विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं-विध-चिद्–अ-चिद्-आत्मक- प्रपञ्चस्य
+उद्भव-स्थिति-प्रलय–
संसार-निर्वर्तनैक-हेतु-भूतः
rAghavAchAr
This world, of the aforesaid nature, consisting of spiritual and physical entities, has the supreme Spirit, as the ground of its origination, maintenance, destruction and of the liberation of the individual from transmigratory existence.
rAjagopAla
The Inner Ruler
Immortal is Bhagavan Narayana who. as Purushottama, is different from all else. He is the sole cause of the origin, continuance and dissolution of the Universe of sentient and non-sentient things described above, as also of granting release from samsara.
नीलमेघः
आगे यह जिज्ञासा उठती है कि श्रुति स्मृति इतिहास और पुराणों में अन्तर्यामिस्वरूप किस प्रकार वर्णित है । उपर्युक्त जिज्ञासा को शान्त करने के लिये श्रीरामानुज स्वामी जी अन्तर्यामिस्वरूप का वर्णन करते हैं । प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से प्रतीत होने वाला यह प्रपञ्च चेतन और अचेतन पदार्थों से परिपूर्ण है । इस प्रपञ्च में अनन्त चेतनपदार्थ तथा प्रकृति परिणामभूत अनन्त अचेतनपदार्थ भरे रहते हैं । अन्तर्यामी श्रीभगवान् ही उपयुक्त चेतनाचेतनमय प्रपञ्च की सृष्टि स्थिति और प्रलय करते हैं अतएव वे जगत्कारण कहलाते हैं । वे जगत्कारण हैं, इतना ही नहीं, किन्तु इन बद्ध चेतनों को संसार से छुड़ाकर आनन्दमय मोक्षपद में पहुँचाने वाले भी वे ही हैं । अतएव वे मोक्षप्रद कहलाते हैं।
मूलम्
एवंविधचिदचिदात्मकप्रपञ्चस्योद्भवस्थितिप्रलयसंसारनिर्वर्तनैकहेतुभूतः
विश्वास-प्रस्तुतिः
समस्त-हेय-प्रत्यनीकानन्तकल्याणतया च
स्वेतर-समस्त-वस्तु-विलक्षण-स्वरूपो
ऽनवधिकातिशयासंख्येय-कल्याण-गुण-गणः
rAghavAchAr
He, the supreme One, is unique, transcending in character every other entity, because his nature is opposed to all evil and is of the sole nature of supreme bliss. He is the abode of countless auspicious attributes unsurpassed in their perfection.
rAjagopAla
His nature is different from that of all things other than Himself by virtue of His being at variance with all imperfections and by virtue of His being the home of infinite bliss. He possesses hosts of infinite and countless. auspicious qualities.
नीलमेघः
साथ ही सभी वस्तुओं से विलक्षण भी हैं । श्रीभगवान् से व्यतिरिक्त जितने पदार्थ हैं उन सबसे श्रीभगवान् अत्यन्त विलक्षण हैं । जगत् में जितने जड़पदार्थ हैं, उनमें विकार इत्यादि दोष रहते हैं, इस जगत् में जितने चेतन हैं उनमें दुःख इत्यादि दोष रहते हैं । श्रीभगवान् एक ही ऐसे पदार्थ हैं जो सभी दोषों से सदा रहित रहते हैं, तथा आश्रितों के [[१८]] सभी दोषों को दूर करते रहते हैं । इस दृष्टि से श्रीभगवान् सर्वपदार्थों से विलक्षण सिद्ध होते हैं। किंच, श्रीभगवान् अनन्त आनन्द के भण्डार होते हुये आश्रितों को अपार आनन्द देने वाले हैं। इस दृष्टि से भी श्रीभगवान् सर्वविलक्षण सिद्ध होते हैं । अनन्त ज्ञानानन्द ही श्रीभगवान् का स्वरूप है। किंच, श्रीभगवान् में ऐसे २ कल्याणगुण विद्यमान हैं जिनसे श्रीभगवान् का उपास्यत्व एवं प्राप्यत्व सिद्ध होता है । वे सभी गुण जगत् का कल्याण करने वाले हैं । अतएव कल्याणगुण कहलाते हैं । वे गुण असंख्य हैं, तथा श्रीभगवान् में वे पराकाष्ठा में पहुँचे हुये हैं ।
मूलम्
समस्तहेयप्रत्यनीकानन्तकल्याणतया च स्वेतरसमस्तवस्तुविलक्षणस्वरूपो ऽनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणगणः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वात्म–पर-ब्रह्म–पर-ज्योतिः–
पर-तत्त्व–परमात्म–सद्–आदि-शब्द-भेदैर्
निखिल-वेदान्त-वेद्यो
भगवान् नारायणः
पुरुषोत्तम
इत्य् अन्तर्यामि–स्व-रूपम् ।
rAghavAchAr
He is Bhagavan Narayana, the highest Spirit. He is presented by the entire Vedanta, through variations of terminology as the ‘Soul of all’, ‘Highest Brahman’, ‘Highest Light’, ‘Highest Reality’, ‘Highest Self’ and ‘Being’. Such is the nature of the inner Controller.
rAjagopAla
He is referred to in all the Upanishads in varied terms like sarvatma (the Universal Soul), Parabrahman (the Supreme Brahman), Parajyotis (the Supreme Light or Splendour), Paratattva (the Supreme Truth), Paramatma (tho Supreme Spirit) and Sat (Reality).
नीलमेघः
अन्तर्यामी श्रीभगवान् सम्पूर्ण उपनिषदों का प्रधान प्रतिपाद्य अर्थ हैं । उपनिषदों में विभिन्न शब्दों से इनका वर्णन पाया जाता है । उनमें कई साधारण शब्द हैं, तथा कई विशेष शब्द हैं । “सर्वात्मा, परब्रह्म परज्योतिः, परतत्त्व परमात्मा, सत्” इत्यादि शब्द साधारण शब्द हैं । ये शब्द प्रकरण आदि के अनुसार श्रीभगवान् के प्रतिपादक होते हुये भी दूसरे अर्थों को बतलाने में भी क्षमता रखते हैं । अतएव ये शब्द साधारण शब्द माने जाते हैं । “भगवान् नारायण और पुरुषोत्तम” इत्यादि विशेष शब्द हैं । ये शब्द एकमात्र श्रीभगवान् के वाचक हैं । अतएव ये शब्द विशेष शब्द माने जाते हैं । उपनिषदों में उपरिनिर्दिष्ट सामान्य शब्द एवं विशेष शब्दों से श्रीभगवान् ही प्रतिपादित है ।
अन्तर्यामी श्रीभगवान् सबका आत्मा है अतः वे सर्वात्मा कहलाते हैं । वे सबसे बड़े एवं सबको बढ़ाने वाले हैं । इसलिये वे परब्रह्म कहलाते हैं । वे अपार तेज से सम्पन्न हैं, इसलिये परज्योति कहे गये हैं । वे श्रेष्ठतत्त्व हैं, अतएव परतत्त्व कहे जाते हैं । वे सबके अन्दर रहने वाले अन्तरात्मा हैं । उनके अन्दर रहने वाला कोई दूसरा आत्मा नहीं है । इसलिये परमात्मा कहे गये हैं । वे सदा विद्यमान होने से सत् कहलाते हैं । वे निर्दोष एवं षड्गुणसम्पन्न हैं । इसलिये वे भगवान् कहे जाते हैं ।
लीलाविभूति भोगविभूति एवं उनमें विद्यमान सभी चेतनाचेतनपदार्थ नार कहे जाते हैं इन पदार्थों का आधार नियामक और स्वामी होने के कारण श्रीभगवान् नारायण कहे जाते हैं ।
बद्ध एवं मुक्तपुरुषों से श्रीभगवान् अत्यन्त विलक्षण हैं । अतएव वे पुरुषोत्तम कहे जाते हैं ।
इस प्रकार सभी उपनिषदों में विविध शब्दों के द्वारा श्रीभवान् वर्णित है । ये श्रीभगवान् ही सबके अन्दर रहकर सबको नियमन करते रहते हैं । अतएव वे सर्वेश्वर एवं सर्वान्तर्यामी कहलाते हैं । इस प्रकार उपनिषदों में अन्तर्यामिस्वरूप वर्णित है ।
मूलम्
सर्वात्मपरब्रह्मपरज्योतिःपरतत्त्वपरमात्मसदादिशब्दभेदैर् निखिलवेदान्तवेद्यो भगवान् नारायणः पुरुषोत्तम इत्य् अन्तर्यामिस्वरूपम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्य च वैभव-प्रतिपादन-पराः श्रुतयः
स्वेतर-समस्त-चिद्–अ-चिद्–वस्तु-जातान्तरात्मतया निखिल-नियमनं
तच्-छक्ति–तद्-अंश–तद्-विभूति–
तद्-रूप–तच्-छरीर–तत्-तनु–प्रभृतिभिः शब्दैस्
तत्-सामानाधिकरण्येन च
प्रतिपादयन्ति ।
rAghavAchAr
The Vedas devoted to the exposition of his glory, expound the fact that he controls all entities, sentient as well as non-sentient, as their indwelling self. (They do it in two ways): —
(1) They describe them as his ‘power’, ‘part’, ‘splendour’, ‘form’, ‘body’ and ‘organism’ and through such other terms.
(2) They also affirm the oneness of these entities with him.
rAjagopAla
In their attempt to explain His greatness. the Srutis (Vedantic texts) refer to the world in phrases like tacchakti (His power), tadamsa (a fragment or portion of His), talvibhuti, (His magnificence), tadrupa (His form), taccharira (His body), tattanu (His body) and so also by co-ordinating Him with the world because He controls it by being the inmost soul of all things, sentient and non-sentient.
NOTE:-Samanadhikaranya. When two things are put in grammatical apposition with each other, there is said to be Samanadhikaranya between them. In the famous Upanishadic text That Thou art, That and Thou are in apposition or coordination with each other.
When we say “Janaka is the king”, Janaka and the king are put in coordination with each other. Two words having different meanings are employed to describe the same object.
In the text, “That Thou art” addressed to Svetaketu, That and Thou are used in co-ordination or grammatical apposition with each other.
According to Ramanuja, That refers to the Supreme Being who creates, sustains and destroys all things; Thou refers to the Supreme Being, the Inner Ruler who controls the soul of Svetaketu from within.+++(5)+++
The meaning of the text is, therefore, as follows —
“The Supreme Being who is the Lord of the Universe is, O Svetaketu, the Inner Ruler who is the soul of your soul”.
Ramanuja argues thus: When we say ‘Svetaketu’, we refer not only to the bodily form of Svetaketu but to the soul of Svetaketu as well. The signification of the term does not stop there. It refers also to the Supreme Being who is the soul of Svetaketu’s soul and of whom Svetaketu’s soul is the body, Sankara, on the other hand, maintains that samanadhikaranya or appositional use or coordination of words expresses identity between the two things. “That Thou Art” means, according to him, the identity of the individual self with the Supreme Spirit.
नीलमेघः
[[१६]]
उपनिषदों में भेदश्रुतियों से सिद्ध होता है कि चेतन अचेतन और ईश्वर भिन्न २ पदार्थ हैं । घटकश्रुतियों से यह सिद्ध होता है कि चेतनतत्त्व और अचेतनतत्त्व ईश्वर का शरीर हैं। ईश्वर इनका आत्मा है । इनमें शरीरात्मभाव सम्बन्ध है । ये चेतनाचेतनपदार्थ ईश्वर पर आधारित हैं, ईश्वर के नियमन में रहते हैं, ईश्वर के लिये बने हुये हैं । इसलिये ये ईश्वर का शरीर माने जाते हैं । ईश्वर इनके आधार नियामक एवं स्वामी हैं । अतएव वे इनकी आत्मा कहे जाते हैं। लोक में भी शरीरशब्द एवं आत्मशब्द इस अर्थ को लेकर ही प्रयुक्त होते हैं । लोक में देखा जाता है कि शरीरवाचक देव मनुष्य आदि शब्द उन शरीरों में रहने वाले आत्मा तक के वाचक होते हैं। जिस प्रकार जाति व्यक्ति का आश्रय लेकर तथा गुण द्रव्य का आश्रय लेकर बने रहते हैं, उसी प्रकार शरीर भी आत्मा का आश्रय लेकर बना रहता है । जिस प्रकार जाति व्यक्ति को छोड़कर रह नहीं सकती, गुण द्रव्य को छोड़कर रह नहीं सकता, उसी प्रकार शरीर भी आत्मा को छोड़कर उसी रूप में रह नहीं सकता । जिस प्रकार जाति सदा व्यक्त्याश्रित वस्तु होने के कारण ही जातिवाचक गवादि शब्द जाति को बतलाते हुये जात्याश्रय गवादि व्यक्ति का बोध कराते हैं, गुण द्रव्याश्रित बस्तु होने के कारण गुणवाचक नील इत्यादि शब्द गुणों को बतलाते हुये गुणाश्रय द्रव्य तक का बोध कराते हैं । उसी प्रकार देहवाचक देव मनुष्य आदि शब्द भी उन देहों को बतलाते हुये उनके अन्दर आत्मा के रूप में अवस्थित जीवों तक का बोध कराते हैं देव सुखी हैं, मनुष्य जानता है इत्यादि प्रयोगों में यह बात देखने में आती है । जगत् में जितने चेतनाचेतनपदार्थ हैं, वे सब श्रीभगवान का शरीर हैं । श्रीभगवान् इनकी आत्मा हैं । ऐसी स्थिति में यह मानना होगा कि चेतनाचेतनवाचक शब्द भी उनके अन्तरात्मा श्रीभगवान् तक का बोध कराने में क्षमता रखते हैं । परब्रह्म परमात्मा सम्पूर्ण चेतनाचेतनपदार्थों की अन्तरात्मा हैं । इस बात को बतलाने के लिये अभेदश्रुतियाँ प्रवृत्त हैं । “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” “तत्त्वमसि” इत्यादि अभेदश्रुतियाँ हैं । इनका अर्थ यही है कि इस सम्पूर्ण जगत् का अन्तरात्मा ही ब्रह्म है, तथा समक्षउपस्थित चेतन का अन्तरात्मा जगत्कारण ब्रह्म है । इन अभेदश्रुतियों का भी श्रीभगवान् के वैभव का प्रतिपादन करने में ही तात्पर्य हैं। ये श्रुतियाँ यही बतलाती हैं कि श्रीभगवान् इन चेतनाचेतनपदार्थों के आधार नियामक एवं स्वामी हैं । ये पदार्थ श्रीभगवान् के द्वारा धार्य एवं नियाम्य शेषवस्तु हैं । इस प्रकार श्रीभगवान् की महिमा ही इन श्रुतियों से बतलाई जाती है । इस महिमा को बतलाने के लिये प्रवृत्त श्रुतियों ने दोनों पद्धतियों को अपनाया है । (१) अभेदनिर्देश की पद्धति है और (२) भेदनिर्देश की पद्धति है । “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” “तत्त्वमसि’ इत्यादि अभेदनिर्देश इसी महिमा को व्यक्त करते हैं । तथा निम्नलिखित भेदनिर्देश भी इसी महिमा को व्यक्त करते हैं । विभिन्न वचनों में यह बतलाया गया है कि यह जगत् श्रीभगवान् की शक्ति है, श्रीभगवान् का अंश है, श्रीभगवान् की विभूति है, श्रीभगवान् का रूप है श्रीभगवान् का शरीर है, एवं श्रीभगवान् को तनु है इत्यादि । यहाँ पर ये वचन ध्यान देने योग्य हैं कि
(१) “परस्य ब्रह्मणः शक्तिस्तयेदमखिलं जगत्” अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत् परब्रह्म की शक्ति है । [[२०]]
(२) “विष्णोरंशा द्विजोत्तम” अर्थात् हे द्विजोत्तम ? ये पदार्थ श्रीविष्णु के अंश हैं ।
(३) “विष्णोरेता विभूतयः” अर्थात् ये सभी पदार्थ श्रीविष्णु की विभूतियाँ हैं ।
(४) “परस्य ब्रह्मणो रूपम्” यह जगत् परब्रह्म का रूप है ।
(५) “जगत् सर्वं शरीरं ते” हे श्रीभगवन् ? सम्पूर्ण जगत् आपका शरीर है ।
( ६ ) “तत् सर्वं वै हरेस्तनुः” सम्पूर्ण जगत् श्रीभगवान् की तनु अर्थात् शरीर है ।
( ७ ) “तानि सर्वाणि तद्वपुः " ये सब पदार्थ श्रीभगवान् का शरीर हैं ।
इन वचनों से उपर्युक्त अर्थ सिद्ध होते हैं । कारण अपनी शक्ति के द्वारा कार्य को उत्पन्न करता है, श्रीभगवान् इन चेतनाचेतनपदार्थों के द्वारा कार्यों को उत्पन्न करते हैं । अतएव ये पदार्थ श्रीभगवान की शक्ति कहलाते हैं । परब्रह्म सदा चेतनाचेतनपदार्थों से विशिष्ट रहता है, ये पदार्थ परब्रह्म में विशेषण के रूप में निविष्ट रहते हैं । विशेषण विशिष्ट वस्तु का अंश है । अतएव ये पदार्थ परब्रह्म के अंश कहे जाते हैं । ये पदार्थ सदा श्रीभगवान् के नियमन में रहते हैं । इसलिये उनकी विभूति कहे गये हैं । श्रीभगवान् इन पदार्थों के अन्दर व्याप कर इनके नियामक बने रहते हैं, ये पढ़ार्थ उनके द्वारा व्याप्य एवं नियाम्य हैं । इसलिये शरीर कहे जाते हैं । इन भेदनिर्देशों से ईश्वर की उपर्युक्त महिमा ही सिद्ध होती है । अभेदनिर्देशों से चेतनाचेतनपदार्थों को ईश्वर के प्रति शरीर के रूप में अत्यन्त परतन्त्रता ही सिद्ध होती है । इससे ईश्वर की परमस्वतन्त्रता और जगत् की अत्यन्त परतन्त्रता सिद्ध होती है, तथा ईश्वर की अपार महिमा फलित होती है ।
सारांश यह है कि भेदश्रुतियों से चेतन अचेतन और ईश्वर में भेद सिद्ध होता है । घटकश्रुतियों से चेतनाचेतनपदार्थ और ईश्वर में शरीरात्मभावसम्बन्ध सिद्ध होता है । जिस प्रकार शरीर और आत्मा में भेद रहने पर भी शरीरात्मभाव के कारण शरीर को विशेष एवं आत्मा को विशेष्य मानकर शरीरविशिष्ट आत्मा एक कहा जाता है, उसी प्रकार चेतनाचेतन प्रपञ्च और परमात्मा में भेद रहने पर भी इनमें शरीरात्मभाव सम्बन्ध होने के कारण चेतनाचेतनों को विशेषण एवं परमात्मा को विशेष्य मानकर चेतनाचेतनविशिष्ट परमात्मा एक माने जाते हैं । यही विशिष्टाद्वैत है । यही अर्थ अभेदश्रुतियों से सिद्ध होता है । सभी श्रुतियों का समन्वय करने पर यही मथितार्थ निकलता है कि नित्यनिर्दोष कल्याणगुणनिधि अनन्त ज्ञानानन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा पुरुषोत्तम श्रीमन्नारायण भगवान् चेतनाचेतनपदार्थों का धारण एवं नियमन करते हुये तथा इनसे आनन्द लेते हुये सदा इनकी अन्तरात्मा बनकर इनसे सदा युक्त रहते हैं । सभी श्रुतियाँ मिलकर इसी महिमा का वर्णन करती हैं ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने सभी श्रुतिस्मृति इतिहास और पुराणों के द्वारा प्रमाणित होने वाले अपने मत का वर्णन कर एक प्रकार से प्रथममङ्गलाचरण श्लोक की व्याख्या की है ।
मूलम्
अस्य च वैभवप्रतिपादनपराः श्रुतयः स्वेतरसमस्तचिदचिद्वस्तुजातान्तरात्मतया निखिलनियमनं तच्छक्तितदंशतद्विभूतितद्रूपतच्छरीरतत्तनुप्रभृतिभिः शब्दैस् तत्सामानाधिकरण्येन च प्रतिपादयन्ति ।