं-
यदि वाक्य एक अर्थ में पर्यवसान पावे,
तभी वह अभेदपरक माना जा सकता है ।

मूलम्

तत्परित्यागेन स्वरूपमात्रैक्यं न सामानाधिकरण्यार्थः भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानां शब्दानाम् एकस्मिन्न् अर्थे वृत्तिः सामानाधिकरण्यम् इति हि तद्विदः ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा-भूतयोर् ऐक्यम् उपपादितम् अस्माभिः ।

नीलमेघः

अद्वैतवादी “तत्त्वमसि’
इस वाक्य में
तच्छब्दबोधित सर्वज्ञत्व इत्यादि प्रवृत्तिनिमित्तों को
तथा त्वंशब्दबोधित अल्पज्ञत्व इत्यादि धर्मों को छोड़कर
“तत्त्वमसि” वाक्य का स्वरूपमात्र के ऐक्य में जो तात्पय कहते हैं,
यह ठीक नहीं,
क्योंकि ऐसा मानने पर
लक्षणवाक्य से मेल सिद्ध नहीं होता ।

इसलिये दोनों पदों से बोधित प्रवृत्तिनिमित्तों को लेकर ही
इस वाक्य का ऐक्य में तात्पर्य मानना चाहिये।
ऐसा निर्वाह विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में ही सम्पन्न होता है ।

तच्छब्दार्थ जगत्कारण ब्रह्म
तथा त्वं शब्दार्थ जीवान्तर्यामी के अभेद में
उपर्युक्त वाक्य का तात्पर्य है ।
ऐसा हम लोगों ने अर्थात् विशिष्टाद्वैती विद्वानों ने सिद्ध किया है ।
इस प्रकार श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
अद्वैतियों की शङ्का का परिहार करते हुये
यह दूषण भी दिया है कि
अद्वैतसिद्धान्त में
अभेदपरक पदों में प्रवृत्तिनिमित्त भेद न माने जाने के कारण
अभेदपरक समानाधिकरण पदों के विषय में
वैयाकरणों के द्वारा वर्णित लक्षण भी नहीं घटता है ।

मूलम्

तथाभूतयोर् ऐक्यम् उपपादितम् अस्माभिः ।

उपक्रम-न्यायः

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपक्रम-विरोध्य्–उपसंहार-पदेन
वाक्य-तात्पर्यनिश्चयश् च न घटते ।

नीलमेघः

आगे श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
अद्वैतिसम्मत “तत्त्वमसि” वाक्यार्थ के विषय में
और एक दोष देते हुये
यह कहा है कि पूर्वमीमांसा के उपक्रमाधिकरण में यह न्याय निर्णीत है कि
प्रारम्भस्थ वाक्य के [[६१]] अनुसार ही
उपसंहारस्थ वाक्य का अर्थ करना चाहिये,
प्रारम्भवाक्यार्थ के विरुद्ध अर्थ में
उपसंहारस्थ वाक्य का तात्पर्य नहीं मानना चाहिये ।

मूलम्

उपक्रमविरोध्युपसंहारपदेन वाक्यतात्पर्यनिश्चयश् च न घटते ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपक्रमे हि
“तद् ऐक्षत बहु स्याम्” इत्यादिना
सत्य-संकल्पत्वं
जगद्-एक-कारणत्वम्
अप्य् उक्तम् ।

नीलमेघः

प्रकृत सद्विद्या में “तदक्षत बहु स्यां प्रजायेय” यह प्रारम्भवाक्य है
जिसका अर्थ यह है कि उस सद्द्ब्रह्म ने यह संकल्प किया
कि मैं बहुत हो जाऊँ,
तदर्थ विविधरूपों में उत्पन्न होऊँ ।

मूलम्

उपक्रमे हि
“तदैक्षत बहु स्याम्” इत्यादिना
सत्यसंकल्पत्वं
जगदेककारणत्वमप्युक्तम्।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्-विरोधि चाविद्याश्रयत्वादि +++(शाङ्कराभिप्रायेण “त्वच्”-छब्द-वाच्यस्य)+++ ब्रह्मणः ।

नीलमेघः

इस वाक्य से ब्रह्म में
दो विशेषतायें सिद्ध होती हैं ।
(१) ब्रह्म सत्यसंकल्प है,
(२) ब्रह्म जगत् का प्रधान कारण है ।

सद्विद्या में “तत्त्वम् असि”
यह उपसंहार वाक्य है ।
यदि इस वाक्य से
अद्वैतमतानुसार जीव और ब्रह्म में ऐक्य बतलाया जाय
तो ब्रह्म में अज्ञान मानना होगा
क्योंकि अज्ञान में फँसकर ही ब्रह्म
जीवभाव को प्राप्त हो सकता है ।+++(5)+++
अद्वैतियों ने “तत्त्वमसि " वाक्य के द्वारा प्रतिपादित जीवब्रह्म क्य का समर्थन करने के लिये
ब्रह्म में अज्ञान माना है ।

ब्रह्म को अज्ञान का आश्रय मानना
उस प्रारम्भस्थ वाक्य से विरोध रखता है
जो ब्रह्म को सत्यसंकल्प एवं सर्वज्ञ सिद्ध करता है ।

मूलम्

तद्विरोधि चाविद्याश्रयत्वादि ब्रह्मणः ।