विश्वास-प्रस्तुतिः
परं ब्रह्मैवाज्ञं भ्रम-परिगतं संसरति,
तत् परोपाध्य्-आ-लीढं विवशम्, अ-शुभस्यास्पदम् +++(च)+++ इति ।
श्रुति-न्यायापेतं जगति विततं मोहनम् इदं
तमो येनापास्तं स हि विजयते यामुनमुनिः ॥+++(5)+++
rAghavAchAr
Gloriously triumphs the sage Yamuna, who dispelled the delusive darkness filling the world in the shape of doctrines devoid of both scriptural authority and reason maintaining that :—
(a) the highest Brahman itself is bereft of knowledge and is caught up in illusion and hence wanders in the realm of transmigration,
(b) it is conditioned by an alien adjunct and is rendered helpless and that
(c) it has become the seat of evil. (2)
नीलमेघः
आगे द्वितीय श्लोक से श्रीरामानुज स्वामी जी ने गुरूपासनरूप मङ्गलाचरण किया है । यह मङ्गलाचरण कण्ठोक्त है, इससे परपक्षनिरास अर्थसिद्ध होता है । पूर्वार्ध में परपक्षों का उल्लेख तथा उत्तरार्ध में उनका निरास वर्णित है । श्रीशङ्कराचार्य श्रीभास्कराचार्य और श्रीयादवप्रकाशाचार्य के द्वारा जो अर्थ वर्णित हैं, वे सब यहाँ परपक्ष माने जाते हैं । उनका निरास इस श्लोक में है ।
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प्रथमतः श्रीशङ्कराचार्यपक्ष का वर्णन करते हैं कि “परं ब्रह्म वाज्ञं भ्रमपरिगतं संसरति” श्रीशङ्कराचार्य कहते हैं कि परब्रह्म अविद्या से तिरोहित होकर विविधभेददर्शनरूपी अनेक भ्रमों में फँसता जाता है, तत्फलस्वरूप जन्मजरामरण इत्यादि सांसारिक दुःखों को भोगता रहता है इस अर्थ में एक विरोध उपस्थित होता है जो एवकार से सूचित होता है वह यह है कि परब्रह्म का निरूपण करते हुये शास्त्र कहते हैं कि परब्रह्म निर्दोषत्व और कल्याणगुणाकरत्व इत्यादि स्वभावों से सम्पन्न है अतएव वह सर्वविलक्षण है वह परब्रह्म सबके द्वारा आश्रय लेने योग्य है क्योंकि आश्रितों के पाप और ताप को नष्ट करने वाला है तथा आश्रितों को विविध इष्टफलों को देने वाला है । यह परब्रह्म ही यदि अज्ञान में फँस जाय तो जीवों का रक्षक दूसरा कौन हो सकता है ? इस मत में यह विरोध प्रतीत होता है । इसे एवकार सूचित करता है । अस्तु । इस प्रकार शाङ्करमत वर्णित हुआ ।
आगे भास्कराचार्य के मत का वर्णन करते हैं कि “तत् परोपाध्यालीढं विवशम्” भास्कराचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार अखण्ड आकाश घट मठ इत्यादि विविध उपाधियों से युक्त होता है, उसी प्रकार वह परब्रह्म जड़ उपाधियों से सम्बद्ध रहता है । वह उपाधि स्वतः ब्रह्म से भिन्न है तथा सत्य है । अतएव शङ्कराचार्य के द्वारा वर्णित मिथ्याभूत अविद्या से भी वह भिन्न सिद्ध होता है । ऐसे उपाधि से सम्बद्ध होकर वह परब्रह्म विवश अर्थात् कर्मपरवश बन जाता है । यह भास्कराचार्य का मत है ।
आगे यादवप्रकाशाचार्य के मत का वर्णन करते हैं कि “अशुभस्यास्पदम्” यादवप्रकाश यह कहते हैं कि परब्रह्म अंशी है, चित् अचित् और ईश्वर ये तीनों उसके अंश हैं। अंरा और अंशी में भेदाभेद है परब्रह्म का अचेतन के साथ अभेद होने के कारण अचेतन में होने वाले विविध परिणामरूप सभी अशुभ का आस्पद परब्रह्म ही होता है तथा परब्रह्म का चेतन के साथ अभेद होने के कारण चेतन में होने वाले दुःख इत्यादि दोषों का पद भी परब्रह्म बन जाता है । अंश और अंशी में भेदाभेद को मानने के कारण यादवप्रकाश मत में अभेद को लेकर परब्रह्म में सभी दोष उपस्थित होते हैं ।
भास्कराचार्य एवं यादवप्रकाशाचार्य भेदाभेद को मानने वाले हैं। इनमें इतना अन्तर अवश्य है कि भास्कराचार्य यह मानते हैं कि अचेतन और ब्रह्म में भेद और अभेद दोनों स्वाभाविक हैं । चेतन और ब्रह्म में अभेद ही स्वाभाविक है, भेद तो औपाधिक है क्योंकि मोक्ष में चेतन और ब्रह्म में अभेद कहा गया है, अतः उसे स्वाभाविक मानना चाहिये । यादवप्रकाश यह मानते हैं कि अचेतन और ब्रह्म में भेद और अभेद ये दोनों स्वाभाविक हैं, तथा चेतन और ब्रह्म में भी भेद और अभेद ये दोनों स्वाभाविक हैं क्योंकि मोक्ष में चेतन और ब्रह्म में भेद और अभेद श्रुतियों में वर्णित हैं । अतः उन दोनों को स्वाभाविक मानना चाहिये ।
इस प्रकार तीनों परपक्ष वर्णित हुये । श्रीयामुनाचार्य स्वामी जी ने इन तीनों पक्षों का जो खण्डन किया उसका उल्लेख करते हुये कहते हैं कि " इति श्रुतिन्यायापेतं जगति विततं मोहनमिदं तमो येनापास्तम्”[[६]]
ये तीनों पक्ष प्रमाण और तर्कों से शून्य हैं । वेद परमप्रमाण हैं। उनसे इन मतों की सिद्धि नहीं होती । तर्क प्रमाण की सहायता करता है। तर्कों से इन मतों की पुष्टि नहीं होती। इतना ही नहीं, किन्तु ये मत प्रमाण तर्कों के द्वारा खण्डित हैं । इनको काटने वाले प्रमाण और तर्क प्रचुरमात्रा में विद्यमान हैं । इन मतों का खण्डन आवश्यक हो गया है क्योंकि ये मत जगत् में बहुत फैल गये हैं अतः उपेक्षणीय नहीं माने जा सकते ।
प्रमाणतर्कविरुद्ध होने पर भी ये मत अबोध जनता को भ्रम में डालते रहते हैं । ये मत यथार्थज्ञान पर आवरण डालते हैं, तथा अयथार्थज्ञान को उत्पन्न करते रहते हैं । अतः इनके खण्डन को आवश्यक समझकर श्रीयामुनाचार्य स्वामी जी ने सिद्धित्रय इत्यादि ग्रन्थों में इनका खूब खण्डन किया है, तथा इनके प्रचार को बन्द करा दिया है जिससे ये मत सात्विकों से दूर हो गये हैं ।
“स हि विजयते यामुनमुनिः” जिन यामुनाचार्य स्वामी जी ने इन मतों को दूर किया है उन यामुनाचार्य स्वामी जी की जय हो । इस प्रकार जयजयकार मनाते हुये श्रीरामानुज स्वामी जी ने गुरूपासनरूपी मङ्गलाचरण किया है । जिस प्रकार श्रीहनुमान जी ने “जयत्यतिबलो राम.” इत्यादि कहकर श्रीराम लक्ष्मण और सुग्रीव का जयजयकार मनाया है, उसी प्रकार यहाँ श्रीरामानुज स्वामी जी श्रीयामुनाचार्य का जयजयकार मनाते हैं ।
इस प्रकार जयजयकार मनाने से यह व्यक्त होता है कि इस ग्रन्थ में प्रतिपादित सभी अर्थ सम्प्रदाय द्वारा प्राप्त हैं । उक्त्तरीति से श्रीरामानुज स्वामी जी ने दोनों श्लोकों से देवतोपासन तथा गुरूपासनरूप मङ्गलाचरण किया है, तथा साथ ही स्वपक्षस्थापन और परपक्षनिराकरण भी प्रस्तुत किया है । “यस्य देवे परा भक्ति:” इस श्रुतिवचन में इष्टदेव और श्रीगुरु के विषय में भक्ति करने के लिये कहा गया है ।
उसके
श्रीरामानुज स्वामी जी ने दोनों श्लोकों से दोनों पर अपना भक्तिभाव प्रकट किया है ।
मूलम्
परं ब्रह्मैवाज्ञं भ्रमपरिगतं संसरति तत्परोपाध्यालीढं विवशमशुभस्यास्पदम् इति ।श्रुतिन्यायापेतं जगति विततं मोहनम् इदं तमो येनापास्तं स हि विजयते यामुनमुनिः ॥