०४ जीवात्म-स्वरूपम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवात्मनः स्वरूपं
देव-मनुष्यादि-प्रकृति-परिणाम-विशेष-रूप–
नाना-विध–भेद-रहितं
ज्ञानानन्दैक-गुणम्।

rAghavAchAr

1. The essential nature of the individual self is devoid of the manifold distinctions pertaining to the various modifications of material nature constitutive of the bodies of the various kinds like heavenly and human.
It has only knowledge and bliss as its attributes.

rAjagopAla

The soul of the Jiva, in its real nature, has none of the varied differences arising from the specific modifications of Prakriti or matter, such as gods and men and has knowledge and bliss alone as its attributes.

नीलमेघः

यहाँ पर यह जिज्ञासा होती है कि श्रुति स्मृति इतिहास और पुराणों के अनुसार जीवात्मा और परमात्मा का स्वरूप कैसे निर्णीत होता है ? इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिये जीवात्मा और परमात्मा क्रे स्वरूप के विषय में वह निर्णय उपस्थित किया जाता है जो इतिहास पुराणों के अनुसार श्रुत्यर्थ को व्यक्त करने पर बुद्धयारूढ होता है। शास्त्रों में जीवात्मा का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है कि जीवात्मा देहकृत भेद से रहित है । देव मनुष्य पशु मृग पक्षी और स्थावर इत्यादि भेद वास्तव में देह में होते हैं । सभी देह प्रकृति के परिणाम हैं क्योंकि प्रकृति परिणत होती २ अन्त में विविध देहों के रूप को धारण करती है । इन देहों में भेद हैं । देहसम्बन्ध के कारण भले ही भ्रम से आत्मा में ये भेद झलकें परन्तु वास्तव में ये भेद आत्मा में नहीं रहते। जिस प्रकार ऋजु या वक्र काष्ठ में लगी हुई अभि में, काष्ट में अवस्थित ऋजुत्व या वक्रत्व, दिखाई देने पर भी, वास्तव में हैं, नहीं, जिस प्रकार श्वेत स्फटिक में समक्ष में अवस्थित जपापुष्प की लालिमा दिखाई देने पर भी वास्तव में स्फटिक लाल नहीं है किन्तु श्वेत ही है । वैसे ही शरीर में रहने वाले ये भेद अहंकार अर्थात् देहात्मभ्रम के कारण आत्मा में दिखाई देने पर भी वास्तव में आत्मा में ये भेद नहीं होते, ये भेद देहों में रह जाते हैं । इसीलिये शास्त्रों में आत्मा शरीरों में रहने पर भी शरीरकृत भेदों से रहित बतलाया गया है । यहाँ पर ये तीनों श्लोक ध्यान देने योग्य हैं ।

तथात्मा प्रकृतेः सङ्गाद्
अहंमानादिदूषितः ।
भजते प्राकृतान्धर्मान्
अन्यस्तेभ्योऽपि सोऽव्ययः ।। १ ।।

अर्थात् आत्मा देहादि प्राकृत पदार्थों से भिन्न एवं निर्विकार रहने पर भी प्रकृतिसंग के कारण अहंकार इत्यादि दोषों से दूषित होकर प्राकृत धर्मों को अपने ऊपर मान लेता है । उन धर्मों को अपना धर्म मान लेता है ।

पुमान् न देवो न नरो
न पशुर् न च पादपः ।
शरीराकृतिभेदास्तु
भूपते कर्मयोनयः ।।२।।

[[१५]]
अर्थात् हे राजन् ? पुरुष अर्थात् जीवात्मा न देव है, न मनुष्य है, न पशु है, न वृक्ष है । ये सब भेद शरीररूपी आकृति में रहने वाले भेद हैं तथा कर्मजन्य हैं ।

वास्तव में

नायं देवो न मर्त्यो वा न तिर्यक् स्थावरोऽपि वा ।
ज्ञानानन्दमयस्त्वात्मा
शेषी हि परमात्मनः ॥३॥

अर्थात् यह जीवात्मा न देव है, न मनुष्य है, न तिर्यक है, न स्थावर है । यह सब भेद देहगत है ।
आत्मा ज्ञानानन्दमय हैं, तथा परमात्मा की शेष वस्तु है ।
दो प्रकार के भेद दिखाई देते हैं । उनमें एक

इन वचनों से यह सिद्ध होता है कि जीवों में बाह्यभेद है, दूसरा आन्तर भेद है । जीवों में प्रतीत होने वाले देव मनुष्य इत्यादि भेद वाह्यभेद हैं, तथा
। सुखित् दुःखित्व इत्यादि भेद आन्तर भेद हैं। ये दोनों भेद औपाधिक हैं । प्रकृति के परिणाम देह और अन्तःकरण इत्यादि उपाधियों के सम्बन्ध के कारण आत्मा में ये भेद प्रतीत होते हैं । ये औपाधिक आकार आत्मा का स्वरूप नहीं हो सकते, क्योंकि उन उपाधियों के हट जाने पर या नष्ट होने पर ये भेद आत्मा में नहीं प्रतीत होंगे। देह और अन्तःकरण इत्यादि उपाधिसम्बन्ध का कारण कर्म है । पूर्णरीति से कर्म नष्ट होने पर ये उपाधिसम्वन्ध भी नष्ट हो जायेंगे, आत्मा में इन उपाधिसम्बन्धों के कारण होने वाले उपयुक्त भेद भी नहीं रहेंगे । उस समय आत्मा स्वाभाविक रूप में अच्छी तरह से प्रतिभासित होता है । आत्मा ज्ञानानन्दस्वरूप है । यही आत्मा का स्वाभाविक रूप है। आत्मा स्वयंप्रकाश है, इसलिये ज्ञानस्वरूप माना जाता है । स्वयंप्रकाश होता हुआ यह आत्मा अपने लिये अत्यन्त अनुकूलभासित होता रहता है । अतएव सबको अपने प्रति स्वाभाविक प्रेम अनुभूत हो रहा है। अनुकूलभासित होने के कारण आत्मा आनन्दस्वरूप माना जाता है। इनमें ज्ञानस्वरूप सामान्याकार है, आनन्दस्वरूप विशेषाकार है। अनुकूल प्रतीत होने वाला ज्ञान ही आनन्द है । जिस प्रकार दीप स्वयं तेजोद्रव्य है प्रभानामक दूसरा तेजोद्रव्य दीप का आश्रय लेकर रहता है ( बत्ती में चमकने वाला तेज दीप है, बाहर फैलकर विषयों को प्रकाशित करने वाला तेज प्रभा हैं ) उसी प्रकार आत्मा स्वयं ज्ञानानन्दस्वरूप है, तथा आत्मा का आश्रय लेकर एक ज्ञान रहता है जो विषयों को प्रकाशित रहता है ।

आत्मरूपी ज्ञान सदा हृदय में रहता है, उसका आश्रय लेकर रहने वाला दूसरा ज्ञान, इन्द्रियों के द्वारा निकलकर विषयों से सम्बन्ध पाकर विषयों को प्रकाशित करता है। दोनों ज्ञानस्वरूप होने पर भी उनमें यह अन्तर है कि आत्मा बनने वाला ज्ञान धर्मिज्ञान कहलाता है क्योंकि वह दूसरे ज्ञान का आश्रय है । विषयों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान धर्मभूतज्ञान कहलाता है क्योंकि वह ‘आत्मा का आश्रय लेकर रहता है। प्रथम ज्ञान ही प्रत्यक कहलाता है क्योंकि वही " श्रहमहम्" अर्थात् “मैं मैं" ऐसा चमकता है। दूसरा ज्ञान विषयी कहलाता है क्योंकि यही विषयों का ग्रहण करता है । इस प्रकार१६

आत्मा ज्ञानस्वरूप होता हुआ दूसरे ज्ञान को धर्म के रूप में धारण करता है यह दूसरा ज्ञान द्रव्य सुख दुःख इत्यादि विविधरूप में कर्मानुसार परिणत होता रहता है । जब सुख रूप में परिणत होता है तब अनुकूल लगता है जब दुःख रूप में परिणत होता है तब प्रतिकूल लगता है । धर्मभूतज्ञान के ये सुख दुःख इत्यादि परिणाम कर्मकृत हैं, अतएव औपाधिक हैं । जब कर्मरूपी उपाधि पूर्णरीति से नष्ट हो जायेगी, तब धर्मभूतज्ञान के ये परिणाम नहीं होंगे। उस समय धर्मभूतज्ञान अत्यन्तानुकूल आनन्दरूप में ही परिगत होता रहेगा । अतएव कर्मोपाधिरहित मुक्तात्माओं को सदा आनन्द हो प्राप्त होता रहता है । आत्मरूपी धर्मिज्ञान एवं उसका आश्रय लेकर रहने वाले धर्मभूतज्ञान में यह अन्तर है कि दूसरा कर्मानुसार कभी २ प्रतिकूल रूप में भासता हुआ दुःख रूप को धारण करता है, किन्तु आत्मरूपी धर्मिज्ञान सदा अनुकूल रूप में ही भासता रहता है. कभी वह प्रतिकूल रूप में नहीं भासता है । अतएव सबको अपना आत्मा सदा प्रिय ही लगता है । कर्मों के पूर्णरीति से नष्ट हो जाने पर धर्मभृतज्ञान भी सदा के लिये अनुकूल आनन्द रूप में ही अनुभूत होता है । इस विवेचन से स्पष्ट हुआ कि जीवात्मा का स्वाभाविक स्वरूप ज्ञानानन्द है, तथा जीवात्मा का स्वाभाविक धर्म भी ज्ञानानन्द है । यह अर्थ निम्नलिखित वचन से प्रमाणित होता है । वह वचन यह है कि-

निर्वाणमय एवायमात्मा ज्ञानमयोऽमलः ।
दुःखाज्ञानमला धर्माः प्रकृतेस्ते न चात्मनः ॥

अर्थात् आत्मा स्वाभाविक रूप में आनन्दमय है, ज्ञानमय है, तथा निर्मल है। दुःख अज्ञान और मल इत्यादि प्रकृतिधर्म हैं, ये आत्मगत धर्म नहीं है ।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि यह कैसे माना जा सकता है कि देव मनुष्य इत्यादि भेद आत्मा में नहीं हैं क्योंकि प्रत्यक्ष अनुमान और शास्त्र प्रमाण से आत्मा में देव मनुष्य आदि भेद प्रमाणित होते हैं । इस प्रश्न का उत्तर यह है कि शरीरविशिष्ट आत्मा का ग्रहण करने वाले उपर्युक्त प्रमाण आत्मा में औपाधिक देव मनुष्य आदि भेद को बतलाते हैं। शरीर से विलक्षण विशुद्ध आत्मस्वरूप का वर्णन करने के लिये प्रस्तुत शास्त्रवचन यह सिद्ध करते हैं कि आत्मा में देव मनुष्य आदि भेद औपाधिक हैं, आत्मा वास्तव में इन भेदों से रहित है तथा ज्ञानानन्दस्वरूप है, एवं ज्ञानानन्द गुण वाला है ।

मूलम्

जीवात्मनः स्वरूपं देवमनुष्यादिप्रकृतिपरिणामविशेषरूपनानाविधभेदरहितं ज्ञानानन्दैकगुणम्।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैतस्य कर्म-कृत-देवादि-भेदे ऽपध्वस्ते
स्व-रूप-भेदो -
वाचाम् अगोचरः,
स्व-संवेद्यः,
ज्ञान–स्व-रूपम्
इत्य् एतावद् एव निर्देश्यम् ।

rAghavAchAr

When the bodily differentiations born of karma are destroyed,
the essential individuality, indescribable but self-cognised,
can only be represented as of the ‘nature of consciousness (Vi, 1:4:40)’.+++(5)+++

rAjagopAla

When the difference such as exists between gods, men and the like, arising from karma has been destroyed, the difference between one soul (Jiva) and another is not capable of being expressed in words and can only be felt by themselves. Only this much can be said of the soul, that it is of the nature of knowledge or consciousness.

नीलमेघः

आत्मा में दो प्रकार का भेद है । एक देव आदि भेद है जो कर्मकृत देहसम्बन्ध के कारण हुआ करता है। मोक्षदशा में यह भेद नहीं रहता क्योंकि सभी कर्म मोक्षदशा में नष्ट हो जाते हैं, देवादिप्राकृतशरीरसम्बन्ध उस समय नहीं रहता । श्रतएव जीवात्माओं में देवादिभेद मोक्षदशा में नहीं रहता । दूसरा भेद है स्वरूपभेद । यह भेद मोक्षदशा में भी बना रहता है जिस प्रकार स्वर्ण से बने हुये अनेक घट स्वर्ण की दृष्टि से एक से होने पर भी परस्पर भिन्न होते हैं, उसी प्रकार मोक्षदशा में सभी जीवात्मा ज्ञानानन्दस्वरूप होने के कारण एक से होने पर भी परस्पर भेद रखते हैं । मोक्ष में भी प्रत्येक जीव अपने को

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दूसरों से भिन्न ही समझता है । यह नहीं कि मोक्ष में एक जीव अपने को दूसरे से अभिन्न मान लेता हो । मोक्ष में भी प्रत्येक जीव अपने को “अहम” अर्थात् “मैं” ऐसा समझता है, अन्य जीवों को “यह जीव” और “वह जीव” ऐसा समझता है । एक जीव दूसरे जीव को अहं के रूप में नहीं समझता है । इसलिये मानना पड़ता है कि कर्मकृत देवादिभेद नष्ट होने के बाद भी परिशुद्धज्ञानानन्दस्वरूप में पहुँचने के बाद भी जीवात्माओं में स्वरूपभेद बना रहता है । यह भेद देवादि शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि कर्मकृतदेवादिभेद ही देवादि शब्दों से व्यक्त किये जा सकते हैं । यह स्वरूपभेद केवल स्वसंवेद्य है अर्थात् अपनी समझ में ही आने वाला है क्योंकि विशुद्धदशा में पहुँचने के बाद भी प्रत्येक जीव अपने को अहं के रूप में तथा अन्यान्य जीवों को “यह वह" के रूप में समझता है इस प्रकार समझने के कारण ही वह स्वरूपभेद सिद्ध होता है । परिशुद्ध सभी जीवात्मा ज्ञानस्वरूप हैं । ज्ञानस्वरूप कहकर ही उनका निर्देश शब्दों से किया जा सकता है जो परिशुद्धावस्था में पहुँच गये हैं ।

मूलम्

तस्यैतस्य कर्मकृतदेवादिभेदे ऽपध्वस्ते स्वरूपभेदो वाचाम् अगोचरः स्वसंवेद्यः, ज्ञानस्वरूपम् इत्य् एतावद् एव निर्देश्यम् ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच् च सर्वेषाम् आत्मनां समानम् ।

rAghavAchAr

This essential nature is common to all individual selves.

rAjagopAla

This is true of all souls.

नीलमेघः

ज्ञानस्वरूपता सभी जीवों में समानरूप से संगत होती है ।

मूलम्

तच् च सर्वेषाम् आत्मनां समानम् ।