विश्वास-प्रस्तुतिः
अशेष-चिद्–अ-चिद्-वस्तु-
शेषिणे शेष-शायिने ।
निर्मलानन्त-कल्याण-
निधये विष्णवे नमः ॥
rAghavAchAr
I offer adoration to Vishnu, the all-pervading Supreme Being, who is the overlord of all sentient and non-sentient entities, who reposes on the primordial Shesa, who is pure and infinite and in whom abound blissful perfections. (1)
rAjagopAla
I offer adoration to Vishnu on whom depend all things without exception, sentient as well as nonsentient-Vishnu who reclines on the serpent Sesha and who is free from all imperfections and is, likewise, the treasure-house of auspicious qualities. of all
NOTE :-In this Mangala Sloka, Sri Ramanuja offers his obeisance to his Ishtadevata and, at the same time, implicitly and explicitly states briefly, some of the doctrines of his philosophical system. By stating that all things, sentient and non-sentient, depend upon Vishnu, he refers to what is called Vishnu’s Lila vibhuti, namely, this world of ours with all its variety, which exists for His play or sport. By saying that Vishnu reclines on the serpent Sesha, He hints at the region of eternal glory, which is Vishnu’s Nitya vibhuti. As against Advaitins who hold that Brahman is with out attributes and differentiating features (Bheda), Ramanuja states that Vishnu, who is Brahman, has attributes which are innumerable and auspicious. By the words Aseshachitachit (all sentient and non-sentient things), the author also hints at the existence of many souls and not a single self or aiman, as Advaitins hold. The word Vastu which aseshachitachit qualifies hints at sentient and non-sentient things being real and not illusory as Sankara maintains. By offering his adoration, it may also be inferred that Ramanuja suggests to us the means of attaining Brahman. Sanskrit critics have laid down a rule that the introductory sloka or mangala sloka should give the gist of the book briefly, or at least hint at it.
नीलमेघः
श्रीरामानुज स्वामी जी ने एक समय श्रीवेङ्कटाद्रि में श्रीवेङ्कटनाथ भगवान् की आज्ञा पाकर श्रीभगवान् की सन्निधि में वेद के तात्पर्यार्थों पर प्रकाश डालते हुये एक व्याख्यान दिया था । वही व्याख्यान उत्तरकाल में वेदार्थसंग्रह के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
प्रथम श्लोक से श्रीरामानुज स्वामी जी प्रकृतग्रन्थ की निर्विघ्नपरिसमाप्ति के लिये
स्पष्टरूप में मङ्गलाचरण करते हैं तथा साथ ही प्रतिपाद्य अर्थ का संक्षेप रूप से वर्णन करते हैं। इनमें इष्टदेवतानमस्काररूप मङ्गलाचरण शाब्द है, स्वपक्षस्थापनरूप प्रतिपाद्यार्थ संक्षेप अर्थसिद्ध है ।
अपने पक्ष में प्रतिपाद्य अर्थ दो प्रकार का है। एक उपाय है जिसे साधन कहते हैं । दूसरा उपेय है जो साधन के द्वारा प्राप्य है । नित्यसिद्ध श्रीभगवान् ही वह प्राप्य वस्तु हैं जो प्रथम श्लोक में चतुर्थ्यन्त पदों से निर्दिष्ट है । नमः शब्द से उपाय सूचित होता है । इस प्रकार वे दोनों अर्थ इस श्लोक में निहित हैं ।
इस श्लोक में पूर्वार्ध से यह बतलाया गया है कि परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान् दोनों विभूतियों से युक्त हैं। उत्तरार्ध में “निर्मल” इत्यादि पद से यह बतलाया गया है कि वह श्रीभगवान् दोनों लिङ्गों से युक्त [[२]] हैं ।
श्रीभगवान् निर्दोष हैं, यह एक लिङ्ग है, श्रीभगवान् कल्याणगुणों के निधि हैं, यह दूसरा लिङ्ग है ।
श्रीभगवान् इन उभयलिङ्गों से युक्त हैं ।
‘तत्त्वमसि’ इस उपनिषद् वाक्य का अर्थ करने में आचार्य विभिन्न मत रखते हैं । श्रीरामानुज सम्प्रदाय में उस वाक्य का जिस प्रकार अर्थ किया जाता है, उस पद्धति को सूचित करते हुये श्रीरामानुज स्वामी जी “अशेषचिदचिद्वस्तुशेषिणे" इस प्रथम पद से बतलाते हैं कि श्रीभगवान् लीलाविभूति से युक्त हैं। यह प्रकृतिमण्डल ही लीलाविभूति है। इसमें श्रीभगवान् जीवों के साथ लीला करते हैं । इस लीलाविभूति में अनेक बद्ध चेतन तथा अनेक जड़पदार्थ रहते हैं । ये सभी चेतनाचेतन पदार्थ वस्तु वास्तव में हैं, अतएव पारमार्थिक हैं। इनमें कोई भी मिथ्या नहीं है। श्रीसम्प्रदाय में लीलाविभूति में चेतन और अचेतन ऐसे उभयविध पदार्थों का सद्भाव प्रामाणिक माना जाता है । इससे यादवप्रकाश का चेतनैकान्तवाद अमान्य ठहरता है। यादवप्रकाश का मत यह है कि इस लीलाविभूति में सभी पदार्थ चेतन ही हैं, इनमें एक भी अचेतन नहीं है । लोक में जिन घट इत्यादि पदार्थों को अचेतन कहा जाता है, उनमें भी वास्तव में चैतन्य है । वह अभिव्यक्त नहीं है, इतनी ही विशेषता है । यह नहीं कि उनमें चैतन्य का अत्यन्ताभाव हो । इस वाद को ही चेतनैकान्तवाद कहा जाता है। यहाँ पर श्रीरामानुज स्वामी जी लीलाविभूति में चेतनाचेतन पदार्थों के सद्भाव का वर्णन कर इस बाद को अमान्य ठहराते हैं ।
इन चेतनाचेतन पदार्थों के शेषी श्रीभगवान् हैं। ये पदार्थ उनके शेष हैं। जो वस्तु दूसरे के लिये बनी हो उसे शेष कहते हैं। ये चेतनाचेतन पदार्थ श्रीभगवान् के लिये बने हैं, इनसे श्रीभगवान् को लीलारस मिलता है। ये श्रीभगवान् के शेष हैं । श्रीभगवान् इनके शेषी हैं। इससे सिद्ध होता है कि ये पदार्थ श्रीभगवान् के शरीर हैं, श्रीभगवान् इनके अन्तरात्मा हैं। जो पदार्थ स्वभावतः ही किसी चेतन के प्रति शेष बना हो, उसे शरीर कहते हैं तथा उस चेतन को आत्मा कहते हैं । उदाहरणहमारा यह शरीर स्वभाव से ही हम लोगों के प्रति शेष बनकर रहता है, यह सदा हम लोगों की सेवा करता है, हम लोग इससे अपने मनोरथों को पूर्ण करते रहते हैं। इसी कारण यह शरीर कहलाता है, हम उसकी आत्मा कहलाते हैं । इसी प्रकार सभी चेतनाचेतन पदार्थ परमचेतन श्रीभगवान् के शरीर बनकर उनके मनोरथ एवं संकल्पों को पूर्ण करते रहते हैं, श्रीभगवान् उनके अन्तरात्मा बनकर उनसे लाभ उठाते रहते हैं । इससे सिद्ध होता है कि सभी चेतनाचेतन पदार्थ श्रीभगवान् के शरीर हैं, श्रीभगवान् उनकी अन्तरात्मा हैं । इस प्रकार इन पदार्थों और परमात्मा में शरीरात्मभाव सम्बन्ध फलित होता है ।
लोक में देखा जाता है कि शरीरवाचक शब्द शरीरों को बतलाते हुये उनके अन्दर रहने वाले आत्मा तक को बतलाते हैं । उदाहरण - “मनुष्य जानते हैं देव सुखी हैं” इत्यादि प्रयोगों में देव मनुष्य इत्यादि शब्द तत्तच्छरीरधारी आत्मा तक का बोध कराते हैं क्योंकि आत्मा ही जान सकता है तथा सुख
भोग सकता है । उपर्युक्त उदाहरण से शरीरवाचक शब्दों का आत्मपर्यन्तवाचकत्व सिद्ध होने पर यह [[३]] अनायास सिद्ध हो जाता है कि चेतनाचेतन पदार्थ परमात्मा के शरीर हैं,
अतः चेतनाचेतन पदार्थों के वाचक सभी शब्द उनके अन्तर्यामी परमात्मा तक का बोध कराते हैं ।
“तत्त्वमसि” इस वाक्य में “तत्” शब्द जगत्कारण ब्रह्म को बतलाता है । “त्वम्” शब्द समक्ष उपस्थित चेतन को बतलाता हुआ उसके अन्तर्यामी परमात्मा तक का बोध कराता है। इससे “तत्त्वमसि’ वाक्य का यह अर्थ फलित होता है कि समक्ष उपस्थित चेतन का अन्तरात्मा जगत्कारण ब्रह्म है। इस प्रकार " तत्त्वमसि’ इत्यादि अभेदनिर्देश जीवान्तर्यामी और जगत्कारण ब्रह्म में अभेद को सिद्ध करते हैं, न कि जीव और ब्रह्म में अभेद को सिद्ध करते हैं । इसी प्रकार ही “सर्वं खल्विद ब्रह्म” इत्यादि अभेद निर्देश भी सभी चेतनाचेतन पदार्थों के अन्तर्यामी और ब्रह्म में एकता को सिद्ध करते हैं, न कि चेतनाचेतन पदार्थ और ब्रह्म में एकता को सिद्ध करते हैं। अभेद वचनों का यह निर्वाह श्रीसम्प्रदाय में अभिप्रेत है ।
" अशेषचिदचिद्वस्तुशेषिणे” कहकर श्रीरामानुज स्वामी जी ने सम्प्रदायसिद्ध इस प्रक्रिया को खोला है, साथ ही यह भी बतलाया है कि शङ्कराचार्य और भास्कराचार्य के मत में विभिन्न श्रुतिवाक्यों का सरल निर्वाह नहीं होता है । श्रीशङ्कराचार्य ने जीव और ब्रह्म का अभेद बतलाने वाले वाक्यों का स्वरूपैक्य में तात्पर्य माना है, जड़पदार्थ और ब्रह्म में अभेद बतलाने वाले वाक्यों का स्वरूपैक्य में तात्पर्य न मानकर जड़पदार्थों के बाध में तात्पर्य माना है । उनके मत में सब प्रकार के अभेद वाक्यों में एकसा निर्वाह नहीं सम्पन्न होता है। एकरूप निर्वाह ही न्यायानुमोदित है । भास्कराचार्य में भेद श्रुतियों का एकरूप निर्वाह नहीं होता उन्होंने यह माना है कि जीव और ब्रह्म में भेद को बतलाने वाली श्रुतियाँ औपाधिक भेद को बतलाती हैं, तथा अचेतनपदार्थ और ब्रह्म में भेद को बतलाने वाली श्रुतियाँ स्वाभाविक भेद को बतलाती हैं । श्रीसम्प्रदाय में सभी श्रुतियों का समान रूप से निर्वाह होता है । यही इसका वैशिष्ट्य है ।
(के
मत
है
)
यहाँ पर श्रीरामानुज स्वामी जी ने आरम्भ में “निश्शेष” शब्द का प्रयोग न कर “प्रशेष” शब्द का प्रयोग इस भाव से किया है कि आरम्भ में परममङ्गल भगवद्वाचक अकार का उल्लेख किया जाय ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी प्रथमपद से श्रीभगवान् को लीलाविभूति से युक्त बतलाकर “शेषशायिने” इस द्वितीयपद से यह बतलाते हैं कि श्रीभगवान् भोगविभूति से युक्त हैं । श्रीभगवान् नित्यसूरिश्रेष्ठ श्री आदिशेष पर शयन करते हैं । इसलिये शेषशायी कहलाते हैं । यहाँ शेष शब्द भोगविभूति में विद्यमान पत्नी और परिजन इत्यादि को प्रदर्शित करने के लिये प्रयुक्त हुआ । इससे सिद्ध होता है कि श्रीभगवान् भोगविभूति एवं तत्स्थ सभी नित्य और मुक्तों से सदा युक्त हैं। यह उनका स्वभाव है
।
इस प्रकार दोनों पदों से श्रीभगवान् के उभयविभूति सम्बन्ध को बतलाकर श्रीरामानुज स्वामी जी “निर्मलानन्तकल्यारणनिधये” इस पद से यह बतलाते हैं कि श्रीभगवान् उभयलिङ्गों से सम्पन्न हैं । उनमें एक लिङ्ग है निर्दोषत्व । वह निर्मलपद से बतलाया गया है । श्रीभगवान् को निर्मल इसलिये कहा जाता है कि वे निर्दोष हैं तथा दोषों को नष्ट करने वाले हैं। श्रीभगवान का दूसरा लिङ्ग कल्याणगुणाकरत्व है वह [[४]] “कल्याणनिधि” शब्द से बतलाया गया है । लोक में अनुकूल पदार्थ कल्याण शब्द से अभिहित होता है । प्रतिकूल और उपेक्षणीय पदार्थ कल्याण नहीं कहे जाते । आनन्द ही अनुकूल पदार्थ है, श्रीभगवान् आनन्द के निधि हैं । श्रीभगवान् के सभी गुण अत्यन्त अनुकूल प्रतीत होते हैं । वे भी कल्याण कहे जा सकते हैं । उन कल्याणगुणों के निधि हैं श्रीभगवान् । इसलिये भी वे यहाँ कल्याणनिधि बतलाये गये । साथ ही श्रीभगवान् अनन्त भी हैं। वे त्रिविध परिच्छदों से रहित हैं । इसलिये अनन्त कहलाते हैं । तीन परिच्छेद ये हैं (१) देशपरिच्छेद, (२) कालपरिच्छेद, और (३) वस्तुपरिच्छेद । श्रीभगवान् इन परिच्छेदों से रहित है । वे सभी देशों में हैं, इसलिये देशपरिच्छेदरहित हैं । वे सभी कालों में हैं इसलिये कालपरिच्छेदरहित हैं । वे सभी वस्तुओं में विद्यमान हैं इसलिये वस्तुपरिच्छेदरहित है । इस प्रकार की अनन्तता श्रीभगवान् में ही विद्यमान है, अन्यत्र कहीं नहीं। इस प्रकार श्रीभगवान् के उभयलिङ्गत्व का वर्णन किया गया है।
इस प्रकार वर्णित तत्त्व कौन है ? इस आकांक्षा में श्रीरामानुज स्वामी कहते हैं कि “विष्णवे” । वह तत्त्व श्रीविष्णु है। वे सब पदार्थों के अन्दर अन्तर्यामी के रूप में व्याप्त हैं । लोक और वेदों में जो देवता विष्णु नाम से प्रसिद्ध हैं वे ही उपयुक्त विशेषणों से विशिष्ट प्राप्य परतत्त्व हैं ।
से
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी चतुर्थ्यन्त पदों से प्राप्य वस्तु का निर्देश कर आगे " नमः” कहकर उपाय का निर्देश करते हैं। उपर्युक्तविशेषणविशिष्ट श्रीविष्णुभगवान् को नमस्कार है । यहाँ नमः शब्द भक्ति विवक्षित है । भक्ति से ही नमस्कार होता है । भक्ति ही मोक्ष का उपाय है ।
इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामी जी ने प्रथम श्लोक से इष्टदेवतानमस्काररूप मङ्गलाचरण किया, तथा संक्षेप से स्वपक्ष की स्थापना भी की । इनमें मङ्गलाचरण कण्ठोक्त है, स्वपक्षस्थापन अर्थसिद्ध है ।
मूलम्
अशेषचिदचिद्वस्तुशेषिणे शेषशायिने ।
निर्मलानन्तकल्याणनिधये विष्णवे नमः ॥