आक्षेपः - कारण-मात्र-सत्ता?
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ स्यात् -
उपक्रमे ऽप्य्
“एक-विज्ञानेन सर्व-विज्ञान”-मुखेन कारणस्यैव सत्यतां प्रतिज्ञाय
तस्य कारण-भूतस्यैव ब्रह्मणः सत्यतां, विकार-जातस्यासत्यतां
मृद्-दृष्टान्तेन दर्शयित्वा
सत्य-भूतस्यैव ब्रह्मणः
सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद्
एकम् एवाद्वितीयम्
इति स-जातीय–विजातीय–निखिल-भेद-निरसनेन
निर्विशेषतैव प्रतिपादिता ।
rAjagopAla
(By way of answer) it might be said by the Advaitin,
“At the beginning of that context (in Chandogya Upanishad), it is declared that,
“by knowing the One, all things are known”.
This implies that only the ultimate cause is true. The Sruti then proceeds to explain how the cause alone is true and how all effects are false by giving the illustration of mud, after which, in the passage
“Sat (Reality or Brahman) alone, my child, existed at first, One and without a second”,
all difference is said to be nonexistent-difference from like things and from unlike things.
NOTE :-
The illustration of mud; When his father says, “By knowing the one all things are known”. Svetaketu does not understand how that could be. His father explains the statement with an illustration. He says;
“In the same way as everything made of mud is understood from a single lump of mud” (out of which the others are made).
The teacher elaborates the point by adding “The effects arising from mud are only words and names. Only the mud is real”.
This is the Advaitic interpretation of the text and is brought in to justify the view that only the primal cause, Sat, is true or real and that all the effects which appear thereon are mere names and appearances which are illusory’’. Ramanuja’s interpretation of this text will be found elsewhere,
नीलमेघः
अद्वैतमत में “तत्त्वमसि” इस वाक्य का जो अर्थ किया जाता है उसके विषय में श्रीरामानुज स्वामी जी ने यह दोष दिया है कि उस अर्थ को मानने पर छान्दोग्योपनिषद में वर्णित ब्रह्म का संकल्पवत्व एवं [[२६]] जगत्कारणत्व तथा इन अर्थों का समर्थन करने वाले अन्यान्य उपनिषद्वर्णित असंख्य कल्याणगुण एवं निर्दोषत्व बाधित हो जायेंगे । इस दोष का परिहार करने के लिये अद्वैतियों के द्वारा जो उत्तर दिया जाता है उसका वर्णन रामानुज स्वामी जी ने इस प्रकार किया है कि यद्यपि " तत्त्वमसि’ इस वाक्य की अपेक्षा पहले ही " तदैक्षत” इत्यादि वाक्य स्थित हैं जिनसे जगत्कारण ब्रह्म के कई गुण वर्णित हुये हैं । उन वाक्यों के आधार पर जगत्कारण ब्रह्म को विशिष्टाद्वैतवादियों ने सगुण सिद्ध करने के लिये चेष्टा की है तथा यह भी कहा है कि उपक्रमाधिकरण के ( जो पूर्वमीमांसा में वर्णित है ) अनुसार उपक्रम अर्थात् प्रारम्भस्थ वाक्य के अनुसार अग्रिम वाक्यों का अर्थ करना चाहिये । तथापि यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि पूर्वमीमांसा वर्णित उपक्रमाधिकरण न्याय के अनुसार अर्थ करना हमें भी अभीष्ट है । हम अद्वैतवादी मध्य में स्थित " तदैक्षत” इत्यादि वाक्यों को उपक्रम वाक्य न मानकर इस प्रकरण में सर्वप्रथम अवस्थित वाक्य को उपक्रम वाक्य मानकर उसके अनुसार अग्रिम वाक्यों का अर्थ करते हैं । यही युक्त है । । ।
यही पद्धति उपक्रमाधिकरण न्याय
अनुकूल है ।
के
“तत्त्वमसि " के पूर्व " तदैक्षत” इत्यादि वाक्य हैं। उनसे पूर्व “येनाश्रुतम्" इत्यादि वाक्य है जिसमें एक के जानने से सबको जानने की प्रतिज्ञा वर्णित है । उपादान कारण - जो कार्य रूप में परिणत होता है— को जानने से कार्य का ज्ञान हो जाता है । जगत्कारणवस्तु को जानने पर जगत् के अन्तर्गत सभी कार्यपदार्थ जाने जा सकते हैं । इस प्रतिज्ञा का यह कहने में तात्पर्य है कि कारणवस्तु ही सत्य है, कार्यपदार्थ मिथ्या है । इस अर्थ को श्रुति ने मृत्तिका दृष्टान्त से सिद्ध किया है । वह दृटान्त इस प्रकार है कि लोक में मृत्पिण्ड से घट और शराब इत्यादि अनेक कार्यपदार्थ बनते हैं। श्रुति कहती है कि वहाँ कार्यपदार्थ वाणी का आलम्बनमात्र हैं, घट और शराब इत्यादि नाममात्र ही वहाँ हैं, कोई पदार्थ वास्तव में नहीं रहता, मृत्तिका ही सत्य है । इस दृष्टान्त से सिद्ध होता है कि सभी कार्यपदार्थ मिथ्या हैं, कारण ही सत्य है । इससे फलित होता है कि कार्य होने के कारण यह सम्पूर्ण जगत् मिथ्या है, जगत् का कारण बनने वाला ब्रह्म ही सत्य है । उस जगत्कारण ब्रह्म को “सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्” इस श्रुति ने निर्विशेष सिद्ध किया है । इसका अर्थ यह है कि हे सोम्य ! यह जगत् सृष्टि के पूर्व अर्थात् प्रलयकाल में सत् ब्रह्म के रूप में था वह ब्रह्म सभी भेदों से रहित था । सजातीय भेद विजातीय भेद एवं स्वगत भेद से शून्य था । ब्रह्म सजातीय भेद से रहित हैं क्योंकि उसके समान कोई पदार्थ है ही नहीं । ब्रह्म विजातीय भेद से रहित है क्योंकि विजातीय सभी पदार्थ मिथ्या हैं । ब्रह्म स्वगत भेद से रहित है क्योंकि ब्रह्म में कोई भी गुण धर्म है ही नहीं । इस प्रकार सब तरह के भेदों से रहित होने कारण ब्रह्म निर्विशेष सिद्ध होता है । यह निर्विशेष ब्रह्म ही इस सद्विद्या में जगत्कारण के रूप वर्णित है ।
मूलम्
अथ स्यात् उपक्रमे ऽप्य् एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानमुखेन कारणस्यैव सत्यतां प्रतिज्ञाय तस्य कारणभूतस्यैव ब्रह्मणः सत्यतां विकारजातस्यासत्यतां मृद्दृष्टान्तेन दर्शयित्वा सत्यभूतस्यैव ब्रह्मणः सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद् एकम् एवाद्वितीयम् इति सजातीयविजातीयनिखिलभेदनिरसनेन निर्विशेषतैव प्रतिपादिता ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्-छोधकानि
प्रकरणान्तर-गत-वाक्यान्य् अपि -
सत्यं ज्ञानम् अनन्तं ब्रह्म,
निष्कलं निष्क्रियं निर्गुणं,
विज्ञानम् आनन्दम्
इत्य्-आदीनि सर्व-विशेष-प्रत्यनीकैकाकारतां बोधयन्ति ।
rAjagopAla
Other texts in different contexts which clarify this passage teach Brahman’s being without any difference, particularity or attribute. They are:-
“*Brahman is truth, consciousness, infiniteness “(*Taittiriya Upanishad.)
(Brahman) is without parts, without action, without attributes and without faults.” (+ Taittiriya Upanishad.) 45
“(Brahman) is of the nature of consciousness and bliss”, (Taittiriya Aranyaka)
and the like.
नीलमेघः
किंच, अन्यान्य उपनिषदों में विभिन्न प्रकरणों में कई शोधक वाक्य हैं जो कारणवाक्यों से वर्णित कारणवस्तु का शोधन करते हैं, उन वाक्यों से भी ब्रह्म निर्विशेष ही सिद्ध होता है । “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” “निष्कलं निष्क्रियम्” “निर्गुणम्” [[३०]] “विज्ञानमानन्दम्” इत्यादि वे वाक्य हैं। इनका अर्थ यह है कि ब्रह्म सत्य अर्थात् असत्य से भिन्न है, ज्ञान अर्थात् जड से भिन्न है एवं अनन्त अर्थात् परिच्छिन्न से व्यावृत्त है । ब्रह्म निष्कल अर्थात् अवयवरहित हैं, निष्क्रिय अर्थात् क्रियारहित है, एवं निर्गुण अर्थात् गुणरहित हैं, ब्रह्म विज्ञान अर्थात् जड से व्यावृत्त हैं । एवं आनन्द अर्थात् दुःख से व्यावृत्त है । इन वाक्यों से ब्रह्म निर्धर्मक सिद्ध होता है । यह नहीं समझना चाहिये कि इन वाक्यों से ब्रह्म में अभावरूपी धर्म सिद्ध होते हैं क्योंकि वे सभी अभाव ब्रह्मस्वरूप ही हैं ब्रह्म से भिन्न नहीं । इस विवेचन से यह फलित होता है कि जगत्कारण को बतलाने वाले “सदेव सोम्येदमग्र आसीत् " इस बाक्य से जगत्कारण ब्रह्म निर्विशेष सिद्ध होता है, तथा जगत्कारणवस्तु की सर्वविलक्षणता को बतलाने के लिये प्रवृत्त “सत्यं ज्ञानम्” इत्यादि शोधक वाक्यों से भी ब्रह्म निर्विशेष ही सिद्ध होता है ।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि यदि “सत्यं ज्ञानम्” इत्यादि पद ब्रह्मस्वरूपमात्र का वर्णन करते हुये ब्रह्म में सत्यत्व और ज्ञानत्व इत्यादि धर्मों को नहीं बतलाते तब तो ये सभी पद पर्याय बन जायेंगे । घट और कलश इत्यादि पद पर्याय माने जाते हैं क्योंकि ये पद एक घट का ही प्रतिपादन करते हैं । इसी प्रकार यदि सत्य आदि पद भी एक ही वस्तु का प्रतिपादन करते हैं तो पर्याय हो जायेंगे । पर्याय शब्दों में एक शब्द ही पर्याप्त है, अन्य शब्दों की आवश्यकता नहीं । घट शब्द से जब घट बतलाया जाता है तब कलश शब्द की क्या आवश्यकता है ? प्रकृत में सत्यादिपदों की पर्यायता सिद्ध होने पर एक पद ही पर्याप्त हो सकता है अन्यान्य पदों का वैयर्थ्य दोष उपस्थित होगा । इस दोष का निवारण कैसे किया जाय। इस प्रश्न का उत्तर द्वैतवादी इस प्रकार देते हैं कि यद्यपि सत्य आदि पदों से एक ही ब्रह्मस्वरूप वर्णित होता है, तथापि ये पद पर्याय नहीं बनते हैं क्योंकि ये पद विभिन्न रूपों से प्रतिपादन करते हैं । सत्यपद असत्य विरोधी के रूप में, ज्ञानपद जडविरोधी के रूप में, अनन्तपद परिच्छिन्नविरोधी के रूप में एक ही ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं । इसी प्रकार ही निष्कल आदि पदों के विषय में भी समझना चाहिये । यदि अनेक पद एक ही रूप से किसी वस्तु का प्रतिपादन करते हों तो उन्हें पर्याय मानना चाहिये । घटपद और कलशपद एक ही रूप से घट का प्रतिपादन करते हुये पर्याय बनते हैं। प्रकृत में सत्य आदि पर विभिन्न रूपों से ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं । इसलिये ये पर्याय नहीं माने जा सकते हैं। अतएव यहाँ एक पद से दूसरा पद
।
गतार्थ नहीं होता। सभी पद सफल बन जाते हैं
।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि सत्य ज्ञान आदि पद सब तरह के विशेषीं के विरोधी के रूप में ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं। इससे ब्रह्म निर्विशेष सिद्ध होता है । “सदेव सोम्य” इत्यादि कारण वाक्य जगत्कारण ब्रह्म को निर्विशेष सिद्ध करते हैं तथा “सत्यं ज्ञानम्” इत्यादि शोधक वाक्य भी ब्रह्म को निर्विशेष सिद्ध करते हैं। इससे यही फलित होता है कि ब्रह्म को सविशेष मानना उचित नहीं । इस प्रकार अद्वैतवादियों ने अपने मन्तव्य को परिष्कृत करके रक्खा है
मूलम्
एतच् छोधकानि प्रकरणान्तरगतवाक्यान्य् अपि सत्यं ज्ञानम् अनन्तं ब्रह्म, निष्कलं निष्क्रियं निर्गुणं, विज्ञानम् आनन्दम् इत्यादीनि सर्वविशेषप्रत्यनीकैकाकारतां बोधयन्ति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैकाकारता-बोधने पदानां पर्यायता -
एकत्वे ऽपि वस्तुनः
सर्व-विशेष-प्रत्यनीकतोपस्थापनेन
सर्व-पदानाम् अर्थवत्त्वाद्
इति ।
rAjagopAla
It is wrong to say that, if many words are employed to signify the same object (as in truth, consciousness, infiniteness), they would become synonymous (and consequently tautological and unnecessary), for though the object signified is only one, all these words are appropriate as they bring out Brahman’s being opposed to every form of difference or particularity (visesha).
NOTE-
When the Sruti says, Brahman is “truth, consciousness, infiniteness”, the Advaitin explains its meaning thus:-
Brahman is other than untruth or that which is unreal.
It is other than that which is non-sentient, it is other than the finite.
These are three negative statements about a single entity and are not three different and positive attributes.+++(5)+++
मूलम्
न चैकाकारताबोधने पदानां पर्यायता
एकत्वेऽपि वस्तुनः
सर्वविशेषप्रत्यनीकतोपस्थापनेन
सर्वपदानामर्थवत्त्वाद्
इति ।
उत्तरम् - कार्यम् अपि सत्
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतद् एवम् ।
“एक-विज्ञानेन सर्व-विज्ञानं”
सर्वस्य मिथ्यात्वे
सर्वस्य ज्ञातव्यस्याभावान्
न सेत्स्यति । +++(4)+++
rAjagopAla
This is not a proper answer. According to this view (Advaita), since everything is illusory (mithya), there is nothing else that requires to be known. It cannot then be proved that all things are known by knowing the One. If the meaning of “all things are known by a knowledge of the One (i. e.) Brahman)” is that, since they and the One are of the same nature, when the One is known, the rest are also known,
नीलमेघः
इस मन्तव्य की समालोचना करते हुये श्रीरामानुज स्वाभी जी ने आगे यह कहा है कि
उपनिषद में यह प्रतिज्ञा वर्णित है कि
एक को जानने से
सब कुछ जाना जाता है।
अद्वैतियों ने अपने सिद्धान्त के समर्थन में इस प्रतिज्ञा का सर्वप्रथम उल्लेख किया है।
सूक्ष्म विचार करने पर विदित होता है कि यह प्रतिज्ञा अ तसिद्धान्त में सर्वथा घटती नहीं ।
तथाहि - इस प्रतिज्ञा का यह भाव है कि-जगत् के परममूल उपादान कारण - जो जगद्र प में परिणत होता है— को जानने से सभी कार्यपदार्थ ज्ञात होते हैं विशिष्टाद्वैतवादियों को भी संमत है ।
अद्वैत सिद्धान्त का यह डिण्डिमघोष प्रसिद्ध है कि
ब्रह्म एक ही सत्य है
यह सम्पूर्ण जगत् मिथ्या है ।
ब्रह्म जगत् का विवर्तोपादान है
क्योंकि अधिष्ठान ब्रह्म में
यह जगत् आरोपित होकर
उसी प्रकार भासित होता है
जिस प्रकार शुक्ति में
रजत प्रतीत होता है ।
जगत् वास्तव में है ही नहीं,
केवल भ्रम से दिखाई देता है ।
इसलिये इसे औतियों ने
मिथ्या माना है ।
मिथ्या पदार्थ तबतक ही भासता रहता है,
जबतक अधिष्ठान का यथार्थज्ञान नहीं होता ।+++(4)+++
अधिष्ठान वस्तु का यथार्थज्ञान होने पर
मिथ्या वस्तु का भान बन्द हो जाता है ।
शुक्ति का यथार्थज्ञान होने पर
रजत का भान बन्द हो जाता है ।
जगत् का आदान कारण
अधिष्ठान ब्रह्म को जानने पर
जगत् एवं उसके अन्तर्गत सभी पदार्थों का
भान बन्द हो जायेगा ।
एक ब्रह्म को जानने पर
सबका ज्ञान होना असंभव है ।
जगत् एवं जागतिक पदार्थ मिथ्या होने के कारण जब हैं ही नहीं, तब इनको जानना असंभव ही है। एकमात्र अधिष्ठान ब्रह्म को जानने पर इन मिथ्या जागतिक पदार्थों का भान बन्द हो सकता है इनको ज्ञात होना तो असंभव ही है।
इस विवेचन से स्पष्ट विदित होता है कि उपर्युक्त प्रतिज्ञा अद्वैतसिद्धान्त में जमती नहीं ।
मूलम्
नैतद् एवम् ।
एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं सर्वस्य मिथ्यात्वे सर्वस्य ज्ञातव्यस्याभावान् न सेत्स्यति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यत्व-मिथ्यात्वयोर् एकता-प्रसक्तिर् वा ।
rAjagopAla
it will have to be admitted either that Brahman and the world (its effect) are both real or that they are both unreal.
नीलमेघः
यदि ब्रह्म एवं जगत् में तादात्म्य अर्थात् अभेद मानकर
इस प्रतिज्ञा को संहालने के लिये चेष्टा की जाय
तो सत्य ब्रह्म और मिथ्या जगत् में एकता सिद्ध हो जायेगी ।
यह वाञ्छनीय है ।
सत्य पदार्थ और मिथ्या पदार्थ
कभी एक नहीं हो सकते ।
उपर्युक्त दोष के कारण
अद्वैतमत में इस प्रतिज्ञा का निर्वाह नहीं सम्पन्न होता है ।
मूलम्
सत्यत्वमिथ्यात्वयोरेकताप्रसक्तिर्वा ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि त्व् एक-विज्ञानेन सर्व-विज्ञानं
सर्वस्य तद्-आत्मकत्वेनैव सत्यत्वे सिध्यति ।
rAjagopAla
[[46]]
On the view (held by us) that everything (in the world) has Brahman as its innermost soul, it would be easy to understand how by knowing the One, everything (else) is known.
NOTE:-Ramanuja’s view is this; The world has Brahman as its soul and is therefore an attribute (Viseshana) of Brahman. So, when Brahman is known, everything else is known, because Brahman is the substantive of which everything else is an attribute.
The substantive being the same in both cases, when the One is known, the others are known as well.
नीलमेघः
ऐसी स्थिति में यह जिज्ञासा होती है कि इस श्रुत्युक्त प्रतिज्ञा का निर्वाह कैसे करना चाहिये ?
उत्तर यह है कि
जगत् के उपादान कारण ब्रह्म
एवं जगत् को यदि सत्य माना जाय
तथा जगत् को ब्रह्मात्मक माना जाय तो उपयुक्त प्रतिज्ञा का समुचित निर्वाह हो जाता है ।
विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में यह माना
जाता है कि
ब्रह्म सदा चेतनाचेतन तत्त्वों से विशिष्ट
अर्थात् युक्त रहता है ।
प्रलयावस्था में चेतनाचेतन तत्त्व [[३२]] सूक्ष्म बनकर रहते हैं,
सृष्टिकाल में वे तत्त्व स्थूलावस्था को प्राप्त होते हैं ।
प्रलयकाल में
सूक्ष्म चेतनाचेतन तत्त्वों से विशिष्ट बना हुआ ब्रह्म ही
सृष्टिकाल में स्थूल चेतनाचेतन तत्त्वों से विशिष्ट बन जाता है ।
स्थूल चेतनाचेतनविशिष्ट ब्रह्म ही
यह जगत् है ।
जगत् में प्रत्येक स्थूल पदार्थ में
तीन तत्त्व निहित हैं
एक जड तत्त्व है,
दूसरा चेतन जीव तत्त्व है,
तीसरा ईश्वर तत्त्व है ।
यह ईश्वर ही ब्रह्म है ।
यह ब्रह्म ही विभिन्नावस्थाओं को प्राप्त हुये चेतनाचेतन तत्त्वों से युक्त होकर विश्वरूप को प्राप्त हुआ है । चेतनाचेतनविशिष्ट ब्रह्मतत्त्व ही विश्वरूप से प्रकट है । यह कार्य जगत् ब्रह्मात्मक है । अव यह कथन उचित ही है कि एक उपादान तत्त्व को जानने पर सभी कार्य पदार्थ जाने जाते हैं । जगत् का उपादान कारण ब्रह्म सत्य है, यह कार्य जगत् भी सत्य है, साथ ही यह जगत् ब्रझात्मक भी है क्योंकि वह सूक्ष्म चेतनाचेतनविशिष्ट ब्रह्म हो इस जगत् के रूप में अवस्थित है । कारण ब्रह्म को जानने पर यह ब्रह्मात्मक जगत् जाना जा सकता है । इस प्रकार इस प्रतिज्ञा का निर्वाह करना चाहिये, तदर्थ जगत् एवं ब्रह्म को सत्य तथा जगत् को ब्रह्मात्मक मानना चाहिये ।
मूलम्
अपि त्व् एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं सर्वस्य तदात्मकत्वेनैव सत्यत्वे सिध्यति ।
ब्रह्मणः प्रशासितृत्वम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयम् अर्थः -
श्वेत-केतुं प्रत्याह
+++(गर्वेण)+++ स्तब्धो ऽस्य्
उत तम् आदेशम् अप्राक्ष्य
इति
परिपूर्ण इव लक्ष्यसे -
तान् आचार्यान् प्रति
तम् अप्य् आदेशं+++(=आदेशकं)+++ पृष्टवान् असि
+इति ।
rAjagopAla
This is the meaning (of the Sruti):- The father said to Svetaketu, “You are puffed up (with pride). Did you at all ask about that Adesa?”. (You seem elated as if you knew everything; did you ask about that Adesa also?).
नीलमेघः
छान्दोग्योपनिषद्वर्णित सद्विद्या के प्रकरण में पठित
श्रुति वाक्यों के अर्थ पर ध्यान देने पर
उपर्युक्त निर्णय ही प्रामाणिक ठहरता है ।
तथाहि —
सद्-विद्या के आरम्भ में यह कथा वर्णित है कि
पिता उद्दालक ने
पुत्र श्वेतकेतु से पूछा कि “स्तब्धोऽस्युत तमादेशमप्राक्ष्यः” । अर्थात्
हे श्वेतकेतु !
तुम स्तब्ध अर्थात् परिपूर्ण के समान दिखाई देते हो।
क्या तुमने उन आचार्यों -
जिनसे वेदाध्ययन किया है-
उन से उस आदेश परमात्मा के विषय में
सब कुछ पूछकर जान लिया है
तभी तुम परिपूर्ण बन सकते हो।
यह पिताजी का प्रश्न है । [[३३]]
मूलम्
अयम् अर्थः श्वेतकेतुं प्रत्याह स्तब्धो ऽस्य् उत तम् आदेशम् अप्राक्ष्य इति परिपूर्ण इव लक्ष्यसे तान् आचार्यान् प्रति तम् अप्य् आदेशं पृष्टवान् असीति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदिश्यते ऽनेनेत्य् आदेशः ।
rAjagopAla
Adesa is one by whom everything is ruled.
नीलमेघः
इसमें आदेश शब्द से परमात्मा विवक्षित है ।
श्रीभगवान् सबको आदेश देने वाले हैं,
तथा सब पर शासन करने वाले हैं ।
इसलिये आदेश कहलाते हैं ।
मूलम्
आदिश्यते ऽनेनेत्य् आदेशः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदेशः प्रशासनम् ।
rAjagopAla
Adesa means Prasasanam (rule or government as in the text);
नीलमेघः
श्रीभगवान् प्रशासन करते हैं ।
मूलम्
आदेशः प्रशासनम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्य वा अक्षरस्य गार्गि
सूर्या-चन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत
इत्य्-आदिभिर् ऐकार्थ्यात् ।
rAjagopAla
“It is *in accordance with the rulership of this Akshara (Brahman), O Gargi, that the sun and the moon receive their support”.
Br. Up. 5, 8, 9.
नीलमेघः
यह अर्थ श्रुति और स्मृति से प्रमाणित है ।
उपनिषद में कहा गया है कि “एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः” अर्थात् हे गार्गि ? इस अक्षर ब्रह्म के प्रशासन के कारण ही सूर्य और चन्द्रमा धृत रहते हैं ।
मूलम्
एतस्य वा अक्षरस्य गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत इत्यादिभिरैकार्थ्यात्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा च मानवं वचः - “प्रशासितारं सर्वेषाम्” इत्यादि ।
नीलमेघः
मनुस्मृति में भी “प्रशासितार सर्वेषाम्” कह कर मनु ने यह सिद्ध किया है कि ईश्वर सब पर शासन करने वाले हैं ।
इन सब वचनों के अनुसार यहाँ पर आदेश शब्द से सब पर शासन करने वाले परमात्मा का ही प्रतिपादन मानना चाहिये । परब्रह्म परमात्मा ईश्वर और श्रीभगवान् इन शब्दों से एक ही अथ बोधित होता है । ईश्वर संकल्प के द्वारा सब पर शासन करते हैं, तथा संकल्प के द्वारा सब की सृष्टि करते हैं । संकल्प के द्वारा सृष्टि करने के कारण ही ईश्वर जगत् के उसी प्रकार निमित्त कारण माने जाते हैं जिस प्रकार इच्छापूर्वक घट का निर्माण करने वाला कुम्भकार घट का निमित्त कारण माना जाता है । ईश्वर जगत् के दोनों प्रकार से कारण हैं । वे उपादान कारण हैं, तथा निमित्त कारण भी हैं । संकल्प से सृष्टि करते हैं, इसलिये निमित्त कारण हैं । जगत् के रूप में परिणत होते हैं इसलिये उपादान कारण कहलाते हैं । मृत्तिका घट का उपादान कारण है क्योंकि वह घट के रूप में परिणत होती है। उसी प्रकार सूक्ष्म चेतनाचेतनों से विशिष्ट ईश्वर जगद्र ूप से परिणत होते हैं । इसलिये वे जगत् के उपादान कारण बनते हैं । “सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्” इस उपनिषद्वाक्य से ईश्वर का उभयविधकारणत्व वर्णित है । इस वचन का यह अर्थ है कि प्रलयकाल में यह जगत् सत् ब्रह्म के रूप में था । सूक्ष्म चेतनाचेतनों से विशिष्ट ब्रह्म ही सत् ब्रह्म है । यह जगत् क्या वस्तु है ? स्थूल चेतनाचेतनों से विशिष्ट ब्रह्म ही यह जगत् है । प्रलयकाल में सूक्ष्म चेतनाचेतनों से युक्त रहने वाला ब्रह्म ही सृष्टिकाल में स्थूल चेतनाचेतनों से विशिष्ट ब्रह्म के रूप में परिणत होता है । प्रलयकाल में चेतनाचेतनों की सूक्ष्मता तथा सृष्टिकाल में उनकी स्थूलता क्यों कही जाती है ? उत्तर - प्रलयकाल में चेतनाचेतन नामरूपविभागरहित रहते हैं, नामरूपविभागरहितता ही उनकी सूक्ष्मता है। नामरूपविभाग न होने के कारण उस समय चेतनाचेतन एकीभूत होकर रहते हैं । नामरूपाभाव ही उनकी एकत्वावस्था है । सृष्टिकाल में चेतनाचेतन नामरूपविभाग को प्राप्त होते हैं । नामरूपविभाग वाला बनना ही उनकी स्थूलत्वावस्था है । यही बहुत्वावस्था कहलाती है। एकत्वावस्थारूपी सूक्ष्म दशा में पहुँचे हुये चेतनाचेतनों से विशिष्ट ब्रह्म बहुत्वावस्थारूपी स्थूल दशा को प्राप्त करने वाले चेतनाचेतनों से विशिष्ट ब्रह्म के रूप में अर्थात् जगत् के रूप में परिणत हो जाता है । अतएव ब्रह्म जगत् का उपादान कारण माना जाता है ।
मूलम्
तथा च मानवं वचः - “प्रशासितारं सर्वेषाम्” इत्यादि ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्य् “एकम् एवे"ति
जगद्-उपादानतां प्रतिपाद्य
+“अद्वितीय”-पदेनाधिष्ठात्रन्तर-निवारणाद्
अस्यैवाधिष्ठातृत्वम् अपि प्रतिपाद्यते ।
नीलमेघः
यह उपादानकारणत्व “एकमेव” इस उक्ति से सिद्ध होता है । ब्रह्म का उपादानकारणत्व सिद्ध होने पर यह जिज्ञासा होती है कि जगत् का निमित्त कारण क्या वह ब्रह्म ही है या दूसरा कोई ? इसका समाधान अद्वितीय पद से हो जाता है । अद्वितीय पद बतलाता है कि दूसरा कोई निमित्त कारण नहीं है, वह ब्रह्म ही निमित्त कारण है । निमित्त कारण ही अधिष्ठाता कहलाता है क्योंकि [[३४]] वह संकल्प से उपादान को अधिष्ठित करके कार्य को उत्पन्न करता है । परब्रह्म संकल्प के द्वारा निमित्त कारण बनता है, तथा संकल्प के द्वारा जगत् पर शासन करता है । जो परब्रह्म आगे संकल्प के कारण जगत् का निमित्त कारण कहा गया है वही प्रशासक होने के कारण आरम्भ में आदेश शब्द से कहा गया है ।
मूलम्
अत्राप्य् एकम् एवेति जगदुपादानतां प्रतिपाद्याद्वितीयपदेनाधिष्ठात्रन्तरनिवारणाद् अस्यैवाधिष्ठातृत्वम् अपि प्रतिपाद्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस् तं प्रशासितारं जगद्-उपादान-भूतम्
अपि पृष्टवान् असि
येन श्रुतेन मतेन विज्ञातेन
+अश्रुतम् अमतम् अविज्ञानं
श्रुतं मतं विज्ञातं भवति
इत्य् उक्तं स्यात् ।
नीलमेघः
उद्दालक प्रश्न का निर्गलित अर्थ यही है कि हे श्वेतकेतु ! क्या तुमने जगत् के उपादान एवं निमित्त कारण बनने वाले तथा जगत् पर शासन करने वाले परब्रह्म को आचार्यों से पूछकर जान लिया ?
आदेशशब्दार्थ उस परब्रह्म की विशेषता को व्यक्त करते उद्दालक ने आगे कहा कि
“येनाश्रुत श्रुत भवत्यमत मतमविज्ञातं विज्ञातमिति” ।
अर्थात् जिस एक वस्तु का श्रवण करने पर उन सभी वस्तुओं का श्रवण सम्पन्न हो जाता है जिनका श्रवण कभी नहीं हुआ था, जिस एक वस्तु का मनन करने पर उन सभी वस्तुओं का मनन सम्पन्न हो जाता है जिनका अबतक मनन न हुआ हो तथा जिस एक वस्तु का ध्यान करने पर उन सभी वस्तुओं का ध्यान सम्पन्न हो जाता है, जिनका अबतक ध्यान नहीं किया गया हो। उस वस्तु को तुमने आचार्यों से पूछकर जाना या नहीं । यह उद्दालक का प्रश्न है। इसमें एक को जानने से सबको जाने जाने की प्रतिज्ञा वर्णित है।
मूलम्
अतस् तं प्रशासितारं जगदुपादानभूतम् अपि पृष्टवान् असि येन श्रुतेन मतेन विज्ञातेनाश्रुतम् अमतम् अविज्ञानं श्रुतं मतं विज्ञातं भवतीत्य् उक्तं स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निखिल-जगद्-उदय-विभव-विलयादि-कारण-भूतं
सर्व-ज्ञत्व–सत्य-कामत्व–सत्य-संकल्पत्वाद्य्–
अपरिमितोदार-गुण-गण-सागरं किं ब्रह्मापि
त्वया श्रुतम्
इति हार्दो भावः ।
नीलमेघः
पूछने वाले पिता उद्दालक का यह अभिप्राय है कि इस सम्पूर्ण जगत् की एक मूलवस्तु है
जो इस जगत् का उपादान कारण एवं निमित्त कारण बनती है ,
वह ब्रह्म सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि स्थिति और प्रलय इत्यादि का कारण है ।
वह अवाप्तमस्तकाम है । अतएव वह सदा परिपूर्ण रहता हुआ लीला के रूप में सृष्टि स्थिति और प्रलय को करता रहता है । वह सर्वज्ञ एवं सत्यसंकल्प है, अतएव जगत् का निमित्त कारण माना जाता है । वह सर्वशक्तिसम्पन्न है अतएव उपादान कारण माना जाता है । सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि स्थिति और प्रलय का आदि कारण बनने वाले तथा सर्वज्ञत्व सत्यसंकल्पत्व परिपूर्णत्व और सर्वशक्तित्व
इत्यादि अनन्त गुणों के आकर उस परब्रह्म को
तुमने गुरुओं से पूछकर जाना या नहीं ।
यही प्रश्न करने वाले पिता का हार्दभाव हैं ।
मूलम्
निखिलजगदुदयविभवविलयादिकारणभूतं सर्वज्ञत्वसत्यकामत्वसत्यसंकल्पत्वाद्यपरिमितोदारगुणगणसागरं किं ब्रह्मापि त्वया श्रुतम् इति हार्दो भावः ।
ब्रह्मणः कारणावस्था, कार्यावस्था च
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य निखिल-कारणतया
कारणम् एव नाना-संस्थान-विशेष-संस्थितं कार्यम् इत्य् उच्यत
इति कारण-भूत-सूक्ष्म-चिद्–अचिद्–वस्तु-शरीरक–ब्रह्म-विज्ञानेन
कार्यभूतम् अखिलं जगद् विज्ञातं भवतीति हृदि निधाय
येनाश्रुतं श्रुतं भवत्य्
अमतं मतम्
अविज्ञातं विज्ञातं स्याद्
इति पुत्रं प्रति पृष्टवान् पिता ।
नीलमेघः
किंच, प्रश्न करने वाले पिता उद्दालक ने इस मर्म को मन में रखकर पूछा है कि
वह परब्रह्म सम्पूर्ण जगत् का उपादान कारण है,
वही क्रम से विविध परिणामों को प्राप्त होता हुआ
इस जगत् के रूप में परिणत हो गया है।
लोक में देखा जाता है कि उपादान कारण ही कार्यरूप में परिणत होता है । सूक्ष्म चेतनाचेतन वस्तुरूपी शरीरों से विशिष्ट ब्रह्म ही जगत् का कारण है ।
वही परब्रह्म सृष्टिकाल में स्थूलदशा में पहुँचे हुये चेतनाचेतनरूपी शरीरों से विशिष्ट बनकर कार्य जगत् बन जाता है। कारण ब्रह्म और कार्य जगत् एक है। अतएव उस कारण ब्रह्म को जानने पर कार्य बने हुये सभी पदार्थ विदित हो जाते हैं क्योंकि कारण ब्रह्म और कार्य जगत् वास्तव में एक ही वस्तु है । वह ब्रह्म ही जगत् बन गया है । कारणवस्तु को समझने पर कार्यपदार्थ विदित हो जाय, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ।
इस मर्म को हृदय में रखकर पिता उद्दालक ने पुत्र श्वेतकेतु से यह पूछा कि जिस एक के ज्ञान से सबका ज्ञान हो जाता है, उस वस्तु को तुमने आचार्यों से जाना या नहीं ?
मूलम्
तस्य निखिलकारणतया कारणम् एव नानासंस्थानविशेषसंस्थितं कार्यम् इत्य् उच्यत इति कारणभूतसूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरकब्रह्मविज्ञानेन कार्यभूतम् अखिलं जगद् विज्ञातं भवतीति हृदि निधाय येनाश्रुतं श्रुतं भवत्य् अमतं मतम् अविज्ञातं विज्ञातं स्याद् इति पुत्रं प्रति पृष्टवान् पिता ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् एतत्
सकलस्य वस्तुजातस्यैककारणत्वं
पितृ-हृदि निहितम् अजानन् पुत्रः
परस्-पर-विलक्षणेषु वस्तुष्व्
अन्यस्य ज्ञानेन तद्-अन्य-विज्ञानस्याघटमानतां बुद्ध्वा
परिचोदयति
कथं नु बगवः स आदेश
इति ।
नीलमेघः
पिता यह जो जानते थे कि सभी पदार्थ एक कारण से उत्पन्न हुये इस मर्म को पुत्र श्वेतकेतु जान नहीं पाये ।
उन्होंने यही समझा कि
ये सभी पदार्थ परस्पर विलक्षण हैं।
इनमें एक को जानने से दूसरों का ज्ञान कैसे हो सकता है यह सर्वथा असंभव है ।
अतएव उन्होंने पिताजी से यह पूछा कि “कथं नु भगवः स आदेशः” अर्थात् भगवन्, वह आदेश कैसा है ?
अर्थात् शासक एक वस्तु को जानने पर सब पदार्थ जाने जाते हैं, इस बात को मैं कैसे समझू ।
मूलम्
तद् एतत्सकलस्य वस्तुजातस्यैककारणत्वं पितृहृदि निहितम् अजानन् पुत्रः परस्परविलक्षणेषु वस्तुष्व् अन्यस्य ज्ञानेन तदन्यविज्ञानस्याघटमानतां बुद्ध्वा परिचोदयति कथं नु बगवः स आदेश इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिचोदितः पुनस्
तद् एव हृदि निहितं
ज्ञानानन्दामलत्वैक–स्व-रूपम्
अ-परिच्छेद्य-माहात्म्यं
सत्य-संकल्पत्व-मिश्रैर् अनवधिकातिशयासंख्येय-कल्याण-गुण-गणैर् जुष्टम्
अ-विकार-स्वरूपं परं ब्रह्मैव
नाम-रूप-विभागानर्ह-सूक्ष्म–चिद्–अ-चिद्-वस्तु-शरीरं
स्व-लीलायै स्व-संकल्पेनानन्त-विचित्र-स्थिर-त्रस+++(=जङ्गम)+++-रूप-जगत्-संस्थानं
स्वांशेनावस्थितम् इति ।
नीलमेघः
परिचोदितः पुनस्तदेव हृदि निहितं ज्ञानानन्दामलत्वैकस्वरूपमपरिच्छेद्यमाहात्म्यं सत्यसङ्कल्पत्वमिश्रैरनवधिकातिशया संख्येयक ल्यारण गुरग र्जुष्टमविकारस्वरूपं परं ब्रह्मव नामरूपविभागान हंसूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरं स्वलीलायै स्वसङ्कल्पेनाऽनन्तविचित्रस्थिरत्र सरूपजगत्संस्थानं स्वांशेनावस्थितमिति तज्ज्ञानेनान्यस्य निखिलस्य ज्ञाततां ब्रुवन् लोकदृष्टं कार्यकारणयोरनन्यत्वं दर्शयितुं दृष्टान्तमाह “यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्यात्, वाचारम्भरणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्” इति । एकमेव मृद्रव्यं स्वैकदेशेन नानाव्यवहारास्पदत्वाय घटशरावादिनानासंस्थानावस्थारूपविकारापन्नं नानानामधेयमपि मृत्तिकासंस्थानविशेषत्वात् मृद्रव्यमेवेत्थमवस्थितम्, न वस्त्वन्तरमिति, यथा मृत्पिण्डविज्ञानेन तत्संस्थानविशेषरूपं घटशरावादि सर्वं ज्ञातमेव भवतीत्यर्थः ।
पुत्र के इस प्रश्न को सुनकर पिताजी ने विचार किया कि
अत्र हमें सब मर्म को खोलकर बताना होगा ।
मर्म यही है कि परब्रह्म ज्ञानानन्द स्वरूप है
एवं अमल है ।
उसका माहात्म्य अपरिच्छेद्य है
अतएव वह अनन्त कहलाता है ।
वह परब्रह्म उत्कर्ष की चरम सीमा में पहुँचे हुये
सत्यसंकल्पत्व इत्यादि असंख्य कल्याणगुणों से युक्त है ।
उस विशिष्ट परब्रह्म में
विशेष्य-स्वरूप सदा निर्विकार रहता है ।+++(5)+++
उसमें विशेषण बनकर रहने वाले चेतन एवं अ-चेतनों में ही
सब प्रकार के विकार हुआ करते हैं ।
वह परब्रह्म प्रलयकाल में
सूक्ष्मदशा में पहुँचे हुये चेतनाचेतनों से विशिष्ट
अर्थात् युक्त होकर रहता है ।
प्रलय में चेतनाचेतनों में नाम-रूप-विभाग को प्राप्त करने की योग्यता नहीं रहती है,
उस समय [[३६]] वे नाम-रूप-विभाग-हीन बनकर रहते हैं ।
यही उनकी सूक्ष्मता है ।
वह परब्रह्म लीला करने के लिये
संकल्प-मात्र से चेतनाचेतनों को
सृष्टिकाल में अनन्त विचित्र स्थावर जंगममय जगत् के रूप में परिणत कराकर
उनका अन्तर्यामी बनकर जगद्ररूप को धारण कर लेता है ।
यही सृष्टिप्रक्रिया है ।
इस प्रकार सृष्टि करने का प्रयोजन केवल लीला ही है ।
इसमें परब्रह्म को आयास नहीं होता है
क्योंकि वह बिना किसी आयास के संकल्पमात्र से इसे सम्पन्न कर देता है ।
परब्रह्म सृष्टिकाल में चेतनाचेतनों को विविध नामरूपों में परिणत कर देता है । यही इनकी स्थूलता है। इस प्रकार प्रलयकाल में सूक्ष्म चेतनाचेतनों से विशिष्ट बनकर रहने वाला परब्रह्म ही
सृष्टिकाल में स्थूलचेतनाचेतनों से विशिष्ट बनकर जगद्रूप से अवस्थित हैं । एक ही वस्तु पूर्वावस्था में कारण एवं उत्तरावस्था में कार्य है । इसलिये कारणवस्तु को जानने पर उससे बनने वाले सभी कार्यपदार्थ अनायास जाने जा सकते हैं ।
मूलम्
परिचोदितः पुनस् तद् एव हृदि निहितं ज्ञानानन्दामलत्वैकस्वरूपम् अपरिच्छेद्यमाहात्म्यं सत्यसंकल्पत्वमिश्रैर् अनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणगणैर् जुष्टम् अविकारस्वरूपं परं ब्रह्मैव नामरूपविभागानर्हसूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरं स्वलीलायै स्वसंकल्पेनानन्तविचित्रस्थिरत्रस[स्व]रूपजगत्संस्थानं स्वांशेनावस्थितम् इति ।
मृत्-पिण्ड-दृष्टान्तः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तज्-ज्ञानेनास्य निखिलस्य ज्ञाततां ब्रुवंल्
लोक-दृष्टं कार्य-कारणयोर् अनन्यत्वं दर्शयितुं
दृष्टान्तम् आह
यथा सोम्यैकेन मृत्-पिण्डेन
सर्वं मृन्-मयं विज्ञातं स्याद्,
वाचारम्भणं विकारो नामधेयं,
मृत्तिकेत्य् एव सत्यम्
इति ।
नीलमेघः
उपादान कारण बनने वाला पदार्थ ही कार्य बनकर रहता है । कारण और कार्य में अभेद है । यह अर्थ लोक में देखा गया है । इस अर्थ को दिखलाने के लिये इस प्रकार दृष्टान्त का उल्लेख करते हुये पिताजी ने कहा कि
“यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन
सर्वं मृन्मयं
विज्ञातं स्यात् ।
वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्” ।
अर्थात् एक मृत्तिकापिण्ड ही वाणी के द्वारा सम्पन्न होने वाले घट और शराव इत्यादि व्यवहारों को तथा जलाहरण इत्यादि व्यवहारों को प्राप्त करने के लिये घट और शराव इत्यादि विविध संनिवेशरूपी अनेक अवस्थाओं को प्राप्त करता है, तथा विविध नामों को भी प्राप्त करता है।
मूलम्
तज्ज्ञानेनास्य निखिलस्य ज्ञाततां ब्रुवंल् लोकदृष्टं कार्यकारणयोर् अनन्यत्वं दर्शयितुं दृष्टान्तम् आह यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्याद् वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्य् एव सत्यम् इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकम् एव मृद्-द्रव्यं
स्वैक-देशेन नाना-व्यवहारास्पदत्वाय
घट-शरावादि–नाना-संस्थानावस्था-रूप–विकारापन्नं
नाना-नामधेयम् अपि
मृत्तिका-संस्थान-विशेषत्वान् मृद्-द्रव्यम् एवेत्थम् अवस्थितं
न वस्त्व्-अन्तरम् इति ।
नीलमेघः
इन सन्निवेशों को प्राप्त कर मृत्तिका ही घट और शरावादि के रूप में अवस्थित है, घट और
शराव इत्यादि मृत्तिका से भिन्न द्रव्य नहीं हैं । मृत्तिका द्रव्य ही घट और शराव इत्यादि बन जाता है ।
मूलम्
एकम् एव मृद्द्रव्यं स्वैकदेशेन नानाव्यवहारास्पदत्वाय घटशरावादिनानासंस्थानावस्थारूपविकारापन्नं नानानामधेयम् अपि मृत्तिकासंस्थानविशेषत्वान् मृद्द्रव्यम् एवेत्थम् अवस्थितं न वस्त्वन्तरम् इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मृत्-पिण्ड-विज्ञानेन
तत्-संस्थान-विशेष-रूपम् घट-शरावादि सर्वं ज्ञातम् एव भवतीत्यर्थः ।
नीलमेघः
इसलिये एक मृत्पिण्ड को जानने से घट और शराव इत्यादि जाने जाते हैं । इस प्रकार दृष्टान्त कहकर पिताजी ने समझाया ।
मूलम्
यथा मृत्पिण्डविज्ञानेन तत्संस्थानविशेषरूपम् घटशरावादि सर्वं ज्ञातम् एव भवतीत्यर्थः ।
उपादानम् एव निमित्तम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कृत्स्नस्य जगतो
ब्रह्मैक-कारणताम् अजानन्
पुत्रः पृच्छति
भगवांस् त्व् एव मे तद् ब्रवीत्व्
इति ।
नीलमेघः
[[३७]]
पुत्र श्वेतकेतु ने—यह न समझकर कि ब्रह्म ही सम्पूर्ण जगत् का कारण हैविचार किया कि इस जगत् में परस्पर विलक्षण अनन्त पदार्थ हैं, ये सब एक कारण से कैसे उत्पन्न हो सकते हैं । इस विचार में पड़कर पुत्र ने पिता से पूछा कि “भगवांस्त्वेव मे तद् ब्रवीतु” । अर्थात् भगवन् आप ही मुझे इस बात को अच्छी तरह से समझाइये ।
मूलम्
ततः कृत्स्नस्य जगतो ब्रह्मैककारणताम् अजानन् पुत्रः पृच्छति भगवांस् त्व् एव मे तद् ब्रवीत्व् इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः
“सर्वज्ञं सर्व-शक्ति ब्रह्मैव सर्वकारणम्”
इत्य् उपदिशन्
स होवाच
सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद्
एकम् एवाद्वितीयम्
इति ।
नीलमेघः
सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तियुक्त ब्रह्म ही इस जगत् में विद्यमान विलक्षण विविध कार्यपदार्थों का उपादानकारण एवं निमित्तकारण है । इस अर्थ का उपदेश देते हुये पिताजी ने अनन्तर कहा कि “सदेव सोम्येदमग्र अ।सीदेकमेवाद्वितीयम्”।
मूलम्
ततः सर्वज्ञं सर्वशक्ति ब्रह्मैव सर्वकारणम् इत्य् उपदिशन् स होवाच सद् एव सोम्येदम् अग्र आसीद् एकम् एवाद्वितीयम् इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रेदम् इति जगन् निर्दिष्टम् ।
अग्र इति च सृष्टेः पूर्वकालः ।
नीलमेघः
इस श्रुति में “ इदम् " शब्द का अर्थ है यह जगत, जो प्रत्यक्ष इत्यादि प्रमाणों से विदित होता है । " अग्रे” शब्द का अर्थ है सृष्टि का पूर्वकाल, जो प्रलयकाल कहलाता है । आगे सृष्टि कही जाने वाली हैं. इसलिये सृष्टि का पूर्वकाल प्रलयकाल ही होना चाहिये ।
मूलम्
अत्रेदम् इति जगन् निर्दिष्टम् ।
अग्र इति च सृष्टेः पूर्वकालः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् काले
जगतः सद्-आत्मकतां “सद् एवे"ति प्रतिपाद्य,
तत्-सृष्टि-काले ऽप्य् अविशिष्टम् इति कृत्वा “+एकम् एवे"ति,
नीलमेघः
इस वचन का यह अर्थ है कि है सोम्य, यह जगत् प्रलयकाल में भी सत् ही था क्योंकि उस समय यह जगत् कारणवस्तु के रूप में था ।
इस कथन से वैशेषिक दार्शनिकों का सिद्धान्त अमान्य सिद्ध होता है।
वैशेषिकों का यह सिद्धान्त है कि यह जगत् प्रलयकाल में किसी रूप में भी नहीं था, सृष्टिकाल में वह सत्ता को प्राप्त करता है ।
यह जगत् प्रलयकाल में कारणवस्तु के रूप में विद्यमान ही है अव वैशेषिकों का उपर्युक्तवाद खण्डित हो जाता है ।
सूक्ष्मप्रकृति पुरुष और काल से विशिष्ट ब्रह्म ही वह कारणवस्तु है । इस प्रकार का ब्रह्म प्रामाणिक होने के कारण सत् शब्द से व्यवहृत होता है ।
वैशेषिकों ने यह माना है कि कार्य कारण से भिन्न है, प्रलयकाल में भले ही कारण रहे कार्य रह नहीं सकता, वह तो सृष्टिकाल में ही सद्भाव रखता है ।
इस वाद को अमान्य मानकर उपनिषदों में यही सिद्धान्त स्थिर किया गया है कि उपादानकारण और कार्य एक ही द्रव्य है ।
इसलिये यह मानना उचित ही है कि यह कार्यजगत् प्रलयकाल में कारणवस्तु के रूप में रहता ही है ।
यह जगत् क्या वस्तु हैं ?
स्थूलचेतनाचेतनों से विशिष्ट ब्रह्म ही यह जगत् है । यह ब्रह्म प्रलयकाल में सूक्ष्मचेतनाचेतनों से विशिष्ट बनकर रहता है । यही कारणावस्था है । इस जगत् को प्रलयकाल में कारणवस्तु के रूप में रहना युक्त ही है। सृष्टि और प्रलय में यही अन्तर है कि सृष्टि में ये चेतनाचेतन स्थूल बन जाते हैं अर्थात् विविधनामरूपों को प्राप्त करते रहते हैं । प्रलय में ये चेतनाचेतन सूक्ष्म बन जाते हैं अर्थात् नामरूपविभागहीन बन जाते हैं । नामरूपविभाग को प्राप्त होना ही बहुत्वावस्था है। नामरूपविभागहीन होना ही एकत्वावस्था है । प्रलयकाल एवं सृष्टिकाल में इस जगत् का किसी न किसी रूप में सद्भाव अवश्य रहता हैं । अन्तर यही है कि यह जगत् प्रलय में एकत्वावस्था में रहता है तथा सृष्टिकाल में बहुत्वावस्था में रहता है । सूक्ष्मचिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म ही सृष्टिकाल में सूक्ष्मत्वावस्था को त्यागकर स्थूलत्वावस्था को प्राप्त कर यह जगत् बन जाता है । इसलिये सूक्ष्मचिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म को उपादानकारण ( जो कार्यरूप में परिणत होने वाला है ) तथा स्थूलचिदचिद्वशिष्ट ब्रह्म को कार्य मानना चाहिये । यहाँ पर “एकमेव " कहकर ब्रह्म के उपादानत्व का उल्लेख किया गया है ।
मूलम्
तस्मिन् काले जगतः सदात्मकतां सद् एवेति प्रतिपाद्य, तत्सृष्टिकाले ऽप्य् अविशिष्टम् इति कृत्वैकम् एवेति
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्-आपन्नस्य जगतस्
तदानीम् अविभक्त-नाम-रूपतां प्रतिपाद्य
तत्-प्रतिपादनेनैव
सतो जगद्-उपादानत्वं प्रतिपादितम्
इति स्व-व्यतिरिक्त-निमित्त-कारणम् अद्वितीय-पदेन प्रतिषिद्धम् ।
नीलमेघः
उपादानकारण बनने वाला यह सद्ब्रह्म ही निमित्तकारण भी है । दूसरा कोई निमित्तकारण नहीं । यह अर्थ “अद्वितीय” पद से वर्णित है ।
[[३८]]
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि लोक में उपादानकारण एवं निमित्तकारण भिन्न २ दिखाई देते हैं,
यहाँ उनको एक कैसे माना जा सकता है ।
घट का उपादानकारण मृत्पिण्ड है क्योंकि वही घट बन जाता है ।
घट का निमित्तकारण कुलाल है क्योंकि वही स्वेच्छा से मृत्पिण्ड को घट के रूप में परिणत कर देता है ।
मृत्पिण्ड और कुलाल भिन्न २ पदार्थ हैं ।
ऐसी स्थिति में यहाँ पर उन दोनों को एक पदार्थ कैसे मान सकते हैं ?
उत्तर यह हैं कि लोक में मृत्पिण्ड
केवल परिणत हो सकता है,
संकल्प नहीं कर सकता
इसलिये उसमें उपादानकारण बनने की ही योग्यता है ।+++(5)+++
तथा कुलाल केवल संकल्प ही कर सकता है
घट के रूप में परिणत नहीं हो सकता
इसलिये उसमें केवल निमित्तकारण बनने की ही योग्यता है ।
इसलिये लोक में उपादानकारण एवं निमित्तकारण भिन्न २ दिखाई देते हैं ।
यहाँ पर ब्रह्म में सब प्रकार की योग्यता है । ब्रह्म चिदचिद्विशिष्ट होने के कारण जगद्रप में परिणति को प्राप्त कर सकता है तथा चेतन होने के कारण संकल्प भी कर सकता है ।
अतएव ब्रह्म स्वेच्छा से अपने को जगद्रूप में परिणत कर देता है । इसलिये वह उपादानकारण एवं निमित्तकारण बन जाता है ।
यह निमित्तोपादानैक्य “अद्वितीय” पद का फलितार्थ है ।
मूलम्
सदापन्नस्य जगतस् तदानीम् अविभक्तनामरूपतां प्रतिपाद्य तत्प्रतिपादनेनैव सतो जगदुपादानत्वं प्रतिपादितम् इति स्वव्यतिरिक्तनिमित्तकारणम् अद्वितीयपदेन प्रतिषिद्धम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“तम् आदेशम् प्राक्ष्यो
येनाश्रुतं श्रुतं भवती"त्यादाव् एव
प्रशास्तितैव जगद्-उपादानम्
इति हृदि निहितम्
इदानीम् अभिव्यक्तम् ।
नीलमेघः
आरम्भ में पिताजी ने
उपादानकारण एवं निमित्तकारण की एकता को मन में रखकर ही
पुत्र से यह प्रश्न किया था कि
क्या तुमने आचार्यों से
उस आदेश को
अर्थात् शासन करने वाले तत्त्व को
पूछकर जान लिया है ?
जिस एक को जानने से
सब कुछ जाना जाता है ।
यहाँ पर उस तत्त्व को
शासन करने वाला कहा गया।
इससे वह तत्त्व निमित्तकारण
अर्थात् संकल्पपूर्वक कार्य करने वाला सिद्ध होता है ।
जिस तत्त्व को जानने से सब कुछ जाना जाता है ऐसा कहने से वह तत्त्व उपादानकारण सिद्ध होता है
क्योंकि उपादानकारण को जानने पर ही उससे बनने वाले सभी कार्य जाने जाते हैं।
इस प्रकार प्रश्न करने के कारण
उस तत्त्व में जो उपादानकारणत्व एवं निमित्तकारणत्व फलित होता है
ब्रह्मतत्त्व का यह उभयविधकारणत्व “एकमेवाद्वितीयम्” इन दोनों पदों से स्पष्ट बता दिया गया है ।
मूलम्
तम् आदेशम् प्राक्ष्यो येनाश्रुतं श्रुतं भवतीत्यादाव् एव प्रशास्तितैव जगदुपादानम् इति हृदि निहितम् इदानीम् अभिव्यक्तम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयम् एव जगद्-उपादानं जगन्-निमित्तं च सत्
“तद् ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेये"ति ।
मूलम्
स्वयमेव जगदुपादानं जगन्निमित्तं च सत्"तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेये"ति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् एतच्-छब्द-वाच्यं परं ब्रह्म
सर्वज्ञं सर्वशक्ति सत्य-सङ्कल्पम् अवाप्त-समस्त-कामम् अपि
लीलार्थं विचित्रानन्त-चिद्–अ-चिन्–मिश्र-जगद्-रूपेणाहम् एव बहु स्यां,
तद्-अर्थं प्रजायेयेति
स्वयम् एव संकल्प्य
नीलमेघः
[[३६]]
इस उभयविधकारणत्व का स्पष्टीकरण करते हुये पिताजी ने आगे कहा कि " तदैक्षत बहुस्यां प्रजायेय” अर्थात् सच्छब्दवाच्य उस परब्रह्म ने संकल्प किया कि मैं बहुत बन जाऊँ तदर्थ वैसा उत्पन्न होऊँ । भावार्थ यह है कि श्रुति ने “सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्” इस वाक्य में " एकमेव” कहकर सच्छब्दवाच्यवस्तु को जगत् का उपादानकारण कहा है। इससे उसमें उन सभी शक्तियों का समावेश फलित हो जाता है जो उपादानकारण बनने के लिये अवश्य अपेक्षित हैं ।
उसी श्रुति ने “अद्वितीयम्” कहकर उस सच्छब्दवाच्य वस्तु को जगत् का निमित्तकारण कहा है।
इससे उस वस्तु में उन सर्वज्ञत्व और सत्यसंकल्पत्व इत्यादि गुणों का समावेश फलित होता है ।
इन गुणों के विना वह निमित्त कारण बन ही नहीं सकता ।
एवंविध विशेषताओं से युक्त उस सच्छब्दवाच्य परब्रह्म ने
अवाप्त-समस्तकाम अर्थात् परिपूर्ण होने पर भी
केवल लीलार्थ यह संकल्प किया कि
मैं विचित्र एवं अनन्तचेतनाचेतनों से मिश्रित इस जगत् के रूप में बहुत बनकर रहूँ तदर्थ वैसा उत्पन्न होऊँ ।
पहले वस्तु की उत्पत्ति होती है, बाद वह अस्तित्व को प्राप्त करता
।
यह क्रम लोक में देखने में आता है ।
अतएव ब्रह्म ने
इस प्रकार संकल्प किया कि
मुझे जगत् के रूप में
बहु बनकर रहना चाहिये
तदर्थ पहले वैसा उत्पन्न होना चाहिये ।
इस प्रकार स्वयं संकल्प करके उस ब्रह्म ने
चेतनाचेतनविशिष्ट अपने स्वरूप में
विशेषण के रूप में
एक देश बनकर रहने वाली अचेतन प्रकृति के द्वारा
महद्-आदितत्त्व क्रम से आकाशादि पंचमहाभूतों की सृष्टि की।
यद्यपि इस सद्विद्या में
तेज आदि भूतों की सृष्टि का ही वर्णन मिलता है
तथापि अन्यान्य उपनिषदों के अनुसार
प्रकृति से महत्तत्त्व,
अहंकार, ११ इन्द्रिय, ५ तन्मात्र, और ५ महाभूतों की सृष्टि माननी चाहिये ।
इस प्रकार परब्रह्म ने २३ प्राकृत तत्त्व की सृष्टि की।
इन २३ तत्त्वों को ही समष्टि सृष्टि कहते हैं ।
इस वचन से ब्रह्म का उभयविधकारणत्व सिद्ध होता है
क्योंकि संकल्प करने के कारण
उसका निमित्तकारणत्व सिद्ध होता है,
तथा एक को बहुत बनने के कारण उसका उपादानकारणत्व सिद्ध होता है ।
सृष्टि के विषय में यह अर्थ ध्यान देने योग्य है कि
जिस प्रकार अलग रहता हुआ कुम्भकार
मृत्तिका को घट के रूप में परिणत कर देता है,
उसी प्रकार परब्रह्म प्रकृति से अलग रहकर
प्रकृति को जगत् के रूप में परिणत कर देता हो,
ऐसी बात नहीं,
क्योंकि परब्रह्म प्रकृति से अलग नहीं रह सकता है,
न प्रकृति ही परब्रह्म को छोड़कर अलग रह सकती है ।
परमात्मा प्रकृति के अन्दर और बाहर व्याप कर
संकल्प से प्रकृति को जगत् के रूप में परिणत कर देते हैं ।
प्रकृति परमात्मा का आश्रय लेकर ही
अस्तित्व रखती है,
परमात्मरूपी आधार में रहती हुई प्रकृति
जगत् के रूप में परिणत होती है।
प्रकृति परमात्मा का शरीर है।
प्रकृति एवं उसमें होने वाले सभी विकार परमात्मा का आश्रय लेकर ही स्वरूप को प्राप्त करते हैं
अस्तित्व रखते हैं ।
प्रकृति में होने वाले विकारों का आधार परमात्मा ही है ।
वे परम्परा से अर्थात् प्रकृति के द्वारा उनके आधार बनते हैं । प्रकृति का अन्तरात्मा ही उससे बनने वाले महतत्त्व इत्यादि विकारों का भी अन्तरात्मा है ।
इसलिये यह कथन भी सत्य निकलता है कि
प्रकृतिशरीर वाले परमात्मा ही महत्तत्त्व इत्यादि शरीर वाले योग्य है । [[४०]]
लोक में देखा जाता है कि बालक युवा धर्म है ।+++(5)+++
जो शरीर बाल्यावस्था में रहता है, वह युवा बन जाते हैं ।
यहाँ पर बालक का उदाहरण ध्यान देने बन जाता है ।
बाल्य और यौवन इत्यादि शरीर का बालशरीर कहलाता है,
तथा युवावस्था में रहने वाला शरीर युवशरीर कहलाता है।
इतना ही नहीं, किन्तु बालशरीर वाला जीवात्मा बाल कहलाता है,
तथा युवरारीर वाला जीवात्मा युवा कहलाता है ।
जीवात्मा शरीर के द्वारा बाल्यावस्था
एवं युवावस्था को प्राप्त करता है, साक्षात् नहीं ।
ये अवस्थायें परम्परा से आत्मा का आश्रय लेकर ही
सत्ता पाती हैं,
आत्मा का आश्रय न लें तो
इनकी सत्ता मिलना हो कठिन है ।
आत्मा उन अवस्थाओं का
किसी न किसी प्रकार से आश्रय बन जाता है अतएव बालक युवा बन जाता है ।
इस प्रकार आत्मा के विषय में व्यवहार होता है ।
इसका कारण यही है कि आत्मा उन अवस्थाओं का आश्रय है अतएव वैसा व्यवहार चलता है । वे अवस्थायें आत्मा का आश्रय लिये बिना रह ही नहीं सकती । प्रकृत में भी वैसे ही समझना चाहिये ।
सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों का आश्रय जो द्रव्य है, वह प्रकृति कहलाता है ।
उसमें रहने वाले ये तीनों गुण जब साम्यावस्था में रहते हैं तब वह प्रकृति मूलप्रकृति कहलाती है । उसमें रहने वाले ये तोनों गुण जब वैषम्यावस्था को प्राप्त होते हैं । तब वह मूलप्रकृति महत्तत्त्वावस्था को प्राप्त कर महत्तत्त्व बन जाती हैं इसी प्रकार आगे विविधावस्थाओं को प्राप्त कर विविध नामों से व्यवहृत होती है । ये सभी अवस्थायें प्रकृति की हैं इनमें पूर्व २ अवस्था कारणावस्था तथा उत्तरोत्तरावस्था कार्यावस्था कहलाती हैं। ऐसे विविधावस्थाओं को प्राप्त करती हुई प्रकृति सदा परमात्मा का शरीर बनकर रहती है । परमात्मा का आश्रय लेकर ही प्रकृति एवं उसकी अवस्थाओं का अस्तित्व होता है, परमात्मा का आश्रय छोड़ दे तो प्रकृति का अस्तित्व ही कठिन है, इन अवस्थाओं का अस्तित्व सर्वथा असंभव है । परमात्मा ही प्रकृतिरूप शरीर के द्वारा इन अवस्थाओं का धारण करते हैं ।
प्रकृति शरीर वाले परमात्मा ही उत्तरकाल में महत्तत्त्व शरीर वाले बन जाते हैं । अतएव जगत् का उपादान कारण परमात्मा कहलाते हैं तथा जगद्रूप को धारण करने वाले भी परमात्मा ही हैं । हाँ, कारणावस्था एवं कार्यावस्था को परमात्मा प्रकृति के द्वारा प्राप्त करते हैं, साक्षात् नहीं । साक्षात् प्राप्त न करने के कारण ही परमात्मा निर्विकार सिद्ध होते हैं, तथा परमात्मा से प्राप्त करने के कारण ही परमात्मा उपादान कारण एवं कार्य कहलाते हैं । चेतनाचेतन द्रव्य एवं उनमें होने वाली विविध अवस्थायें परमात्मा का आश्रय लेकर ही अस्तित्व को प्राप्त करती हैं अतएव सबकी सत्ता भगवदधीन मानी जाती है । इस प्रकार साक्षात् अथवा परम्परा से सबके धारक होने के कारण ही कारण और कार्य इत्यादि सब कुछ श्रीभगवान् ही माने जाते हैं।
इस प्रकार परम्परा से विविध अवस्थाओं को प्राप्त करने के कारण परब्रह्म उपादानकारण बन जाता है
तथा संकल्प के द्वारा उत्पादक होने के कारण निमित्तकरण भी बन जाता है ।
मूलम्
तद् एतच्छब्दवाच्यं परं ब्रह्म सर्वज्ञं सर्वशक्ति सत्यसङ्कल्पम् अवाप्तसमस्तकामम् अपि लीलार्थं विचित्रानन्तचिदचिन्मिश्रजगद्रूपेणाहम् एव बहु स्यां तदर्थं प्रजायेयेति स्वयम् एव संकल्प्य
नाम-रूप-व्याकरणम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वांशैकदेशाद् एव
वियद्-आदि-भूतानि सृष्ट्वा
पुनर् अपि सैव सच्-छब्दाभिहिता परा +++(सगुणा)+++ देवतैवम् ऐक्षत
“हन्ताहम् इमास् तिस्रो देवता +++(→तेजो-जल-पृथिवीः)+++
अनेन जीवेनात्मना ऽनुप्रविश्य
नामरूपे व्याकरवाणी"ति ।
मूलम्
स्वांशैकदेशाद् एव वियदादिभूतानि सृष्ट्वा पुनर् अपि सैव सच्छब्दाभिहिता परा देवतैवम् ऐक्षत हन्ताहम् इमास् तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणीति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“अनेन जीवेनात्मने"ति
जीवस्य ब्रह्मात्मकत्वं प्रतिपाद्य,
ब्रह्मात्म-जीवानुप्रवेशाद् एव
कृत्स्नस्याचिद्-वस्तुनः +++(सत्त्वम्, ततः)+++ पदार्थत्वम्,
एवं-भूतस्यैव सर्वस्य वस्तुनो नाम-भाक्त्वम्
इति च दर्शयति ।
नीलमेघः
[[४१]]
इस प्रकार श्रुति समष्टि-सृष्टि का वर्णन कर
आगे व्यष्टिसृष्टि का वर्णन करती हुई
यह कहती है कि
“सेयं देवतैक्षत हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि”
अर्थात्
सच्-छब्दवाच्य जिस तत्त्व ने
संकल्प-पूर्वक तेज जल और पृथिवी की सृष्टि की है,
समष्टि-सृष्टि करने वाला वह तत्त्व
एक देवता है ।
वह तत्त्व सामान्य देवता नहीं,
किन्तु परा अर्थात् श्रेष्ठ देवता है
क्योंकि “परस्यां देवतायाम्” कहकर
श्रुति आगे उसे परदेवता बतलाती है ।
देवता कहने से सच्-छब्दवाच्य वह तत्त्व
सगुण ब्रह्म सिद्ध होता है ।+++(5)+++
उस परदेवता ने व्यटिसृष्टि करने के लिये
यह संकल्प किया कि मैं अबतक निर्मित इन समष्टि तत्त्वों में
इस जीवात्मा के द्वारा अनुप्रवेश करके नामरूप व्याकरण करूँ ।
यद्यपि इस श्रुति में “तिस्रो देवताः” कहकर तेज, जल और पृथिवी इन तीनों तत्त्वों का ही उल्लेख है
ऐसा मानना चाहिये तथापि अन्यान्य श्रुतियों में वर्णित
महत्तत्त्व इत्यादि तत्त्वों के प्रदर्शनार्थ यह उल्लेख है
अतएव उन तत्त्वों को भी यहाँ समझना चाहिये ।
ब्रह्माण्डों में
अनन्त भोगस्थान भोगोपकरण एवं भोग्यपदार्थों की जो सृष्टि होती है,
तथा चौरासी लाख योनियों में
विविध भोक्ता जीवों की जो सृष्टि होती है,
यह सब व्यष्टिसृष्टि कहलाती है ।
जो सृष्टि ब्रह्माण्डनिर्माण के पूर्व होती है वह समष्टिसृष्टि कहलाती है । इस व्यष्टिसृष्टि को ही नामरूपव्याकरण कहते हैं क्योंकि इसमें विविधरूपों से पदार्थों की सृष्टि होती है तथा उनके अलग २ नाम व्यवहृत होते हैं ।
व्यष्टिसृष्टि करने के पूर्व परमात्मा ने यह संकल्प -
कि इन समष्टि तत्त्वों में इन जीवात्माओं के द्वारा हम प्रविष्ट होकर नामरूपव्याकरण करेंगे -
क्यों किया ?
यह विचारणीय विषय है ।
क्या परमात्मा जीवों के द्वारा इनमें प्रविष्ट न होकर नामरूपव्याकरण कर नहीं सकते ?
उनको इस प्रकार प्रवेश करने की क्या आवश्यकता ?
लोक में पिता पुत्र का नाम रखते हैं, यह नाम व्याकरण है ।
क्या पिता पुत्र के अन्दर प्रविष्ट होकर नामकरण करते हैं ? नहीं।+++(5)+++
जिस प्रकार पिता बाहर रहकर नामकरण करते हैं क्या उसी प्रकार परमात्मा नहीं कर सकते ?
लोक में कुम्भकार मृत्तिका को घटरूप देता है
यह रूपव्याकरण है ।
क्या कुम्भकार मृत्तिका के अन्दर प्रविष्ट होकर ही उसको घटरूप में परिणत करता है ? नहीं ।+++(5)+++
जिस प्रकार कुम्भकार बाहर रहकर मृत्तिका को घटरूप दे देता है, क्या उसी प्रकार परमात्मा बाहर रहकर इन पदार्थों की सृष्टि नहीं कर सकते ?
अवश्य कर सकते हैं। [[४२]]
ऐसी स्थिति में
उनको जीवात्मा के द्वारा इन समष्टितत्त्वों में प्रविष्ट होकर
नामरूपव्याकरण करने की क्या आवश्यकता ?
इस प्रश्न का उत्तर यह है कि
परमात्मा सब कुछ कर सकते हैं
परन्तु उपर्युक्त प्रकार से
परमात्मा ने जो संकल्प किया है
उसका तात्पर्य यह है कि
जीवों को इन रूपों को
अर्थात् शरीरों को प्राप्त कर
कर्मफल भोगना चाहिये
इसलिये उनको इन तत्त्वों में प्रविष्ट होना अनिवार्य है ।
जीवात्मा एवं ये रूप अर्थात् शरीर
परमात्मा का आश्रय लेकर ही रह सकते हैं,
उनको छोड़ने पर
इनको मिटना होगा ।+++(5)+++
ऐसी स्थिति है
अतएव परमात्मा को यह संकल्प करना पड़ता है कि
मैं जीवों के द्वारा
इनमें प्रवेश कर
नाम-रूप-व्याकरण करूँ ।
ऐसा करने पर ही
जीव एवं जीवों के द्वारा धृत होने वाले ये रूप अर्थात् शरीर
अस्तित्व पा सकते हैं अन्यथा नहीं ।
अतएव परमात्मा अन्तर्यामी के रूप में
जीवों के अन्दर अवस्थित होकर जीवों के द्वारा इन रूपों का धारण करते हैं,
तथा इन रूपों को बतलाने वाले शब्दों के द्वारा अभिहित होते हैं ।
परमात्मा की यह इच्छा है कि
मैं अन्दर रहकर जीवों के द्वारा
इन रूपों का धारण करूँ
तभी इनका अस्तित्व हो सकता है
तथा इनके वाचक शब्दों के द्वारा
मैं अभिहित हो जाऊँ
इसलिये परमात्मा को
जीवों का अन्तर्यामी बनकर
जीवों के द्वारा इनमें प्रवेश करना पड़ता है ।
प्रत्येक जडपदार्थों के अन्दर जीव रहकर
जीव उसका धारण करता है ।
जीव के अन्दर अन्तर्यामी के रूप में रहकर परमात्मा,
जीव एवं उनके द्वारा धृत रूपों का धारण भी करते हैं
तभी उनको सत्ता प्राप्त होती है ।
उन रूपों को अर्थात् शरीरों को
बतलाने वाले शब्द
उन रूपों को बतलाते हुये
उनके अन्दर रहने वाले जीव
एवं उनके अन्दर रहने वाले अन्तर्यामी के वाचक बनते हैं ।
इस प्रकार सभी शब्दों से
अन्तर्यामी ही अभिहित होते हैं ।
मूलम्
अनेन जीवेनात्मनेति जीवस्य ब्रह्मात्मकत्वं प्रतिपाद्य ब्रह्मात्मजीवानुप्रवेशाद् एव कृत्स्नस्याचिद्वस्तुनः पदार्थत्वम् एवंभूतस्यैव सर्वस्य वस्तुनो नामभाक्त्वम् इति च दर्शयति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् उक्तं भवति -
जीवात्मा तु
ब्रह्मणः शरीरतया प्रकारत्वाद्
ब्रह्मात्मकः -
यस्यात्मा शरीरम् इति श्रुत्यन्तरात् ।
नीलमेघः
इस अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुये श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने यह कहा कि
स्लोक में यह देखा जाता है कि शरीर आत्मा का आश्रय लेकर रहता है, तथा आत्मा शरीर का आधार बनकर रहता है । इनमें [[४३]]
आत्मा विशेष्य तथा शरीर प्रकार अर्थात् विशेषण बनकर रहता है
क्योंकि यह मनुष्य है
इस व्यवहार का यही अर्थ है कि
यह मनुष्य शरीर वाला है ।
इस प्रतीति में मनुष्यशरीर प्रकार अर्थात् विशेषण के रूप में
तथा आत्मा विशेष्य के रूप में प्रतीत होता है ।
आधार वस्तु को विशेष्यरूप में प्रतीत होना
तथा आधेय वस्तु को विशेषरूप में प्रतीत होना उचित ही है
क्योंकि ऐसा ही सर्वत्र देखा गया है।
‘यह घट शुक्ल है’ इस प्रतीति को ले लिया जाय ।
इस प्रतीति में आधार घट विशेष्यरूप में
तथा घट का आश्रय लेकर रहने वाला आधेव शुक्लरूप विशेषणरूप में भासित होता है ।
शुक्ल शब्द का अर्थ शुक्लरूप वाला है ।
‘यह गौ हैं’ इस प्रतीति को ले लिया जाय ।
इस प्रतीति में जाति का आधार बनने वाला व्यक्ति विशेष्यरूप में
तथा उसका आश्रय लेकर रहने वाली गोत्वजाति विशेषणरूप में भासित होती है ।
गो शब्द का अर्थ
गोत्वजाति वाला व्यक्ति ही है ।
“यस्यात्मा शरीरम्” यह श्रुति बतलाती है कि
जीवात्मा परमात्मा का शरीर है ।
इससे सिद्ध होता है कि
परमात्मा जीव का अन्तर्यामी है
इसलिये जीव ब्रह्मात्मक सिद्ध होता है ।
जीवात्मा सदा अपने अन्दर परमात्मा को
अन्तर्यामी के रूप में लेकर ही रहता है ।
मूलम्
एतदुक्तं भवति जीवात्मा तु ब्रह्मणः शरीरतया प्रकारत्वाद् ब्रह्मात्मकः - यस्यात्मा शरीरम् इति श्रुत्यन्तरात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं-भूतस्य जीवस्य
शरीरतया प्रकारभूतानि देव-मनुष्यादि-संस्थानानि वस्तूनीति
ब्रह्मात्मकानि तानि सर्वाणि ।
नीलमेघः
ये ब्रह्मात्मक जीव
उन शरीरों के अन्दर
आत्मा के रूप में रहते हैं
जो शरीर देव मनुष्य आदि शब्दों से
जीवों के प्रति विशेषण के रूप में अभिहित होते हैं ।
मूलम्
एवंभूतस्य जीवस्य शरीरतया प्रकारभूतानि देवमनुष्यादिसंस्थानानि वस्तूनीति ब्रह्मात्मकानि तानि सर्वाणि ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो
देवो मनुष्यो राक्षसः
पशुर् मृगः पक्षी
वृक्षो लता काष्ठं
शिला तृणं घटः पट इत्यादयः सर्वे
प्रकृति-प्रत्यय-योगेनाभिधायकतया प्रसिद्धाः शब्दा
लोके तत्-तद्-वाच्यतया प्रतीयमान–तत्-तत्-संस्थान-वस्तु-मुखेन
तद्-अभिमानि-जीव+++(←घटेऽपि!)+++–तद्-अन्तर्यामि-परमात्म-पर्यन्त–संघातस्यैव वाचका इति ।
नीलमेघः
शरीरवाचक शब्द
शरीर मात्र ही में विश्रान्त न होकर
आत्मा तक का प्रतिपादन करते हैं
यह बात देव मनुष्य आदि शब्दों में देखी गई है
क्योंकि वे शब्द देव मनुष्य आदि शरीर वाले जीवात्माओं का प्रतिपादन करते हैं ।
ये जडपदार्थ जीवात्मा का शरीर हैं,
जीवात्मा परमात्मा का शरीर हैं ।
जिस प्रकार जीवात्मा ब्रह्मात्मक है,
उसी प्रकार ये जढपदार्थ भी ब्रह्मात्मक हैं ।
प्रकृति और प्रत्ययों से युक्त होकर
विभिन्न अर्थों का प्रतिपादन करने वाले
देव मनुष्य यक्ष राक्षस पशु मृग पक्षी वृक्ष लता काष्ठ शिला तृण घट और पट इत्यादि सभी शब्द
उन अर्थों को- लोक में जो इनके वाच्य हैं - बतलाते हुये
उन विचित्र सन्निवेश वाले पदार्थों के अन्दर रहने वाले अभिमानी जीवों को बतलाकर
उनके अन्दर रहने वाले अन्तर्यामी परमात्मा तक का बोध कराते हैं ।
प्रत्येक शब्द इस समुदाय का —
जिसमें जडपदार्थ, उनके अन्दर रहने वाले जीव, एवं अन्तर्यामी परमात्मा का समावेश होता है
यही प्रतिपादन करते हैं।
घटशब्द घटरूपी जडपदार्थ,
उसके अन्दर रहने वाले जीव,
एवं उसके अन्दर रहने वाले अन्तर्यामी परमात्मा तक का प्रतिपादन करता है ।
ऐसे ही सब शब्दों के विषय में भी समझना चाहिये ।
इस प्रकार सभी शब्द
जड जीव
एवं ईश्वर तक का प्रतिपादन करें,
तदर्थ ही ईश्वर जीवों के द्वारा समष्टितत्त्वों में प्रविष्ट होकर
नामरूपव्याकरण अर्थात् व्यष्टिसृष्टि का निर्माण करते हैं ।
[[४४]]
मूलम्
अतो
देवो मनुष्यो राक्षसः
पशुर् मृगः पक्षी
वृक्षो लता काष्ठं
शिला तृणं घटः पट इत्यादयः सर्वे प्रकृतिप्रत्यययोगेनाभिधायकतया प्रसिद्धाः शब्दा लोके तत्तद्वाच्यतया प्रतीयमानतत्तत्संस्थानवस्तुमुखेन तदभिमानिजीवतदन्तर्यामिपरमात्मपर्यन्तसंघातस्यैव वाचका इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं समस्त-चिद्–अ-चिद्–आत्मक-प्रपञ्चस्य
सद्-उपादानता–सन्-निमित्तता–सद्-आधारता–
सन्-नियम्यता–सच्-छेषतादि
सर्वं च
सन्-मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः
सद्-आयतनाः सत्-प्रतिष्ठा
इत्य्-आदिना विस्तरेण प्रतिपाद्य
नीलमेघः
उपनिषद् सद्विद्या में आगे यह वर्णन करती है कि
“सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सप्रतिष्ठाः, ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्, तत् सत्यम्, स आत्मा” ।
इस वाक्य से पिता पुत्र को यह उपदेश देते हैं कि सद्द्ब्रह्म से उत्पन्न होने वाला यह चेतनाचेतन प्रपञ्च प्रजा कहा जाता है ।
सशरीर जीव प्रजा शब्द से अभिहित होता है ।
इसमें शरीर अचेतन है जीव चेतन है ।
यह चेतनाचेतन प्रपञ्च सत् से उत्पन्न हुआ है सत् इसका उपादान एवं निमित्त कारण होने से इसका मूल है। सत् इसका आयतन अर्थात् धारक है, यह प्रपञ्च सत् आधार के ऊपर अवस्थित है । वह सत् नियामक बनकर इसका आधार है । यह प्रपञ्च सत के द्वारा नियाम्य है तथा सत् का शेष है अर्थात् सत् के लिये यह रहता है ।
यह प्रपञ्च सत् में लीन होने वाला है ।
सत् इसका लय स्थान है, अतएव प्रतिष्ठा है।
मूलम्
एवं समस्तचिदचिदात्मकप्रपञ्चस्य सदुपादानतासन्निमित्ततासदाधारतासन्नियम्यतासच्छेषतादि सर्वं च सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठा इत्यादिना विस्तरेण प्रतिपाद्य
विश्वास-प्रस्तुतिः
कार्य-कारण-भावादि-मुखेन
“ऐतद्-आत्म्यम् इदं सर्वं
तत् सत्यम्”
इति कृत्स्नस्य जगतो ब्रह्मात्मकत्वम् एव “सत्यम्” इति प्रतिपाद्य
नीलमेघः
श्रुति इन विशेषताओं का विस्तार से वर्णन कर आगे बतलाती है कि “ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्” । अर्थात् सद् ब्रह्म इस प्रपञ्च का सब तरह से कारण है यह प्रपञ्च उसका कार्य है । इन दोनों में कार्यकारणभावसम्बन्ध है तथा इनमें शरीरात्मभावसम्बन्ध भी है क्योंकि सत् इस प्रपञ्च का आत्मा है, यह प्रपञ्च सत् का शरीर है । इस प्रकार उभयविध सम्बन्ध होने के कारण यह फलित होता है कि यह चेतनाचेतन प्रपञ्च ब्रह्मात्मक है । सत् ब्रह्म इस प्रपञ्च का आत्मा है तथा यह प्रपञ्च उसका शरीर है ।
मूलम्
कार्यकारणभावादिमुखेनैतदात्म्यम् इदं सर्वं तत्सत्यम् इति कृत्स्नस्य जगतो ब्रह्मात्मकत्वम् एव सत्यम् इति प्रतिपाद्य
तत् त्वम् असि
त्वच्-छब्देन ब्रह्म-वाच्यता
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्स्नस्य जगतः स एवात्मा
कृत्स्नं जगत् तस्य शरीरं
तस्मात् त्वं-शब्द-वाच्यम् अपि जीव-प्रकारं ब्रह्मैवेति
सर्वस्य ब्रह्मात्मकत्वं प्रतिज्ञातं
“तत् त्वम् असी"ति जीव-विशेष उपसंहृतम् ।
नीलमेघः
इस प्रकार इस चेतनाचेतन प्रपञ्च और ब्रह्म में शरीरात्मभाव सम्बन्ध होने के कारण यह फलित होता है कि “त्वम्” अर्थात् ‘तुम’ इस शब्द का वाच्यार्थ वह ब्रह्म ही है जो समक्ष व्यवस्थित जीव का अन्तर्यामी है । यह पूर्व ही बतलाया गया है कि शरीरवाचक शब्द उस शरीर के अन्दर रहने वाले आत्मा तक का बोध कराता है । जीव ब्रह्म का शरीर है ब्रह्म जीव का आत्मा है । इसलिये जीववाचक “त्वम्” इत्यादि शब्दों से जीवान्तरात्मा ब्रह्म का बोध होना उचित है । अतएव आगे श्रुति बतलाती है कि “तत् त्वमसि” अर्थ—तुम अर्थात् समक्ष अवस्थित जीव का अन्तरात्मा वह जगत्कारण सद्द्ब्रह्म ही है । “ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्” कहकर सम्पूर्ण जगत् का जो ब्रह्मात्मकत्व कहा गया है, सामान्यरूप से कही गई उस बात का अर्थात् ब्रह्मात्मकत्व का जीवविशेष में अर्थात् समक्ष अवस्थित जीव में उपसंहार “तत्त्वमसि” वाक्य [[४५]] से किया गया है । यह " तत्त्वमसि” वाक्य नये किसी अर्थ का प्रतिपादन करने के लिये प्रवृत्त नहीं है, किन्तु ‘“ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्” इस वाक्य से सामान्यरूप से जो अर्थ कहा गया है, उसको विशेषरूप से जीवविशेष में दुहराता है ।
मूलम्
कृत्स्नस्य जगतः स एवात्मा कृत्स्नं जगत् तस्य शरीरं तस्मात् त्वंशब्दवाच्यम् अपि जीवप्रकारं ब्रह्मैवेति सर्वस्य ब्रह्मात्मकत्वं प्रतिज्ञातं तत् त्वम् असीति जीवविशेष उपसंहृतम् ।
प्रपञ्चस्य ब्रह्मात्मकता - शरीर-शरीरि-भावेन
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् उक्तं भवति -
“ऐतद्-आत्म्यम् इदं सर्वम्” इति +++(तत्र “इदं सर्वम्” इति शब्दाभ्यां)+++
“चेतनाचेतन-प्रपञ्चम् → इदं सर्वम्” इति निर्दिश्य
तस्य प्रपञ्चस्यैष आत्मेति प्रतिपादितः -
प्रपञ्चोद्देशेन ब्रह्मात्मकत्वं पतिपादितम् इत्यर्थः ।
नीलमेघः
आगे इस अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुये श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने यह कहा है कि
“ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्” इस वचन में
“इदं सर्वम्” इन शब्दों से इस चेतनाचेतन प्रपञ्च का निर्देश करके “ऐतदात्म्यम्” शब्द से यह बतलाया गया है कि इस प्रपञ्च का आत्मा यह सद्ब्रह्म है, इससे फलित होता है कि यह प्रपञ्च ब्रह्मात्मक है ।
मूलम्
एतद् उक्तं भवति -
ऐतदात्म्यम् इदं सर्वम् इति चेतनाचेतनप्रपञ्चम् इदं सर्वम् इति निर्दिश्य तस्य प्रपञ्चस्यैष आत्मेति प्रतिपादितः, प्रपञ्चोद्देशेन ब्रह्मात्मकत्वं पतिपादितम् इत्यर्थः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् इदं ब्रह्मात्मकत्वं किम् आत्म-शरीर-भावेनोत स्व-रूपेणेति विवेचनीयम् ।
नीलमेघः
यहाँ पर यह विचार उपस्थित होता है कि प्रपञ्च का ब्रह्मात्मकत्व जो कहा गया है उसका दो प्रकार से निर्वाह हो सकता है । प्रथम प्रकार यह है कि प्रपञ्च शरीर है तथा ब्रह्म आत्मा है इसलिये प्रपञ्च ब्रह्मात्मक है अर्थात् ब्रह्मरूपी आत्मा से युक्त है ।
दूसरा प्रकार यह है कि यह चेतनाचेतन प्रपञ्च और ब्रह्म एक ही पदार्थ हैं, इनमें स्वरूपैक्य है ।
इसलिये यह प्रपञ्च ब्रह्मात्मक है ।
इन दोनों प्रकारों में यहाँ पर कौनसा प्रकार श्रुति का विवक्षित है ?
मूलम्
तद् इदं ब्रह्मात्मकत्वं किम् आत्मशरीरभावेनोत स्वरूपेणेति विवेचनीयम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वरूपेण चेद्
ब्रह्मणः सत्य-सङ्कल्पादयः
“तद् ऐक्षत बहु स्यं प्रजायेये"त्य् उपक्रमावगता
बाधिता भवन्ति ।
नीलमेघः
प्रथम प्रकार ही श्रुति का विवक्षित है द्वितीय प्रकार नहीं। ऐसा ही निर्णय करना पड़ता है । इसमें कारण भी हैं ।
यदि यहाँ पर इस चेतनाचेतन प्रपञ्च और ब्रह्म में स्वरूपैक्य विवक्षित होता है
तो यहाँ पर उपक्रम में “तदक्षत” इत्यादि वाक्यों से वर्णित सत्यसंकल्पत्व इत्यादि ब्रह्मगुण
बाधित हो जायेंगे
क्योंकि अचेतन प्रपञ्च के साथ
ब्रह्म का स्वरूपैक्य मानने पर
ब्रह्म को अचेतन मानना [[४६]] होगा ।
अचेतन में संकल्प हो ही नहीं सकता ।
ब्रह्म सत्यसंकल्प हो नहीं सकता ।
किंच, चेतन प्रपञ्च के साथ ब्रह्म का स्वरूपैक्य होने पर
ब्रह्म को चेतन अर्थात् जीव मानना होगा
कर्मवश्य जीव इस प्रकार सृष्टिसंकल्प कर नहीं सकता ।
ब्रह्म सत्यसंकल्प वाला होगा नहीं ।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि
चेतनाचेतन प्रपञ्च का
ब्रह्म के साथ स्वरूपैक्य मानने पर
इस उपनिषद में आरम्भ में “तदक्षत” इत्यादि वाक्यों से वर्णित सत्यसंकल्पत्व इत्यादि ब्रह्मगुण
बाधित हो जायेंगे
इसलिये स्वरूपैक्य नहीं मानना चाहिये ।
मूलम्
स्वरूपेण चेद् ब्रह्मणः सत्यसङ्कल्पादयः तद् ऐक्षत बहु स्यं प्रजायेयेत्य् उपक्रमावगता बाधिता भवन्ति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरात्म-भावेन च तद्-आत्मकत्वं
श्रुत्य्-अन्तराद् विशेषतो ऽवगतम्
नीलमेघः
शरीरात्मभाव के अनुसार ही इस प्रपञ्च को ब्रह्मात्मक मानना चाहिये । उपर्युक्त अर्थ दूसरी श्रुति के द्वारा विशेषरूप से विदित होता है ।
मूलम्
शरीरात्मभावेन च तद्-आत्मकत्वं श्रुत्यन्तराद् विशेषतो ऽवगतम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तः-प्रविष्टः शास्ता
जनानां सर्वात्मा
+इति प्रशासितृत्व-रूपात्मत्वेन
सर्वेषां जनानाम् अन्तः-प्रविष्टो
ऽतः सर्वात्मा सर्वेषां जनानाम् आत्मा
सर्वं चास्य शरीरम्
इति विशेषतो ज्ञायते ब्रह्मात्मकत्वम् ।
नीलमेघः
वह श्रुतिवाक्य यह है कि “अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा” ।
अर्थात् परमात्मा प्रशासक के रूप में सब जीवों के अन्दर प्रविष्ट हैं ।
इसलिये परमात्मा “सर्वात्मा” हैं सबके आत्मा हैं सब इनका शरीर हैं।
मूलम्
अन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मेति प्रशासितृत्वरूपात्मत्वेन सर्वेषां जनानाम् अन्तःप्रविष्टो ऽतः सर्वात्मा सर्वेषां जनानाम् आत्मा सर्वं चास्य शरीरम् इति विशेषतो ज्ञायते ब्रह्मात्मकत्वम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
य आत्मनि तिष्ठन्न्
आत्मनो ऽन्तरो,
यम् आत्मा न वेद,
यस्यात्मा शरीरं,
य आत्मानम् अन्तरो यमयति,
स त आत्मा ऽन्तर्याम्य् अमृत
इति च ।
नीलमेघः
दूसरा श्रुतिवाक्य है जो यह बतलाता है कि जीवात्मा परमात्मा का शरीर है, परमात्मा जीवात्मा का आत्मा है । वह वाक्य यह है कि “य आत्मनि तिष्ठन् प्र त्मनोऽ तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः” । अर्थात् जो परमात्मा जीवात्मा में रहता है, जीवात्मा के अन्दर अवस्थित है, जिसे जीवात्मा जानता नहीं, जोवात्मा जिसका शरीर है, जो अन्दर रहकर जीवात्मा का नियमन करता है, वह अमृत परमात्मा तुम्हारा अन्तर्यामी आत्मा है ।
मूलम्
य आत्मनि तिष्ठन्न् आत्मनो ऽन्तरो यम् आत्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य आत्मानम् अन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृत इति च ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्य् “अनेन जीवेनात्मने"तीदम् एव ज्ञायत
इति पूर्वम् एवोक्तम् ।
नीलमेघः
इस श्रुतिवाक्य से जीवात्मा और परमात्मा में शरीरात्मभाव सम्बन्ध सिद्ध होता है ।
इस सद्विद्या में भी “अनेन जीवेनात्मना " इस वाक्यखण्ड से
यही बतलाया जाता है कि
परमात्मा जीवान्तर्यामी बनकर
उसी रूप में जढतत्त्वों में अनुप्रवेश करते हैं ।
इन सब वचनों से यही फलित होता है कि
परमात्मा परब्रह्म चेतनाचेतन प्रपञ्च का अन्तरात्मा है,
चेतनाचेतन प्रपञ्च उनका शरीर है।
इस प्रकार
इनमें शरीरात्मभावसम्बन्ध है ।
शरीरात्म-भाव-सम्बन्ध होने के कारण ही
प्रपञ्च को ब्रह्मात्मक मानना चाहिये ।
मूलम्
अत्राप्य् अनेन जीवेनात्मनेतीदम् एव ज्ञायत इति पूर्वम् एवोक्तम् ।
तत्, त्वम् = ब्रह्म
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः सर्वस्य चिद्–अ-चिद्–वस्तुनो ब्रह्म-शरीरत्वात्
सर्व-प्रकारं सर्व-शब्दैर् ब्रह्मैवाभिधीयत
इति
“तत् त्वम्” इति सामानाधिकरण्येन
जीव-शरीरतया जीव-प्रकारं ब्रह्मैवाभिहितम् ।
नीलमेघः
[[४७]]
इस विवेचन से यह सिद्ध होता है कि सभी चेतनाचेतन पदार्थ ब्रह्म का शरीर हैं, ब्रह्म आत्मा बनकर इन सब शरीरों का धारण करता है ।
सर्वशरीर वाला बनकर सर्वरूप से अवस्थित यह ब्रह्म ही सभी उन शब्दों से जो इन शरीरों के वाचक हैंअभिहित होता है ।
इसलिये " तत् त्वमसि” इस श्रुति में तच्छदार्थ एवं त्वं शब्दार्थ में अभेद बतलाने वाले “तत् त्वम्” इन दोनों पदों से वह परब्रह्म ही अभिहित होता है जो जीवरूपी शरीर का धारण करके जीवविशिष्ट बनकर रहता है ।
वहाँ पर जीव ब्रह्म का शरीर बनकर विशेषण है ब्रह्म जीव का विशेष्य है ।
जीव आश्रित वस्तु है ।
ब्रह्म जीव का आश्रय है ।
इस प्रकार उनमें विशेषता स्कुट होती है ।
मूलम्
अतः सर्वस्य चिदचिद्वस्तुनो ब्रह्मशरीरत्वात् सर्वप्रकारं सर्वशब्दैर् ब्रह्मैवाभिधीयत इति तत् त्वम् इति सामानाधिकरण्येन जीवशरीरतया जीवप्रकारं ब्रह्मैवाभिहितम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् अभिहिते सत्य्
अयम् अर्थो ज्ञायते
“त्वम्” इति यः पूर्वं देहस्याधिष्ठातृतया प्रतीतः
स परमात्म-शरीरतया परमात्म-प्रकार-भूतः परमात्म-पर्यन्तः ।
नीलमेघः
इस विशेषता से यह फलित होता है कि समक्ष विद्यमान शरीर पर अधिष्ठान करने वाला जीव “त्वम्” शब्द का अर्थ है ।
यह लोकव्यवहार के अनुसार प्रथमतः विदित होता है ।
अध्यात्मशास्त्र के अनुसार
उस जीवात्मा में ये विशेषतायें सिद्ध होती हैं कि
वह जीव परमात्मा का शरीर बनकर
उसी प्रकार परमात्मा का विशेषण हो जाता है
जिस प्रकार शुक्ल इत्यादि रूप द्रव्य का आश्रय लेकर
द्रव्य के विशेषरण बन जाते हैं,
तथा जिस प्रकार गोत्व इत्यादि जाति, व्यक्ति का आश्रय लेकर
उस व्यक्ति का विशेषण बन जाती है ।
यह जीव अपने अस्तित्व के लिये
उसी प्रकार सुदृढ़ रूप से
परमात्मा को पकड़ कर रहता है
जिस प्रकार शुक्लादि रूप
अपने अस्तित्व के लिये द्रव्य को पकड़े रहते हैं +++(5)+++
तथा जाति अपने अस्तित्व के लिये
व्यक्ति को पकड़े रहती है ।
जिस प्रकार द्रव्य की सत्ता से
गुण सत्तावान् होता है,
तथा जिस प्रकार व्यक्ति की सत्ता से जाति सत्ता वाली होती है,
उसी प्रकार परमात्मा की सत्ता से ही जीव सत्तावान् होता है ।+++(5)+++
जिस प्रकार गुण
द्रव्य को छोड़कर पृथक् स्थिति और प्रवृत्ति के योग्य नहीं होता
तथा जिस प्रकार जाति
व्यक्ति को छोड़कर पृथक स्थिति और प्रवृत्ति नहीं रख सकती
उसी प्रकार यह जीवात्मा भी परमात्मा को छोड़कर
पृथक् स्थिति और प्रवृत्ति रखने के योग्य नहीं है ।
इसकी स्थिति और प्रवृत्ति
सब कुछ परमात्मा के अधीन है ।
मूलम्
एवम् अभिहिते सत्य् अयम् अर्थो ज्ञायते त्वम् इति यः पूर्वं देहस्याधिष्ठातृतया प्रतीतः स परमात्मशरीरतया परमात्मप्रकारभूतः परमात्मपर्यन्तः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस् “त्वम्” इति शब्दस्
त्वत्-प्रकार-विशिष्टं त्वद्-अन्तर्यामिणम् एवाचष्ट इति ।
नीलमेघः
इससे यही सिद्ध होता है कि
“त्वम्” इत्यादि जीववाचक शब्द
उस परमात्मा को -
जो जीव को विशेषण बनाकर
स्वयं उसके अन्तर्यामी के रूप में अवस्थित है—
उसी प्रकार बतलाते हैं
जिस प्रकार गुणवाचक
शुक्ल आदि शब्द शुक्ल रूप वाले द्रव्य को बतलाते हैं
तथा जिस प्रकार गोत्व आदि जाति के वाचक
गो आदि शब्द गोत्वादिजातियुक्त व्यक्ति को बतलाते हैं ।
मूलम्
अतस् त्वम् इति शब्दस् त्वत्प्रकारविशिष्टं त्वदन्तर्यामिणम् एवाचष्ट इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“अनेन जीवेनात्मना ऽनुप्रविश्य
नामरूपे व्याकरवाणी"ति
ब्रह्मात्मकतयैव जीवस्य शरीरिणः स्व-नाम-भाक्त्वात्
“तत् त्वम्” इति सामानाधिकरण्य-प्रवृत्तयोर् द्वयोर् अपि पदयोर्
ब्रह्मैव वाच्यम् ।
नीलमेघः
यह अर्थ “अनेन जीवेनात्मन।नुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवारिण” इस श्रुति से सिद्ध होता है ।
इस श्रुति का यही तात्पर्य है कि ब्रह्म का शरीर बना हुआ तथा ब्रह्म को अन्तर्यामी के रूप में अपनाने वाला यह ब्रह्मात्मक जीव ही शब्दों के [[४८]] द्वारा अभिहित होता है। जीववाचक शब्द जीवमात्र में विश्रान्त न होकर जीव के अन्तर्यामी तक का वाचक होता है । “तत् त्वमसि’ इस वाक्य में “तत्” और “त्वम्” पद एक सी विभक्ति को अपनाने वाले हैं अतएव अपने वाच्यार्थों में अभेद को सिद्ध करते हैं । ये दोनों पद विभिन्न रूपों से एक ही ब्रह्म को बतलाते हैं ।
मूलम्
अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणीति ब्रह्मात्मकतयैव जीवस्य शरीरिणः स्वनामभाक्त्वात् तत् त्वम् इति सामानाधिकरण्यप्रवृत्तयोर् द्वयोर् अपि पदयोर् ब्रह्मैव वाच्यम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र च तत्-पदं
जगत्-कारण-भूतं सकल-कल्याण-गुण-गणाकरं निरवद्यं निर्विकारम् आचष्टे ।
नीलमेघः
इनमें तत् पद जगत्कारण सकलकल्याणगुणनिधि निर्दोष एवं निर्विकार ब्रह्म का वाचक है ।
मूलम्
तत्र च तत्पदं जगत्कारणभूतं सकलकल्याणगुणगणाकरं निरवद्यं निर्विकारम् आचष्टे ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
“त्वम्” इति च
तद् एव ब्रह्म
जीवान्तर्यामि-रूपेण स-शरीर-प्रकारविशिष्टम् आचष्टे ।
नीलमेघः
त्वं पद भी समक्ष विद्यमान शरीर पर अभिमान करने वाले जीव के
अन्तर्यामी बने हुये उसी ब्रह्म का वाचक है ।
मूलम्
त्वम् इति च तद् एव ब्रह्म जीवान्तर्यामिरूपेण सशरीरप्रकारविशिष्टम् आचष्टे ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् एवं +++(शब्द-)+++प्रवृत्ति-निमित्त-भेदेनैकस्मिन् ब्रह्मण्य् एव
“तत् त्वम्” इति द्वयोः पदयोर् वृत्तिर् उक्ता ।
नीलमेघः
इस त्वं पद से
शरीर जीवरूपविशेषणविशिष्ट ब्रह्म का प्रतिपादन करता है ।
तत् पद जगत्कारण के रूप में ब्रह्म को बतलाता है, त्वं पढ़ जीवान्तर्यामी के रूप में बतलाता है ।
इस प्रकार प्रतिपाद्यरूप भिन्न होने पर भी ये दोनों पद एक ही ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं।
जीवान्तर्यामी और जगत्कारण ब्रह्म में अभेद
इस श्रुति से ऐसा सिद्ध होता है ।
मूलम्
तद् एवं प्रवृत्तिनिमित्तभेदेनैकस्मिन् ब्रह्मण्य् एव तत् त्वम् इति द्वयोः पदयोर् वृत्तिर् उक्ता ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मणो
निरवद्यं निर्विकारं
सकल-कल्याण-गुण-गणाकरत्वं जगत्-कारणत्वं चाबाधितम् ।
नीलमेघः
इस श्रुति से जीव और ब्रह्म में
शङ्कर सम्मत अभेद
नहीं बतलाया जाता ।
हमारे प्रकार से बतलाये जाने पर
ब्रह्म के निर्दोषत्व निर्विकारत्व सर्व-कल्याण-गुण-निधित्व और जगत्कारणत्व इत्यादि स्वभाव सुरक्षित रहते हैं ।
यदि जीव और ब्रह्म में अभेद माना जाय तो ये सभी स्वभाव बाधित हो जायेंगे ।
इसलिये यही मानना पड़ता है कि “तत्त्वमसि” यह श्रुति उपर्युक्तरीति से जीवान्तर्यामी और ब्रह्म में अभेद बतलाती है ।
अद्वैतियों ने यह जो व्याख्या की है
कि यह श्रुति जीव और ब्रह्म में अभेद बतलाती है
वह व्याख्या समीचीन नहीं ।
मूलम्
ब्रह्मणो निरवद्यं निर्विकारं सकलकल्याणगुणगणाकरत्वं जगत्कारणत्वं चाबाधितम् ।
लोक-व्युत्पत्ति-बाध-शङ्का
वेद-प्रमाणानिवार्यता
विश्वास-प्रस्तुतिः
अ-श्रुत-वेदान्ताः पुरुषाः
पदार्थाः सर्वे, जीवात्मनश् च ब्रह्मात्मका
इति न पश्यन्ति
नीलमेघः
यहाँ पर यह शङ्का होती है कि
विशिष्टाद्वैतवादी यह कहते हैं कि
सभी पदार्थ ब्रह्मात्मक हैं,
तथा सभी शब्द
ब्रह्म तक के वाचक हैं ।
इनका यह सिद्धान्त असंगत प्रतीत होता है
क्योंकि जगत् में
कोई भी पदार्थ ब्रह्मात्मक नहीं समझा जाता,
किन्तु सभी पदार्थ स्वतन्त्र ही दिखाई देते हैं ।
जगत् में घट आदि शब्द लोब प्रसिद्ध घटादि पदार्थों के वाचक ही माने जाते हैं, इनमें कोई भी शब्द अन्तर्यामी का वाचक मानकर प्रयुक्त नहीं होता।
ऐसी स्थिति में सब पदार्थों को ब्रह्मात्मक तथा सभी शब्दों को ब्रह्मवाचक कैसे माना जा सकता है ?
यह शङ्का है ।
श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने
विस्तार से उपर्युक्त शङ्का का समाधान करते [[४६]] हुये
यह कहा है कि
प्रमाणों की गति सीमित है ।
कई प्रमाण आश्रित गुणधर्मों का ही ग्रहण करने में क्षमता रखते हैं,
ये प्रमाण उन गुणधर्मों को आश्रय देने वाले द्रव्य का ग्रहण करने में असमर्थ रह जाते हैं ।
कई प्रमाण गुणधर्मों के साथ ही साथ
उनको आश्रय देने वाले द्रव्य का भी ग्रहण करते हैं ।
उदाहरण - घ्राण, रसना एवं श्रोत्र गुणमात्र के ग्राहक हैं ।
ये इन गुण-धर्मों का आधार बनने वाले द्रव्य का ग्रहण करने में असमर्थ हैं ।
घ्राण गन्ध भर का ग्रहण कर सकता है,
गन्धाश्रय द्रव्य का नहीं ।+++(5)+++
रसनेन्द्रिय रसमात्र का ग्रहण कर सकता हैं,
रसाश्रय द्रव्य का नहीं।
तथा श्रोत्रेन्द्रिय शब्दमात्र का ग्रहण कर सकता है शब्द का आश्रय बनने वाले द्रव्य का नहीं ।
इन इन्द्रियों की द्रव्य का ग्रहण करने में सामर्थ्य न होने के कारण ही
इनसे गृहीत होने वाले वे गुण
स्वतन्त्र प्रतीत होते हैं,
अन्याश्रित प्रतीत नहीं होते ।
चक्षु और त्वग्-इन्द्रिय गुण और द्रव्य का ग्रहण करने में समर्थ हैं ।
चक्षु रूप का ग्रहण करता हुआ
उसका आधार बनने वाले द्रव्य का भी ग्रहण करता है
तथा त्वगिन्द्रिय स्पर्श का ग्रहण करता हुआ
उसका आश्रय बनने वाले द्रव्य का भी ग्रहण करता है ।
अत एव उनके द्वारा गृहीत होने वाले रूप और स्पर्श इत्यादि गुण द्रव्य-पर-तन्त्र
अर्थात् द्रव्याश्रित प्रतीत होते हैं ।
कहने का तात्पर्य यही है कि
धर्म सदा धर्मी का आश्रय लेकर रहता है
कभी स्वतन्त्र नहीं रहता ।
रूपादि धर्म और धर्मी द्रव्य का ग्रहण करने में समर्थ चक्षुरादि इन्द्रियों से
धर्म, धर्मिपरतन्त्र प्रतीत होता है ।
धर्मी द्रव्य का ग्रहण करने में असमर्थ घ्राण इन्द्रियों से गन्धादि धर्म स्वतन्त्र प्रतीत होते हैं
क्योंकि वे इन्द्रिय धर्मी द्रव्य का ग्रहण करने में असमर्थ हैं,
धर्मी द्रव्य का ग्रहण किये विना
गन्ध आदि को परतन्त्र सिद्ध नहीं कर सकते ।
वास्तव में गन्धादि गुण परतन्त्र ही हैं।
उनमें स्वातन्त्र्यभान भ्रम ही है ।+++(5)+++
इस भ्रमात्मक ज्ञान से
वे स्वतन्त्र नहीं सिद्ध हो सकते।
ऐसे ही प्रकृत में भी समझना चाहिये ।
हमारे प्रत्यक्ष आदि प्रमाण
इन लौकिक पदार्थों का ही ग्रहण कर सकते हैं,
इनके आधारभूत ब्रह्म का ग्रहण करने में सर्वथा असमर्थ हैं
अतएव इनसे गृहीत होने वाले पदार्थ स्वतन्त्र प्रतीत होते हैं,
ब्रह्मात्मक प्रतीत नहीं होते । +++(5)+++
यह स्वातन्त्र्यभान केवल भ्रम है।
हमारे पास शब्द ही -
जो वेदादिशास्त्ररूप है—
एक ऐसा प्रमाण है
जो इन पदार्थों का ग्रहण करता हुआ इनके अन्तरात्मा ब्रह्म तक का ग्रहण कर सकता है ।+++(5)+++
उस शब्दप्रमाण से
ये पदार्थ ब्रह्मात्मक
एवं ब्रह्मपरतन्त्र प्रतीत होते हैं ।
इन पदार्थों का वास्तविक आकार शास्त्र से ही गृहीत होता है ।
वेदान्तशास्त्र से ही
यह भी विदित होता है कि
सभी शब्द
उन लोकसिद्ध अर्थों को बतलाते हुये
ब्रह्म तक का बोध कराते हैं।
वेदान्तशास्त्र को न सुनने वाले मनुष्य ही सभी पदार्थों को तथा सभी जीवात्माओं को ब्रह्मात्मक नहीं समझ पाते हैं,
मूलम्
अश्रुतवेदान्ताः पुरुषाः पदार्थाः सर्वे जीवात्मनश् च ब्रह्मात्मका इति न पश्यन्ति
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वशब्दानां च केवलेषु तत्-तत्-पदार्थेषु वाच्यैकदेशेषु वाच्यपर्यवसानं मन्यन्ते ।
नीलमेघः
तथा सभी शब्दों को
केवल लोकप्रसिद्ध उन २ अर्थोँ का ही वाचक मानते हैं
यह समझने में असमर्थ रह जाते हैं कि
ये शब्द लोकप्रसिद्ध अर्थों को बतलाते हुये
उनके अन्तर्यामी ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं।
इसमें कारण यही है कि उन्होंने वेदान्तशास्त्र का श्रवण नहीं किया है।
मूलम्
सर्वशब्दानां च केवलेषु तत्तत्पदार्थेषु वाच्यैकदेशेषु वाच्यपर्यवसानं मन्यन्ते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीं वेदान्त-वाक्य-श्रवणेन
ब्रह्म-कार्यतया तद्-अन्तर्यामितया च
सर्वस्य ब्रह्मात्मकत्वं
सर्व-शब्दानां तत्-तत्-प्रकार-संस्थित-ब्रह्म-वाचित्वं च जानन्ति ।
नीलमेघः
[[५०]]
अब वेदान्त वाक्यों को सुनने पर समझ जाते हैं कि सभी पदार्थों के अन्दर
परब्रह्म अन्तर्यामी के रूप में अवस्थित हैं,
तथा सभी कार्य ब्रह्म से उत्पन्न हुये ।
इन दोनों कारणों से सभी पदार्थ ब्रह्मात्मक हैं।
सभी शब्द
जडशरीरों के अन्दर अवस्थित जीवों के अन्तर्यामी परब्रह्म के वाचक हैं ।
अधिकाधिक विचार करने पर भी यही सिद्धान्त सुस्थिर होता है कि
सभी पदार्थ ब्रह्मात्मक हैं,
तथा सभी शब्द ब्रह्म के वाचक हैं ।
मूलम्
इदानीं वेदान्तवाक्यश्रवणेन ब्रह्मकार्यतया तदन्तर्यामितया च सर्वस्य ब्रह्मात्मकत्वं सर्वशब्दानां तत्तत्प्रकारसंस्थितब्रह्मवाचित्वं च जानन्ति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्व् एवं गवादि-शब्दानां तत्-तत्-पदार्थ-वाचितया
व्युत्पत्तिर् बाधिता स्यात् ।
नीलमेघः
यहाँ पर प्रतिवादी यह आक्षेप करते हैं कि
यह जो कहा जाता है कि
सभी शब्द ब्रह्म के वाचक हैं
यह अर्थ माना नहीं जा सकता
क्योंकि ऐसा मानने पर
विरोध उपस्थित होगा ।
लोक व्यवहार से
यह निश्चित होता है कि
घट और पट इत्यादि शब्द
घट और पट इत्यादि अर्थों के वाचक हैं।
यदि इन शब्दों को ब्रह्म का वाचक माना जाय
तो लोकव्युत्पत्ति बाधित हो जायेगी
इसलिये शब्दों को ब्रह्मवाचक नहीं मानना चाहिये ।
यह एक आक्षेप है।
लौकिक-व्युत्पत्ति-पूरणम्
मूलम्
नन्व् एवं गवादिशब्दानां तत्तत्पदार्थवाचितया व्युत्पत्तिर् बाधिता स्यात् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवं - सर्वे शब्दा
अ-चिज्-जीव-विशिष्टस्य परमात्मनो वाचका
इत्य् उक्तम् -
“नाम-रूपे व्याकरवाणी"त्य् अत्र ।
नीलमेघः
लोक-व्युत्पत्ति-बाध-शङ्कायाः समाधानम्
लोकव्युत्पत्तिबाधा का समाधान
नन्वेवं गवादिशब्दानां तत्तत्पदार्थवाचितया व्युत्पत्तिर्बाधिता स्यात्, नंवम्, सर्वे शब्दा प्रचिज्जीवविशिष्टस्य परमात्मनो वाचका इत्युक्त “नामरूपे व्याकरवाणी” त्यत्र । तत्र लौकिकास्तु पुरुषाः शब्दं व्याहरन्तो शब्दवाच्ये प्रधानांशस्य परमात्मनः प्रत्यक्षाद्यपरिच्छेद्यत्वाद्वाच्यैकदेशभूते वाच्यसमाप्ति मन्यन्ते । वेदान्तश्रवणेन च व्युत्पत्तिः पूर्यते ।
इसका समाधान यह है कि
सब शब्दों को
ब्रह्मवाचक मानने में
कोई दोष नहीं हैं ।
“नामरूपे व्याकरवाणि”
इस श्रुति का अर्थ करते समय
यह कहा गया है कि
सभी शब्द उन जडशरीरों का धारण करने वाले
जीवों से विशिष्ट ब्रह्म के वाचक हैं
केवल ब्रह्म के वाचक नहीं।
गौ आदि शब्दों का
लोकप्रसिद्ध अर्थ
वह शरीरविशेष
और उसके अन्दर रहने वाला जीव हैं।
इस अर्थ को अपनाकर
आगे यह कहा जाता है कि
गौ आदि शब्द
उन जीवों को बतलाते हुये
उनके अन्तर्यामी परब्रह्म को भी बतलाते हैं,
यह नहीं कहा जाता है कि
ये शब्द उन लोक प्रसिद्ध अर्थों को त्याग कर
परमात्मा भर को बतलाते हैं।
ऐसा कहने पर
अवश्य लोकव्युत्पत्ति में विरोध उपस्थित होगा।
वैसा तो कहा नहीं जाता
इसलिये किती विरोध की संभावना नहीं है ।
मूलम्
नैवं - सर्वे शब्दा अचिज्जीवविशिष्टस्य परमात्मनो वाचका इत्य् उक्तम् - नामरूपे व्याकरवाणीत्य् अत्र ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र लौकिकाः पुरुषाः
शब्दं व्याहरन्तः
शब्दवाच्ये प्रधानांशस्य परमात्मनः प्रत्यक्षाद्य्-अ-परिच्छेद्यत्वाद्
वाच्यैकदेश-भूते वाच्य-समाप्तिं मन्यन्ते ।
नीलमेघः
सभी शब्द लोकप्रसिद्ध अर्थों को लेकर
ब्रह्म तक का प्रतिपादन करने में क्षमता रखते हैं।
ऐसा होने पर भी
लौकिक पुरुष गौ आदि शब्दों को जीववाचक ही मानते हैं,
ब्रह्मवाचक नहीं मानते,
उनकी यह धारणा है कि
इन शब्दों की शक्ति
जीव का प्रतिपादन कर
समाप्त हो जाती है।
उनकी यह धारणा गलत है
क्योंकि वे शब्द परमात्मा तक का प्रतिपादन करने में क्षमता रखते हैं।
[[२१]]
वे लोग ऐसी धारणा इसलिये कर लेते हैं कि इन शब्दों का प्रयोग करते समय
तथा सुनते समय
वे इन शब्दों के प्रधान प्रतिपाद्य परमात्मा को जानते नहीं,
क्योंकि परमात्मा प्रत्यक्षादि प्रमाण से
जाने नहीं जा सकते,
परमात्मा को न जानने के कारण ही
वे यह नहीं समझ पाते हैं
कि ये शब्द जडशरीरधारी जीव से युक्त परमात्मा के वाचक हैं,
किन्तु यही समझते हैं कि
ये शब्द जडशरीरधारी जीव के ही वाचक है ।
वास्तव में ये जीव
जीवविशिष्ट परमात्मरूपी मुख्यार्थ का एक देश हैं ।
परमात्मा को न जानने के कारण
वे इस एक देश को ही वाच्य मानकर
इसमें ही शब्दशक्ति की परिसमाप्ति मानते हैं ।
मूलम्
तत्र लौकिकाः पुरुषाः शब्दं व्याहरन्तः शब्दवाच्ये प्रधानांशस्य परमात्मनः प्रत्यक्षाद्यपरिच्छेद्यत्वाद् वाच्यैकदेशभूते वाच्यसमाप्तिं मन्यन्ते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदान्तश्रवणेन च व्युत्पत्तिः पूर्यते ।
नीलमेघः
जब वे वेदान्तशास्त्र को सुनकर
यह समझ लेते हैं कि
सभी पदार्थ अन्तर्यामी परमात्मा का आश्रय लेकर ही अस्तित्व पाते हैं
तथा सब पदार्थों के अन्दर प्रधान रूप में अन्तर्यामी अवस्थित हैं
अन्तर्यामी ही उन रूपों का धारण करते हुये
सामने विद्यमान हैं,
तब उनको यह विदित होता है कि
सभी शब्द लोकप्रसिद्ध अर्थोँ को बतलाते हुये
उनके अन्दर अवस्थित अन्तर्यामी तक के वाचक होते हैं ।
इस प्रकार वेदान्त सुनने पर उनकी व्युत्पत्ति लोकप्रसिद्ध अर्थ में ही न रुककर आगे परमात्मा तक बढ़कर पूर्ण हो जाती है ।
मूलम्
वेदान्तश्रवणेन च व्युत्पत्तिः पूर्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् एव
वैदिकाः सर्वे शब्दाः
परमात्मपर्यन्तान् स्वार्थान् बोधयन्ति ।
मूलम्
एवम् एव वैदिकाः सर्वे शब्दाः परमात्मपर्यन्तान् स्वार्थान् बोधयन्ति ।
वैदिकेभ्यो लौकिक-शब्दाः, ततस् तेऽपि ब्रह्म-पर्यन्तार्थाः
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैदिका एव सर्वे शब्दा
वेदाद् एव उद्धृत्योद्धृत्य
परेणैव ब्रह्मणा सर्व-पदार्थान् पूर्ववत् सृष्ट्वा
तेषु परमात्म-पर्यन्तेषु पूर्ववन् नामतया प्रयुक्ताः । +++(5)+++
+++(ततस् तेऽपि लौकिक-शब्दा ब्रह्म-पर्यन्तार्थाः)+++
नीलमेघः
वैदिक और लौकिक सभी शब्द परमात्मा तक का बोध कराने में क्षमता रखते हैं।
वैदिक शब्द ही लौकिक प्रयोग में आने के कारण लौकिक कहलाते हैं ।
शास्त्र से यह पता चलता है कि
परमात्मा ने पूर्वकल्पों में जिस प्रकार सृष्टि की है,
उसी प्रकार इस कल्प में भी ब्रह्मात्मक जीव के द्वारा समष्टि तत्त्वों में प्रविष्ट होकर
सभी पदार्थों की सृष्टि करके
उनमें अन्तर्यामी के रूप में अवस्थित हो जाते हैं,
वेदों में विद्यमान
उन गौ आदि सभी शब्दों को
वेदों से निकालकर
अन्तर्यामी तक के वाचक होने के लिये नियुक्त करते हैं
इसलिये वे शब्द सृष्टि में रहने वाले पदार्थों को बतलाते हुये
उनमें अन्तर्यामी के रूप में अवस्थित परमात्मा तक का बोध कराते हैं।
मूलम्
वैदिका एव सर्वे शब्दा वेदादेव उद्धृत्योद्धृत्य परेणैव ब्रह्मणा सर्वपदार्थान् पूर्ववत् सृष्ट्वा तेषु परमात्मपर्यन्तेषु पूर्ववन् नामतया प्रयुक्ताः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् आह मनुः
सर्वेषां तु स नामानि
कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ
पृथक्-संस्थाश् च निर्ममे ॥
इति ।
संस्थाः संस्थानानि रूपाणीति यावत् ।
नीलमेघः
[[५२]]
मनु ने कहा है कि-
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाच निर्ममे ॥
अर्थात् श्री ब्रह्माजी के अन्तर्यामी परमात्मा ने
वेदशब्दों के अनुसार
सभी पदार्थों की अलग अवयवरचना तथा उनके अलग नाम और कर्मों का निर्माण किया है ।
मूलम्
तद् आह मनुः
सर्वेषां तु नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश् च निर्ममे ॥
इति ।
संस्थाः संस्थानानि रूपाणीति यावत् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आह च भगवान् पराशरः
नाम रूपं भूतानां
कृत्यानां प्रपञ्चनम् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ
दैवादीनां चकार सः ॥
इति । +++(5)+++
नीलमेघः
भगवान् पराशर ब्रह्मर्षि ने यह कहा है कि-
नाम रूपं च भूतानां कृत्यानां च प्रपद्मानम् ।
वेदशब्देभ्य एवादी देवादीनां चकार सः ॥
अर्थात् उस परमात्मा ने वेदशब्दों के अनुसार देव आदि जीवों के नाम रूप और कर्तव्य कर्मों के विस्तार का निर्माण किया है।
मूलम्
आह च भगवान् पराशरः
नाम रूपं भूतानां कृत्यानां प्रपञ्चनम् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ दैवादीनां चकार सः ॥
इति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतिश् च -
सूर्याचन्द्रमसौ धाता
यथापूर्वम् अकल्पयद्
इति ।
सूर्यादीन् पूर्ववत् परिकल्प्य
नामानि च पूर्ववच् चकार
इत्य्-अर्थः ।
नीलमेघः
श्रुति ने भी इस अर्थ की इस प्रकार पुष्टि की है कि-
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।
अर्थात् ईश्वर ने पूर्वकल्प के अनुसार सूर्य और चन्द्र इत्यादि पदार्थों की सृष्टि करके उनका वैसा ही नाम रक्खा है ।
इन वचनों से यह सिद्ध होता है कि वैदिक शब्द ही लौकिक शब्द बने हैं ।
ये अन्तर्यामी तक के वाचक होते हैं ।
“तत् त्वम् असि” वाक्य में
“त्वं” पद जीवान्तर्यामी का वाचक है ।
वह वाक्य जीवान्तर्यामी
और जगत् कारण ब्रह्म में
अभेद को बतलाता है
जीव और ब्रह्म में अभेद को नहीं ।
मूलम्
श्रुतिश् च सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वम् अकल्पयद् इति । सूर्यादीन् पूर्ववत् परिकल्प्य नामानि च पूर्ववच् चकार इत्यर्थः ।
उपसंहारः
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं जगद्ब्रह्मणोर् अनन्यत्वं प्रपञ्चितम् ।
नीलमेघः
आगे श्रीभाष्यकार स्वामी जी ने सद्विद्याविचार का उपसंहार करते हुये यह कहा है कि कार्य जगत् और कारण ब्रह्म एक ही वस्तु है, भिन्न वस्तु नहीं ।
सूक्ष्मचेतनाचेतनों से विशिष्ट ब्रह्म कारणवस्तु है,
स्थूल चेतनाचेतनों से विशिष्ट ब्रह्म ही यह कार्य जगत् है ।
इसलिये ये दोनों एक ही वस्तु है ।
मूलम्
एवं जगद्ब्रह्मणोर् अनन्यत्वं प्रपञ्चितम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनैकेन ज्ञातेन सर्वस्य ज्ञाततोपपादिता भवति ।
नीलमेघः
उपादान कारण बनने वाले
उस एक ब्रह्म को जानने पर
यह सम्पूर्ण जगत् जाना जाता है।
इस प्रकार सर्वविज्ञान प्रतिज्ञा का उपपादन होता है ।
मूलम्
तेनैकेन ज्ञातेन सर्वस्य ज्ञाततोपपादिता भवति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वस्य ब्रह्म-कार्यत्व-प्रतिपादनेन
तद्-आत्मकतयैव
सत्यत्वं, नान्यथेति
“तत् सत्यम्” इत्युक्तम् -
यथा दृष्टान्ते
सर्वस्य मृद्-विकारस्य मृद्-आत्मनैव सत्यत्वम् ।
नीलमेघः
सभी पदार्थ ब्रह्म का कार्य हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि
सभी पदार्थ ब्रह्मात्मक है ।
यही अर्थ है ।
किसी भी पदार्थ को
ब्रह्मात्मक मानना भ्रम ही है । इस अर्थ को “सत् सत्यम्” इस वाक्य ने बतलाया है । जिस प्रकार हृष्टान्त में मृत्तिका से बनने वाले घट इत्यादि सभी
[[५३]]
पदार्थ मृत्तिका ही हैं मृत्तिका से भिन्न नहीं इस बात को सत्य मानना पड़ता है उसी प्रकार ब्रह्म से बनने वाले ये सभी कार्य पदार्थ ब्रह्म ही हैं, ब्रह्म से भिन्न नहीं यही अर्थ सत्य है । उस ब्रह्म ने संकल्पपूर्वक जगत् की रचना की है। इससे ब्रह्म सविशेष ही सिद्ध होता है । सद्विद्या इस प्रकार सविशेष ब्रह्म का ही प्रतिपादन करती है ।
मूलम्
सर्वस्य ब्रह्मकार्यत्वप्रतिपादनेन तदात्मकतयैव सत्यत्वं नान्यथेति तत् सत्यम् इत्युक्तम् -
यथा दृष्टान्ते सर्वस्य मृद्विकारस्य मृदात्मनैव सत्यत्वम् ।