विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र प्रथम-पक्षस्य श्रुत्य्-अर्थ-पर्यालोचन-परा
दुष्-परिहारान् दोषान् उदाहरन्ति ।
rAjagopAla
Criticism of Sankara’s Advaita.
Against the first of these three views (Sankara’s Advaita), those who have made a comprehensive study of the meaning of the Srutis adduce the following unanswerable objections:-
नीलमेघः
(क) इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने तीनों मतों का वर्णन कर इनका निराकरण किया है । यह निराकरण द्वितीय श्लोक के उत्तरार्ध में संगृहीत है । सर्वप्रथम श्रीरामानुज स्वामी जी ने श्रीशङ्कराचायें मत का निराकरण करते हुये यह कहा है कि उपनिषद के एकाच वाक्यमात्र से तृप्त न होकर सम्पूर्ण उपनिषदों के सभी वाक्यों के तात्पर्यार्थों का पर्यालोचन करने में प्रवृत्त विद्वान प्रथम वर्णित श्रीशङ्कराचार्य पक्ष में निम्नलिखित दोषों को बतलाते हैं जिनका निराकरण अशक्य है ।
मूलम्
तत्र प्रथमपक्षस्य श्रुत्यर्थपर्यालोचनपरा दुष्परिहारान् दोषान् उदाहरन्ति ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृत-परामर्शित-तच्-छब्दावगत–
स्व-संकल्प-कृत–
जगद्-उदय-विभव-विलयादयस्
“तद्+ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेये"त्य् आरभ्य
“सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठा”
इत्यादिभिः पदैः प्रतिपादितास्
rAghavAchAr
Those given to a thorough reflection on the import of the Vedas point out fallacies in the first view, which can in no way be obviated. The criticism can be elaborated as follows: The term ‘that’ (in ‘That thou art’) signifies Brahman, the subject-matter of the discourse. The statements like ‘It thought, “Let me be many, let me grow forth into many” (Chan. 6:2: 3)’, and ‘All these creatures have Being as their source, they abide in Being and they are based on Being (Chan. 6:8:6)’
affirm that the origin, maintenance and disappearance of the world are the sport of Brahman, by whose will these processes are brought about.
rAjagopAla
For instance:
The word That (in “That Thou art”) refers to Brahman as the subject treated in the context.
The origin, sustenance, and dissolution of the world are said to arise from its will in such words as begin with “It willed to become many” and end with “The world with all the souls (Prajas) in it,[[44]] my child, has its origin in Sat (Reality) or Brahman, its support aud sustenance in Sat (Reality or Brahman) and its dissolution in Sat”.
नीलमेघः
तथाहि - “तत्त्वमसि’ वाक्य का अर्थ करते हुये श्रीशङ्कराचार्य इत्यादि अद्वैतियों ने यह माना है कि “तत्” शब्द से निर्गुण ब्रह्म विवक्षित है। उपर्युक्त अर्थ ठीक नहीं क्योंकि तच्छन्द पूर्व वर्णित ब्रह्म को बतलाता है । पूर्व वर्णित ब्रह्म सगुण है । इसमें दो हेतु हैं ।
(१) “तत्त्वमसि” वाक्य के पूर्व “तदक्षत बहु स्या प्रजायेय” ऐसा प्रारम्भ करके “सन्मूला: सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः” इत्यादि वाक्य हैं। उन वाक्यों के द्वारा ब्रह्म जिन २ गुणधर्मों से [[२७]] युक्त बतलाया गया है, उन गुणधर्मों से युक्त ब्रह्म ही “तत्त्वमसि " के तच्छब्द से बतलाया गया है । वे वाक्य ब्रह्म को सगुण बतलाते हैं । “तदैक्षत बहु स्या प्रजायेय” इस वाक्य का यह अर्थ है कि उस जगत्कारण सत् पदार्थ ने ऐसा संकल्प किया कि मैं व्यष्टि सृष्टि के रूप में बहुत बनूँ, तदर्थ समष्टि सृष्टि के रूप में जन्म लेलूँ । इस वाक्य से सिद्ध होता है कि उस जगत्कारण सद्वस्तु ने संकल्प किया है । वह सद्वस्तु ब्रह्म ही है । इस वाक्य से ब्रह्म में संकल्परूपी गुण सिद्ध होता है । आगे “सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः” यह वाक्य है । इसका यह अर्थ है कि हे सोम्य - अर्थात् सोमपानार्ह सच्छिष्य - ये सभी प्रजायें श्रर्थात् सभी चेतनाचेतन कार्य पदार्थ सद्वस्तु से उत्पन्न हुये हैं, सद्वस्तु में प्रतिष्ठित हैं, तथा सद्वस्तु में लय को प्राप्त होने वाले हैं । इस वाक्य से सिद्ध होता है कि सद्वस्तु ब्रह्म इस जगत् की उत्पत्ति स्थिति एवं लय का कारण है । इससे ब्रह्म में तीन धर्म फलित होते हैं । वे ये हैं कि
(१) जगदुत्पत्ति कारणत्व,
(२) जगत् स्थिति कारणत्व और
(३) जगल्लय कारणत्व ।
“तत्त्वमसि” और उपयुक्त " तदैक्षत" इत्यादि वाक्य एक ही प्रकरण में पढ़े गये हैं । इन समान प्रकरणस्थ वाक्यों से ब्रह्म में संकल्प और जगत्कारणत्व इत्यादि गुण सिद्ध होते हैं ।
मूलम्
प्रकृतपरामर्शितच्छब्दावगतस्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवविलयादयस् “तद्+ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेये"त्यारभ्य “सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठा” इत्यादिभिः पदैः प्रतिपादितास्
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्-संबन्धितया
प्रकरणान्तर-निर्दिष्टाः सर्व-ज्ञता–सर्व-शक्तित्व–सर्वेश्वरत्व–
सर्व-प्रकारत्व–
समाभ्यधिक-निवृत्ति–सत्य-कामत्व–
सत्य-संकल्पत्व–
सर्वावभासकत्वाद्य्–अनवधिकातिशयासंख्येय–
कल्याण-गुण-गणा
अपहत-पाप्मेत्य्-आद्य्-अनेक-वाक्यावगत-
निरस्त-निखिल-दोषता च
सर्वे तस्मिन् पक्षे विहन्यन्ते ।
rAghavAchAr
Other scriptural passages dealing with the same theme enunciate, as related to Brahman’s authorship of these processes, countless auspicious attributes of surpassing perfection like omniscience, omnipotence, universal overlordship, the possession of all entities as its modes, the negation of the superiority and equality of everything else to it, and the power of realising all desires and will and the effulgence that illumines the whole universe. And several other passages like ‘Free from sin (Cha. 8:7:1)’ etc., speak of Brahman as being free from all imperfections. Now all these characterizations of Brahman get negated on the first view.
rAjagopAla
In other contexts, boundless, unsurpassed and innumerable auspicious attributes like omniscience, omnipotence, the lordship of all, the attribute of having all things as its modes (prakaras), having neither equals nor superiors, the nature of one who has all the means of satisfying whatever is desired and whose purposes are for ever realised and the power of illuminating all other things are predicated (in the Srutis) and likewise His being at variance with every form of imperfection as in the words “untouched by sin “. All these are adversely affected on this view (Advaita), as it holds that Brahman is without any difference or particularity or attribute (nirvisesha).
नीलमेघः
(२) पूर्वमीमांसा में सर्वशाखा प्रत्यय न्याय वर्णित है । उससे यह सिद्ध होता है सभी शाखाओं में वर्णित अर्थ एक है । उसके अनुसार यह मानना पड़ता है कि सभी उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म एक ही है, भिन्न २ नहीं है । विभिन्न उपनिषदों में वर्णित गुण एक ही ब्रह्म का है । जिस ब्रह्म का वर्णन प्रकृत सद्विद्या में हो रहा है, उसी ब्रह्म का वर्णन अन्यान्य उपनिषदों में भी होता है ।
अन्यान्य उपनिषदों में बहुत से गुण विभिन्न प्रकरणों में वर्णित हैं । वे सभी एक ही ब्रह्म के गुण हैं । एक उपनिषद में यह कहा गया है कि “यः सर्वज्ञः सर्ववित्” अर्थात् ब्रह्म सामान्य रूप से सब पदार्थों को जानता है, तथा विशेषरूप से सब पदार्थों को जानता है । इस वाक्य से ब्रह्म में सर्वज्ञत्व गुण सिद्ध होता है । दूसरी उपनिषद में यह वर्णन मिलता है कि “परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते” अर्थात् इस ब्रह्म की नाना प्रकार की पराशक्ति सुनने में आती है । इस वाक्य से ब्रह्म में सर्वशक्तित्व गुण सिद्ध होता है । अन्य उपनिषदों में ये वाक्य उपलब्ध हैं कि “स ईशोऽस्य जगतो नित्यमेव” “नान्यो हेतुर्विद्यते ईशनाथ” । इन वाक्यों का यह अर्थ है कि वह परब्रह्म इस जगत् पर सदा शासन करने वाला है, ईश्वर जगत् का जो शासन करते हैं, उसके लिये दूसरा कोई कारण नहीं, जगत् का ईश्वर बनकर रहना उनका स्वभाव है । इन वाक्यों से परब्रह्म में सर्वेश्वरत्व नामक गुण सिद्ध होता है । यह एक उपनिषद वाक्य है कि “सर्वं खल्विद ब्रह्म” अर्थात् यह सब कुछ ब्रह्म ही है । इससे सिद्ध होता है कि सभी पदार्थ ब्रह्म का विशेषण है, ब्रह्म सभी पदार्थों का विशेष्य है । इस प्रकार ब्रह्म सभी पदार्थों से विशिष्ट अर्थात् युक्त होकर रहता है । इससे ब्रह्म में सर्वप्रकारत्व नामक गुण सिद्ध होता है । एक उपनिषद यह बतलाती हैं कि “न तत्समश्चाभ्यधिकश्च विद्यते” अर्थात् उस ब्रह्म का समान कोई पदार्थ नहीं है, तथा उस ब्रह्म से श्रेष्ठ कोई पदार्थ नहीं । इस वाक्य से ब्रह्म में समाभ्यधिकराहित्य ( सम और अधिक से रहित होना )
[[२८]]
नामक
धर्म सिद्ध होता है। उपनिषद में ब्रह्म के विषय में यह वर्णन मिलता है कि “सत्यकामः सत्यसंकल्पः’ अर्थात् परमात्मा सदा विद्यमान अनन्त भोग्य पदार्थों से युक्त है, तथा सत्यसंकल्प वाले हैं । इससे सत्यकामत्व और सत्यसंकल्पत्व ऐसे दो गुण सिद्ध होते हैं । उपनिषद में यह भी वर्णन मिलता है कि “तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" अर्थात् उस परमात्मा के तेज से यह सब प्रपञ्च भासित होता है । इससे परमात्मा में सर्वावभासकत्व नामक गुण सिद्ध होता है । इतने ही गुण नहीं, इस प्रकार के अत्युच्च कोटि के असंख्य कल्याणगुण उपनिषदों में वर्णित हैं । उपनिषद में " अपहतपाप्मा विरजो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासः” इत्यादि वाक्यों से ब्रह्म के विषय में यह कहा गया है कि परमात्मा पाप जरामरण शोक बुभुक्षा और पिपासा से रहित है । इससे परमात्मा सर्वदोष रहित सिद्ध होते हैं । अन्यान्य उपनिषदों में परमात्मा के विषय में वर्णित सर्वज्ञत्व सर्वशक्तित्व सर्वेश्वरत्व सर्वप्रकारत्व समाभ्यधिकराहित्य सत्यकामत्व सत्यसंकल्पत्व सर्वावभासकत्व इत्यादि उच्चकोटि के असंख्य कल्याणगुण एवं निर्दोषत्व ये सभी विशेषण ब्रह्म के जगत्कारणत्व के समर्थक हैं । “तत्त्वमसि’ वाक्य युक्त छान्दोग्य उपनिषद में वर्णित संकल्पवत्व और जगत्कारणत्व तथा इनका समर्थन करने वाले अन्यान्य उपनिषद्वर्णित उपयुक्त गुणों पर ध्यान देने पर यही निष्कर्ष होता है कि “तत्त्वमसि’ इस वाक्य में तच्छब्द से वर्णित ब्रह्म सगुण एवं निर्दोष है । उसका अल्पज्ञ एवं दुःख इत्यादि दोषों से युक्त जीव के साथ स्वरूपैक्य हो नहीं सकता है । यहाँ उस स्वरूपैक्य को छोड़कर दूसरा ही अर्थ विवक्षित है ।
मूलम्
तत्संबन्धितया प्रकरणान्तरनिर्दिष्टाः सर्वज्ञतासर्वशक्तित्वसर्वेश्वरत्वसर्वप्रकारत्वसमाभ्यधिकनिवृत्तिसत्यकामत्वसत्यसंकल्पत्वसर्वावभासकत्वाद्यनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणगणा अपहतपाप्मेत्याद्यनेकवाक्यावगतनिरस्तनिखिलदोषता च सर्वे तस्मिन् पक्षे विहन्यन्ते ।