rAjagopAla
The philosophical systems of Sankara (Advaita), and of Bhaskara and Yadavaprakasa (Bhedabheda).
शाङ्कराद्वैत-वादः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य वैभव-प्रतिपादन-पराणाम् एषां सामानाधिकरण्यादीनां
विवरणे प्रवृत्ताः केचन
निर्विशेष-ज्ञान-मात्रम् एव ब्रह्म,
rAghavAchAr
- Some engaged in the explanation of these passages, like the proposition expressing identity, descriptive of the glory of Brahman put forth the following explanation: Undifferentiated Consciousness alone is Brahman.
rAjagopAla
In their attempt to explain this co-ordination (between Brahman and the self as also Brahman and the world), as found in “That Thou art” and “All this is Brahman”, whose purpose is to bring out the greatness of Brahman by stating that He is in all things, some (commentators) maintain the following view :-
“Brahman is pure knowledge or consciousness, devoid of any difference or specific particularity (visesha);
नीलमेघः
श्रीशङ्कराचार्य मत का संक्षिप्त वर्णन
[[२१]]
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने द्वितीयमङ्गलाचरण श्लोक की व्याख्या करते हुये तथा सर्वप्रथम श्रीशङ्कराचार्य के मत का संग्रह करते हुये यह कहा कि सभी श्रुतियों का समन्वय करने पर यह स्पष्ट विदित होता है कि अभेदश्रुति इत्यादि वचन भी उपर्युक्तरीति से श्रीभगवान् की महिमा को बतलाने में ही तात्पर्य रखते हैं । किन्तु अभेदश्रुति इत्यादि वचनों की व्याख्या करते हुये श्रीशङ्कराचार्य इत्यादि वादियों ने दूसरे ही प्रकार से निष्कर्ष निकाला है । उन लोगों ने श्रुतिवचनों के आधार पर यह सिद्धान्त स्थिर किया है कि ब्रह्म ही सत्य है । वह ब्रह्म केवल ज्ञानस्वरूप है, उस ब्रह्म में कहीं जड़ता नहीं रहती है । वह ब्रह्म निर्विशेष हैं, उसमें कोई भी विशेष नहीं रहता । न उसमें ज्ञातृत्वरूपी विशेष है, न ज्ञेयत्वरूपी विशेष है । अन्यान्य गुणरूपी विशेषीं के विषय में क्या कहना है ? वे तो हैं ही नहीं । अतएव ब्रह्म निर्धर्मक निर्गुण सिद्ध होता है । ब्रह्म जब ज्ञानस्वरूप है तब उसमें ज्ञातृत्व और ज्ञेयत्व रह ही कैसे सकता है । इसलिये ब्रह्म को निर्विशेष मानना चाहिये ।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि उपनिषदों में ऐसे वचन भी विद्यमान हैं जिनसे ब्रह्म सविशेष सिद्ध होता है । उन वचनों की क्या गति होगी ? इसके उत्तर में अद्वैतवादी कहते हैं कि वे वचन तात्त्विकार्थ को नहीं बतलाते हैं, किन्तु भ्रान्तिसिद्ध सविशेषता का वर्णन करते हैं।
उन वचनों का अकाट्य प्रामाण्य नहीं ।
मूलम्
तस्य वैभवप्रतिपादनपराणाम् एषां सामानाधिकरण्यादीनां विवरणे प्रवृत्ताः केचन निर्विशेषज्ञानमात्रम् एव ब्रह्म,
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच् च नित्य-मुक्त–स्व-प्रकाश–स्व-भावम् अपि
“तत् त्वम् अस्य्”-आदि-सामानाधिकरण्यावगत-जीवैक्यं,
rAghavAchAr
It is eternally free and self luminous. Still its identity with the individual self is made known through propositions positing identity such as ‘That thou art’.
rAjagopAla
though Brahman is eternally free and selfevident or self-luminous, it is identical with the individual self as understood from the coordination (samanadhikaranyam) contained in texts like That Thou Art.
नीलमेघः
आगे अद्वैतवादी कहते हैं कि ब्रह्मज्ञानस्वरूप है, अतएव स्वयंप्रकाश है । स्वयंप्रकाश वस्तु के विषय में अज्ञान हो ही नहीं सकता । अतएव उसका बन्ध भी नहीं है । ब्रह्म नित्यमुक्त है, वह सदा मुक्त ही है कभी उसका बन्ध नहीं होता । स्वप्रकाश ब्रह्म का नित्यमुक्त बने रहना यही स्वभाव है । ऐसा होने पर भी [[२२]] यह मानना पड़ता है कि वह ब्रह्म और जीव एक है क्योंकि “तत्त्वमसि’ इत्यादि अभेद वाक्य जीव और ब्रह्म में ऐक्य को सिद्ध करते हैं। श्रुति सिद्ध इस ऐक्य की अवहेलना नहीं की जा सकती।
मूलम्
तच् च नित्यमुक्तस्वप्रकाशस्वभावम् अपि
“तत् त्वम् अस्य्”-आदिसामानाधिकरण्यावगतजीवैक्यं,
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मैवाज्ञं बध्यते मुच्यते च,
rAghavAchAr
Brahman itself, being ignorant, gets bound and is (subsequently) released.
rAjagopAla
Brahman itself is in the bondage (of samsara) owing to ignorance or nescience (avidya); and that which obtains release is Brahman.
नीलमेघः
इस ऐक्य को सिद्ध करने के लिये यह मानना पड़ता है कि नित्यमुक्त स्वप्रकाश वह ब्रह्म ही अविद्या से तिरोहित होकर जीवभाव को प्राप्त होता है, विविध भेद भ्रम का अनुभव करता हुआ संसार बन्ध में फँस जाता है तथा अद्वैतात्मज्ञान से संसार से छूट जाता है ।
मूलम्
ब्रह्मैवाज्ञं बध्यते मुच्यते च,
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्विशेष-चिन्-मात्रातिरेक+
ईश्वरेशितव्याद्य्-अनन्त-विकल्प-रूपं कृत्स्नं जगन् मिथ्या,
rAghavAchAr
Apart from the undifferentiated consciousness, the whole universe, consisting of endless plurality exhibiting differences like that between Ishvara and the creatures, is unreal.
rAjagopAla
The whole Universe with its endless differences like Iswara and sentient beings and non-sentient things controlled by Him which are other than pure conscionsness without difference are illusory (mithya);
नीलमेघः
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि जिस प्रकार श्रुतिप्रतिपादित होने के कारण जीवाक्य को मानना पड़ता है, उसी प्रकार श्रुतिप्रतिपादित होने के कारण ईश्वर और उनके शासन में रहने वाले चेतनाचेतन प्रपञ्च इत्यादि भेदों को भी क्यों न मानना चाहिये ?
इस प्रश्न के उत्तर में अद्वैतवादी यह कहते हैं कि उपर्युक्त श्रुतिप्रतिपादित भेदों को मिथ्या मानना चाहिये तभी अद्वैतश्रुतियों का प्रामाण्य बना रहेगा, अन्यथा नहीं । इसलिये मानना पड़ता है कि निर्विशेष चिन्मात्र ब्रह्म को छोड़कर यह सम्पूर्ण जगत् मिथ्या है जिसमें ईश्वर और ईशितव्य इत्यादि अनन्त भेद निहित हैं ।
मूलम्
निर्विशेषचिन्मात्रातिरेकेश्वरेशितव्याद्यनन्तविकल्परूपं कृत्स्नं जगन्मिथ्या,
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्चिद् बद्धः,
कश्चिन् मुक्त
इतीयम् अवस्था न विद्यते ।
rAghavAchAr
That there is some one who is liberated and some one that is bound is an arrangement that does not exist.
rAjagopAla
the distinction that one is in bondage and that another is free from it has no basis;
नीलमेघः
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि अद्वैतसिद्धान्त में आत्मा एक माना जाता है, आत्मभेद नहीं माना जाता है । ऐसी स्थिति में बद्ध मुक्त व्यवस्था कैसे बनी रहेगी ? बहुत से जीव मुक्तपद पर पहुँच गये हैं, बहुत से अब भी संसारबन्ध में पड़े हुये हैं । यह अर्थ शास्त्रप्रमाणित है । यही बद्ध मुक्त व्यवस्था है । यह व्यवस्था आत्मभेद मानने पर ही संगत होती है क्योंकि आत्मभेद मानने पर यह कहा जा सकता है कि कई जीव मुक्त हो गये हैं तथा कई जीव बद्ध बने हुये हैं । आत्मभेद न मानने पर इस व्यवस्था को तिलाञ्जलि देनी पड़ेगी। इस प्रश्न के उत्तर में अद्वैतवादी कहते हैं कि कोई जीव बद्ध है, दूसरा जीव मुक्त है ऐसी व्यवस्था है ही नहीं । आत्मैक्य ही सिद्धान्त है । यह व्यवस्था सर्वथा अमान्य है ।
मूलम्
कश्चिद् बद्धः,
कश्चिन् मुक्त
इतीयम् अवस्था न विद्यते ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतः पूर्वं केचन मुक्ता
इत्य् अयम् अर्थो मिथ्या ।
rAghavAchAr
That some have attained liberation before now is not true.
rAjagopAla
it is also illusory to think that some *souls attained salvation or release from bondage before now;
नीलमेघः
प्रश्न – “शुको मुक्तो वामदेवोऽपि मुक्त:” कहकर शास्त्रों में कहा गया है कि श्रीशुकदेव जी मुक्त हुये हैं, तथा श्रीवामदेव जी मुक्त हुये हैं । अब भी अनेक जीवात्मा बद्ध हैं। इसलिये बद्ध मुक्त व्यवस्था को मानना चाहिये । उत्तर - शास्त्र में यह जो कहा गया है कि कई मुक्त हो गये हैं यह बात भी मिथ्या ही है ।
मूलम्
इतः पूर्वं केचन मुक्ता
इत्य् अयम् अर्थो मिथ्या ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकम् एव शरीरं जीववन्
निर्जीवानीतराणि,
तच् छरीरं किम् इति न व्यवस्थितम्।
+++(←केषाम् इदम् मतम्??)+++
rAghavAchAr
One body alone is ensouled. The other bodies are soul-less. It is not determined which that body is.
rAjagopAla
only one body is animated by the soul or self and the other bodies are soulless; it is impossible to state which that one body is.
नीलमेघः
के
सुख
प्रश्न – सभी शरीरों में नाना प्रकार की चेष्टायें देखने में आती हैं। इससे सिद्ध होता है कि
उन शरीरों में आत्मा है ।
सब शरीरों में विद्यमान आत्मा भिन्न २ हैं
क्योंकि एक सुखी है,
दूसरा दुःखी है एक और दुःख का पता दूसरे को नहीं ।
इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक शरीर में अलग २ आत्मा रहता है ।
इस विवेचन से सिद्ध होता है कि आत्मभेद मानना चाहिये ।
आत्मभेद मानने पर बद्ध मुक्त व्यवस्था भी सिद्ध हो जायेगी ।
इस प्रश्न के उत्तर में अद्वैतवादी कहते हैं कि एक शरीर ही जीव वाला है, अन्य सभी शरीर निर्जीव हैं ।
यहाँ पर यह दृष्टान्त ध्यान देने योग्य है ।
मान लिया जाय कि एक मनुष्य ऐसा स्वप्न देखता है कि स्वयंविध शरीरों को लेकर विविध कार्य करता रहता है ।
वहाँ स्वप्न में दिखाई [[२३]] देने वाले सभी शरीर निर्जीव हैं, वह मनुष्य जिस शरीर में अवस्थित होकर स्वप्न देखता है, वही शरीर जीव वाला है।
वैसे ही प्रकृत में भी समझना चाहिये ।
ब्रह्म किसी एक शरीर में अवस्थित होकर यह संसारस्वप्न देखता है ।
इस स्वप्न में दिखाई देने वाले सभी शरीर निर्जीव हैं, जिस शरीर में रहकर ब्रह्म स्वप्न देखता है, वही शरीर सजीव है । इस विवेचन से सिद्ध होता है कि आत्मभेद है ही नहीं ।
ऐसी स्थिति में बद्ध मुक्त व्यवस्था कैसे सिद्ध हो सकती है ? सार यह है कि एक ही शरीर सजीव माना जाता है तथा अन्यान्य सभी शरीर निर्जीव माने जाते हैं ।
अन्यान्य शरीर निर्जीव होने के कारण
यह प्रश्न उठ ही नहीं सकता कि
वहाँ के जीव एक होने के कारण
अन्य शरीरों में होने वाले सुख और दुःख इत्यादि का अनुसन्धान क्यों नहीं करते ।
प्रश्न इसलिये खण्डित हो जाता है कि अन्य शरीरों में जीव जब हैं ही नहीं, तब अनुसन्धान कैसे हो सकता है ।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि एक शरीर में तो जीव माना जाता है
वह जीव श्रवण और मनन आदि के द्वारा अद्वैतज्ञान को प्राप्त कर
अब तक मुक्त हो गया होगा,
क्योंकि अब तक हुये अद्वैतप्रचार को देखने पर यही मानना पड़ता है कि
उस जीव को मुक्त हो जाना चाहिये ।
यदि वह जीव मुक्त हो गया तो फिर यह संसारस्वप्न कौन देख रहा है ?
इस प्रश्न का उत्तर यह हैं कि
यह मानी हुई बात है कि
दिखाई देने वाले इन शरीरों में
किसी एक शरीर में ही जीव रहता है,
उसी को ही यह संसारस्वप्न दीख रहा है ।
अन्यान्य सभी शरीर निर्जीव होते हुये
सजीव के समान उस स्वप्नदर्शी जीव को दिखाई दे रहे हैं ।
यही सिद्धान्त है ।
एक शरीर में ब्रह्म जीव बनकर संसारस्वप्न देख रहा है ।
उस जीव को अभी तक अद्वैतज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ है,
अतएव संसारस्वप्न अनुवृत्त हो रहा है।
वह जीव संसारस्वप्न देखता हुआ
ऐसा भी देखता है कि
हमको प्रतीत होने वाले इन शरीरों में
प्रतीत होने वाले जीवों में एक जीव दूसरे जीव को अद्वैतविद्या का उपदेश देता है,
दूसरा जीव अद्वैतज्ञान को प्राप्त कर रहा है इत्यादि ।
वह जीव यह नहीं देखता है कि हमको कोई अद्वैत उपदेश दे रहा है,
हमको अद्वैतज्ञान होता है इत्यादि ।
भले ही वह जीव दीखने+++(=??-)+++ वाले अन्यान्य जीवों को अद्वैतज्ञान सिद्ध देखता रहे,
जब तक स्वयं अद्वै तज्ञान को वह जीव प्राप्त न करें,
तब तक यह संसारस्वप्न बना ही रहेगा ।
खास स्वप्न देखने वाले जीव को
अभी तक अद्वैतज्ञान नहीं हुआ है ।
अतएव यह संसार बना रहता है।
अबतक यह पता नहीं चला है कि कौन शरीर वास्तव में सजीव है,
और कौन शरीर वास्तव में निर्जीव होता हुआ भ्रम से सजीव दिखाई देता है ।
वस्तुतः शरीर में रहने वाले जीव को ज्ञान होने पर ही बन्ध निवृत्त होगा ।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि कम से कम शिष्य आचार्य ज्ञान को सत्य मानना चाहिये ।
मूलम्
एकम् एव शरीरं जीववन्
निर्जीवानीतराणि,
तच्छरीरं किम् इति न व्यवस्थितम्।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्यो ज्ञानस्योपदेष्टा मिथ्या
शास्त्रं च मिथ्या
शास्त्र-प्रमाता च मिथ्या
शास्त्र-जन्यं ज्ञानं च मिथ्या
rAghavAchAr
The teacher who imparts knowledge is just a phenomenal appearance. The knower (in all cognitions) is also a phenomenal appearance. The scripture is also unreal. The knowledge arising out of the scripture is also unreal.
rAjagopAla
The acharya or preceptor who teaches divine knowledge is illusory; Sastra or scripture is illusory too; the one who understands the scripture is illusory and likewise the knowledge arising from scripture;
- NOTE :—* Like Suka, Prahlada and Vamadeva.
नीलमेघः
ऐसी स्थिति में एकमात्र ब्रह्म की ही प्रश्न के उत्तर में अद्वैतवादी कहते हैं कि
ज्ञान का उपदेश देने वाले
शास्त्र और शास्त्र से होने वाले तत्त्वसत्यता कैसे सिद्ध हो सकती है ? इस आचार्य मिथ्या हैं, आचार्य के उपदेश
के अनुसार शास्त्र से ज्ञान को प्राप्त करने वाला शिष्य भी मिथ्या है, शास्त्र मिथ्या है। शास्त्रजन्य ज्ञान भी [[२४]] मिथ्या है।
मूलम्
आचार्यो ज्ञानस्योपदेष्टा मिथ्या
शास्त्रं च मिथ्या
शास्त्रप्रमाता च मिथ्या शास्त्रजन्यं ज्ञानं च मिथ्या
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् सर्वं मिथ्याभूतेनैव शास्त्रेणावगम्यत इति वर्णयन्ति ।+++(5)+++
rAghavAchAr
All this is known from the Scripture itself which is unreal.
rAjagopAla
and all this is understood only from this illusory scripture. NOTE:-This is Ramanuja’s summing up of Sankara’s advaita and his doctrine of Maya and illusory appearance.
नीलमेघः
उपर्युक्त सभी अर्थ मिथ्या बनने वाले शास्त्र से ही विदित होते हैं । ब्रह्म को छोड़कर और कोई भी पदार्थ सत्य नहीं है । एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है । इस प्रकार श्रीशङ्कराचार्य इत्यादि अद्वैतविद्याचार्य अपने मत का वर्णन करते हैं ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने अद्वैतसिद्धान्त का वर्णन किया है। इसके विषय में की गई समालोचना आगे प्रस्तुत की जायेगी ।
मूलम्
एतत् सर्वं मिथ्याभूतेनैव शास्त्रेणावगम्यत इति वर्णयन्ति ।
rAjagopAla
NOTE: What do the Srutis mean when they speak of the individual self as being identical with the Supreme Self or Brahman and of all things being Brahman?
The answer to this question is different in the different systems and it is this answer which gives each system its definite character.
According to Sankara, since the individual self is Brahman shadowed by avidya (ignorance of nescience) and since this avidya is itself illusory, there is only one Reality, namely Brahman and no other.
The individual self, when it realizes its identity with Brahman becomes Brahman.
Brahman is pure chit or consciousness.
It is not conscious of anything else, for there is nothing else that is real.
Nothing can be predicated of this chit except that it is or that it is sat.
सोपाधिक-बन्ध-मोक्ष-वादः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरे त्व् अपहत-पाप्मत्वादि–समस्त-कल्याण-गुणोपेतम् अपि
ब्रह्मैतेनैवैक्यावबोधेन
केनचिद् उपाधि-विशेषेण संबद्धं बध्यते मुच्यते च,
नाना-विध-मल-रूप-परिणामास्पदं चेति व्यवस्थिताः ।
rAghavAchAr
- Others hold thus: Brahman, though possessed of all auspicious attributes like freedom from sin, is subject to bondage and attains liberation and is the seat of many varieties of [[11]] evil owing to its association with a particular limiting adjunct. This doctrine is necessitated by the passages affirming identity.
rAjagopAla
Bhaskara’s Bhedabheda. Others maintain that Brahman, though possessed of all auspicious qualities like freedom from imperfections, should be considered, in the light of the texts declaring identity (between Brahman and the world and between Brahman and the individual self), as becoming subject to bondage and release owing to its association with some limiting adjunct (Upadhi) and that it is also subject to various modifications of an impure nature. NOTE: This is Ramanuja’s summing up of Bhaskara’s Bhedabheda system. NOTE 1—Modifications; Changes in matter or changes into various non- sentient objects.
rAjagopAla
Bhaskara and his followers say that Brahman has attributes or qualities and that it is not mere indifferent chit. Brahman is possessed of countless auspicious qualities and is not bound by Karma; but owing to its association with upadkis or limiting adjuncts, it is seen as gods, men, animals and the like. These Upadhis are the bodies and senses like those of gods, men, animals and plants. Brabman changes into gods, men, animals and plants and so also into inanimate forms of matter. [[43]] This explains, according to Bhaskara, the statement of identity in texts like “That Thou art” and “All is indeed Brahman”. The Upadhis are, in Bhaskara’s system, real.
Hence, the individual selves and the world of inanimate objects are real.
Bhaskara condemns the doctrine of Maya and the theory of the world’s illusory appearance.
Brahman is, in reality, not different from the individual souls except for the latter’s adventitious association with Upadhis.
When the Upadhis disappear in mukti, there is no difference at all between Brahman and the individual souls, Brahman is, by nature, not different from sentient and non-sentient things.
The differance between Brahman and non-sentient things is natural.
In the case of sentient things the difference is due to the adventitious association with Upadhis.
नीलमेघः
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने द्वितीयमङ्गलाचरण श्लोक के पूर्वार्ध में वर्णित भास्कराचार्य मत की व्याख्या करते हुये यह कहा है कि श्रीभास्कराचार्य द्वैताद्वैत सिद्धान्त को मानने वाले हैं। उन्होंने “तत्त्वमसि” इत्यादि वाक्यों की व्याख्या करते हुये यह सिद्धान्त स्थिर किया है कि परब्रह्म “ग्रपहतपाप्मत्व” इत्यादि समस्तकल्याणगुणों से युक्त है क्योंकि उपनिषद में वर्णित उन गुणों की अवहेलना नहीं की जा सकती है। इसलिये ब्रह्म को सगुण मानना चाहिये । इसी परब्रह्म को “तत्त्वमसि’ इत्यादि वाक्यों से जीवाभेद कहा जाता है। इस अभेद का तिरस्कार नहीं कर सकते हैं । यहाँ पर यह विरोध उपस्थित होता है कि परब्रह्म सर्वज्ञत्व इत्यादि कल्याणगुणों से सदा युक्त है, जीव अल्पज्ञत्व और दुःख इत्यादि दोषों से है । इनमें भेद कैसे घटता है । इस विरोध को शान्त करने के लिये यह मानना चाहिये कि जीव और युक्त ब्रह्म में भेद और अभेद दोनों हैं । उनमें अभेद स्वाभाविक है, और भेद औपाधिक है । जिस प्रकार महाकाश और घटाकाश में अभेद स्वाभाविक है, तथा भेद औपाधिक है, उसी प्रकार ब्रह्म और जीव में समझना चाहिये । जिस प्रकार महाकाश घटरूपी उपाधि सम्बन्ध पाकर घटाकारा बन जाता है, उसी प्रकार ब्रह्म अन्तःकरण और देह इत्यादि जड़ उपाधि से सम्बन्ध पाकर जीव बन जाता है । जबतक वह उपाधि से सम्बद्ध रहता है तबतक जीव बनकर रहना होगा तथा तबतक औपाधिक भेद एवं संसारबन्ध बना रहेगा । उपाधिसम्बन्ध छूटते ही जीव संसार से मुक्त होकर परब्रह्म बन जाता है । मोक्ष में जीव और ब्रह्म में अभेद हो जाता है । भेद संसारदशा में है । वह भी औपाधिक है । इस प्रकार जीव और ब्रह्म में भेदाभेद सिद्ध होता है । इनमें भेद औराधिक एवं अभेद स्वाभाविक माना जाता है । यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि [[२५]] जिस जढ आधि के कारण ब्रह्म और जीव में औपाधिक भेद होता है, वह जड उपाधि ब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीभास्कराचार्य कहते हैं कि वह जड उपाधि ब्रह्म से भिन्न एवं अभिन्न है । यहाँ भेद और अभेद दोनों भी स्वाभाविक हैं। अभेद दृष्टि से विचारने पर यही निर्णय होता है ब्रह्मही जड उपाधि बनकर नानाविध दोषरूपी विकारों को प्राप्त करता रहता है । यही अन्तर है कि जड और ब्रह्म में भेद और अभेद दोनों स्वाभाविक हैं, तथा जीव और ब्रह्म में भेद औपाधिक और अभेद स्वाभाविक है । इस सिद्धान्त में ब्रह्म सगुण है, जगत् सत्य है । अनेक उपाधियों के संयोग से ब्रह्म अनेक जीव बन जाता है । इसलिये बद्ध मुक्त व्यवस्था और शिष्याचार्य व्यवस्था घट जाती है ।
मूलम्
अपरे त्व् अपहतपाप्मत्वादिसमस्तकल्याणगुणोपेतम् अपि ब्रह्मैतेनैवैक्यावबोधेन केनचिद् उपाधिविशेषेण संबद्धं बध्यते मुच्यते च नानाविधमलरूपपरिणामास्पदं चेति व्यवस्थिताः ।
यादव-प्रकाश-भेदाभेद-वादः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये पुनर् ऐक्यावबोध-याथात्म्यं वर्णयन्तः
स्वाभाविक-निरतिशयापरिमितोदार-गुण-सागरं ब्रह्मैव
सुर-नर-तिर्यक्-स्थावर–नारकि-स्वर्ग्य्-अपवर्गि-चेतनेषु
स्व-भावतो विलक्षणम् अविलक्षणं च
वियद्-आदि–नाना-विध–मल-रूप-परिणामास्पदं
चेति प्रत्यवतिष्ठन्ते ।
rAghavAchAr
Others again maintain, in explanation of the same principle of identity, the following view: Brahman, an ocean of great attributes, inherent and unlimited, acquires the character of the individual selves of all kinds, the divine, the human, the animal and plant, those consigned to hell, those enjoying heaven and the liberated individuals. This Brahman is inherently differentiated from and not so differentiated from them. It is subject to various modifications thus evolving into entities like the (element) ether.
rAjagopAla
Yadavaprakasa’s Bhedabheda.
Others still, in explaining the truth of the texts teaching identity hold that, though Brahman is the sea of unsurpassed and boundless qualities, it is of such a nature as to become gods, men, animals, dwellers in hell and in Svarga, and souls that have attained release. By nature, He is different as well as not different from them and is subject to various modifications of an impure nature.
rAjagopAla
Yadavaprakasa agrees with Bhaskara in describing Brahman as possessed of attributes or qualities. He holds that Brahman is capable of existing as gods, men, animals and plants and likewise as non-sentient objects. By nature, it is both different and non-different from them.
To Bhaskara, the difference between Brahman and the conscious self is adventitious, being the result of Upadhi. Essentially, there is no difference between them. In the case of non-sentient objects, the difference is natural and essential.
To Yadavaprakasa, on the other hand, in the case of both sentient and nonsentient objects, the differences are natural and not adventitious and so also the non-difference. Even without Upadhi, Brahman has the capacity of becoming sentient and non-sentient things.
These two systems are called Bhedabheda (ie) bheda and abheda, because, according to them, Brahman is both different from the Jivas and non-sentient objects and at the same time not different.
नीलमेघः
मत
आगे श्रीरामानुज स्वामी जी ने द्वितीयमङ्गलाचरण श्लोक में उल्लिखित श्रीयादवप्रकाशाचार्य मत का इस प्रकार संक्षिप्त वर्णन किया है कि " तत्त्वमसि " इत्यादि अभेदश्रुतियों के तात्पर्य का वर्णन करते हुये श्रीयादवप्रकाशाचार्य ने यह सिद्धान्त स्थिर किया है कि परब्रह्म स्वाभाविक अनन्त कल्याणगुणगणों से सदा युक्त है । तव वह सगुण है । परब्रह्म का जढ और जीव के साथ भेदाभेद है । श्रीभास्कराचार्य के से इस मत में यह अन्तर है कि श्रीभास्कराचार्य के मत में जीव और ब्रह्म में अभेद स्वाभाविक एवं भेद औपाधिक है । श्रीयादवप्रकाशाचार्य के मत में जीव और ब्रह्म में भेद और अभेद दोनों स्वाभाविक हैं कोई भी औपाधिक नहीं है । यादवप्रकाशाचार्य का यह कथन है कि जिस प्रकार उपनिषदों में जीव जड और ब्रह्म में भेदाभेद वर्णित हैं, उसी प्रकार जीव और ब्रह्म में भी भेदाभेद वर्णित हैं । इनको एक प्रकार से मानना चाहिये । सबको स्वाभाविक मानना चाहिये, किसी को भी औपाधिक नहीं मानना चाहिये । इस विवेचन से यही सिद्ध होता है कि ब्रह्म स्वभावतः ही जड से भिन्न एवं अभिन्न है, तथा स्वभावतः ही जीव से भिन्न एवं अभिन्न है । अभेद दृष्टि से विचारने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि समस्त कल्याणगुण युक्त ब्रह्म ही देव मनुष्य तियकू स्थावर नारकी स्वर्गी एवं मुक्त इत्यादि रूप से विविध जीव बनकर रहता है तथा इतने से विलक्षण बनकर भी रहता है तथा वही परब्रह्म जड पदार्थ से भिन्न बनकर आकाश इत्यादि विविध दोषमय परिणामों को प्राप्त करता रहता है तथा जड पदार्थ से विलक्षण बनकर भी रहता है । इस
।.[[२६]]
प्रकार जड और ब्रह्म में तथा जीव और ब्रह्म में स्वाभाविक रूप से भेद और अभेद सिद्ध होते हैं । यही श्रीयादवप्रकाशाचार्य का मत है। इस मत में भी ब्रह्म सगुण जगत् सत्य फलित होता है । बद्ध मुक्त व्यवस्था एवं शिष्याचार्य व्यवस्था इत्यादि का सांगत्य सिद्ध होता है ।
मूलम्
अन्ये पुनर् ऐक्यावबोधयाथात्म्यं वर्णयन्तः स्वाभाविकनिरतिशयापरिमितोदारगुणसागरं ब्रह्मैव सुरनरतिर्यक्स्थावरनारकिस्वर्ग्यपवर्गिचेतनेषु स्वभावतो विलक्षणम् अविलक्षणं च वियदादिनानाविधमलरूपपरिणामास्पदं चेति प्रत्यवतिष्ठन्ते ।