उद्देशः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अ-शेष-जगद्-धितानुशासन–
श्रुति-निकर-शिरसि समधिगतो ऽयम् अर्थः
जीव-परमात्म-याथात्म्य-ज्ञान-पूर्वक-
वर्णाश्रम-धर्मेतिकर्तव्यताक–
परम-पुरुष-चरण-युगल-ध्यानार्चन-प्रणामादिर्
अत्यर्थ-प्रियस् तत्-प्राप्ति-फलः ॥
rAghavAchAr
- The crown of Vedas i.e., The Upanishads, which lays down the good of the whole world, enshrines this truth: A seeker, after first acquiring a true understanding of the individual self and the Supreme and equipped with the performance of the duties pertaining to his station in life, must devote himself to the meditation, worship and adoring salutation of the blessed feet of the supreme Person. This done with immeasurable joy leads to the attainment of the Supreme.
rAjagopAla
- Pre-eminent shines the sage Yamuna by whom was dispelled the darkness of delusion (1) which maintained that Brahman was subject to ignorance or avidya and fell into the bondage of births and deaths (samsara), (2) the delusion which held that Brahman became helpless owing to its connexion with adjuncts other than itself (paraupadhi) and likewise, too, the delusion that Brahman is the seat of imperfections (owing to its evolution into the sentient and the non-sentient world).
NOTE:-In the second sloka, Sri Ramanuja pays his homage to his great Guru, Yamunacharya (otherwise known as Alavandar) who, by his treatises, Atmasiddhi, Samvit Siddhi, Iswara Siddhi, Gitartha Sangraha and the like, refuted the doctrines of rival systems like Advaita by showing that they were against the Srulis and against reason.
In (1) the delusion is that of the Advaitins;
in (2) it is that of Bhaskara, the exponent of one school of Bhedabheda and in
(3) Ramanuja refers to the view of Yadavaprakasa who favoured another school of Bhedabheda.
नीलमेघः
(१) वेद परमप्रमाण हैं । वेद अपौरुषेय हैं वे किसी पुरुष के द्वारा निर्मित नहीं हैं । अतएव वे निर्दोष हैं क्योंकि वक्ता पुरुष के द्वारा ही वाक्य में दोष हुआ करते हैं । वक्ता यदि भ्रम प्रमाद अशक्ति और विप्रलम्भ (प्रतारण करने की इच्छा) इत्यादि दोषों से युक्त हों तो उनके द्वारा उच्चारित वाक्य दूषित एवं अप्रमाण बन जाते हैं वेद का कर्ता कोई नहीं है, अतएव वेद वक्तृदोषों से रहित होने से परमप्रमाण हैं । वेद को श्रुति कहते हैं । “श्रूयते नित्यमिति श्रुतिः " ऐसी व्युत्पत्ति है । वेद सदा सुनने में ही आते रहते हैं, जिस प्रकार आज वेद अध्यापकों से सुने जाते हैं। ऐसा ही सदा होता आया । कभी वेद किसी से निर्मित नहीं हुये । इस प्रकार अपौरुषेय होने के कारण वेद निर्दोष एवं परमप्रमाण हैं ।
।
(२) वेद सम्पूर्ण जगत् के हितों को बतलाने के लिये प्रवृत्त हैं । वे भ्रम को उत्पन्न करने के लिये प्रवृत्त नहीं हुये हैं । अद्वैतसिद्धान्त सिखाता है कि वेद भ्रमों को उत्पन्न करते हैं । उस सिद्धान्त के अनुसार यह सिद्ध होता है कि यह जगत् तथा इसकी सृष्टि स्थिति और प्रलय मिथ्या हैं । इसकी सृष्टि इत्यादि करने वाला सगुण ईश्वर भी मिथ्या है । स्वर्ग और नरक इत्यादि भी मिथ्या हैं । इन फलों को साधने वाले साधन भी मिथ्या हैं क्योंकि ये सब निर्गुण ब्रह्म से व्यतिरिक्त हैं अतएव मिथ्या हैं । मिथ्या अर्थ के विषय में होने वाला ज्ञान भ्रम ही है । उपर्युक्त सभी अर्थ प्रत्यक्ष एवं अनुमान से सिद्ध नहीं हैं किन्तु वेदप्रमाण से ही सिद्ध हैं । इन मिथ्या अर्थों के विषय में ज्ञान कराने वाले वेद अद्वैतसिद्धान्त के अनुसार भ्रम को उत्पन्न करने वाले ही सिद्ध होते हैं । यह अद्वैतसिद्धान्त में बड़ा भारी दोष है । वेदों को भ्रामक मानना वैदिक को उचित नहीं । श्रीसम्प्रदाय वेदों को भ्रामक नहीं मानता । किन्तु यही मानता है कि वेद सम्पूर्ण जगत् के हितों को बतलाने के लिये प्रवृत्त हैं । वे हित ऐसे हैं जो प्रत्यक्ष और अनुमान से विदित नहीं हो सकते, वेदशास्त्र से ही विदित होते हैं वे अलौकिक हैं । वे हित दो प्रकार के हैं (१) उपाय और (२) प्राप्य । इनका सुष्ठु प्रकार से ज्ञान कराने के लिये वेद आविर्भूत हुये हैं । सम्पूर्ण जगत् में रहने वाले नानाप्रकार के अधिकारियों के लिये अपेक्षित उन २ हितों का वर्णन वेद करते हैं । यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि जीवों को परमहित मोक्ष ही है । धर्म अर्थ और काम ये पुरुषार्थ तो अहित ही हैं । इनका वर्णन वेद क्यों करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि सभी अधिकारी एक से नहीं होते । कई अधिकारी प्राचीन वासना के अनुसार इन तीन पुरुषार्थों को ही प्राप्त करना चाहते हैं, वे मोक्ष को नहीं चाहते। ऐसे अधिकारियों के लिये वेद उनका हित मानकर इन तोनों पुरुषार्थों का ही वर्णन करते हैं । क्रम से ये अधिकारी भी उन क्षुद्र पुरुषार्थों से विरक्त होकर मुमुक्षु बन जाते हैं । पुरुषार्थ भोगने के बाद वैराग्य सुदृढ़ हो जाता है । कच्ची अवस्था में उनके लिये हितावह मानकर वेद इन क्षुद्र पुरुषार्थों का वर्णन करता है । यहाँ पर यह दूसरी शङ्का उठती है कि शत्रु को मारने के लिये श्येनयाग वेदों में विहित है । मारण अत्यन्त पाप एवं अहित है । हित को बतलाने के लिये प्रवृत्त होने वाले वेद इस अहित मारण का विधान क्यों करते हैं ? इस शङ्का का समाधान तीन प्रकार से किया जा सकता है । (१)
जिस प्रकार मिठाई इत्यादि देकर [[८]] बच्चों को वश में लिया जाता है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष रूप से शत्रुओं को मारने में उद्य क्त नास्तिक शठ पुरुषों को शास्त्रविश्वासी बनाने के लिये श्येनयाग इत्यादि मारणोपाय वेदों में वर्णित हैं क्योंकि वे नास्तिक, शास्त्रानुसार श्येनयाग इत्यादि करके शत्रु को मारकर कम से कम शास्त्र में विश्वास तो रखने लगते हैं । इस प्रकार वे धीरे २ आस्तिक बन जाते हैं । उनको आस्तिक बनाने के लिये ही वेदों में वे साधन वर्णित हैं । (२) देव और ब्राह्मण इत्यादियों को कष्ट देने वाले दुष्टों को नष्ट करने के लिये श्येनबाग इत्यादि वेदों में वर्णित हैं। (३) श्रीभगवान् के ऐश्वर्य का वर्णन करने के उद्देश्य से श्येनयाग आदि का शास्त्रों में वर्णन है क्योंकि इन कर्मों के भी आराध्य श्रीभगवान् हैं । वे इन कर्मों से आराधित होकर उन फलों का प्रदान करते हैं । यह श्रीभगवान् की महिमा है । इसको बतलाने के लिये ही श्येनयाग इत्यादि वेद में वर्णित हैं । इन समाधानों से व्यक्त होता है कि श्येनयाग इत्यादि भी उन अधिकारियों को हित ही है । इस विवेचन से सिद्ध हुआ कि वेद सम्पूर्ण जगत् के हितों को बतलाने के लिये प्रवृत्त हैं।
(३) सर्वप्रथम वेदों के परमतात्पर्यार्थ को समझना चाहिये । वेद जिस अर्थ को प्रधान रूप
से बतलाने के लिये प्रवृत्त हैं वह अर्थ ही वेदों का परमतात्पर्यार्थ है । वेदों की अनेक शाखायें हैं । प्रत्येक शाखा के अन्त में उपनिषद् है । उपनिषद् वेदपुरुष का शिरःस्थानीय है । उपनिषद् परब्रह्मरूपी परमतत्त्व, तत्प्राप्तिरूपी परमफल एवं तत्साधनरूपी परमहित का वर्णन करने के लिये प्रवृत्त हैं । हम लोगों ने जिन २ शाखाओं का अध्ययन नहीं किया है उन २ शाखाओं में वर्णित अर्थों का प्रतिपादन करने के लिये महर्षियों के द्वारा इतिहास और पुराण रचे गये हैं । सम्पूर्ण वेद शाखाओं उपनिषदों और इतिहास पुराणों को अच्छी तरह से समझ करके ही वेदों के परमतात्पर्यार्थ को समझना चाहिये । इन सबकी विवेचना करने पर यही तात्पर्यार्थ विदित होता है कि साधकों को सर्वप्रथम वेद शास्त्र के अनुसार जीवात्मस्वरूप और परमात्मस्वरूप को समझना चाहिये। यह शास्त्रजन्य ज्ञान साधना की आधार शिला है इसके बाद ही साधन का प्रारम्भ होता है । अद्वैतवादी “तत्त्वमसि’ इस शास्त्र से होने वाले वाक्यार्थज्ञान को ही मोक्षोपाय मानते हैं । यह उचित नहीं क्योंकि शास्त्रजन्य ज्ञान मोक्षसाधन का कारण है, स्वयं मोक्षसाधन नहीं है । इस शास्त्रजन्य ज्ञान के आधार पर मोक्षोपाय अनुष्ठित होता है । वर्णाश्रमधर्मानुष्ठान मोक्षसाधन का अङ्ग है । उससे मोक्षसाधन उत्पन्न एवं पुष्ट होता है । भक्तिरूप को धारण करने वाली ब्रह्मविद्या ही मोक्षसाधन है । इसके उत्पादक एवं संवर्धक वर्णाश्रमधर्म इत्यादि हैं । अद्वैतवादियों ने माना है कि वर्णाश्रमधर्म इत्यादि कर्मानुष्ठान से ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न होती है । विशिष्टाद्वैतवादी यह मानते हैं कि वर्णाश्रमधर्म इत्यादि कर्मानुष्ठान ब्रह्मविद्या को ही उत्पन्न करता है । यह विशेष ध्यान देने योग्य है । भास्कराचार्य ने यह माना है कि ज्ञान और कर्म समान रूप से मिलकर मोक्ष का साधन बनते हैं उनके मत में ज्ञानकर्मसमुच्चय मोक्षसाधन माना जाता है । विशिष्टाद्वैतियों ने यह माना है कि ब्रह्मविद्यारूपी ज्ञान ही मोक्षसाधन है कर्म उसका अङ्ग अर्थात् सहायक है । यह विशेषता भी ध्यान देने योग्य है । अतु ।
श्रीभगवान् के ध्यान अचन और प्रणाम इत्यादि ही मोक्ष के साधन हैं । श्रीभगवान् परमपुरुष कहलाते हैं । वे निर्दोष एवं कल्याणगुणाकर होने से सर्वविलक्षण हैं । श्रीमन्नारायण ही परमपुरुष हैं । स्वामी श्रीमन्नारायण भगवान् के चरणारविन्दद्वन्द्व के विषय में दास जीवों को ध्यान अर्चन और प्रणाम इत्यादि करना चाहिये । तथा कीर्तन और स्मरण इत्यादि भी करना चाहिये । ध्यान मानसकर्म है, नामसंकीर्तन वाचिककर्म है । अर्चन इत्यादि कायिककर्म हैं । ये सब मिलकर मोक्षसाधन हैं । इनमें ध्यान प्रधान है । जिस प्रकार आग्नेय इत्यादि ६ याग मिलकर स्वर्गसाधन बनते हैं, उसी प्रकार ध्यान अर्चन और प्रणाम इत्यादि मिलकर मोक्ष के साधन बनते हैं । जिस प्रकार उन ६ यागों के प्रयाज इत्यादि अङ्ग हैं, उसी प्रकार इनके अ वर्णाश्रमधर्म हैं ।
उपनिषदों में कहीं ब्रह्मज्ञान मोक्षसावन कहा गया है कहीं ब्रह्मध्यान, कहीं ब्रह्म की ध्रुवानुस्मृति, और कहीं ब्रह्म का दर्शन, मोक्षसाधन कहा गया है । श्रीगीता में भक्ति मोक्षसाधन कही गई है । इन सबका समन्वय करना चाहिये । पूर्वमीमांसा वर्णित छागपशुन्याय से इनका समन्वय हो जाता है । मीमांसा में यह निर्णय किया गया है कि “पशुना यजेत” इस वाक्य द्वारा पशु से याग करने के लिये कहा गया है । वहाँ पर यह जिज्ञासा होती है कि वह पशु कौन है । मन्त्रवर्ण में छाग (बकरे) का उल्लेख है । इससे मानना पड़ता है कि वह पशु छाग है । छाग ही सामान्यवाचक पशु शब्द से तथा विशेषवाचक छाग शब्द से निर्दिष्ट हुआ है । इससे फलित होता है कि सामान्य को विशेष में पर्यवसान करना चाहिये । उस न्याय अनुसार प्रकृत में यह मानना चाहिये कि भक्ति ही मोक्षसाधन है । प्रेममिश्रित निरन्तर स्मरणधारा ही भक्ति है । स्मरण ज्ञान है इसलिये यह स्मरणरूपा भक्ति ज्ञान शब्द से कही गई है । यह भक्ति निरन्तर स्मरणरूप तथा ध्यानात्मिका होने के कारण ध्रुवानुस्मृति एवं ध्यान शब्द से कही गई है। बढ़ते २ निरन्तर स्मरण प्रत्यक्षसमानाकार बन जाता है । अतएव उच्च दशा में पहुँची हुई यह भक्ति दर्शन शब्द से कही गई है । इस प्रकार ज्ञान ध्यान वानुस्मृति और दर्शन इत्यादि सामान्य रूपों का पर्यवसान भक्तिरूप विशेष में हो जाता है । इससे यही फलित होता है कि भक्ति ही मोक्षसाधन है । श्रेष्ठ पुरुष के विषय में होने वाली प्रीति तथा उससे होने वाला प्रत्यक्षसमानाकार निरन्तरस्मरण ही भक्ति है । यह भक्ति ही मन में ध्यान रूप में, वाणी में संकीर्तन और स्तुति आदि के रूप में, शरीर में प्रणाम और अर्चन इत्यादि के रूप में अभिव्यक्त होती है । तीनों करणों से प्रकट होने पर भक्ति पूर्ण मानी जाती है । प्रीतिपूर्वक किये जाने के कारण ही ध्यान अर्चन और प्रणाम इत्यादि भक्ति कहलाते हैं । अतः प्रेमपूर्वक इन्हें करना चाहिये । यही मोक्ष का उपाय है। इसका फल भगवत्प्राप्ति है । यही मोक्ष है क्योंकि संसार से छूटकर ही मुक्त भगवद्नुभव का भागी बनता है ।
[[१०]]
मूलम्
अशेषजगद्धितानुशासनश्रुतिनिकरशिरसि समधिगतो ऽयम् अर्थः जीवपरमात्मयाथात्म्यज्ञानपूर्वकवर्णाश्रमधर्मेतिकर्तव्यताकपरमपुरुषचरणयुगलध्यानार्चनप्रणामादिर् अत्यर्थप्रियस् तत्प्राप्तिफलः ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्य जीवात्मनो
ऽनाद्य्–अ-विद्या-संचित-
पुण्य-पाप-रूप–कर्म-प्रवाह-हेतुक–
ब्रह्मादि-सुर–नर-तिर्यक्-स्थावरात्मक-
चतुर्-विध–देह-प्रवेश-कृत–
तत्-तद्-अभिमान-जनितावर्जनीय-भव-भय-विध्वंसनाय
देहातिरिक्तात्म–स्व-रूप–
तत्–स्व-भाव–
तद्–अन्तर्-यामि–परमात्म–स्व-रूप–
तत्-स्व-भाव–
तद्-उपासन–
तत्-फल-भूतात्म-स्वरूपाविर्भाव-पूर्वक+
अन्-अवधिकातिशयानन्द-ब्रह्मानुभव-ज्ञापने प्रवृत्तं हि
वेदान्त-वाक्य-जातम्,
rAghavAchAr
The individual self is subject to beginningless nescience, which has brought about an accumulation of karma, of the nature of both merit and demerit. The flood of such karma causes his entry into four kinds of bodies — heavenly, human, animal and plant beginning with that of Brahma downwards. This ingression into bodies produces the delusion of identity with those respective bodies (and the consequent attachments and aversions). This delusion inevitably brings about all the fears inherent in the state of worldly existence. The entire body of Vedanta aims at the annihilation of these fears. To accomplish their annihilation they teach the following:
(1) The essential nature of the individual self as transcending the body.
(2) The attributes of the individual self.
(3) The essential nature of the Supreme that is the inmost controller of both the material universe and the individual selves.
(4) The attributes of the Supreme.
(5) The devout meditation upon the Supreme.
(6) The goal to which such meditation, leads.
The Vedanta aims at making known the goal attainable through such a life of meditation, the goal being the realization, of the real nature of the individual self and after and through that realization, the direct experience of Brahman, which is of the nature of bliss [[10]] infinite and perfect.
rAjagopAla
This is the gist of the Upanishads whose aim is to impart distinctive knowledge of what is good to the whole world:- Meditation, adoration, obeisance, etc., of the two feet of the Supreme Being, done with intense love, are the means of attaining Him, when they are accompanied by the performance of the duties of one’s varna (caste) and asrama (stage of life) and preceded by a knowledge of the real nature of the Jiva and of the Supreme Being.
नीलमेघः
अब यह विचारना चाहिये कि सम्पूर्ण वेदान्तवाक्य किन अर्थों को बतलाते हैं। विचार करने पर यह निर्णय सम्पन्न होता है कि यह जीवात्मा अनादिकाल से संसार में पड़कर तापत्रय को भोगता आ रहा है । दोषाकर इस जीवात्मा का निर्दोष परमात्मा से ऐक्य हो ही नहीं सकता । जीवात्मा के सांसारिक तापत्रय भोगने का यही कारण है कि अनादिकाल से जीवात्मा अविद्या में फँसा रहता है । अविद्या किसे कहते हैं ? श्रीपराशरत्रह्मर्षि ने अविद्या स्वरूप का वर्णन करते हुये यह कहा है कि-
श्रूयतां चाप्यविद्यायाः स्वरूपं कुलनन्दन ।
अनात्मन्यात्मबुद्धिर्या प्रस्वे स्वमिति या मतिः ॥
अर्थात् हे कुलनन्दन विद्या के स्वरूप को सुनो। आत्मव्यतिरिक्त देह आदि प्राकृतपदार्थों में आत्मबुद्धि विद्या है तथा जो वस्तु अपनी नहीं उसको अपना मानना भी अविद्या है । प्रथम अहंकार तथा द्वितीय ममकार कहलाता है । इस अहंकार मम काररूनी अविद्या से ही पुण्यपापरूपी कर्म बनते तथा इकट्ठे होते रहते हैं । शास्त्र कहता है कि “प्रविद्या संचित कर्म” अर्थात् अविद्या से ही कर्म संचित होते हैं ।
यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि भले ही पापकर्म अविद्या से उत्पन्न हों, किन्तु स्वर्ग आदि फल देने वाले पुण्यकर्म अविद्या से कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? वे विद्या से ही उत्पन्न हो सकते हैं क्योंकि देहव्यतिरिक्त आत्मा को समझना विद्या ही है । देहव्यतिरिक्त आत्मा को समझने वाले मनुष्य ही देह नष्ट होने के बाद भी अपनी स्थिति को जानकर मरण के बाद प्रात होने वाले स्वर्ग आदि पारलौकिक फलों को चाह सकते हैं, तथा उनके साधन पुण्यकर्म में प्रवृत्त हो सकते हैं । अतः देहातिरिक्तात्मज्ञानरूपी विद्या से सम्पन्न* वेदार्थसंग्रहः
११
होने वाले पुण्यकर्मों को कैसे अविद्याजन्य माना जाय ? यह प्रश्न है । इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जीवात्मा देहविलक्षण होने के कारण देहात्मज्ञान अविद्या है, वैसे ही स्वतन्त्रात्मज्ञान अर्थात् अपने को स्वतन्त्र मानना भी अविद्या ही है क्योंकि जीवात्मा परमात्मा का परतन्त्र है । जीवात्मा यदि यह समझे-कि मैं अपने लिये बना हूँ, अतएव अपने लिये कार्य करने में मैं अधिकृत हूँ तो यह समझ भी अविद्या ही है क्योंकि जीवात्मा श्रीभगवान् का शेष होने के कारण श्रीभगवान् के लिये बना है, यह जो कुछ करता है उससे श्रीभगवान् लीलारस का आस्वादन करते रहते हैं । स्वतन्त्रात्मज्ञानरूपी एवं स्वार्थभावनारूपी विद्या के कारण ही जीव स्वर्ग आदि फल देने वाले पुण्यकर्मों को करता है । इस विवेचन से सिद्ध होता है कि पुण्यकर्म भी अविद्याजन्य ही है । अस्तु ।
अनादि विद्या से होने वाले पुण्यपापकर्म प्रवाह के फलों को भोगने के लिये जीवात्मा को चार प्रकार के शरीरों में प्रवेश करना पड़ता है । वे चार शरीर ये हैं कि (१) ब्रह्मा इत्यादि देवों का शरीर (२) मनुष्य शरीर (३) पशु मृग और पक्षी इत्यादि तिर्यक् शरीर, और (४) तृण वृक्षलता और गुल्म इत्यादि स्थावर शरीर । इन चार प्रकार के शरीरों में जीवात्मा का कर्मफलस्वरूप प्रवेश होता है । उन २ देहों में प्रविष्ट होते ही जीवात्मा को देहात्माभिमानरूपी अविद्या तथा अस्वकीय वस्तुओं में स्वकीयत्वाभिमानरूपी अविद्या होने लगती है, उससे कर्म उससे देहप्रवेश और उससे अविद्या इस प्रकार चक्र अनादिकाल से चला आता है । इसकी पूर्वावधि देखने में नहीं आती इस चक्र के कारण ही स्व जीवात्मा को विविध सांसारिक ताप भोगने पड़ते हैं । यह तापत्रयानुभव अवर्जनीय है । इसका स्मरण करते ही जीवात्मा को अपार भय होता है । यह सब मिथ्या है ऐसे भले ही सहस्रवार उद्घोषण करें, तब भी यह भय दूर नहीं होता । यह तापत्रयानुभव सम है, मिथ्या मानने मात्र से यह दूर नहीं होगा। इससे भय बना ही रहेगा । यह संसारभय दृष्टरीति से नहीं मिटेगा । यह श्रदृष्ट के द्वारा ही मिटेगा । साधनानुष्ठान से प्रसन्न होने वाले श्रीभगवान् का अनुग्रह ही वह दृष्ट है ।
।
इस सांसारिक तापत्रय से छुटकारा पाने के लिये साधनानुष्ठान की आवश्यकता है । तदर्थ स्वस्वरूप और परस्वरूप इत्यादि के विषय में विशदज्ञान को प्राप्त करना चाहिये । देहातिरिक्त जीवात्मा का स्वरूप ज्ञानानन्दरूप है । श्रीभगवान् का शेष बनकर रहना अर्थात् श्रीभगवान् के लिये बने रहना यही जीवात्मा का स्वभाव है । इन स्वरूप स्वभावों को समझने पर जीवात्मा श्रीभगवान् की उपासना करने के लिये तत्पर हो जायेगा । इस जीवात्मा के भी अन्तरात्मा परमात्मा हैं। कहे जाते हैं । परमात्मा जीवात्मा के धारक नियामक शासक बनकर रहना है । आश्रितसौलभ्य इत्यादि उनके परमात्मा उपास्य बने हैं । इनके न रहने पर वे उपास्य नहीं बन सकते । उपर्युक्त स्वरूप स्वभाव वाले परमात्मा ही प्राप्य है वे सदा से बने बनाये हुये हैं । इसलिये इन्हें सिद्धप्राप्य कहा जाता है ।
उनका कोई आत्मा नहीं है । अतएव वे परमात्मा एवं स्वामी हैं । उनका स्वरूप सबके स्वामी एवं स्वभाव हैं । इन स्वरूप स्वभावों के कारण ही
१२
इनको प्राप्त करने का उपाय उपासन है जो विस्तार से कहा जा चुका है । श्रीभगवान् की प्राप्ति साध्यप्राप्य है क्योंकि यह साधना से सिद्ध होती है । श्रीभगवान् को प्राप्त करने पर जीवात्मा के उस स्वरूप का आविर्भाव होता है जो ससारदशा में तिरोहित था । जीवात्मा का वह स्वरूप तथा परमात्मा का स्वरूप भी एक सा है । अन्तर यही है कि परमात्मा का स्वरूप सदा आविर्भूत रहता है । जीवात्मा का स्वरूप संसारदशा में तिरोहित एवं मुक्ति में आविर्भूत रहता है । यह स्वरूप " प्रपहतपाप्मा विजरो विमृत्युविशोको विजिघित्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः” इस वाक्य के द्वारा प्रतिपादित गुणाष्टक है । इन आटगुणों के विकसित होते ही मुक्त जीव सर्वज्ञ हो जाते हैं तथा उनका संकल्प व्यर्थ नहीं होता । स्वरूपाविर्भाव होते ही ब्रह्मानुभव होने लगता है । वह ब्रह्मानुभव अपार आनन्दरूप बन जाता है क्योंकि ब्रह्म अत्यन्त अनुकूलरूप में अनुभूत होता है । अनुकूलरूप में वस्तु का अनुभव करना ही आनन्द कहलाता है ।
इन अर्थों को अर्थात् देहातिरिक्त आत्मा के स्वरूप और स्वभाव उसके अन्तर्यामी परमात्मा के स्वरूप और स्वभाव उसके उपासन और उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले स्वरूपाविर्भाव एवं आनन्दमय ब्रह्मानुभव को सभी वेदान्तवाक्य बतलाते हैं । इनका प्रतिपादन करने के लिये ही वे प्रवृत्त हैं । इनके प्रतिपादन में ही उनका तात्पर्य है । आगे कई वेदान्तवाक्य उदाहरण रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं ।
मूलम्
अस्य जीवात्मनो ऽनाद्यविद्यासंचितपुण्यपापरूपकर्मप्रवाहहेतुकब्रह्मादिसुरनरतिर्यक्स्थावरात्मकचतुर्विधदेहप्रवेशकृततत्तदभिमानजनितावर्जनीयभवभयविध्वंसनाय देहातिरिक्तात्मस्वरूपतत्स्वभावतदन्तर्यामिपरमात्मस्वरूपतत्स्वभावतदुपासनतत्फलभूतात्मस्वरूपाविर्भावपूर्वकानवधिकातिशयानन्दब्रह्मानुभवज्ञापने प्रवृत्तं हि वेदान्तवाक्यजातम्,
उदाहरणानि
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् त्वम् असि ।
अयम् आत्मा ब्रह्म ।
rAghavAchAr
The passages to this effect may be illustrated by the following: ‘That thou art (Chan. 6:9:4)’; ‘This self is Brahman (Brh. Ar. 6:4:5)’;
नीलमेघः
सर्वप्रथम “तत्त्वमसि’ इस वाक्य को लिया जाय । यह वाक्य ६ प्रकार के तात्पर्यलिङ्गों से युक्त होने के कारण प्रथम लेने योग्य है । यह वाक्य बतलाता है कि जीव ब्रह्मात्मक है, जीव का अन्तरात्मा ब्रह्म है जीव अपने अन्तरात्मा के रूप में परब्रह्म को लिये हुये रहता है । यही जीव का ब्रह्मात्मकत्व है । इस वाक्य में श्वेतकेतु नामक जीवविशेष का ब्रह्मात्मकत्व वर्णित है ।
दूसरा वाक्य है “अयमात्मा ब्रह्म” यह वाक्य उपर्युक्तरीति से सभी जीवों को अर्थात् जीवसामान्य को ब्रह्मात्मक बतलाता है । इस प्रकार अभेद वाक्यों से जीवों का ब्रह्मात्मकत्व सिद्ध है । अभेद वाक्यों का यह बतलाने में तात्पर्य नहीं कि जीव और ब्रह्म का स्वरूपैक्य है । वैसा मानने पर वे भेद श्रुतियाँ बाधित हो जायेंगी जो जीव और ब्रह्म में भेद बतलाती हैं। तथा उन घटक श्रुतियों से भी विरोध उपस्थित होगा जो जीव को शरीर तथा ब्रह्म को आत्मा कहकर इनमें शरीरात्मभाव सम्बन्ध को बतलाती हैं । इसलिये उपर्युक्तरीति से जीव को ब्रह्मात्मक बतलाने में ही अतश्रुतियों का तात्पर्य सिद्ध होता है ।
मूलम्
तत् त्वम् असि ।
अयम् आत्मा ब्रह्म ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
य आत्मनि तिष्ठन्न्
आत्मनो ऽन्तरो
यम् आत्मा न वेद
यस्यात्मा शरीरं
य आत्मानम् अन्तरो यमयति
स त आत्मान्तर्याम्य् अमृतः ।
rAghavAchAr
‘He who dwells in the self, who is in the self, whom the self does not know, whose body this self is, who rules this self from within, that one is your self, the inner Ruler, the Immortal. (Brh. Ar. 5:7)’;
rAjagopAla
“He who is in the soul and within the soul, whom the soul is not aware of, He whose body is the soul (of the Jiva), who controls the soul, that spirit is the Inner Ruler Immortal”. Brh. Up. (5-7—22)
नीलमेघः
जीव और ब्रह्म में शरीरात्मभाव को बतलाने वाली श्रुतियाँ घटकश्रुति मानी जाती हैं । उनको घटकश्रुति मानने का कारण यह है कि वे भेदश्रुति और अभेदश्रुतियों में उपस्थित विरोध को शान्त कर उन्हें परस्पर संगत कर देती हैं । वह घटकश्रुति यह है कि “य आत्मनि तिष्ठन् आत्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स ते आत्मा अन्तर्याम्यमृतः” अर्थात् जो परमात्मा जीवात्मा में रहता है, अन्दर रहता है, जिसे जीव नहीं जाना, जिसका जीवात्मा शरीर है, तथा जो अन्दर रहकर जीवात्मा का नियमन करता है, वही तुम्हारा अन्तरात्मा निर्दोष अन्तर्यामी है । यह वाक्य जीवात्मा को शरीर एवं ब्रह्म
[[१३]] को उसके अन्दर रहने वाला अन्तर्यामी परमात्मा कहता है । इससे जीव और ब्रह्म में शरीरात्मभाव सम्बन्ध प्रमाणित होता है । इससे भेदश्रुति और अभेदश्रुतियों में विरोध शान्त होता है इस जड़शरीर और जीवात्मा में जैसा भेद है, वैसा ही जीव और परमात्मा में भेद है । इसी भेद को भेद श्रुतियाँ बतलाती हैं । शरीर और जीवात्मा में भेद रहने पर भी लोक में यह व्यवहार देखने में आता है कि मनुष्य जानता है, देव सुखी है, इत्यादि । इस व्यवहार में देव मनुष्य आदि शब्द विशेषण के रूप में उन २ शरीरों को बतलाते हुये विशेष्य के रूप में उन २ देहों में रहने वाले जीवात्मा को बतलाते हैं । मनुष्य जानता है इस व्यवहार का यही अर्थ है कि मनुष्यशरीरविशिष्ट आत्मा जानता है। इसी प्रकार देव सुखी है इत्यादि व्यवहार में भी समझना चाहिये । वैसे ही जीववाचक तुम हम इत्यादि शब्द भी जीवविशिष्ट परमात्मा को बतलाने में सामर्थ्य रखते हैं । " तत्त्वमसि’ इत्यादि अभेदवाक्य जीवान्तर्यामी और ब्रह्म में अभेद को बतलाते हुये यह सिद्ध करते हैं कि जीव ब्रह्मात्मक है अर्थात् ब्रह्म को आत्मा के रूप में लिये हुये है । यहाँ एक ही त्वं पद से जीव विशेषण रूप में परमात्मा विशेष्य रूप में अभिहित है । इससे इनमें भेद ही सिद्ध होता है इस तत्त्व को न समझ कर कई वादी भ्रम से यह समझ बैठते हैं कि यह वाक्य जीव और ब्रह्म में अभेद बतलाता है । वैसा मानने पर भेदश्रुति और घटकश्रुतियों से विरोध उपस्थित होगा । इसलिये अभेद श्रुतियों का तार्यार्थ यही सिद्ध होता है कि जीव ब्रह्मात्मक है ।
मूलम्
य आत्मनि तिष्ठन्न् आत्मनो ऽन्तरो यम् आत्मा न वेद यस्यात्मा शरीरं य आत्मानम् अन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्य् अमृतः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष सर्व-भूतान्तरात्मा ऽपहत-पाप्मा
दिव्यो देव एको नारायणः ।
rAghavAchAr
‘He is the inner self of all creatures, free from all imperfections, the divine, the sole God Narayana (Su. 7)’;
rAjagopAla
This (Being) is the innermost soul of all beings, free from all imperfections, resplendent, the same everywhere. He is Narayana”. Subala Upanishad (7).
नीलमेघः
जीवों का अन्तरात्मा परमात्मा कौन देवता है ? इस अर्थ को एक वाक्य बतलाता है । वह यह है कि " एप सर्वभूतान्तरात्मा श्रपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायण.” अर्थात् पापरहित यह सर्वभूतों का अन्तरात्मा दिव्य देव एक नारायण ही है । इस वाक्य से सिद्ध होता है कि नारायणदेव ही अन्तरात्मा है ।
मूलम्
एष सर्वभूतान्तरात्मापहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तम् एतं वेदानुवचनेन
ब्राह्मणा विविदिषन्ति
यज्ञेन दानेन तपसा ऽनाशकेन ।
rAghavAchAr
‘The Brahmanas desire to know this one, through the study of the Vedas, through sacrifices, charity, austerities and fasting (Brh. Ar. 6:4:22)’;
rAjagopAla
“The seers of Brahman long to know Him with the help of the Vedic texts, by the performance of sacrifices (yajna) in accordance with varna and asrama, by charitable gifts, by tapas (meditation) and by freedom from desires. Brh. Up. 6-4-22.
नीलमेघः
वर्णाश्रमधर्मों के अनुष्ठान से ब्रह्मविद्या सिद्ध होती है । इस अर्थ को एक वाक्य बतलाता है । वह यह है कि " तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन” अर्थात् ब्राह्मण वेदाध्ययन यज्ञ दान तपस्या और उपवास इत्यादि के द्वारा ब्रह्मविद्या को प्राप्त करना चाहते हैं । इससे सिद्ध होता हैं कि वेदाध्ययन यज्ञ दान और तपस्या इत्यादि के द्वारा ही ब्रह्मविद्या प्राप्त हो सकती है । ये ब्रह्मविद्या के अङ्ग हैं ।
मूलम्
तम् एतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मविद् आप्नोति परम् ।
rAghavAchAr
‘The knower of Brahman attains the Highest (Tai. 2:1)’;
rAjagopAla
“He who knows Brahman attains the supreme “. (Taittiriya Upanishad).
NOTE :—According to Ramanuja, the word knows (veda) here means adores
नीलमेघः
उपासन ही भगवत्प्राप्ति का उपाय है ।
इस अर्थ को एक वाक्य बतलाता है ।
वह यह है कि “ब्रह्मविदाप्नोति परम्”
अर्थात् ब्रह्म को जानने वाला
अर्थात् ब्रह्म की उपासना करने वाला साधक
परब्रह्म को प्राप्त करता है । इससे सिद्ध होता है कि उपासनरूप ब्रह्मविद्या ही ब्रह्मप्राप्ति का साधन है ।
मूलम्
ब्रह्मविद् आप्नोति परम् ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तम् एवं विद्वान्
अमृत इह भवति
नान्यः पन्था अयनाय विद्यत
इत्यादिकम् ।
rAghavAchAr
‘He who knows him thus attains immortality here. There is no other pathway to this goal (Pu.Suk. 6)’.
rAjagopAla
“He who knows Him in this manner becomes immortal (free from bonds). There is no other way of attaining” (Purusha Suktu), and there are other texts like it.
Note -Knows means worships or adores. Vide Note above.
नीलमेघः
ब्रह्मविद्या को छोड़कर दूसरा कोई साधन नहीं जो ब्रह्म को प्राप्त करा सके। इस अर्थ को एक वाक्य बतलाता है. वह यह है कि “तमेवं विद्वानमृत इह भवति नान्यः पन्था अयनाय विद्यते” अर्थात् यहाँ पर उस परमपुरुष को इस प्रकार जानने वाला अर्थात् उपासन करने वाला साधक मुक्त हो जाता है। इसे छोड़ [[१४]] कर ब्रह्मप्राप्ति के लिये दूसरा कोई साधन नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्मविद्या ही मोक्षसाधन हैं, दूसरा कोई नहीं । इस प्रकार उपनिषदों में अन्यान्य वचन भी हैं जिनसे उपर्युक्त सभी अर्थसिद्ध होते हैं । विस्तार भय से यहाँ पर उनका उल्लेख नहीं किया जाता ।
मूलम्
तम् एवं विद्वान्
अमृत इह भवति
नान्यः पन्था अयनाय विद्यत
इत्यादिकम् ।